आचार्य प्रशांत: सामने वाला भी देख कर बात करता है, उसे भी पता है कौन फँस जाएगा, उसी से बात करता है। बाज़ार में निकलो और बेचने वाले खड़े होते हैं, वो अच्छे से जानते हैं किस पर आक्रमण करना है। पूरा परिवार आगे निकल जाएगा, उसके बाद, 'बहनजी'। कभी देखा है कि वो कह रहे हों 'भाई साहब'?
श्रोता: भाई साहब बातों में नहीं आते न, बहन जी बातों में आ जाती हैं।
आचार्य: ये शिकायत करने से पहले कि दूसरे हावी होने की चेष्टा करते हैं, मुझे ये बताओ कि उनको यह लगा कैसे कि वो हावी हो सकते हैं। उनकी भी नज़र पारखी है, वो भी जीवन देखते हैं तुम्हारा। वो जब देखते हैं कि कमज़ोरी है तुममें तभी वो उस कमज़ोरी का लाभ उठाना चाहते हैं। उनकी बात करो ही मत, अपनी बात करो; कमज़ोरी है क्यों?
तुम कमज़ोर न होते तो ये बात तो छोड़ो कि तुम लड़ाइयाँ जीत जाते, मैं आश्वस्त करता हूँ, तुम्हें लडाइयाँ लड़नी ही नहीं पड़तीं, वो आते ही नहीं तुम्हें चुनौती देने। लकड़बग्घे को जान गँवानी है जो हाथी से लड़ने आएगा!
लोग आते हैं, 'घर परिवार से बड़ा दबाव पड़ रहा है, ये कर लीजिए, वो कर लीजिए।' भाई, घर तो मेरा भी है, परिवार तो मेरा भी है और मेरे भी रिश्ते हैं, और गहरे रिश्ते हैं। मेरे घर वाले तो कभी नहीं आते मुझ पर दबाव बनाने; न आज आये, न कभी और आये। तुम्हारे ही घर वाले क्यों चले आते हैं तुम पर दबाव बनाने, निश्चित रूप से उन्हें दिखता है कि तुम दब जाओगे। और क्यों दिखता है? क्योंकि उन्होंने देखा है कि ज़िंदगी के हर मुक़ाम पर तुम दबते ही रहे हो। जब तुम दबे ही जाते हो तो वो भी आते हैं, कहते हैं, 'चलो हम भी दबा दें, लेट्स ज्वाइन द पार्टी, बहती गंगा में हम भी हाथ धो लें, लूट मची हुई है हम भी लूट लें।'
जो लुटने को तैयार ही हो उसे कोई क्यों न लूटे। जो दबने को तैयार ही हो उसे क्यों न दबाया जाए। जो मूर्खता पर आमादा हो उसे कोई और आएगा क्या मूर्ख बनाने! आपका जीवन गवाही होता है, बातचीत से, तर्क से सिद्ध नहीं करना पड़ता। आपका जीवन बता देता है कि आपके साथ क्या व्यवहार उचित है।
बार-बार ये शिकायत मत करो कि जगत मेरे साथ उचित व्यवहार नहीं करता। आपको वही व्यवहार मिल रहा है, आप जिसके अधिकारी हो। आप अपना जीवन बदलो, लोगों का व्यवहार स्वतः बदल जाएगा। और फिर भी यदि नहीं बदलता, कोई लकड़बग्घा अगर एकदम ही पगला गया है, आता है हाथी के आगे तो वो फिर ठीक है भाई! कभी-कभी प्रदर्शित कर देना चाहिए कि हाथी हाथी है। पर उसकी ज़रूरत सौ में से एक बार पड़ेगी जब कोई लकड़बग्घा बिलकुल ही पगला जाएगा, आमतौर पर कोई इतना पागल होता नहीं।
बल होने का मज़ा ही यही है कि बल फिर प्रयोग नहीं करना पड़ता। और निर्बल होने की विडम्बना ही यही है कि आपको बल बहुत प्रयोग करना पड़ेगा और बल आपके पास होगा नहीं। और ज़रूरत पग-पग पर पड़ेगी बल के प्रयोग की। कि पूरी दुनिया लगी होगी आपको नोचने-खसोटने में। आपको बल चाहिए होगा और बल है नहीं।
जीवन अपना ऐसा रखो कि तुम्हारे चेहरे से तेज फूटे, वाणी तुम्हारी ऐसी हो कि व्यर्थ बातचीत बहुत देर तक चल ही न पाये। कोई आये तुम्हारे पास और ऊल-जलूल बात शुरू करे और तुम बस एक नज़र कर दो उसकी ओर और उसकी आवाज़ गले में ही रुक जाए, ऐसी तुम्हारी नज़र होनी चाहिए। तुम्हारा अगर चेहरा ही ऐसा है कि वो अपमान को आमंत्रित कर रहा है, तो लोग आकर अपमानित करेंगे ही न!
प्र२: लेकिन समाज में तो मतलब पॉवर हो, पैसा हो, उसे बलवान माना जाता है?
आचार्य: न पॉवर, न पैसा; एक नज़र काफ़ी होती है। और वो नज़र आप ओढ़ नहीं सकते, उस नज़र का आप अभिनय नहीं कर सकते, वो नज़र आत्मा से निकलती है। जीवन जब सही जिया होता है तब आँख में वो बात आती है कि कोई बदतमीज़ी नहीं कर सकता आपके साथ। हमारी आँख में वो बात नहीं, हमारी आवाज़ में ज़ोर नहीं, हमारी आवाज़ तो काँप जाती है, थरथरा जाती है। हमारे चेहरे पर वो स्थिरता नहीं, हम पर तो कोई दबाव डालता है तो हम हिल जाते हैं, कंपित।
ऐसे ही एक किसी कैंप में मैंने कहा था, कि या तो एक के सामने सिर झुका लो या हज़ारों के ग़ुलाम रहना। तुम अगर पाते हो अपने जीवन में कि हज़ारों तुम पर राज़ करते हैं, जिसको देखो वही तत्पर हो जाता है तुम्हें ग़ुलाम बनाने को, तो समझ लो कि तुम्हारे जीवन में समर्पण की बड़ी कमी है। जो एकमेव धर्म है, वो अनुपस्थित है तुम्हारे जीवन से इसीलिए दुनिया तुम पर राज़ कर रही है।
जो सत्य के सामने नहीं झुकेगा उसे न जाने कितनों के सामने झुकना पड़ेगा। और जो सत्य के सामने झुक गया, अब वो किसी और के सामने नहीं झुकता। जिसने एक जगह सिर झुका दिया उसका सिर अब और कहीं नहीं झुकेगा। तुम्हारे सिर को बार-बार झुकना पड़ता है तो जान लो कि जहाँ झुकना चाहिए था वहाँ नहीं झुका है।