प्रेम का अभाव ही डर है।
~ आचार्य प्रशांत
Perhaps everything that frightens us in its deepest essence is something helpless, that needs our love.
~ Rainer Maria Rilke
आचार्य प्रशांत: "पर्हैप्स एवरीथिंग दैट फ्राइटन्स अस इन इट्स डीपर एसेंस, इज़ समथिंग हेल्पलेस दैट नीड्स आवर लव।” ये रिल्के का है।
प्रेम का अभाव डर है। प्रेम का अभाव ही डर है। अगर आपके जीवन में डर गहराई से घुसा हुआ है, तो यही जान लीजिए कि प्रेम की कमी है। यही वो कह रहे हैं। जितना प्रेम बढ़ेगा, डर उतना न्यून होता जाएगा। डर अपने आप में शुभ भी है इस कारण कि डर सूचना देता है, प्रेम की संभावना की। यूँ समझें कि डर एक खाली जगह है। जहाँ खाली जगह है, वहाँ भरने की भी संभावना है — तो डर प्रेम की संभावना है। डर अपने आप में शुभ है, क्योंकि डर सूचित कर रहा है कि प्रेम का अभाव है।
और मैं हर प्रकार के डर की बात कर रहा हूँ। छोटे से छोटा डर, अजीब से भी डर, आपको छिपकली का ही डरते हो न हो। तो यही बताता है कहीं न कहीं कुछ जीवन में कमी है, अन्यथा डर नहीं हो सकता था। तो शुभ है वो डर वो एक इंडिकेटर है, उसको उसी रूप में लें। और अपने डर से भी प्रेम करें, उसके क़रीब जाएँ। कृष्णमूर्ति कहते हैं न, लव योर सॉरो, उसके क़रीब जाएँ उसे परखे ध्यान से। हम डर से डर जाते हैं और उसे दूर हो जाते हैं। जो बातें हमें डराती हैं हम उनके क़रीब भी नहीं जाते, और यहाँ बड़ी चूक कर देते हैं।
जो बातें हमें डराती हैं, जो कुछ हमें अप्रिय होता है — हम उसे अपने आप से दूर कर देते हैं, और यही बड़ी गड़बड़ हो जाती है। आपको जो बुरा लगता हो, आपको जो अप्रिय लगता हो — आपको ख़ास तौर पर उसके पास जाना चाहिए, क्योंकि वहीं पर कुछ राज़ छुपा बैठा है। वहीं पर आपकी दवाई छुपी बैठी हुई है, आपको दवाई मिलेगी। समझ रहे हैं बात को? वहीं से आपको पता चलेगा कि मामला क्या है।
श्रोता: कई बार वो काल्पनिक भी सिद्ध हो जाता है।
आचार्य प्रशांत: और काल्पनिक सिद्ध होगा तो आपको अपने मन के विषय में पता चलेगा, कि वो ख़ुद ही कल्पनाएँ निर्मित कर रहा है और ख़ुद ही उनसे डर रहा है। जहाँ डर है, वहीं मौक़ा है डर के क़रीब जाने का। मैं डर को जीतने की बात नहीं कर रहा हूँ, मैं डर के क़रीब जाने की बात कर रहा हूँ। मूव टू द सेंटर ऑफ फियर, फाइंड आउट फ्रॉम वेयर इट इज़ कमिंग। द वेरी रूट।
डरे-डरे जिए जाने से कुछ लाभ नहीं है न, कुछ मिल नहीं रहा। इससे अच्छा ये है कि एक बार देख ही लो कि बात क्या है? क्यों उठता है? क्या हो जाना है?
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, स्व एक विचार है या वस्तु है? (सेल्फ इम्प्लाइज़ अ थॉट और अ थिंग)।
आचार्य प्रशांत: द थिंग इज़ द थॉट। आर द टू सेपरेट? इज़ द थिंग सेपरेट फ्रॉम द थॉट?
प्रश्नकर्ता: शैल आई गो निअर टू द थॉट और द थिंग?
आचार्य प्रशांत: इट्स ऑलवेज थॉट दैट स्केयर, नेवर द थिंग। द थिंग इज़ द थॉट। द थिंग इज़ नेवर स्केरी एंड द थिंग इज़ नेवर अट्रैक्टिव। द थिंग इज़ नाइधर स्केरी नॉर अट्रैक्टिव, इट इज़ ऑलवेज द थॉट। माइंड इज़ मैटर, थॉट इज़ मटीरियल, थॉट इज़ अ थिंग। राहुल साइलेंस, क्वाइटनेस एक ही है।
प्रश्नकर्ता: एक ही है?
आचार्य प्रशांत: बिल्कुल, कोई अंतर नहीं है। किसी ख़ास संदर्भ में उन्होंने अलग-अलग कर दिया हो, तो कर दिया हो, वरना बिल्कुल एक ही है।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कभी-कभी कहा जाता है कि बुरी संगति से दूर रहो, और एक दिन आपके साथ हम चर्चा कर रहे थे कि उनके क़रीब आना चाहिए। इस बात को कैसे समझें?
आचार्य प्रशांत: जब कहा जा रहा है, कि स्टे अवे फ्रॉम पीपल हू यू नो आर नेगेटिव, तो उससे पहले एक घटना घटी है। वो घटना क्या है? वो घटना ये है, कि तुमको पता है कि ये व्यक्ति तुम्हारे जीवन में कुछ कर रहा है, पर फिर भी तुम उसके क़रीब जाते रहे हो। किस कारण जाते रहे हो? मुझे पता है तू मेरे लिए ठीक नहीं फिर भी मैं हट नहीं पा रहा, तो क्या है काम?
श्रोता: डर।
आचार्य प्रशांत: कोई डर है न? बात समझ गए? तो ऐसी स्थिति में हटना, डर को एंकाउंटर करना है। डर को जानना है। यदि मैं जानता हूँ अच्छे तरीक़े से कि मेरा एक संबंध है, वो मेरा कोई बहुत सगा हो सकता है और वो मेरे लिए ज़हरीला है। हो सकता है वो मेरे ही घर में रहता हो पर वो मेरे लिए ज़हरीला है। पर फिर भी मैं रोज़ लौटकर उसी के पास, उसी घर में जा रहा हूँ। तो इसका अर्थ क्या है? कि मैं डरता हूँ घर से निकलने में। तो अब कहा जा रहा है कि निकलो।
प्रश्नकर्ता: पर ये जानना क्या है कि वो मेरे लिए ज़हरीला है?
आचार्य प्रशांत: रोज़मर्रा आपको देखना है अपनी, सुबह से शाम तक वो आपके मन के साथ….
प्रश्नकर्ता: किसी दूसरे को दोष।
आचार्य प्रशांत: नहीं दोष नहीं है, ये तथ्य है। ये तथ्य है आपका एक मन है जो बाहरी प्रभावों से चलता है, और प्रभाव कई क़िस्म के होते हैं।
प्रश्नकर्ता: लेकिन जब हम जान गए कि प्रभाव है, तो फिर तो अब हमें उस चीज़ से दूर जाने की ज़रूरत नहीं है।
आचार्य प्रशांत: बिल्कुल है, क्योंकि अभी आप ऐसे नहीं हो कि प्रभाव को जानने के बाद भी, उससे इम्यून हो जाओ। आप बेशक जान गईं कि ज़हर ज़हरीला है, तो अब ज़हर पीने से क्या मरोगे नहीं? पर हम ऐसे हैं, जो जान भी गए हैं कि ज़हर हमारे साथ क्या करता है फिर भी हम उस ज़हर को अपने जीवन में रखे रहते हैं। निश्चित कोई डर है।
तो उस डर से आगे जाने को कहा जा रहा है, ऐक्टिविटी में। वो धूमिल की बड़ी प्यारी पंक्तियाँ हैं इसमें, “क्या है जिसने तुम्हें बर्बरों के सामने अदब से रहना सिखाया है?” फिर आगे कुछ कहते हैं, बड़ा प्यारा है, अभी याद नहीं आ रहा। पर ये बड़ा-बड़ा एक छेद देने वाला सवाल है, कि “क्या है जिसने तुम्हें बर्बरों के सामने अदब से रहना सिखाया है?” कोई गहरा डर ही होगा। बर्बरता दिख रही है और फिर भी आदब से बैठे हुए हो, कोई गहरा डर ही होगा?
उसका उत्तर भी आगे वो देते हैं:
कि “ऐसा नहीं है कि मैं ठंडा आदमी हूँ, मेरे भीतर भी आग है। पर उस आग के चारों तरफ़ चक्कर काटता एक पूंजीवादी दिमाग़ है।” “ऐसा नहीं है कि मैं ठंडा आदमी हूँ, मेरे भीतर भी आग है। मैं भी बर्बरों से लड़ सकता हूँ, मेरे भीतर भी आग है। ऐसा नहीं है कि मैं ठंडा आदमी हूँ, मेरे भीतर भी आग है, पर उस आग के उसके चारों तरफ़ चक्कर काटता है पूंजीवादी दिमाग़ है।”
पूंजीवादी समझ रहे हैं न? जो संग्रह करने में यकीन रखता है, जिसका परिग्रह में बड़ा यकीन है, लालची है जो। तो यही तो डर है आपका कि कुछ छिन जाएगा, पूंजी छिन जाएगी। पूंजी छिन जाएगी, इसी डर से बर्बरों के सामने अदब से बैठे रहते हो। फिर आगे उनकी कुछ ऐसी पंक्ति थी, ठीक से याद नहीं आ रही है कि “और कुछ गिनी-चुनी चंद टुच्ची सुविधाएँ हैं — जो आग को भभक कर सामने आने नहीं देतीं।”
जो चाहती हैं कि स्थितियाँ ऐसी बनें कि क्रांति भी हो जाए और चीज़ों की शालीनता भी बनी रहे। ये एक्ज़ैक्ट नहीं है, इससे थोड़ा हटके है। पर ऐसे ही है कि “इच्छा हमारी ऐसी है कि क्रांति भी हो जाए और चीज़ों की शालीनता भी बनी रहे। अशालीन तो होना पड़ेगा, बेअदबी तो दिखानी पड़ेगी। बदतमीज़ी तो करनी पड़ेगी। और जो बहुत तमीज़ में ही जीवन बिताना चाहते हैं, उनको नरक और ग़ुलामी ही मिलेगी। अशालीन तो होना ही पड़ेगा, गंदगी का सामना तो करना ही पड़ेगा न। जेंटलमैन बने रहकर के धार्मिकता नहीं होती, अपराधी बनना पड़ेगा।
प्रश्नकर्ता: अ माइंड दैट इज़ नॉट कंट्रोल्ड और इन्फ्लुएंस्ड बाय द डिज़ायर्स ऑफ़ द सेंसिज़ इज़ मुक्त। व्हाय इज़ सो मच एम्फ़ेसिस गिवन टू लिबरेशन? हाउ डज़ वन रिअली नो दैट इट इज़ अ फ्रीडम और थॉट ऑफ़ फ्रीडम?
आचार्य प्रशांत: मुक्ति किसी संदर्भ में नहीं होती है, क्योंकि हर ऑब्जेक्ट हमेशा अपने ड्यूल के साथ आता है। एक से मुक्त होओगे तो दूसरे के पास चले जाओगे। ये कोई मुक्ति नहीं है, एक से मुक्त होकर के दूसरे की ओर आकर्षित हो जाना कोई मुक्ति नहीं है। और जब भी एक से मुक्ति की बात करोगे, तो दूसरे की ओर आकर्षित होओगे ही होओगे, क्योंकि तुम्हारी मुक्ति किसी संदर्भ में है।
मुक्ति कोई दूसरी चीज़ है। किसी लिए कभी भी मुक्ति को किसी वस्तु या व्यक्ति से मत बाँधो। मैं तुम से मुक्त होना चाहता हूँ, ये बहुत फालतू बनेगी बात। मुक्ति का अर्थ है सिर्फ़ मुक्ति।
ये हमने पहले भी बात करी थी। उसमें कहा था, अगर मुक्ति चाहिए और उसका कोई केंद्र बनाना चाहते हो — कि किस से मुक्ति चाहिए? तो ये मत कहो कि फ्रीडम फ्रॉम द सेंसिस — बिल्कुल सीधे आख़िरी बात करो। बोलो, फ्रीडम फ्रॉम मायसेल्फ, दैट इज़ ओनली फ्रीडम पॉसिबल। दैट फ्रीडम विल नॉट हैव एनी सेंटर। जस्ट फ्रीडम — एंड इन दैट फ्रीडम एवरीथिंग इज़ इंक्लूडेड, दैट फ्रीडम डज़ नॉट एक्सक्लूड बॉन्डेज। देन यू सी फ्रीडम इज़ इन बॉन्डेज एंड ईवन इन योर डीपेस्ट मोमेंट ऑफ बॉन्डेज यू आर स्टिल फ्री। आर यू गेटिंग इट?
प्रश्नकर्ता: पढ़ा था, उन्होंने कहा — मुक्ति कुछ है नहीं, एक मन है — मन अपनी वासनाओं से, जो उनके चला ही नहीं चलता, उनके प्रभाव में काम नहीं करता है। उन्होंने उस मन को ही मुक्त कह दिया है।तो वहाँ मुझे कन्फ्यूज़न हुआ कि, अब वो मन ही मुक्त है।
आचार्य प्रशांत: कोई ऐसा मन नहीं होगा, जो प्रभावों पर न चले। समझना इस बात को। क्योंकि मन का अर्थ ही है प्रभाव। प्रभाव के अतिरिक्त मन और है क्या? मन, प्रभावों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इसलिए कह रहा हूँ कि वास्तविक मुक्ति वो है जो प्रभाव में भी मुक्त रहे, जो प्रभाव में भी मुक्ति दिखे। विच इज़ फ्री ईवन इन बॉन्डेज। तब तो मुक्त हो। जो समस्त द्वैत में भी शून्य पर कायम है। तब तो मुक्त हो। अन्यथा मुक्त नहीं हो।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बोध सत्र तो चारदीवारी में भी हो सकते हैं, तो हम बोध सत्रों के लिए अद्वैत शिविरों में क्यों जाते हैं?
आचार्य प्रशांत: ये बिल्कुल ठीक है कि इन फोर वॉल्स के भीतर भाग क्लैरिटी सेशन हो जाता है। लेकिन जीवन इन फोर वॉल्स तक सीमित नहीं है। यही कारण है कि तुम पाते हो कि यहाँ तो जो घटना होती है सो होती है, पर उसके बाद कुछ और ही घटना शुरू हो जाता है।
अगर हमें सिर्फ़ वही करना होता जो हम यहाँ कर रहे हैं — बैठकर के चर्चा, तो निश्चित रूप से इस कमरे में भी हो सकती है। पर हम वहाँ सिर्फ़ चर्चा ही नहीं करने जा रहे हैं। इट इज़ एन ऑल्टर्नेट वे ऑफ लिविंग। इट इज़ नॉट जस्ट अबाउट टॉकिंग एंड डिसकसिंग, इट्स एन ऑल्टर्नेट वे ऑफ बीइंग। हीयर, ऐज़ यू सिट, एवरीथिंग इज़ मैन-मेड। देयर, ऐज़ यू विल सिट — वेरी फ्यू थिंग्स विल बी देयर, ऐंड दोज़ थिंग्स दैट विल बी देयर, विल ऐक्चुअली नॉट बी मोस्टली मैन-मेड।
ऐंड व्हेन आई से मैन-मेड, ऑफ़ कोर्स यू मस्ट कंसिडर थॉट। व्हाटेवर इज़ मैन-मेड इज़ थॉट। द मोमेंट यू स्टेप आउट ऑफ़ दिस रूम, यू एनकाउंटर ऑल मैन-मेड थिंग्स एंड यू स्लिप बैक इंटू अनदर वर्ल्ड। सी वेदर अनदर वे ऑफ़ लिविंग इज़ पॉसिबल। सी व्हाट डज़ इट मीन टू नॉट लिव इन अ ब्रिक-ऐंड-मॉर्टर रूम। गेटिंग इट? ट्राय टू सी दैट।
जो तुमने बात कही है, वो अपने आप में बड़ी सही है। रॉबर्ट पर्सिग हैं, जिन्होंने ज़ेन इन द आर्ट ऑफ मोटरसाइकिल मेंटेनेंस लिखी है। उसमें एक बहुत प्यारी बात है — "द ओनली ज़ेन दैट यू फाइंड ऑन द टॉप ऑफ अ हिल इज़ द ज़ेन दैट यू ब्रिंग अप देयर।"
लेकिन ख़ुद भी उसने क्या किया था? अपनी बाइक थी उसकी, वो अपनी बाइक लेकर दुनिया घुमा। और कह रहा है पहाड़ के ऊपर अगर तुम ज़ेन खोजने जा रहे हो, तो तुम्हें वहाँ उतना ही ज़ेन मिलेगा जो तुम अपने साथ लेकर के आए हो। बात बिल्कुल ठीक है। लेकिन तुम अपने साथ जो ले करके जाते हो वो तुम्हारे वातावरण के प्रभाव हैं। उस वातावरण को थोड़ा बदलकर देखें, कुछ और भी पता चल सकता है।
प्रशनकर्ता: आचार्य जी, सिद्धांत और बुनियाद में क्या अंतर है?
आचार्यप्रशांत: जमीन-आसमान का अंतर है। फंडामेंटल्स जीवन के होते हैं, आदमी ने नहीं बनाए। प्रिंसिपल्स, सिद्धांत सारे आदमी के बनाए हुए हैं। हमें फंडामेंटल्स नहीं पता पर हमारे पास प्रिंसिपल्स बहुत हैं। हमें फंडामेंटल्स बिल्कुल नहीं पता हैं, पर हमारे पास प्रिंसिपल्स बहुत हैं। है। और एक बड़ी मज़ेदार बात है, आपको फंडामेंटल एक थोड़ा पता चला, पर जैसे ही आप उसको शब्दों में ढालना चाहोगे। आप जैसे ही उस फंडामेंटल को इकट्ठा करके रखना चाहोगे वो एक प्रिंसिपल बन जाएगा। और यही काम हर धर्मग्रंथ के साथ होता है। वो तुमको फंडामेंटल की ख़बर देना चाहता है, वो तुम्हें फंडामेंटल के बारे में कुछ कहना चाहता है — पर कहते-कहते वो प्रिंसिपल बन जाता है।
इसलिए फंडामेंटलिस्ट से घबराने की ज़रूरत नहीं है। अगर कोई वाकई फंडामेंटल्स हैं, तो वो बहुत खूबसूरत आदमी होगा। अगर किसी से बचना है, तो प्रिंसिपल्ड लोगों से बचना है। ये जो सिद्धांतवादी होते हैं, ये जो आइडियलिस्टिक लोग होते हैं — ये बड़े खतरनाक होते हैं। “देखिए ये मेरे सिद्धांतों की बात है" ये बहुत ख़तरनाक आदमी है, मुर्दा आदमी है और मूर्ख आदमी है।
अब सिद्धांत है — कानून अंधा होता है, ये सिद्धांत है और ये परम मूर्खता है। जितने भी सिद्धांत होंगे सब मूर्खता से निकलेंगे। आदमी और आदमी बराबर हैं, परम मूर्खता है। जिस तल पर बराबरी है, उस तल पर आदमी, आदमी ही नहीं है। हाँ ठीक है, हम बराबर ही नहीं हैं सब आपस में, हम एक हैं। पर जिस बिंदु पर हम एक हैं, उस बिंदु पर हम आदमी नहीं हैं। तो आदमी और आदमी कभी बराबर नहीं हो सकते। पर आपके पूरे मॉडर्न सिविलाइज़ेशन का आधार ही यही है, "आदमी और आदमी बराबर है" — कतई नहीं।
आत्मा बराबर है और एक है, पर जहाँ वो है वहाँ आदमी नहीं है। और जहाँ आदमी है वहाँ बराबरी नहीं है। और अंधा है वो कानून, जो हर आदमी को एक दृष्टि से देखता है। बात सिद्धांत की है क्या करोगे? "मेरा सिद्धांत है मैं कभी झूठ नहीं बोलता।" तो तुम मशीन हो कि तुम्हें जो फीड करा दिया गया है वो तुम बोल देते हो। तुम्हारे पास कोई चेतना नहीं है, जो एक जागता हुआ निर्णय कर सके।
तुम एक मुर्दा आदमी हो जिसका पहले ही तय है, कि जो फैक्ट है ये उसको बोल ही देगा, ख़त्म हो गई बात। ये सिद्धांतवादी हैं। सिद्धांत हमेशा कैद किए जा सकते हैं और रिजिड होते हैं। फंडामेंटल कभी रिजिड नहीं होता। फंडामेंटल नदी की तरह है, जो अपनी धारा बदलती रहती है और बहती रहती है।
जो फंडामेंटल है उसको लाओत्ज़ू बोलते हैं। द मिस्टीरियस फीमेल — सब कुछ पता नहीं चलता। पर, उससे सब कुछ निकलता है, फीमेल है, ओरिजिनेटर है। उससे सब निकलता है और मिस्टीरियस है, उसका पता नहीं चलता। सिद्धांत इज़ द वेल-नोन मेल। फंडामेंटल इज़ अ मिस्टीरियस फीमेल एंड प्रिंसिपल इज़ द वेरी ऑब्वियस एंड रिजिड मेल। जिसका पहले से ही पता है। गुड मॉर्निंग बोलोगे तो कहेगा वेरी गुड, इसको इग्नोर करोगे तो डंडा मारेगा। ये सिद्धांत है।
प्रश्नकर्ता: ये नज़रिया कि सिद्धांत जमे हुए होते हैं, और जीवन में सिद्धांत नहीं होने चाहिए। क्या ये भी एक सिद्धांत नहीं है?
आचार्य प्रशांत: ये भी एक सिद्धांत है। कि जीवन में सिद्धांत नहीं होने चाहिए, ये भी एक सिद्धांत ही है। क्योंकि ये बात भी सिद्धांत बन गई, अगर ये जमी हुई है। जमे हुए का अर्थ समझते हो क्या है? जमे होने का अर्थ है कि इसके बारे में कोई दृष्टि नहीं हो सकती, जीवन के अनुभव इसको बदल नहीं सकते।
प्रश्नकर्ता: और शायद मार्क्स जब कह रहा है कि, धर्म सिद्धांत बन गया।
आचार्य प्रशांत: स्पिरिचुअलिटी कितनी वाइब्रेंट चीज़ है। और एक वास्तविक रूप से धार्मिक आदमी, कितनी पोटेंट फोर्स होता है — इसका हमें कुछ पता नहीं है। हमने जो छवियाँ बनाई हैं, वो बड़ी फालतू की छवियाँ हैं। स्पिरिचुअल मीन्स, सीरियस। स्पिरिचुअल मीन्स, अ प्रिंसिपल्ड। स्पिरिचुअल मीन्स, बिलीविंग इन फ्यू थिंग्स हियर एंड देयर। स्पिरिचुअल मीन्स, फॉलोइंग पर्टिकुलर बुक। स्पिरिचुअल मीन्स डेयरिंग टू अ कोड ऑफ कंडक्ट? ये सब कितनी फालतू की बातें हैं, आप समझ नहीं सकते हैं।
स्पिरिचुअल आदमी तो वास्तव में ऐसा होगा कि जब सामने पड़ेगा तो पहचाना नहीं जाएगा। बल्कि संभावना है कि जो स्पिरिचुअल आदमी, धार्मिक व्यक्ति है — वो आपको एक घोर मटीरियलिस्ट लगे। क्योंकि वो जीवन को बहुत गहराई से जिएगा, वो जीवन को जानता है वो समझ रहा है। तो देखने में तो ऐसा ही लगेगा कि बड़ा गहराई से, बहुत भौतिकता में डूबा हुआ है।
आपको किसी भी दृष्टि से लगेगा ही नहीं अपनी कल्पनाओं जैसा। आप जो कुछ सोचकर बैठते हैं ना कि वो गंभीर होगा, और दयालु होगा, और करुणा से उसकी आँखें हर समय छलछलाती रहती होंगी — आप पहचान नहीं पाएँगे। वो महा खिलाड़ी होगा, वो जगत के साथ एक होगा। और अगर जगत लीला है — तो परम लीला होगा। उसकी लीला आपके पले नहीं पड़ेगी।
आप मानें बैठी रहिए कि वे जो मंदिरों में बैठे रहते हैं, जो घंटे बजाते हैं, जो फकीर घूम रहे हैं — ये धार्मिक होते हैं। ये धार्मिक नहीं हैं, ये ऐसे ही हैं लफंडर। इन्हें धर्म का क्या पता है? आज जा रहा था अट्टा मार्केट की ओर। तो वहाँ दो-तीन रास्ते में सिग्नल आते हैं।
पीले कपड़े पहने हुए था एक साधु, वो कार की खिड़की पर गया और नॉक करके माँगने लग गया। उस कार को मैं देख रहा था, उसमें खिड़की के पास एक बच्चा बैठा हुआ था — दादा-वादा होगा उसकी गोद में। तो खेल रहे थे दादा और वो दोनों, वो देख रहा था। और जैसे ही उस साधु ने नॉक किया — कार थोड़ी दूरी पर थी, शीशा भी चढ़ा हुआ था तो सुन नहीं सकता था क्या बात हो रही थी। पर जैसे ही उसने नॉक किया शीशे पर, जो बच्चे की बॉडी लैंग्वेज थी — रहा होगा ऐसे ही डेढ़–दो साल का बच्चा, वो बच्चा यूँ पीछे हो गया और उसको देखने लगा। बच्चे को कुछ नहीं पता है कि साधु क्या है, पर फिर भी बच्चा समझ गया कि गंदी चीज़ है जो भी है।
बच्चा भी समझ गया कि ये गंदा है ये छि! है। उसकी आँखें, बच्चे की साफ़-साफ़ बता रही थीं कि इसका सच क्या है। मैंने कहा — तूने बड़ा अपमान किया पीत वस्त्र का। तूने गेरवे रंग को भी डुबो दिया। और कुछ नहीं था वि नौक कर के भीख माँग रहा था। और बच्चे की आँखें, पूरा सच बयान कर रही थीं उसका। बच्चा ऐसे पीछे हो कर देख रहा था।
जितनी देर तक साधु नॉक करता रहा — बच्चा पीछे ही रहा, पीछे हो गया। और असल में आपके धार्मिक लोगों का सच जानना हो तो ये अच्छा टेस्ट है। उनको किसी बच्चे के पास छोड़ दीजिए। सौ में से निन्यानवे मौकों पर, आपके धार्मिक लोगों से बच्चे घबराकर भाग जाएँगे। जानवर घबरा कर भाग जाएँगे। जानवर और बच्चे ये दोनों बड़ा अच्छा टेस्ट होते हैं — आपके पूरे व्यक्तित्व का।
क्योंकि वो समाज से प्रभावित नहीं होते हैं। वे कुछ सूंघ लेते हैं, कुछ जान जाते हैं। राबिया और दूसरे संत की वो है ना? कि दोनों जा रहे थे — राबिया के पास सारे कुत्ते आएँ, उसको सूँघे, उसको चाटे। और जो दूसरा था उसके पास आएँ ही नहीं। तो उसने पूछा क्या? ऐसा क्यों हो रहा है? वो बोलीं — “ये समझ गए हैं कि तुम इनका मांस खाते हो। तुम मांस खाते हो, इसलिए वो ये बात समझते हैं। इसलिए तुम्हारे पास नहीं आएँगे ये। पता नहीं इस कहानी में तथ्यपरकता कितनी है, पर इंडिकेटर अच्छा है। जानवर समझते हैं, बच्चे भी समझते हैं, छोटे बच्चे समझते हैं।
चला जाए?