
प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य। मैं ये चैप्टर पढ़ रहा था, “बिफ़ोर यू विनिंग, आस्क: व्हाट आर यू विनिंग?”
आचार्य प्रशांत: ज़ोर से बोलिए, कितने लोग हैं, थोड़ा-सा आवाज़ वहाँ तक जाएगी। ये भी एक तरह का अहंकार हो गया न, कि “मैंने तो सुन लिया और मैंने तो सुना दिया; बाकियों को सुनाई पड़े कि न पड़े, मेरा क्या जाता है?”
प्रश्नकर्ता: तो सर, जब आपने कहा कि “जो लड़ाई आपको चूज़ करनी है लाइफ़ में, कि क्या आपको अचीव करना है या क्या आप पाना चाहते हो, बिफ़ोर यू विनिंग, आस्क: व्हाट आर यू विनिंग?”
तो जब आप अपने गोल्स वाइज़ली चूज़ करने के लिए बोलते हो, तो जब हम सेल्फ़-इन्क्वायरी करते हैं, वाइज़ली गोल्स रिसेट करते हैं, तब दिक़्क़त ये आती है कि हम कई बार अपने कॉन्फ़्लिक्ट ऑफ़ इंटरेस्ट बीच में रख देते हैं। हम ऐसी लड़ाई नहीं प्रेफर करते जिसमें इतना संघर्ष हो, गोल ऐसा चूज़ करो जिसमें ईज़िली आप उसको पाओ। फिर आपको संतुष्टि मिले कि, हाँ ये अच्छा काम था ये मैंने किया। शायद आपका पोटेंशियल उससे काफ़ी बेहतर हो कि आप उससे भी ज़्यादा अच्छा कर सकते हो। तो ये जो कॉन्फ़्लिक्ट ऑफ़ इंटरेस्ट आता है बीच में।
आचार्य प्रशांत: नहीं, आप ईज़ि गोल्स नहीं चुनते, आप सेल्फ़-प्रिज़र्वेशन चुनते हो। और वही ईज़ि है, क्योंकि सेल्फ़-प्रिज़र्वेशन का मतलब है स्टेटस क्वो। सेल्फ़-प्रिज़र्वेशन, माने जैसा जो चल रहा है, वैसा ही चलता रहे। तो वही तो ईज़िएस्ट है न? ये किताब यहाँ रखी है, यहीं रखी रहे, ये ईज़िएस्ट बात है। ये तो न्यूटन’स लॉ ऑफ़ इनर्शिया है, इसमें कुछ करना ही नहीं है।
जो जैसा चल रहा है, वैसे ही चलने दो — यही अहंकार है — “मैं जैसा हूँ, मैं ऐसा ही रहूँगा और ऐसा रहते हुए मुझे दुनिया की सबसे उम्दा चीज़ें हासिल हो जाएँ, सारे सुख मिल जाएँ, सारी महानताएँ मिल जाएँ, सब हो जाए।”
अहंकार पूरी ज़िंदगी और कुछ नहीं कर रहा होता, आत्मरक्षा के अलावा।
सेल्फ़-प्रिज़र्वेशन “मुझे अपने आप को बचाना है।” और अगर उसे अपने आप को बचाना है, तो वो अपने लिए कोई कठिन लक्ष्य चुनेगा क्या? क्योंकि कठिन लक्ष्य में क्या होगा?
प्रश्नकर्ता: आपको तोड़ना पड़ेगा।
आचार्य प्रशांत: अपने आप को तोड़ना पड़ेगा, चुनौती देनी पड़ेगी, कुछ भी हो सकता है कठिन लक्ष्य में। तो आप इसलिए ईज़ि गोल्स चुनते हो, ताकि आप जैसे हो वैसे ही बने रहो। आप जैसे हो वैसे रह भी आओ, और ये दावा भी कर लो कि “मैंने तो गोल हासिल भी कर लिया।” और अपने आप को बता दो, “देखो, मैं कितना बढ़िया आदमी हूँ। बढ़िया आदमी हूँ, तभी तो मैंने गोल हासिल कर लिया।” और बिल्कुल छिपा जाओ, कि तुमने गोल चुना ही ऐसा था कि उसमें तुम्हें किसी तरह का खिंचाव, तुड़ाव अनुभव करना ही न पड़े।
प्रश्नकर्ता: सर, बाहर निकलने का रास्ता क्या है? मतलब, सेल्फ़-नॉलेज।
आचार्य प्रशांत: बाहर निकलने का रास्ता है, स्वयं के प्रति जो बने बैठे हो, एक नापसंद उठनी चाहिए। अगर आपने अपनी जो हालत कर ली है, आप उससे संतुष्ट हो गए हो, राज़ी हो गए हो, तो कोई बदलाव नहीं आ सकता।
सेल्फ़-लव का मतलब होता है, आप जो हो सकते हो, उसके प्रति प्रेम।
आप हो सकते हो, काल्पनिक तौर पर नहीं, वैचारिक तौर पर नहीं, बल्कि वास्तव में, हल्के, मुक्त, निडर। सेल्फ़-लव का मतलब ये नहीं होता कि आप जो हो, उसी के प्रति प्रेम। आप जैसे बने बैठे हो, उसके प्रति तो डिसगस्ट चाहिए, उसके प्रति तो अनादर चाहिए। “ऐसे नहीं रहना मुझे। ऐसा नहीं रहना मुझे, ये मैं हूँ ही नहीं तो ऐसा क्यों रहूँ? मैंने किसी नकली चीज़ को अपना नाम दे रखा है, वो मैं हूँ ही नहीं। तो मैं वैसा क्यों रहूँ?” ये जब तक नहीं उठेगा, तब तक आप जैसे हो, आप बस उसकी रक्षा के लिए ही लगे रहोगे। यही ईगो है, एक नकली चीज़ को बचाने के लिए अंधाधुंध प्रयास।
पहली बात तो, वो चीज़ नकली है। दूसरी बात, जितनी भी आप कोशिश कर लो, उसकी फेकनेस छुपेगी नहीं। वो चीज़ ऐसी है कि आपकी पूरी ज़िंदगी, आपका पूरा श्रम, सारा प्रयास ले लेगी, फिर भी बचेगी नहीं। उसकी प्रकृति ही ऐसी है, नकली चीज़ है न! नकली में आप कितना दम लगाओगे कि वो असली हो जाए? वो अथाह आपका श्रम सोख लेने के बाद भी रहेगा तो नकली ही।
तो अहंकार घाटे का सौदा है, वो आपकी सारी ज़िंदगी ले जाएगा, बस इसी प्रयास में कि “मैं बचा रहूँ।” आप लगे हुए हो साल-दर-साल एक जगह के बाद दूसरी जगह, एक ऑफ़िस, दूसरा ऑफ़िस, एक रिश्ता, दूसरा रिश्ता। इधर कोशिश की, फिर उधर जाकर कुछ आज़माया, और सब कुछ किस लिए? किसी बहुत नकली चीज़ को बचा लो, जो बच ही नहीं सकती। तो इससे अच्छा ये है कि अपने आप को एक सही लक्ष्य दो, और सही लक्ष्य की पहचान ही यही है, कि वो आपको तोड़ेगा।
अपने आप को बचाने की अपेक्षा, अपने आप को तोड़ने पर ध्यान दो।
ये मत कहो कि “मुझे पसंद क्या है, मेरी स्ट्रेंथ्स किधर है, मैं वो काम करूँगा।” तुम वो काम करोगे तो फिर कुछ बदलेगा भी नहीं। ये देखो कि वीकनेसेस किधर हैं, उधर काम करो। ये मत कहो कि “मुझे जो आता है, उससे संबंधित जहाँ पर चर्चा हो रही है, मैं वहाँ जाकर बैठूँगा और ज्ञानी कहलाऊँगा।” क्योंकि फलाने क्षेत्र में तुम्हें कुछ ज्ञान है, नॉलेज है, तो उस क्षेत्र में जहाँ बातचीत हो रही होगी, तो वहाँ जाकर बैठूँगा ताकि मैं वहाँ ज्ञान झाड़ सकूँ और बढ़िया, ऊँचा ज्ञानी कहलाऊँ।
वहाँ जाकर बैठो जहाँ कुछ नहीं आता। वहाँ पर ठीक है पोल खुलेगी, थोड़ी बेइज़्ज़ती होगी, लेकिन कमज़ोरी टूटेगी। ये होता है लक्ष्य बनाने का तरीका। ये नहीं कि जहाँ पहले से ही तुम्हें लगता है कि मजबूत हो, वहीं रुचि होती है। जब हम कहते हैं इंटरेस्ट, वहीं रुचि होती है जहाँ मजबूती है या मजबूती की संभावना दिख रही है, तो वहाँ नहीं जाना है। जहाँ दिख रहा है कि कमज़ोरी है, वहाँ जाओ। भले ही वहाँ कुछ लाभ न हो रहा हो, भले ही वहाँ कोई पूछने वाला न हो, भले ही वहाँ बार-बार ये बात ज़ाहिर होती हो कि “अज्ञानी हो।”
ये बात पसंद नहीं आएगी, किसको? ईगो को। ईगो को नहीं पसंद आएगी। पर फिर आप ईगो हो भी तो नहीं न! ईगो को नहीं पसंद आती, तो ये ईगो का सरदर्द है। आप क्यों परेशान होते हो? उसका काम वो जाने।