हर तरह के डर का आख़िरी इलाज

Acharya Prashant

39 min
1.2k reads
हर तरह के डर का आख़िरी इलाज
आदमी को जितना सिकोड़ देता है, संकुचित कर देता है, डर। बहुत बुद्धि रखने वालों को भी जिन व्यर्थ और नाशकारी रास्तों पर धकेल देता है डर। ये जिन्होंने जीवन को देखा उन्हें साफ दिखा चेतना का जैसे कोई बड़ी बीमारी कैंसर और डर प्राकृतिक नहीं होता है। जो कुछ प्राकृतिक है उससे मुक्ति नहीं हो सकती। जो जीवन मुक्त भी हो गए वो रहे तो देहधारी ही देह प्राकृतिक है। उससे छूटकर कँहा जाओगे? बहुत ज्ञानी हो जाओ, आत्मस्थ जियो तो भी सांस तो चलती रहेगी। बोलोगे तो इसी मुँह से प्राकृतिक यदि होता डर तो दुर्निवार होता। डर प्राकृतिक नहीं होता है। डर प्रतिभासिक होता है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, आचार्य जी मुझे बचपन से ही डर की समस्या है। मैं कॉलेज में भी बहुत डरा रहता था। हर छोटी मोटी बात से डर जाता था। अभी फिलहाल एक साल पहले ही मैंने जॉब करना शुरू किया है और वँहा पर भी जब मुझे अपने बॉस या सीनियर के सामने कोई सही और जायज बात रखनी होती है तब भी मैं डर जाता हूँ। ये डर आखिर है क्या? मुझे आपसे बहुत विस्तार में जानना है क्योंकि मैं बहुत परेशान हूँ और मैंने इसको दूर करने के लिए बहुत सारे उपाय भी किए हैं। बहुत सारी सेल्फ हेल्प किताबें पढ़ी हैं। लेकिन उनसे कुछ लाभ मुझे मिला नहीं। कृपया आप मुझे विस्तार से बताइए कि ये डर, ये डर आखिर क्या है और मैं इससे कैसे निजात पाऊँ?

आचार्य प्रशांत: आदमी को जितना सिकोड़ देता है, संकुचित कर देता है, डर। बहुत बुद्धि रखने वालों को भी जिन व्यर्थ और नाशकारी रास्तों पर धकेल देता है डर। ये जिन्होंने जीवन को देखा उन्हें साफ दिखा चेतना का जैसे प्लेग रैटर या और कोई बड़ी बीमारी कैंसर और डर प्राकृतिक नहीं होता है। जो कुछ प्राकृतिक है उससे मुक्ति नहीं हो सकती। जो जीवन मुक्त भी हो गए वो रहे तो देहधारी ही देह प्राकृतिक है। उससे छूटकर कँहा जाओगे? बहुत ज्ञानी हो जाओ, आत्मस्थ जियो तो भी सांस तो चलती रहेगी। बोलोगे तो इसी मुँह से प्राकृतिक यदि होता डर तो दुर्निवार होता। डर प्राकृतिक नहीं होता है। प्राकृतिक से नीचे का होता है डर। डर प्रतिभासिक होता है माने।

काल्पनिक है डर किस अर्थ में काल्पनिक है झूठे ज्ञान से माने मान्यता से उठता है डर जँहा मान्यता है वहाँ डर होगा ही होगा।

और डर हम कह रहे हैं कि चेतना को बिल्कुल संकुचित कर देता है। चेतना का रस निचोड़ लेता है। जीवन यदि अभिव्यक्ति के लिए है तो डर अभिव्यक्ति को एकदम कुंठित कर देता है। मुक्ति यदि सत्य की तरफ चलने में है तो डर सत्य के मार्ग को बाधित कर देता है। इसलिए हमने कहा चेतना की सबसे बड़ी बीमारी है डर। छोटी मोटी समस्या नहीं है डर, केंद्रीय है सिमटा सकुचा हुआ जीवन, ये डर का उत्पाद होता है एक तो हमने कहा चेतना की केंद्रीय बीमारी है डर। दूसरे हम कह रहे हैं कि डर का संबंध मान्यता से है। जब आप मान्यता रख लेते हो तो उसका कोई सीधा असर तत्काल तो अनुभव होता नहीं। ठीक है?

बहुत बार हमने कहा है कि मूल बीमारी अज्ञान है। वो बिल्कुल ठीक है। और आज हम कह रहे हैं कि केंद्रीय समस्या है भय डर दोनों बातें अपनी जगह सही हैं कि अहंकार की माने हमारी मूल बीमारी अज्ञान है। यह बात भी सही है। और ग्रंथ हमें डर से मुक्ति दिलाना चाहते हैं। यह बात भी सही है। दोनों बातें सही है। पर दोनों में से ज्यादा उपयोगी बात डर की है। कारण सीधा है मान्यता आप रखे बैठे रहो। आपको उसमें कोई बुराई अनुभव ही नहीं होगी। जब तक कि उस मान्यता के कारण आपको 10 तरह के संकुचन और डर और सीमाएं ना झेलनी पड़े। तब लगता है कि इससे कुछ नुकसान होगा। अन्यथा मान्यता तो अपने आप में क्या है? कुछ नहीं। एक बात है, एक विचार है। जिसको आपने स्वयं ही सत्य घोषित कर दिया है।

यही तो है मान्यता। क्या नुकसान हो गया? मैं मानता हूँ आकाश नहीं है। एक तंबू है जिस पर दिन के समय नीले रंग की रोशनी पीछे से फेंकी जाती है। रात के समय काले रंग की। मानते रहो कोई कोई नुकसान हुआ? ऐसी तो लगता ही नहीं कि इसमें कुछ नुकसान हो गया। पर इस मान्यता की वजह से अब जो कुछ होगा वह अनुभव में आएगा कि नुकसान हुआ है। तो इसलिए डर ज्यादा प्रामाणिक बीमारी है। और उदाहरण दिए देता हूँ। आप किसी से जाकर कहें कि मैं तुम्हारी मान्यता दूर करना चाहता हूँ। वह आपसे लड़ जाएगा। आप किसी से कहें मैं तुम्हारा डर दूर करना चाहता हूँ। वो आपके गले लग जाएगा। जबकि दोनों एक ही बात कही है आपने क्योंकि मान्यता ही डर बनती है। लेकिन मान्यता कोई नहीं छोड़ेगा क्योंकि उससे कोई नुकसान पता नहीं चलता। आप उसे पकड़े बैठे रहो। वो तो पहचान बन जाती है ना। मैं फलानी बातें मानता हूं। वो तो पहचान बन जाती है।

तो आप किसी से कहे मैं तेरी मान्यता हटा रहा हूँ। वो कहेगा जी हाँ। जान दे देंगे, मान्यता नहीं छोड़ेंगे। पर आप उसी से कहें अब वो मान्यता ग्रस्त है तो भयग्रस्त भी होगा। उसी से आप कहें मैं तुम्हारा डर हटा रहा हूँ तो वो तुरंत राजी हो जाएगा। धन्यवाद देगा। वो ज्यादा उपयोगी हो जाता है जब बोलते हैं कि हम तुमको डर से मुक्ति दिलाएँगे। क्योंकि मान्यता का नकारात्मक प्रभाव पता नहीं चलता और डर का प्रभाव अनुभव में आ जाता है। है ना? अब ये अलग बात है कि आप डर से बात शुरू करोगे तो डर के मूल में जाओगे तो मान्यता मिलेगी और आप मान्यता से बात शुरू करोगे तो थोड़ी आगे बढ़ाओगे तो डर मिलेगा। वो तो एक ही बात है। लेकिन डर ज्यादा हमने कहा उपयोगी है। अच्छा।

तो डर कहाँ से आता है? उसी को आज संबोधित किया जा रहा है। डर कहाँ से आता है? हम सब कुछ ना कुछ ऐसा लेकर बैठे हैं जो हमें लगता है कि बहुत-बहुत जरूरी है हमारे लिए जिसके बिना हमारी हस्ती ही धराशाई हो जाएगी। हमसे कहा जा रहा है ऐसा नहीं होगा। तुम कैसी उल्टी बात सोच रहे हो? हस्ती धराशाई किसी की होती भी है तो तब जब वो सच का आधार खो देता है। सच वो बुनियाद है जिस पर आपकी हस्ती खड़ी होती है। तो हस्ती अगर गिरती भी है कि जिंदगी बर्बाद हो गई सब बिखर गया। वो तब होता है जब सच नहीं रहता। और आप ऐसी चीज को उल्टी बात देखो। आप ऐसी चीज को अपनी हस्ती मान रहे हो जो सच के रास्ते में बाधा है। कोई इस बात से घबराता हो कि कहीं सच्चाई से दूर ना हो जाऊँ। कहीं झूठ और फरेब को गले लगाकर ना जीना पड़े तो एक बार को फिर भी समझ में आए कि सच ही तो है जो हमें जिंदा रखता है ताकत देता है। सब कुछ उसी से है।

और स्थितियां ऐसी बन रही हैं कि झूठ को स्वीकार करना पड़ सकता है। छल में जीना पड़ सकता है। हम अह कपट में जीना पड़ सकता है। तो यह बात घबराने की लगती है कि ऐसे करेंगे तो सच से दूर हो जायेंगे। कोई इस पर घबराए तो एक बात है। पर हम इस पर नहीं घबराते। हम घबराते हैं कि कहीं कोई चीज साधारण चीज ना छीन जाए। उसका हमको डर होता है। और ये जिसका आपको डर है ये तो सच के रास्ते में रो थोड़ा है। जिस चीज़ से घबराना चाहिए आप उसकी बिल्कुल उल्टी चीज़ से घबरा रहे हैं।

घबराना चाहिए राम को खोने से। आप घबरा रहे हो काम को खोने से। काम को खोने में नुकसान क्या है? यदि राम यथावत है।

और कई बार तो काम को खोना आवश्यक होता है। राम को अपने बचाने के लिए अपने राम को बचाने के राम माने यहां सत्य की बात कर रहे हैं। अपनी सच्चाई को बचाने के लिए कई बार अपनी कामना छोड़नी जरूरी होती है। या तो कामना पकड़ लो नहीं तो झूठा बनना पड़ेगा। मक्कारी में जीना पड़ेगा। बंधन स्वीकारने पड़ेंगे। सर झुकाना पड़ेगा। हम देखिए क्या कर रहे हैं? हम फिर बंधनों से नहीं घबरा रहे हैं हम मुक्ति से घबरा रहे हैं। डर हमारा ये है कि कहीं बंधन ना छूट जाए। डर हमारा ये नहीं है कि कहीं बंधन में फँस ना जाऊँ। हमारा डर ये रहता है कहीं बंधन ना छूट जाए। आप किसी आदमी को पकड़ लीजिए। कोई ऐसा नहीं मिलेगा जो डरा हुआ है। और उसके डर में डर की जड़ में बंधनों के प्रति उसका लगाव नहीं है। बंधनों के लिए उसका आग्रह नहीं है। जो भी आदमी डरा हुआ है वो इसलिए नहीं डरा हुआ है कि उसकी कोई बहुत अच्छी सुंदर कीमती सच्ची चीज खो जाएगी तो डर लग रहा है। ऐसा डर तो शायद वाजिब भी होता।

चीज इतनी प्यारी है, सच्ची है कि खो जाए तो नुकसान हो जाएगा। तो हम डर रहे हैं। समझ में आता डरते ऐसे डर की तो संतों ने अनुशंसा भी करी है कि हाँ डर के रहो निर्भय होए ना कोई इस बात पर डर के रहो कि कहीं जिंदगी से सच्चाई ना विदा हो जाए इसका तो डर अच्छा है। पर आप मिलेंगे लोगों से कोई इस बात के लिए नहीं डरा हुआ है कि कहीं जिंदगी से सच्चाई ना छीन जाए। लोग डरे हुए हैं कहीं जिंदगी से बंधन ना छीन जाए। एक तो डरना फिज़ूल और ऊपर से हम डर किस बात के ले रहे हैं कि कहीं जिंदगी से हमारी कचरा ना साफ हो जाए। बड़ा डर लगता है। बड़ा डर लगता है। बड़ा डर लगता है। कहीं जिंदगी से कचरा ना साफ हो जाए। जब आपने जीवन किसी गलत आधार पर खड़ा करा होता है ना। तभी बहुत जरूरी हो जाता है किसी विषय को बहुत महत्व देना। नहीं तो आधार ही काफी होता है दिल भर देने को। जिंदगी है, जिंदगी है ना? ऐसे समझो एक इमारत है एक बुनियाद पर खड़ी है। बुनियाद अगर मजबूत हो तो इमारत को कितने सहारों की जरूरत है?

श्रोता: किसी की भी नहीं।

आचार्य प्रशांत: नहीं है ना? सहारों को समझो विषय दुनिया के विषय खपचियाँ जो ऐसे-ऐसे ला के लगाई जाती हैं कुछ सहारा देने के लिए वो विषय हो गए ठीक है अगर बुनियाद ही मजबूत है तो इमारत विषय माँगेगी ही नहीं कि मांगेगी मांगेगी पर अगर बुनियाद कमजोर है तो इमारत क्या कहेगी फलानी चीज यहाँ से लाकर मुझ में जोड़ दो हम इधर से लाकर के ऐसे या पांच सात सरिए और कुछ कर सकते हो तो बाहर से तमाम विषयों की बड़ी कामना रहेगी। ये कामना किस लिए है? क्योंकि बुनियाद ही कमजोर है। बुनियाद कमजोर है। और बुनियाद कमजोर है तो आप इमारत में कितने भी तरीकों से बाहर से कुछ-कुछ टेक लगा दो इमारत कितनी टिकी रहेगी। कितना खींच लोगे तुम उसको। ये है कामना की प्रकृति। बाहरी चीजें जितनी अनिवार्य लगने लग जाए अनिवार्य। उतना समझ लीजिए कि बुनियाद में खोट है। दुनिया से कुछ ग्रहण करना जितना अनिवार्य लगना लग जाए कि ये चीज़ तो जिंदगी में चाहिए ही चाहिए। उतना समझ लो कि जिंदगी की बुनियाद में ही खोट है। हमने अनिवार्य की बात करी है।

हाँ मौज में यूँ ही जाकर के आप इमारत को सजा दो। उसमें 100 चीजें रख दो। वो अलग बात है। इमारत को अच्छे से पता है कि ये चीजें मेरे भीतर रखी हो कि ना रखी हो। मैं ढह नहीं जाऊँगी। ये थोड़ी एक इमारत में बहुत सारा एक इमारत में सोचो कितना सामान रहता होगा और वो सारा सामान निकाल दो तो क्या इमारत गिर जाती है वो अलग बात है। वो फिर जो चीजें इमारत में रखी हैं वह विषय नहीं है। विषय का अर्थ होता है कि अहंकार आश्रित हो गया है फलानी वस्तु पर। तो इमारत के भीतर जो कुछ रखा रहता है। अब ये है ये ऐसे है। ये ठीक है। इसमें जो कुर्सियां रखी हैं, इस पर ये हॉल आश्रित है क्या? इसका क्या बिगड़ जाएगा? तुम कुर्सियाँ निकाल भी दोगे तो कुछ बिगड़ जाएगा? पर मान लो ये कमजोर होता और 10 12 इस तरह के पिलर होते और उन पे ही टिका होता। पिलर निकाल देते तो क्या हो जाता? ये अंतर होता है संबंध और संबंध में। ये तुम हो। ये तुम हो।

एक संबंध हो सकता है कि इस हॉल के भीतर यह रखा हुआ है। रखा है तो भी हॉल है। नहीं रखा है तो भी हॉल है। इसको कोई अस्तित्वगत अड़चन नहीं आ जाएगी अगर इसको उठा के बाहर फेंक दिया या कुछ हो गया संयोग से चला गया कुछ भी हो गया। ना ऐसा होगा कि हॉल और ज्यादा फूलने लग गया और एकदम चौड़ा हो गया अगर आपने यँहा पे 10-12 कुर्सियां और रख दी या महंगी कुर्सियाँ रख दी ऐसा होगा नहीं होगा तो एक एक तो यह रिश्ता होता है कि हम हैं और विषय नहीं वस्तुएँ आ जा रही हैं। आती जाती रहती हैं ना। हमें उन्हें रोकना है ना टोकना है। कुछ आ गया अच्छी बात नहीं भी आ गया तो अच्छी बात। हां थोड़ा ऊपर नीचे होता है। लेकिन इतना ऊपर नीचे नहीं होता कि हमें लगे कि हम ही धराशाई हो जाएंगे। हो सकता है यहां से सारी अगर आप कुर्सियाँ निकाल दो तो हॉल ये बोलने लग जाए क्या यार मामला कितना गुलजार था। कुर्सियाँ थी बढ़िया थी। इतना गुलाबी रंग था। क्या बात है? इधर-उधर कँहा सब गायब हो गया। ये हो सकता है बोले पर वो यह थोड़ी बोलेगा कि जिंदगी ही समाप्त हो गई। क्यों समाप्त हो गई? वो तो जैसा था वैसा है। एक ये रिश्ता होता है संसार के साथ। और दूसरा रिश्ता ये होता है कि आपकी जिंदगी से फलाना विषय निकला नहीं। ये जिंदगी ने ही दम तोड़ दिया। मतलब आप सिर्फ भयभीत नहीं रहते। आप भयाक्रांत रहते हैं। आप सिर्फ डरे नहीं होते। आप दहशत में जीते हो। क्योंकि वो विषय नहीं है। वो आपकी जान है।

जैसे यहाँ के ये खंभे ये पिलर्स ये इस हॉल में रखे नहीं हुए हैं। इन्होंने इस हॉल को उठा रखा है। सहारा दे रखा है। अब सहारा दे रखा है तो हॉल की धड़कन बंद हो जाएगी। कोई आके खंभों से हथौड़ा मारने लग गया इनमें तो ये क्या कर रहे हो मैं बर्बाद हो जाऊँगा ये नहीं होने देना है बुनियाद काफी रहे बुनियाद काफी रहे बुनियाद है ना पर्याप्त है। बुनियाद जब पर्याप्त है तो जिंदगी में कुछ आ गया स्वागत है कौन मना कर रहा है और चला गया तो भी ठीक है हाँ, चला गया बुरा लगा थोड़ा दो-चार दिन बट ठीक है। ऐसा कुछ नहीं है कि हम बिखर गए। अंतर समझ में आ रहा है। एक बात होती है कि मैंने कोई चीज गई तो चीज खो दी। और एक बात होती है कि कोई चीज गई तो मैंने खुद को खो दिया। ये खुद को खोने वाली बात नहीं होनी चाहिए। चीज गई है तो चीज गई है। चीज गई है तो चीज गई है। उस चीज से हम इतने नहीं आश्रित हो गए थे कि हम ही निकल गए। समझ में आ रही बात?

तो इसलिए समझिए ये कोई नैतिक बात नहीं है कि त्यागने और ग्रहण करने की दासता से अनिवार्यता से मैं मुक्त हुआ। कह रहे हैं ना त्याग्य विषय और ग्राह्य विषय की अनुपस्थिति है। यह कोई नैतिक बात नहीं है। हम इसके पीछे एक मनोवैज्ञानिक उससे भी आगे का अस्तित्वगत तथ्य है हमारे भीतर। आप दुनिया के गुलाम हो जाते हो जब आपकी जिंदगी एक-एक कांपती बुनियाद पर खड़ी होती है। उस कांपती बुनियाद का ही नाम है मान्यता। दम नहीं है ना उसमें? मान्यता क्या है? कल्पना ही तो होती है और क्या आगे की कोई चीज़ है? अहम के आधार में मान्यता रहेगी तो अहम के विस्तार में कामना रहेगी। नीचे अगर वो मान्यता पर खड़ा हुआ है तो जगत में वो क्या लेकर फैलेगा? कामना। ये नियम है। जिस आदमी के लिए कामना का विषय जितना अनिवार्य हो गया हो जीने मरने का मसला हो गया हो जान लेना कि उसकी जिंदगी की बुनियाद उतनी खोखली है। वो कुछ बड़ी विचित्र मान्यता लेकर जी रहा है।

आपको बचपन से पढ़ा दिया जाए कि आप ये जिंदगी सार्थक तभी है जब तीन मुँह वाला कछुआ आपके घर में मौजूद हो उससे ही जिंदगी में बहार आती है और जिनके पास कछुआ नहीं होता उनकी जिंदगी तो बर्बाद हुई ही वो मरने के बाद उनको और दंड दिया जाता है तो अब आप पूरी जिंदगी क्या करोगे? कछुए को ढूंढोगे तो ढूंढ तो रहे हो और क्या कर रहे हो? जो पूरा विस्तार है ये सात द्वीप नौ खंड कछुआ ढूंढने निकल पड़ते हो दुनिया में। ये कामना का विस्तार है। इसके मूल में क्या है? मान्यता, क्या? यह जिंदगी ढंग से जीने के लिए तीन सिर वाला विशेष कछुआ चाहिए। अब ये बता दिया गया और ये बात ऐसी पकड़ ली ऐसी पकड़ ली कि जैसे सच हो। मान्यता तो हमेशा सच ही होती है। मान्यता जिस दिन मान्यता हो गई उस दिन हवा हो गई। मान्यता माने सच अपरिक्षित सच। पूछा ही नहीं कि मतलब ऐसा क्यों? कुछ बातें ऐसी होती है ना जिन पे सवाल उठाने में भी बिल्कुल जान निकल जाती है। वो है गहरी से गहरी मान्यता।

जैसे आज तक कम्युनिटी पर इन्होंने लिखा कि मेरे यहाँ पे फलाना कुछ रस्मदायगी हो रही थी और मैं उनसे गीता की बात कर रही थी तो वो बोले तुम्हारे आचार्य जी तुम्हें ये सब करने देंगे क्या जो अभी चल रहा है मैं गई थी उनसे गीता की बात करने तो कुछ हो रहा था कुछ हो रहा होगा। बोले ये सब करने देंगे क्या वो तो इन सब रस्मो रिवाजों को अंधविश्वास बोलते है ना बिहार की हैं। वो बोली कि नहीं मैंने उनको तत्काल कहा कि नहीं-नहीं आचार्य जी इन चीजों का अंधविश्वास तो बोलते ही नहीं। मैं बोलता हूँ। अब ये वो मान्यता है जिस पर सवाल खड़ा करने में जान जाती है। वैसे ही कई मुझ पर जो बातें होती है ना कि वो तो ऐसा कहते हैं। तो हमारे लोग जाकर के मेरी डिफेंस में कहते हैं कि नहीं-नहीं ऐसा तो बिल्कुल नहीं कहते पर मैं वैसा तो बिल्कुल कहता हूँ। तुम खुद ही नहीं मानना चाहते कि मैं वैसा ही कहता हूँ क्योंकि वो मानने की तुम्हारी हिम्मत नहीं है क्योंकि वो बात तुम्हारी बचपन से आज तक की पली मान्यता के बिल्कुल खिलाफ जाती है। बिल्कुल खिलाफ जाती है।

लिखना तो यहाँ तक लिखा था कि आचार्य जी दूध पीने को मना नहीं करते। बोलते हैं बस पशु को दुख मत दो। अच्छा ठीक है। उन्होंने तर्क भी दिया। बोले अगर दूध पीना ही मना होता तो हम अपने बच्चों को दूध क्यों पिलाते? फिर तो माँ बच्चे को दूध पिलाती है। वही गलत हो गया ना। तर्क देखो। बोले आचार्य जी फिर तो एंटी लाइफ हो गए। हिम्मत ही नहीं पड़ती पूछने की कि मतलब ठीक है सब लोग मेरे आसपास के यही सब मान रहे हैं पर मैं कैसे मान लूँ कि ये मतलब थोड़ी तो बात कर लो कोई तो आ जाओ। भैया, जीजी, मौसी, मम्मी, दादी, फूफा, ताऊ अरे चाचा तुम ही बात कर लो कोई नहीं कोई नहीं बात और वँहा से ही सारी का कामनाएँ उठती हैं। सच का स्वभाव ऐसा है कि वो अपने आप ही आपको बिल्कुल मस्त कर देता है। तृप्त कर देता है। बिना किसी अन्य सहायता के ही आपको संतुष्ट कर देता है। अपने दम पर अकेले। पेट भर दिया उसने। उसी से भर गया पेट और जब उसी से पेट भर गया तो दुनिया से क्या मांगोगे? दादा जरूरत नहीं है मांगने की। उसी से पेट भर गया ना। अब क्या मांगे बहुत? कुछ अब आ गया तो आ गया। नहीं आया तो नहीं आया। आ भी गया। ठीक है। बड़ी बात नहीं है। क्या बड़ी बात नहीं है। हो रहा है। चलो। जिंदगी का खेल है। बड़ी बात नहीं है।

ये सच का स्वभाव है। वो अपने दम पर ही आपको तृप्त कर देता है। और मान्यता की प्रकृति ये है कि वो अपने दम पर कुछ नहीं कर सकती क्योंकि वो खुद खोखली है। तो वो हमेशा आपके लिए अनिवार्य बनाती है कि आप जाओ और पाँच-सात चीजें लेके आओ। अपने जीवन में यह जोड़ो वो जोड़ो या अपने जीवन से यह घटाओ। और ये जोड़ना घटाना ना बिल्कुल एक ही बात है। इनमें कुछ अलग-अलग नहीं है। जो कहा ना कि ग्राह है और ताज्य इसमें कुछ अलग-अलग बात नहीं है। जीवन में परी जैसी पत्नी लेकर आना ये इसको आप किस अर्थ में पढ़ेंगे कि ये तो ग्रहण करने वाली बात हो गई। जीवन में एक व्यक्ति को ले आना है तो ग्रहण कर रहे हैं, जोड़ रहे हैं और जीवन से सूनापन, अकेलापन हटाना ये त्यागने की भाषा में बात हो गई। पर ये दोनों एक ही तो बात है। एक ही तो बात है। और आप एक ही सांस में तो दोनों बातें करते हो कि जिंदगी बड़ी अकेली है, सुनी है, बेरौनक है, किसी को ले आते हैं। किसी को लाने से आप कुछ हटाना चाहते हो तो त्याग करना और ग्रहण करना यह दोनों एक ही बात है। कुछ इसमें ऐसा नहीं है कि अलग-अलग है। जो भी व्यक्ति कुछ त्यागना चाहता है, वो यही पाएगा कि उस त्यागने हेतु त्यागने की विधि के रूप में वो कोई नया विषय ग्रहण करेगा।

एक चीज त्यागनी है तो दूसरी चीज लेकर के आनी है। यह दोनों एक साथ चलते हैं। यह इन एक शब्द के रूप में पढ़ा जाना चाहिए। हम यह मान्यता की देन है। अब जिंदगी भर यही करो। यहाँ से ये लेके आओ, वहाँ से वो लेके आओ। और जो लेकर के आओगे उससे क्या बुनियाद ठोस हो जाएगी? जो भी लेकर के आओगे बुनियाद तो जैसी वैसी ही रहेगी तो फिर जाओ और लेकर के आओ। और जो लेकर के आ रहे हो बात उससे भी बननी नहीं है। चलिए हम प्रयोग कर लेते हैं।

इस कमरे की बुनियाद कमजोर है। बताओ यहां क्या-क्या रख दें कि बुनियाद मजबूत हो जाए। बोलो बताओ हाँ। अब पूरी पढ़ेंगी? और बताइए इसमें क्या-क्या जोड़ दें फिर और बहुत सारी चीजें जोड़ दोगे और महंगी कीमती चीजें भी जोड़ दोगे और बुनियाद अगर कमजोर है तो खटका कम होगा कि बढ़ेगा? पहले तो ये था कि छत गिर जाएगी। दीवारें ढह जायेंगी और आपने इसमें बहुत चीजें जोड़ दी हैं तो अब क्या खटका रहेगा? बहुत चीजें टूट जाएंगी। दीवार गिरेगी तो जो कुछ लेकर के यँहा रख दिया वो भी गिरेगा। सब बर्बाद होगा। तो बताओ भीतर जो संशय है और भय है वो कम हुआ या बढ़ गया?

श्रोता: बढ़ गया।

आचार्य प्रशांत: तो ये मान्यता ये यूँ ही मान लेना। ये बिलीफ सिस्टम विश्वास पर जिंदगी बिताना ये अंधविश्वास का पूरा खेल कोई छोटी मोटी बीमारी नहीं है और अंधविश्वास माने इतना ही नहीं होता है कि जिन्न, भूत, चुड़ैल में कोई मानता है गंडा, ताबीज में कोई मानता है अंधविश्वास इतना ही नहीं होता है आप जिंदगी में जिन भी चीजों को महत्व दे रहे हो बिना स्वयं से पूछे कि क्यों वो सब अंधविश्वास है। मैं कहा करता हूँ द ईगो इज द फर्स्ट सुपरस्टिशन। आप बिल्कुल धर्म से नाता ना रखने वाले इंसान हो सकते हो। आप बिल्कुल ऐसे हो सकते हो जो लोग नास्तिक कहते हैं स्वयं को और फिर भी हो सकता है कि आप घोर अंधविश्वासी हो। आस्तिक की अपनी मान्यता अपना अंधविश्वास और नास्तिक का अपना अंधविश्वास अंधविश्वासी दोनों बराबर के हैं। अंधविश्वास का संबंध कोई सिर्फ लोकधर्म से थोड़े ही है, अंधविश्वास का संबंध कोई सिर्फ अशिक्षित लोगों से थोड़े ही है या भारत से थोड़े ही है या कि धार्मिक देशों से थोड़े ही है। क्या चीनी अंधविश्वासी नहीं होते? वहाँ तो धर्म को प्रोत्साहित नहीं किया जाता है। सार्वजनिक जीवन में धर्म अनुपस्थित है। वहाँ फिर भी बड़ा अंधविश्वास है। ईश्वर वगैरह को ले नहीं है। तो दूसरी चीजों को लेकर के है। पर है। समझ में आ रही है बात?

तो त्याज़्य और ग्राह्य विषय की अनुपस्थिति ये पहली बात वो अनुपस्थिति सिर्फ आ सकती है ठोस उस बुनियाद से। और इस अनुपस्थिति से जुड़ी हुई चीज़ है हर्ष और विषाद का अभाव। जितना आप आश्रित होंगे विषय पर अपनी हस्ती के लिए ही उतनी घोर वेदना होगी आपको उस विषय को खोने पर। विषय नहीं खोया है। जैसे आत्मा खो दी है जैसे जिंदगी खो दी है अस्मिता खो दी है ऐसा लगेगा। नहीं तो एक तरह का हल्कापन रहेगा समदर्शिता समभाव रहेगा हम नहीं कह रहे कि आप बिल्कुल ही निरपेक्ष हो जायेंगे कि किसी की मृत्यु भी हो गई तो बुरा नहीं लगेगा पर एक सीमा रहेगी एक भी भीतर आयाम रहेगा जँहा कोई सुख-दुख नहीं पहुँच सकता। नहीं तो बड़ी तीव्र वेदना होती है जो एकदम केंद्र को भी छलनी कर देती है। सुख-दुख का अनुभव आध्यात्मिक आदमी को भी उतना ही होता है जितना किसी ऐसे ही झुनू लाल को अंतर बस ये है कि आध्यात्मिक आदमी के पास भीतर एक बिंदु होता है, एक तल होता है जहां सुख-दुख नहीं पहूँच सकता तो बच जाता है।

ऐसे समझिए कि दो मकान हों बिल्कुल एक जैसे बिल्कुल एक जैसे, बिल्कुल ही एक जैसे ऐसा जैसा एक ये है ये ऐसे ही एक इसके बगल में है। और दोनों में बिल्कुल एक जैसी आग लग गई हो। बिल्कुल एक जैसी आग। और दोनों में एक-एक आदमी है। बस जो दूसरा वाला है उसमें अंतर ये है कि उसमें एक मंजिल और है। वन मोर स्टोरी एक और है मंजिल। ऊपर पहला तला वो ऐसा है जहां कोई आग कभी पहुँच सकती नहीं। वो फायर प्रूफ है। और नीचे का जो ये है तल यह जैसा इसका है वैसा ही बगल वाले का है और नीचे के तल में आग लग गई है दोनों के। अंतर समझ में आ रहा है ना बराबर की आग दूसरे वाले के घर में भी लगी है पर वो बच जाएगा क्यों जब आग लगेगी तो कहेगा मैं वहाँ तो हूँ ही नहीं आत्मस्थ हूँ आत्मा में स्थित हूँ वहां कोई आग कभी पहुंच सकती नहीं। तो आग उसकी जिंदगी में भी बराबर की लग सकती है। हम कह रहे हैं सुखदख का अनुभव जितना आम आदमी को होता है उतना ही हो सकता है धार्मिक आदमी को हो रहा हो। हो सकता है उसकी जिंदगी भी बराबर की जल रही हो। यह भी हो सकता है उसकी जिंदगी थोड़ी ज्यादा जल रही हो। और यह सही मुद्दा खुल गया क्योंकि उसकी जिंदगी अक्सर ज्यादा जलती है क्योंकि उसको पता होता है कितनी भी जल ले मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा। तो वह अपनी जिंदगी को जलाना ज्यादा बर्दाश्त कर पाता है।

जिसके पास जीवन में बस यही तल है नीचे का वह कितना बर्दाश्त कर पाएगा इस तल को प्रज्वलित होने देना। नहीं, ज्यादा नहीं यही तो है उसके पास ये जल मरा रहा तो जाएगा कहां तो वो बचा बचा के खेलता है और कहता है आग ज्यादा नहीं लगनी चाहिए जो बगल वाला है उसकी आग लगी भी है ज्यादा भी लग गई है जानते बूझते ज्यादा लगा ली है किसी ऊँचे उद्देश्य से तो भी उसका चैन छिन नहीं गया। वो ऊपर बैठा है। नीचे आग लगी और देख रहा है। साक्षी हो गया। वो जहाँ पर है जहाँ लपटें नहीं पहुँचती। ये साक्षी है। है सब कुछ वही हो रहा है जो किसी भी और इंसान के साथ होता है। पर हम वहाँ बैठे हैं जहां लपटें नहीं पहुँचती। कुछ चमत्कारिक नहीं हो गया। जिंदगी सबकी एक सी है। देह सबकी एक सी है। इसी पृथ्वी पर सब जी रहे हैं। तो जो दुख सुख संयोग सब झेलते हैं वही हम भी झेल रहे हैं। बस एक छोटी सी जगह है भीतर जहां लपटें नहीं पहुँचती। हम वहीं पर स्थापित है। कर क्या रहे हैं? हैं वो ऊपर है कि नीचे है? थोड़ी देर पहले कह रहे थे बुनियाद है। अब उसको पहली मंजिल बना दिया। चलो ठीक है वो बेसमेंट है। एक जगह होनी चाहिए जिंदगी की इमारत में जो बहुत मजबूत है। उसी पर सब खड़ा होता है और वही तुम्हारी आश्रय स्थली बनती है।

हम आगे बढ़ेंगे एक जगह पर जाकर के कृष्ण कहेंगे अर्जुन को– अर्जुन आश्रय हूँ मैं तुम्हारा। सुंदर शब्द है बोलते हैं ये दुनिया है यँहा तो ये खेल चलता ही रहता है कभी हराओगे कभी हारोगे दूसरे को बाण मारोगे अपना भी खून बहाओगे ये सब चलेगा। ये सब होने के बाद यह सब होने के दौरान मैं वो हूँ जँहा तुम शरणागत हो सकते हो, शांत रह सकते हो। जँहा कोई तुमको दुखी परेशान नहीं कर सकता। समझ रहे हो बात को? इंसान और इंसान में अंतर बस यही होता है। नहीं तो जिंदगी सबकी एक सी, दुनिया सबकी एक सी, शरीर सबका एक सा, आयु- अवधि सबकी एक सी। बहुत क्या अंतर है? दो ही लिंग पाए जाते हैं। वह भी सबके एक से। बहुत अंतर, बहुत भेद कँहा होते हैं? बताओ होते हैं क्या? कहानियाँ भी सबकी लगभग एक सी ही होती हैं। थोड़ा-थोड़ा अंतर होता है। लेकिन महान अंतर आ जाता है। बुनियाद में तुम्हारे घर की बुनियाद क्या है? और तुम सोचते हो कि क्योंकि सबके घर की ऐसी ही खोखली बुनियाद है। तो शायद इस खोखलेपन में ही सुरक्षा है। भीड़ में सुरक्षा लगती है ना। भाई सब खोखली बुनियाद पर खड़े हैं तो हम भी खड़े हैं। अच्छा लगता है। सबका ऐसा ही है। सबका ऐसा ही है। उसमें सुरक्षा नहीं है और घोर असुरक्षा है।

आप माने बैठे हो फलानी चीज जिंदगी से चली गई तो पता नहीं क्या हो जाएगा आप क्यों नहीं पूछ के देख रहे कि यह चीज चाहिए ही क्यों आप माने बैठे हो फलानी चीज नहीं मिली हम जिए ही नहीं कैसे पता? अच्छा बताओ कैसे पता? लो ले आ गए उसी सवाल पर कैसे पता? कैसे पता बताओ तो? और इन लोगों से पूछो कभी भी इन लोगों से माने हम लोगों से ऐसे जैसे हम कहीं अलग निकल गए। पूछो कि कैसे पता तो सकपका जाते हैं क्योंकि इसको क्या मानते हैं? ऑब्वियस ट्रुथ तो एक्सियमेटिक है। ना रेवेलशन है। इधर से रिवील्ड डेक्टम् पारलौकिक अपौरुषय सत्य है ये तो मतलब। तो है ही ना ऐसा तो भाई चलो छोड़ो बहस छोड़ते हैं कुछ तथ्यों में चले जाते हैं जिस बात को तुम मान रहे हो यह बात क्या इतिहास में भी सदा मानी गई है ये छोड़ो कि तुम्हारी बात कालातीत सत्य है काल में ही 200 साल पीछे चले जाओ तो ये बात मानी जाती थी? छोड़ो कि ये जो तुम्हारी बात है वो ब्रह्मांड व्यापक सत्य है। बगल के ही देश में यह बात मानी जाती है? 200 साल भी छोड़ दो। जिन चीजों को आज मान रहे हो। तुम्हें पक्का भरोसा है 10 साल बाद मान रहे होंगे? क्योंकि 10 साल पहले भी तुम बहुत सारी चीजें मानते थे जिनको तुम आज नहीं मान रहे हो।

इतना निश्चित होकर के तुम कैसे जम जाते हो? ये तो चाहिए ही ना। ऐसा तो है ही ना। जो कुछ भी मानसिक है ना वो वैकल्पिक है। अच्छे से समझना। चुनाव है तुम्हारे पास। शरीर बस ऐसा है। जो चुनाव नहीं देता। ऐसा नहीं हो जाएगा कि चुनाव कर लोगे कि 200 साल जीना है तो जी जाओगे। मानसिक जो कुछ भी है वँहा विकल्प मौजूद होता है। अब आप बोलो नहीं पर किसी ने अपमान किया तो क्रोध तो आएगा ना। अच्छा छोटा सा वाक्यांश है। किसी ने अपमान करा तो क्रोध तो आएगा ना। देखो इसमें कितनी सारी मान्यताएँ बैठी हैं। अच्छा बताओ मान माने क्या उसे नहीं पता। मान माने क्या? हम मान माने सोचते हैं कि इज्जत वगैरह। मान माने मेजर होता है। मान माने क्या? और मान माने क्या? तो अपमान माने क्या? अपमान माने क्या? नहीं बात करना चाहते हैं। बोला यार तू ऐसी बात कर रहा है तेरा ही अपमान कर दूँगा। नहीं कर देना पर बता तो दो। अपमान माने एक्सजेक्टली व्हाट ? दूसरी बात गुस्सा तो आएगा ना। यह तुम्हें कैसे पता? यह तो मानसिक बात थी ना प्रतिक्रिया का होना और जो कुछ भी मानसिक है उसमें हम कह रहे हैं विकल्प होता है।

तुम कितनी सारी बातें एक सांस में मान लेते हो। छोटा सा तुम्हारा वाक्य और उसमें कितनी मान्यताएँ तुमने बैठा रखी हैं। उसमें अभी और छुपी हुई मान्यता बताता हूँ। आपने तो कहा कोई अपमान करे कोई सब कोई बराबर नहीं होते। उसमें कहोगे मित्र अपमान करें तो कम क्रोध आएगा। शत्रु अपमान करें तो ज्यादा क्रोध आएगा। अपने अपमान करें तो कम। पराए करें तो ज्यादा। अच्छा बताओ मित्र माने क्या? और शत्रु माने क्या? और अपने माने क्या और पराए माने क्या? मान नहीं बता पाए तो बहुत कठिन लग रहा था। तो कोई बात नहीं। आठ में से किन्ही तीन प्रश्नों के उत्तर देदें। मित्र बता दो, शत्रु बता दो, अपना बता दो, पराया कुछ तो बता दो। बताने को तुम कुछ राजी नहीं। उबलने को राजी हो कि गुस्सा तो आएगा ना।

क्या हम कह रहे हैं कि नैतिक दृष्टि से क्रोध करना बुरा है? क्या हम वो पट्टी पढ़ा रहे हैं कि क्रोध तो मनुष्य का दुश्मन होता है बच्चा। जिसने क्रोध को जीत लिया। वो स्वर्ग में जगह पाता है। हम क्या वो बात कर रहे हैं? हम तो पूछ रहे हैं। क्योंकि जो ये बात भी कर रहा है कि क्रोध को जीत लिया वगैरह उससे पूछ लो कि क्रोध माने क्या तो उसे भी ना पता हो। हम तो पूछ रहे हैं अपना कौन कैसे पता है अपना क्या? पराया बता तो दो पराया माने क्या एग्जजेक्टली व्हाट? और अगर तुम्हें यह सब नहीं पता तो हम पूछ रहे हैं कि फिर तुम्हें यह बात कैसे पता जब तुम्हें कुछ नहीं पता फिर इतना जो तुम्हें पता है और जिस पर तुम्हारा भरोसा है वो तुम्हें कैसे पता ये देख के कुछ भी नहीं पता कुछ भी नहीं पता आँख बंद करके चलना है और भरोसा पूरा रखना है किस पर कहीं गिर गए तो दूसरे की गलती कि किस्मत की गलती? समझ में आ रही है बात?

जिंदगी सच्ची है तो अपने आप में पर्याप्त है। उसमें ना किसी को जोड़ने की बहुत जरूरत है। ना किसी को घटाने में बहुत कुछ रखा है। इतनी सी बात है।

कुल सही जिंदगी जी रहे हो तो वो जो सही पन है ना उसका वही तुम्हें तृप्त रखेगा। अब बताओ बहुत कुछ और क्यों चाहिए या किससे इतना डर है कि उसको हटाना है ना त्याग ना ग्रहण। और इसका मतलब यह है कि अब प्रकृति के लिए जीवन के लिए हमारे दरवाजे बिल्कुल खुल गए। जिसको आना है आए सबका स्वागत है। और कोई जा रहा है तो हम पीछे से चिपकेंगे नहीं। सब अनुभवों के लिए अब हम उपस्थित हो गए। आओ हाँ ठीक है। आया था चला गया क्योंकि प्रकृति में तो जो कुछ है वह लहर जैसा है। ऐसे आता है जाता भी है। हम अब उसके लिए मौजूद हो गए। आ गया बहुत अच्छी बात है। पर ऐसा नहीं है कि हम बावले हो जायेंगे कि ये कौन आया? रोशन हो गई महफिल जिसके नाम से आ गया भाई, ठीक है। और चला गया तो भी हम बावले नहीं हो जायेंगे। हाँ यह बाकी तो जब तक धेय है तब तक इंसान जैसा तो व्यवहार करना ही होगा। आ गया है तो बोलेंगे हाँ जी हाँ जी बहुत अच्छी बात है। आप आ गए स्वागत है। खुशी हुई गले मिलेंगे और चला जा रहा है तो यह भी कहेंगे हां वो बड़े अफसोस की बात है। दोबारा आना पर भीतर ही भीतर कुछ होगा जिसे ढेले का फर्क नहीं उसी को कहते हैं आत्मा। मेरे ठेंगे से।

जी हम आ गए हैं आपकी जिंदगी में कर देंगे खुशगवार हमें बहार वो क्या बोलती है मेरे से बाहर बाटी आए अच्छी बात है। हां जी हां जी मोस्ट वेलकम बैठिए पर जैसे ही कोई सर पर चढ़े बहुत दावा करे कि हम तुम्हारे लिए बहुत जरूरी हैं या हम तुम्हारे लिए बहुत खतरनाक हैं। आत्मा माने मेरे ठेंगे से। हम अपने आप में ही पर्याप्त हैं और पूर्ण हैं। पूर्ण इद पूर्ण मिदम् अपने में ही पूरे हैं। ना कोई विचार, ना फर्नीचर, ना कोई इंसान। किसी का बहुत महत्व नहीं हो गया। उसके बाद जीवन में जो वस्तुएँ होती भी हैं या व्यक्ति या जो भी विचार उनसे रिश्ता भी स्वस्थ रहता है। क्योंकि फिर उस रिश्ते में आश्रयता नहीं रहती, हिंसा नहीं रहती, छिपकाछिपकी नहीं रहती। अपेक्षाएँ नहीं रहती। क्या अपेक्षा करें? तुम्हारे आने से पहले भी हम मस्त थे। तो तुमसे कुछ खास उम्मीद क्या करें? अब तुम नहीं बीते तो हम तो तब भी मस्त थे। तो कुछ बहुत खास उम्मीद तुमसे नहीं बाकी ठीक है तुम कुछ आइसिंग ऑन द केक कर सकते हो तो कर दो पर केक तो हमारे पास पहले से था।

प्रश्नकर्ता: धन्यवाद आचार्य जी।

आचार्य प्रशांत: जी।

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी, जैसे कि आज आपने बताया कि जब आपके जीवन में बहुत सारे विषय होते हैं तो आप डरे हुए होते हैं। तो मेरे जीवन में भी बहुत सारे ऐसे विषय हैं और वह देखने को भी मिलते हैं मुझे और मैं डरी हुई भी रहती हूँ। लेकिन जब मैं उनसे बाहर निकलने की कोशिश करती हूँ तो मैं और फंसती जाती हूँ। मतलब

आचार्य प्रशांत: नहीं आप विषय से बाहर नहीं निकल सकते। वो कर्मकांड हो जाएगा। पहले बताइए मैंने कर्मकांड क्यों कहा? यही तो कह रहे हैं ना। बाहर निकलने की जो बात करी वही कथन है। त्याज्य की अनुपस्थिति वो कह रहे हैं कुछ ऐसा होना नहीं चाहिए जिसको बाहर निकालना बहुत जरूरी है। पड़ा है तो पड़ा है। ये भी जो आग्रह होता है कि फलानी चीज तो जिंदगी में बिल्कुल होनी ही नहीं चाहिए। ये भी एक काँपती बुनियाद की ओर इशारा करता है। पता नहीं कितनी खतरनाक चीज है कि जिंदगी में आ जाएगी तो जिंदगी को ही बर्बाद कर देगी। अरे हम डर नहीं रहे हैं। आ जाएगी तो आ जाएगी। नहीं आ जाएगी तो नहीं आ जाएगी। ऐसा क्या हो गया?

प्रश्नकर्ता: लेकिन बस मुझे यही जानना है आचार्य जी कि मेरी जिंदगी में बहुत सारी ऐसी चीजें अभी भी है और

आचार्य प्रशांत: चीजें नहीं है। मान्यताएँ हैं। केंद्र पर मान्यता होती है। वो मान्यता से चीजें आती है ना। हमने क्या कहा कि जब बुनियाद में मान्यता होगी तो संसार में कामना का विस्तार होगा। आप विस्तार को देख रहे हो। उसी के बारे में सवाल पूछ रहे हो। मेरी जिंदगी में बहुत सारे विषय हैं। हैं। विषयों विचारों को क्या दोष दें? वो विषय हैं ही इसीलिए क्योंकि बुनियाद में कुछ ऐसा बैठा है जो अनावश्यक है और आप उसको सच मानकर पाले हुए हो। कुछ बात है, कुछ सोच रखा है। कोई शर्त है जो जिंदगी के ऊपर थोप रखी है। गुड लाइफ की कुछ छवियां होंगी। ऐसा होना चाहिए। इतना तो ऐसा होना चाहिए। इस रंग का होना चाहिए। फिर ऐसा होना चाहिए। सुबह ऐसी होनी चाहिए। दोपहर ऐसी शाम ऐसी ये मान्यता है ना ये सब हर चीज़ को लेके कैसे पता कैसे पता। वो सब होंगे इसलिए विषय हैं। सब विषयों को ही डंडा लेकर खदेड़ोगे तो कर्मकांड हो जाएगा। बहुत होते हैं जो सफलता पूर्वक विषयों को डंडा लेकर खदेड़ देते हैं। कहते हैं उनकी पूछो जीवन की उपलब्धि क्या है? वो बोलेंगे प्याज लहसुन नहीं खाया कभी तो क्या हो जाएगा इससे? क्या हो जाएगा?

विषयों को जिंदगी से खदेड़ने की बात नहीं है। सच्चाई के आधार पर जीने की बात है। उसके बाद ना कुछ बहुत प्यारा लगता है ना कुछ बहुत डरावना लगता है। वह स्थिति माने क्या कैसे आती है? स्थिति है कोई क्या होगा? झूमोगे क्या? स्थिति माने क्या होता है? मान्यता पकड़ कर बैठे हो उनसे सवाल करो। फिर वही है ना देख रहे हो लोक धार्मिक बात। वो स्थिति कब आती है? अरे हाँ अब ये जो है फलानी ब्राह्मी स्थिति में पहूँच गए हैं। अब ऐसा हो गया है। ये वैसा है। क्या स्थिति स्थिति क्या होती है? तुम्हारी ही मान्यता है। तुम ही कुछ बातें हैं जो मानते हो। हो वह बातें जब पूरी नहीं होती है तो दुखी हो जाते हो। वह बातें जब लगता है कि पूरी हो रही हैं तो सुखी हो जाते हो। उसमें स्थिति जैसी क्या बात है? जब भी कोई चीज बहुत आकर्षित करे, डराए, भीतर उथल-पुथल मचाए तो ये पूछ लिया करो ना। मतलब मुझे कैसे पता कि ये जरूरी है? इसका होना चाहे ना होना। मुझे कैसे पता कि ये जरूरी है? मुझे कैसे पता? मुझे कैसे पता?

प्रश्नकर्ता: मतलब हमने मान्यता ही पकड़ रखी है। उनको ही पूछना है कि।

आचार्य प्रशांत: आपने।

प्रश्नकर्ता: जी-जी।

आचार्य प्रशांत: चलिए हमने हम साथ-साथ हैं।

प्रश्नकर्ता: तो बस वही पूछना है कि कैसे पता कि ये इससे कुछ नहीं है। या तो बहुत जिज्ञासु हो जाओ या जिंदगी नजरिया ही यही बना लो कि जब कुछ बहुत सर चढ़ के बोलने लगे तो उसको थोड़ा झटक दिया करो बस यही है। या तो जो क्लासिकल ज्ञान मार्ग होता है वो तो यह होता है कि जिज्ञासा करो ठीक है और उसी का जो एक संक्षिप्त रूप होता है वो यह होता है कि फर्क पैदा है पर ये क्योंकि संक्षिप्त है इसीलिए थोड़ा खतरनाक भी हो सकता है। आप ऐसी भी चीज को लेके बोल सकते हो कि क्या फर्क पड़ता है जिससे फर्क पड़ता है। तो बेहतर तो यही है कि जिज्ञासा ही कर लो पर लगे कि अभी जिज्ञासा करने में बहुत शर्म लगेगा। समय नहीं है तो ऐसे झटक दिया करो। ठीक है। भीतर से धमकी उठ रही है। तू बर्बाद हो जाएगी। क्या? श्रग ऑफ द शोल्डर। ठीक है। यहाँ से आबाद हो के कौन गया आज तक? सो बर्बाद हम हो जायेंगेगे तो मतलब ठीक है हो जायेंगे। क्या हो गया?

प्रश्नकर्ता: मतलब अपने आप को सीरियस नहीं लेना है।

आचार्य प्रशांत: ये बात तो इतनी बार बोली है। मैं सीरियसली लेने लायक। क्या सीरियसली लोगे? अपने आप को सीरियसली लोगे तो अपनी मान्यताओं को भी फिर सीरियसली लोगे। एकमात्र चीज जिसको सीरियसली लिया जा सकता है वो है सच्चाई। उसके बारे में गंभीर रहो। बाकी हर चीज को खेल की तरह लो। जहाँ बात यह आए कि सच है कि झूठ है। वहाँ ऐसे मत कह दो होगा सच तो भी ठीक है और होगा झूठ तो भी ठीक है। वहाँ ये मत कह देना। वहाँ गंभीर हो जाना। कहना नहीं। बात क्या है पता कर लेने दो। बाकी सब आवत जावत है। कुछ है ठीक है नहीं है। मौज करो।

प्रश्नकर्ता: जी धन्यवाद।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories