डर को कैसे छोड़ें

Acharya Prashant

13 min
655 reads
डर को कैसे छोड़ें

हमरी करो हाथ दै रक्षा॥

पूरन होइ चित की इछा॥

तव चरनन मन रहै हमारा॥

अपना जान करो प्रतिपारा॥

~ चौपाईसाहब (नितनेम)

अर्थात, हे! अकाल पूरक, अपना हाथ देकर मेरी रक्षा करो। मेरी मन की यह इच्छा आपकी कृपा द्वारा पूरी हो कि मेरा मन सदा आपके चरणों में जुड़ा रहे। मुझे अपना दास समझकर मेरा हर तरह प्रतिपालन करो।

प्रश्नकर्ता: मेरा मन भी ऐसे ही पुकार कर रहा है। मगर इस डरे हुए मन और उसमें चल रहे कुविचार का क्या उपाय है? डर को अपने से दूर कैसे रखें? सुरक्षा की तलाश में ही मन रहता है और तरह-तरह के विचार मन में आते रहते हैं। डरे हुए मन का क्या उपाय है?

आचार्य प्रशांत: डर रहेगा, विकास! डर है तभी तो तुम्हें निर्भयता की आस है, डर है तभी तो अध्यात्म है। तुम हो तो डर है, डर रहेगा। डर नहीं रहा तो फिर ये प्रश्न भी नहीं रहेगा और तुम भी नही रहोगे। डर नहीं है तो कोई साधना नहीं, कोई साधक नहीं। कोई यह न पूछे कि "डर से छुटकारा कैसे मिलेगा?" कोई ये न पूछे कि "डर का समूल विनाश कैसे होगा?" समझो!

डर की अपनी एक जगह है और उस जगह पर डर है। ये जीवदेह की विवशता है। बड़ी दुस्सह अनिवार्यता है कि डर का अपना एक अधिकारक क्षेत्र है और रहेगा। तुम उस क्षेत्र को मिटाने की बात नहीं कर सकते; तुम बस ये पूछ सकते हो कि तुम वहाँ कैसे न जाओ, कैसे न रहो। साफ़ से साफ़ घर में भी कुछ जगहें होती हैं जो अशुचितापूर्ण होती है। मंदिरों में भी शौचालय तो होते हैं न? किसी तीर्थ में भी चले जाओ, तो वहाँ कुछ जगहें मिल जाएँगी जो ज़रा दोषयुक्त, दुर्गंधयुक्त होंगी। धरती पर पैदा हुए हो तुम, शरीररूप में। किसी काल्पनिक स्वर्ग की माँग मत करो कि जहाँ न दोष हों, न विकार हों, न अशुचिता हो, न अपवित्रता हो। शरीर को ही देख लो न अपने। रख लो जितना साफ़ रखना है। दोष और विकार और मल तो मौजूद रहते ही हैं। तुम करते रहो माँग वो न मौजूद रहें, वो मौजूद रहेंगे। तुम्हारे अधिकार में इतना ही है कि जब तुम मंदिर जाओ तो, ध्यान देव-प्रतिमा में लगाओ, मल-मूत्र और शौच पर नहीं। मंदिर के प्रांगड़ में भी मल मौजूद है या नहीं? बोलो? किसी मक्खी से पूछो, किसी कौवे से पूछे। वो तुम्हें बताएँगे कि मंदिर के भी कुछ कोने मलिन होते हैं या नहीं होते। कौवे को भी साफ़ पता है कि उसे मंदिर में भी कहाँ जाना है; मक्खी को भी पता है, कीड़ों को भी पता है। पता है न उन्हें?

तुम्हें पता होना चाहिए तुम्हें किधर को जाना है। तुम्हें अगर डरना ही है, तो 'डर' तुम लोगे, डरने की अनेक जगहें मिल जाएँगी, अनेक स्थितियाँ मिल जाएँगी, बहुत कारण मिल जाएँगे। कभी नहीं होने वाला है कि डर की अब कोई संभावना ही नहीं बची। संभावनारूप में डर सदा मौजूद रहेगा, बीजरूप में डर सदा मौजूद रहेगा, विकल्परूप में डर सदा मौजूद रहेगा। तुम ध्यान मत लगाओ डर पर। तुम ध्यान लगाओ किसी सार्थक ध्येय पर। बात समझ रहे हो?

और तुमने ठान ही रखी हो, जीवन के जितने मलिन पक्ष हैं उन पर ही तुम्हें केंद्रित रहना है तो फिर तो तुम्हारा कोई उपचार नहीं है। फिर तो डर में जियो, ग्लानी में जियो, निंदा में जियो।

सृष्टि अनंत है, यहाँ सब कुछ मौजूद है। प्रश्न ये है कि तुम्हारी दृष्टि किस चीज़ पर है। सही चीज़ पर दृष्टि रखोगे तो डर नहीं रहेगा। तुम्हारे लिए नहीं रहेगा, उस समय नहीं रहेगा। दूसरों के लिए हो सकता है तब भी रहे क्योंकि जो डरना चाहता है वो डर ही सकता है। तुम्हारे लिए भी उस समय नहीं रहेगा। पर तुम फैसला बदल सकते हो अगले ही क्षण। अगले ही क्षण तुम चाहो तो फिर डर सकते हो। ये तुम्हारे चुनाव की बात है।

डर से कुछ बहुत ज़्यादा बड़ा होना चाहिए तुम्हारे पास। नहीं तो मन को किसी ओर तो आकृष्ट होना है। वो डर की ओर ही आकृष्ट हो जाएगा।

कहीं न कहीं तो उसको जा करके लिप्त होना है, किसी न किसी विषय से तो मन को जुड़ना है। तुम उसे नहीं दोगे कुछ विराट, सुंदर, साफ़ तो वो जाकर के ऐसे ही किसी ओछी, मैली-कुचैली चीज़ से लिपट जाएगा। कभी डर से लिपटेगा, कभी वासना से लिपटेगा, कभी कुत्साह से लिपटेगा। मन अकेला तो नहीं रह सकता न? बड़ा बुरा है। कुछ न कुछ चाहिए उसको छूने को, पकड़ने को। वो जाके डर को ही थाम लेता है। डर बड़ा मनोरंजक होता है, उसको थाम लो तो उसमें मन लगा रहता है। कभी देखा है? जब डरते हो तो कैसा मन, डर में रम जाता है? अब मन बेचारा खाली है, सूना है, तन्हा है, एकाकी है। उसे कुछ चाहिए था उसने क्या पकड़ लिया? डर!

अब देखो! डर बखूबी अपना काम कर रहा है। जिस उद्देश्य के लिए तुमने डर को पकड़ा था, वो उद्देश्य पूरा हो रहा है। मन का सूनापन बिल्कुल ख़त्म हो गया। सूनेपन में क्या उतर आया? डर। जो तुम चाहते थे वो हुआ, तुम्हारी इच्छा पूरी हुई। अब डर के साथ खेलो, बहुत बड़ा खिलौना है। कभी उसका ये पक्ष देखो, कभी उसके उस पक्ष से छिड़कान करो; कभी ये कल्पना, कभी वो कल्पना; कभी ये अंदेशा, कभी वो आशंका। कोई पूछे, क्या करते हो? तुम बोलो "हम डरते हैं! यही हमारा धंधा है, हम यही करते हैं, हम दिन रात डरते हैं।" खानदानी पेशा है!

ऊब से बचे रहते हो, डर के और डर से ऊबते नहीं। डर से ऊब गए होते तो डर कब का छोड़ दिया होता। डरोगे नही तो बड़े बोर हो जाओगे और जब कोई साधरण वजह नहीं मिलती डरने की, तो डर का ईजाद करते हो। डर का निर्माण करते हो, जाके हॉरर फ़िल्म देख के आते हो। कहते हो "डर आजकल कुछ कम-सा हो गया है चलो रे! भूतिया पिक्चर देखेंगे, पैसे दे के देखेंगे।" शुल्क अदा करके डरेंगे। जानते-भूजते डरेंगे।

डरोगे नहीं तो करोगे क्या? कुछ तो चाहिए न करने को, करने को तो है नहीं कुछ। जिंदगी खाली, बेबस, सुनसान, शमसान। वैसी ही ज़िन्दगी सबकी है। तो तुमने भी क्या शौक पाला? डरने का। और इसने भी क्या शौक पाला? ये तो बढ़िया हो गया न? अब दोनों एक ही क़ायदे में दीक्षित हो गए। अब तुम दोनो एक ही पंथ, समुदाय, सम्प्रदाय के सदस्य हो गए। ये भी डरवादी और ये भी डरवादी। तुमने कहा "हमारी तुम्हारी जात तो बिल्कुल एक है, चलो विवाह कर लेते हैं।" तो देखो डर के चलते तुम्हें साथी भी मिल गया। हम भी डरे थे, तुम भी डरे थे, डर के मारे हमदोनों ने एकदूसरे का हाथ थाम लिया। एक फ़िल्म आयी थी उसका गाना कुछ ऐसा था, ठीक से याद नहीं पर करीब-करीब तो लड़की-लड़का, काली अंधेरी बारिश की रात में गा रहें हैं। क्या गा रहे हैं?

बादल गरजा सिमट गए हम, बिजली कड़की लिपट गए हम।

देखे डर के लाभ? “बिजली कड़की लिपट गए हम।” डर बड़ा लाभप्रद है। दुनिया की निन्यानवे प्रतिशत आबादी डर से आयी है। डर न होता तो कहाँ से आते ये इंसान, ये ख़ानदान। तुम्हें क्या लग रहा है? ये प्रेम से आएँ हैं? डर से आएँ हैं। ऐसे ही आएँ हैं, बिजली कड़की लिपट गए हम। इतने तो फ़ायदे हैं डर के और तुम कह रहे हो "आचार्य जी, डर से मुक्ति कैसे मिलेगी?" मैं कह रहा हूँ "डर हट गया तो तुम्हारा पूरा ये संसार गिर जाएगा, चलेगा ही नहीं।"

लेकिन डर से हटा जा सकता है। मैंने कहा था "डर का अपना एक अधिकारक क्षेत्र है, उस अधिकारक क्षेत्र के बाहर भी बहुत बड़ा स्थान, बहुत बड़ा आकाश है।" चुनाव तुम्हें करना है। डर एक रंग महल है' बड़ा आकर्षक, बड़ा मनोरंजक। उसमें चाहो तो प्रवेश करो, न चाहो तो प्रवेश…

प्रवेश तुम अनायास ही नहीं करते हो, प्रवेश तुम करते हो क्योंकि प्रवेश करने के तुमको फ़ायदे मिलते हैं।

डर कोई तुम्हारी लाचारी, मजबूरी नहीं है, डर तुम्हारा चुनाव है और वो तुम चुनाव करते हो, क्योंकि उससे तुम्हें लाभ है।

और लाभ है! मैं इस बात से इनकार नहीं कर सकता। डर के फ़ायदे बहुत हैं। तुम्हारी सारी सामाजिक व्यवस्था हीं डर पे चलती है। आज डर न हो तो देखो! क्या हो जाए? तमाम उपद्रव होंगे, उत्पात होंगे। आज आम आदमी अगर किसी तरीक़े से सुव्यवस्थित चलता है वो इसलिए थोड़े ही है कि उसके मन में व्यवस्था के प्रति प्रेम या आदर है, डर के कारण ही है। तो डर के फ़ायदे हैं।

डर से बड़ा तुम्हें कोई फ़ायदा मिल गया तो तुम डर पे चलना छोड़ दोगे और डर से बड़ा क्या है? वो तुम्हें खोजना पड़ेगा, ढूंढना पड़ेगा। डर तो है। जिस दिन तुम पैदा हुए समझ लो, डर पैदा हुआ था। तो डर तो है! डर है, डर का महल है, डर का अधिकारक क्षेत्र है। ये सब तो है ही। ये तथ्य हैं तुम्हारे जीवन के, इस पूरे संसार के। ये तो है ही। ये है ही और ये बड़े आकर्षक भी हैं। ये तो हैं हीं। इससे बाहर क्या है? इसको तुम्हें खोजना पड़ेगा, वो मिल गया तो इस महल से हट जाओगे, दूर चले जाओगे। वो नहीं मिला तो इसी महल में जीवन बिताओगे।

देखो! क्या कह रहे हैं, गुरुजन-

हमरी करो हाथ दै रक्षा॥

पूरन होइ चित की इछा॥

तव चरनन मन रहै हमारा॥

अपना जान करो प्रतिपारा॥

ये कह पाने के लिए आवश्यक है कि सबसे पहले तुम्हें ये एहसास तो हो कि जिस घेरे में तुम रह रहे हो, जिस छेत्र में, जिस महल में, उसके बाहर कोई है। उसके बाहर कुछ हो भी सकता है। इसी को आस्तिकता कहते हैं, ये मानना कि तुम्हारी मन की सीमित दुनिया के आगे 'सत्य' है।

उसी को संबोधित किया जा रहा है: "तव चरनन मन रहै हमारा॥" तुम्हारे चरणों में हमारा मन रहे, हम अपने मन को डर महल में नहीं रखना चाहते, हम अपने मन को तुम्हारे पास रखना चाहते हैं। ये कौन है जिसको 'तव', तुम्हारा आदि कहकर सम्बोधित किया जा रहा है? 'वो' तो हम मानते ही नहीं कुछ है। हम कहते हैं "जो कुछ है, वही है जो हमें दिखाई-सुनाई देता है, जिसके बारे में हम सोच सकते हैं, जिसके हमको प्रमाण उपलब्ध हैं, जिस तक हमारी आँखें, हमारा मन पहुँचता है, वही है। अब यहाँ जिसको संबोधित किया जा रहा है, 'वो' कोई और है। अगर तुम्हारी मूल धारणा ही यही हो कि डर का कोई सीमित अधिकारक क्षेत्र नहीं है, कि डर अनंत है, डर का कोई अंत नहीं, डर की कोई सीमा नहीं, तो फिर क्या तुम कहोगे? "मुझे डर से बाहर जाना है।"

ये श्रद्धा तो उठे कि ये सबकुछ जो है, मेरे अंदर-बाहर, इससे बहुत सुंदर, बहुत आगे का 'कुछ' है। मेरी सब धारणाएँ टूट जाएँ, मेरा सारा संसार गिर जाए, मेरी सारी संपदा छिन जाए तो भी जो असली है, वो है! फिर तुम डर को छोड़ सकते हो। फिर तुम 'डर के घर' से बाहर निकल सकते हो, फिर तुम कहते हो "जा रहे हैं, खोजने जा रहे हैं।" यही अध्यात्म है। डर, के अतिरिक्त क्या है? उसकी खोज। डर, के बाहर क्या है? उसका अनुसंधान।

इसीलिए जो आदमी आध्यात्मिक नहीं है, वो बड़ी आसानी से पहचाना और पकड़ा जाएगा। वो डरा-डरा घूम रहा होगा। कभी वो प्रकट तौर पर डरा हुआ होगा, कभी वह प्रछन्न तौर पर। कभी तो साफ़ ही दिख जाएगा कि उसके चेहरे पर हवाईयाँ उड़ रही हैं, तुम कहोगे "बहुत डरा हुआ है, आध्यात्मिक हो ही नही सकता।" और कभी वो चेहरे से बड़ा धीर-वीर, सूरमा बनकर घूम रहा होगा। कह रहा होगा "हम डरते नहीं किसी से!" पर उसका दिल टटोलो तो वहाँ दिखाई देगा कि डर ही धड़क रहा है। तो बहुत खोजबीन नहीं करनी पड़ती। कौन आदमी आध्यात्मिक नहीं है, ये बात तुरन्त ज़ाहिर हो जाती है उसके जीवन के डर से।

पहली बात, अध्यात्म है ही तभी जब तुम डर से ऊब जाओ और दूसरी बात, तुम्हें ये श्रद्धा हो कि डर के बिना भी जिया जा सकता है और तुम नमित हो जाओ। तुम कहो "डर के बिना जीने के लिए जो कीमत देनी पड़ेगी वो देंगे।" इसी नमन को इन शब्दों में साकार किया गया है कि

तव चरनन मन रहै हमारा॥

अपना जान करो प्रतिपारा॥

ये शब्द, वास्तव में एक मूल्य का प्रतिपादन है।

मूल्य ये है कि हम 'निर्भयता' को ऊँची सी ऊँची कीमत, बड़े से बड़ा मूल्य देते हैं। तो निर्भय होने के लिए हम झुकने को तैयार हैं। निर्भय होने के लिए हम सर झुकने के लिए तैयार हैं। निर्भय होने के लिए हम किसी का हाथ थामने को तैयार हैं।

हमरी करो हाथ दै रक्षा॥

पूरन होइ चित की इछा॥

किसी का हाथ थामने को, किसी के सामने झुक जाने को तैयार तुम तभी होगे जब बिल्कुल तंग आ चुके हो, अपने आप से और जब श्रद्धा हो कि जिसका हाथ ले रहे हो उसका हाथ ले करके तर जाओगे। दोनो चाहिए ऊब भी, आस भी। ऊबना बहुत ज़रूरी है, ऐसे नहीं जीना, अब हम ऊब गए और आस भी होनी चाहिए कि ऐसे जैसे जी रहे हैं इसके अलावा भी जीने का कोई ढंग हो सकता है। जिसमें ऊब भी है और आस भी है वो 'तर' गया!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories