दार्शनिकता

Acharya Prashant

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दार्शनिकता

जाड़े की सुबह को,

बैठा हूँ मैं बाहर धूप में,

जब एक भूरा कुत्ता और काला कौवा

आकर कुछ इस तरह बैठ जाते हैं-

मेरे ठीक सामने तो नहीं-

पर किसी कोण से लगातार दिखाई देते रहते हैं।

भूरा कुत्ता बहुत कुछ सड़क पर पड़ी

गंदगी जैसा लगता है-

जिसे सूँघता है वो खुद

और काला कौवा आकाश पर छाए

उसी काले धुंआ की तरह

जिसमें उड़ता है वह खुद ।

मन ही मन अपनी इस

सोच पर इतराता हूँ जब-

घर के अन्दर से आती एक आवाज़

मुझे कुछ याद दिलाती है

और मैं स्कूटर स्टार्ट कर

उसी गन्दी सड़क पर,

वैसा ही काला धुआँ छोड़ता

निकल पड़ता हूँ, कुछ काम निबटाने ।

काला कौवा और भूरा कुत्ता अब

बहुत पीछे छूट गए हैं ।

~ प्रशान्त (अक्टूबर, ९५)

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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