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चेतना के चार तल
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय ये चार अवस्थाएँ क्या हैं?

आचार्य प्रशांत: इसका जो शास्त्रीय तरीक़ा है बताने का, शुरुआत वहाँ से करेंगे। दस तो मानी गई हैं इंद्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ। और उसके अलावा होता है अन्तःकरण। अन्तःकरण क्या? अन्तःकरण चतुष्टय, जिसमें चार आते हैं। कौन से चार? जो अंदर के हैं।

इन्द्रियाँ वो, जो सीधे-सीधे बाह्य जगत से संपर्क रखती हैं। और अन्तःकरण चतुष्टय में वो आते हैं चार जो अंदर-अंदर बैठे हैं, जो सीधा संबंध नहीं रखते हैं बाहरी जगत से। वो चार क्या हैं? मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। ठीक है?

तो इनको आधार बनाकर के चेतना की इन तीन अवस्थाओं की विवेचना की जाती है। जागृत अवस्था वो है चेतना की जिसमें ये चौदहों सक्रिय हैं। जहाँ ये चौदहों सक्रिय हैं, वो अवस्था मानी गई जागृति की। चौदहों सक्रिय हैं माने आँखें कुछ भीतर ला रही हैं, जो भीतर आ रहा है, वो स्मृति के द्वारा एक नाम पा रहा है। चित्त उसको पुराने अनुभवों से जोड़कर देख रहा है, अहंकार उसके साथ संबंध बना रहा है और मन उसका उपयोग करके विचार और कल्पनाएँ कर रहा है। चौदहों सक्रिय हैं जागृत अवस्था में।

कुछ आया तुम्हारे भीतर तुम्हारी त्वचा के स्पर्श से, तुम्हारे कानों में पड़े शब्द से: रंग, रूप, रस, गंध, शब्द। इन्द्रियों के ये सब जो विषय होते हैं तो ये सब विषय इन्द्रियों के द्वारा भीतर प्रवेश कर रहे हैं और भीतर जो यंत्र काम कर रहा है वो इस भीतर आई जानकारी पर, इस भीतर आए डाटा (जानकारी) पर कुछ कारवाई करके किसी तरीक़े का कोई उत्पाद तैयार कर रहा है, जिसके द्वारा फिर जीव कुछ अनुभव करता है और कर्म करता है। ये जागृत अवस्था हुई। ठीक है?

ये जो जीव है, इसका अहंकार अगर अनुभवों से बहुत लिप्त है और अनुभवों के फल का बड़ा लोभी है तो फिर ये जो अहंकार है, ये इस बात की भी प्रतीक्षा नहीं करता कि बाहर से कुछ माल-सामग्री आए तो मैं उसके साथ संबंध बनाऊँ, तो मैं उस पर कुछ प्रक्रिया करूँ। वो अहंकार फिर कहता है, बाहर से सामग्री नहीं भी आ रही, तो भी हम कल्पना का इस्तेमाल करके कुछ-न-कुछ माल तैयार कर लेंगे। इस अवस्था को कहते हैं स्वप्नावस्था।

जागृति में तो अनुभव लेने के लिए आवश्यक है कि तुम्हारे सामने कोई खड़ा हो। मान लो तुम पैसे के पुजारी हो, तो जागृति में पैसे से संबंधित अनुभव तुम्हें कब होगा? जब आँखें कम-से-कम पैसे को देखें, हाथ पैसे को छुए, कानों में पैसों से संबंधित कुछ बातचीत पड़े। जागृति में अनुभव लेने के लिए इंद्रियों का सक्रिय सहयोग आवश्यक है। इन्द्रियों की सक्रियता आवश्यक है, है न?

स्वप्न में तो तुम्हें इन्द्रियों की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। तुम्हारा अहंकार इतना लिप्त हो चुका है भोग से कि वो कहता है कि “आँखों से मुझे धन दिखाई पड़ रहा हो, चाहे न दिखाई पड़ रहा हो, मैं तो साहब कल्पना कर लूँगा। और कल्पना कर-कर के ही अनुभव के मज़े लूट लूँगा।" जो कि आपके साथ नींद में होता है। नींद में आपको दिखाई तो कुछ नहीं पड़ रहा लेकिन आप प्रतीक्षा भी नहीं करते कि दिखाई पड़े तो भोगूँ। आप कहते हैं, "नहीं भी दिखाई पड़ रहा, मैं तब भी भोग लूँगा। मैं तो बड़ा चालाक हूँ। मैं तो स्मृति का सहारा लूँगा।"

चित्त क्या होता है? स्मृति का घर। "मैं तो स्मृति का सहारा लूँगा और मैं मन का सहारा लूँगा।" मन क्या होता है? कल्पना का घर। स्मृति के आधार पर कल्पना की जा सकती है। आपको किसी चीज़ का पूर्व अनुभव हो वो क्या बन जाता है? स्मृति। और उस पूर्व अनुभव को ही आप नया रूप, रंग, कलेवर, आकार देकर के क्या बना लेते हैं? कल्पना। ये स्वप्नावस्था है जिसमें आप चित्त में संग्रहित सामग्री का इस्तेमाल करके अपने-आपको सुख देने वाली या किसी तरह के अनुभव देने वाली कल्पनाओं का निर्माण कर लेते हैं। उन कल्पनाओं को ही कहा जाता है स्वप्न। समझ में आ रही है बात?

तो आप जो स्वप्न ले रहे हैं वो वास्तव में आपकी अनुभवलोलुपता के प्रदर्शक हैं। हम अनुभव के ऐसे भूखे हैं कि दिन के जगते हुए सोलह घंटों में हमें जो अनुभव हुए, वो हमें पूरे नहीं पड़े। हम कहते हैं, "अभी और अनुभव चाहिए।" वो अनुभव कुछ भी हो सकते हैं। ज़रूरी नहीं है कि वो सीधे-सीधे प्रत्यक्ष तौर पर सुख के ही अनुभव हो। लोग सपनों में डरते भी हैं। लोगों को सपनों में ये भी दिखाई दे जाता है कि उनकी मौत हो गई, कोई नुकसान हो गया या वो किसी ऊपर इमारत से गिर पड़े हैं नीचे।

लेकिन आपको भले ही सपनों में डर का अनुभव हो रहा हो, अनुभव तो हो रहा है न? तो सपने लेना यही दिखाता है कि आपमें अनुभवलोलुपता बहुत है। आपके भीतर जो अनुभोक्ता बैठा हुआ है, ‘अहम' वो मान ही नहीं रहा। वो कह रहा है, "भी और चाहिए मुझे अनुभव कराओ, एक्सपीरियंस कराओ।" देखा है न, लोग पागल रहते हैं? कोई पूछता है कि “जीवन किसलिए है?" तो कहते हैं कि "जीवन अनुभव लेने के लिए है। अभी मुझे पाँच-सात तरीके के और अनुभव लेने हैं।"

अब मान लो ये जो तुम्हें अनुभव लेने हैं, जागृत अवस्था में इनको पाने की कीमत चुकाने का तुममें सामर्थ्य ही न हो तो तुम क्या करोगे?

भई! आप अनुभव लेना चाहते हो कि आपने जाकर के चांद पर छलांग लगा दी है। आप एस्ट्रोनॉट हो, आप रॉकेट में बैठके गए हो और आप चांद पर कूद रहे हो। आपकी बड़ी इच्छा है कि आप ये अनुभव लो। पर न आपकी रॉकेट पर बैठने की योग्यता है, न चांद पर छलांग लगाने की पात्रता है। तो वो मौका तो आपको ज़िन्दगी में मिलने से रहा। तो फिर आप एक चतुर तरीक़ा क्या निकालोगे? सपना ले लोगे, कहोगे, "अनुभव ही तो लेना था। लंबा-चौड़ा पैसा खर्च करके और मेहनत करके कौन अनुभव ले? आँख बंद करो, सो जाओ" और अ-ला-ला-ला, चांद पर पहुँच गए लाला। तो सपने एक तरह की चतुराई हैं। उसको चतुराई भी कह सकते हो और विवशता भी कह सकते हो और नादानी और अज्ञान भी कह सकते हो, जो कहना चाहो।

अब आते हैं तीसरी अवस्था पर। जिसको क्या बोलते हैं? सुषुप्ति। सुषुप्ति भी अवस्था तो निद्रा की ही है, पर इस अवस्था में कुछ और होता है। इसमें तुम्हें सपने भी नहीं आ रहे होते। और कहा गया है कि सुषुप्ति का जो आनंद होता है, वो तो सपनों से भी आगे का होता है। जागृत में आप सुख ढूंढ़ रहे होते हो संसार में, स्वप्न में आप सुख का निर्माण कर रहे होते हो कल्पनाओं से और सुषुप्ति में सुख का निर्माण भी नहीं करना पड़ता। आप बिना किसी विषय का उपयोग करे ही सुख भोग रहे होते हो।

तो सुषुप्ति क्या है? सुषुप्ति वो अवस्था है जिसमें आनंद अहम् को अपने होने से ही आ जाता है। अहम् को अब किसी विषय की ज़रूरत नहीं है। वो अपना ही आनंद ले रहा है, उसे कोई कल्पना भी नहीं करनी है। वो अपनी ही बेहोशी में डूब गया है। अब वो विषयों से रिक्त हो गया है। एक तरीक़े से ये समाधि के पास की अवस्था है और दूसरी दृष्टि से देखो तो ये गहरा और मूल अंधकार और अज्ञान है। ये दोनों ही बातें सुषुप्ति पर लागू होती हैं।

जब व्यक्ति के, मनुष्य के अस्तित्व को कोशों के द्वारा निरूपित किया जाता है तो उन कोशों के बिल्कुल केंद्र पर जो बैठी होती है उसे कहते हैं आत्मा। और उस आत्मा के जो निकटतम है उसको कहते हैं आनंदमय कोश। उसी आनंदमय कोश का संबंध सुषुप्ति से है।

तो एक तरफ़ तो ये जो सुषुप्ति है ये आत्मा के निकटतम है, दूसरी ओर ये जो सुषुप्ति है, वो सबसे बड़ा झूठ भी है और सबसे बड़ा नशा भी है क्योंकि आपको आनंद की प्राप्ति हो गई है बिना मुक्ति के ही, बिना साधना के ही। ये आनंद तो है पर झूठा आनंद है और झूठा इसलिए है क्योंकि इसमें नित्यता नहीं है, ये टूटेगा। ये आपको थोड़ी देर के लिए सब दुःखों से तो मुक्त कर देता है पर अभी कोई आएगा, आप सो रहे हो, गाल पर चपत लगाएगा या हो सकता है बस ज़ोर से आपका नाम लेके आपको आवाज़ देदे और ये आनंद छू मंतर हो जाना है। तो आनंद मिला तो, पर बड़ा अनित्य था, बड़ा झूठा था। कुछ इस आनंद ने बताया तो, कुछ इशारा तो किया पर चला नहीं, टिका नहीं। और जो अनंत ना हो, उसको सच्चा कैसे मानें? जो आया ही इसलिए हो कि छोड़ के चला जाए, उसका भरोसा क्या करें?

दूसरी ओर, वो छोड़ के भले चला गया पर थोड़ी देर के लिए ही सही, स्वाद तो दे गया। ये तो बता गया कि रोज़मर्रा के जागृति के और स्वप्न के सुख-दुःख और तनाव के आगे गहरी राहत की भी कोई अवस्था की संभावना है। तो सुषुप्ति में आपको जो गहरे आनंद का अनुभव होता है और अनुभव तो होता ही है। गहरी नींद लेकर के आप उठते हो तो कहते नहीं हो, “बड़ी गहरी नींद आई आ-हा-हा-हा। बड़ा ताज़ा अनुभव हो रहा है।" कहते हो कि नहीं?

तो सुषुप्ति में आपको जो गहरे आनंद का अनुभव होता है, वो आपके लिए अच्छा भी हो सकता है, बुरा भी हो सकता है। अच्छा ऐसे है कि उसने आपको बता दिया कि तनाव ज़रूरी नहीं है। उसने आपको तरो-ताज़ा कर दिया है। वो आपको बता गया है कि आप जैसे दिन भर जीते हो वो फ़िज़ूल है, व्यर्थ है और संभव है एक सहज तनावमुक्त जीवन जीना। अगर आप इस इशारे का सदुपयोग कर लें तो सुषुप्ति बड़े सौभाग्य की चीज़ है, आपको सहारा देने आई है, इशारा देने आई है।

और अगर आप सुषुप्ति का उपयोग सिर्फ़ इसलिए कर रहे हैं कि आपको एक तात्कालिक राहत मिल जाए, दो-तीन घंटे आपको गहरी नींद मिल जाए—आठ घंटे सोए, उसमें से सुषुप्ति के बस दो ही तीन घंटे होते हैं—वो दो-तीन घंटे में आपको गहरी नींद मिल जाए ताकि आप पुनः ताज़े होकर के अपने पुराने ही ढर्रों में लौट जाएँ तो सुषुप्ति फिर आपके लिए बड़े दुर्भाग्य की बात है। क्योंकि सुषुप्ति आपको तरो-ताज़ा तो कर रही है, पर सिर्फ़ इसलिए ताकि आप अपने पुराने बंधनों में बने रह जाएँ। तो सुषुप्ति चेतना की एक बड़ी विशिष्ठ अवस्था है। बात आ रही है समझ में?

फिर सुषुप्ति के आगे जो होता है उसे चेतना की अवस्था नहीं मानते। वो चेतना का आधार कहलाता है। उसे आत्मा कहते हैं। और वो चूँकि इन तीनों अवस्थाओं से आगे होता है तो इसलिए उसे तुरीय भी कहते हैं। चूँकि वो चेतना की कोई अवस्था ही नहीं होती, बल्कि अवस्थाओं के प्रति निरपेक्षता होती है, अवस्थाओं के प्रति एक तरह की अरुचि होती है, तो उसको कहते हैं साक्षी। तुरीय ही आत्मा है, तुरीय ही साक्षी है; द फोर्थ, चौथा, तुरीय। तीन से आगे, चौथा।

चौथा भी इसलिए कहना पड़ रहा है कि तीन से आगे है। नहीं तो बस ये कहना काफ़ी होता कि तीन से आगे है। असल में जब चौथा बोल दिया तो ऐसे लगता है कि जैसे तीन अवस्थाएँ हैं तो वैसी कोई चौथी अवस्थी भी होती होगी। ये बात समझ में आ रही है?

तुरीय चेतना की कोई अवस्था होती ही नहीं है, तुरीय विशुद्ध चेतना मात्र है। तो इससे ये भी स्पष्ट हो गया होगा कि ये जो चेतना की तीन अवस्थाएँ हैं जिनकी हमने बात करी, ये वास्तव में तीन अशुद्ध अवस्थाएँ हैं। ये चेतना की तीन अशुद्धताओं के नाम हैं: जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति। ये चेतना में तीन तरह के विकारों और विकृतियों के नाम हैं, जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति। जब चेतना बिल्कुल स्वच्छ और शुद्ध हो जाती है, विशुद्ध चैतन्य मात्र हो जाती है तो तुरीय कहलाती है। अब उसमें कोई अवस्था नहीं है। अब वो अवस्थातीत हो गया। इसी को ऐसे भी कह सकते हो कि तुरीय चेतनातीत है।

एक तरफ़ तो ये भी कह रहे हो कि विशुद्ध चेतना है और दूसरी दृष्टि से ये भी कह सकते हो कि चेतना से आगे है। जब कहते हो चेतना से आगे है तो वास्तव में तुम कह रहे हो चेतना की अशुद्धियों से आगे है, शुद्ध।

स्पष्ट है, चेतना की तीनों अवस्थाएँ और तुरीय?

प्र: अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय कोशों का परिचय क्या है? ये सब कोश किसके हैं?

आचार्य: ये सब कोश जीव के हैं। शुरुआत हमेशा यहाँ से करो, ये अध्यात्म का सूत्र है। उपनिषदों को पढ़ना भी अपने-आपमें एक कला है। लगातार पूछते रहना पड़ता है कि ये जो बात कही जा रही है, किससे कही जा रही है, किसके लिए कही जा रही है। जिनको आध्यात्मिक ग्रंथों को पढ़ना नहीं आता या जिनको आध्यात्मिक वार्ताओं को सुनना नहीं आता, वो पढ़ने और सुनने से पहले तो पढ़ने-सुनने की कला विकसित करें। एक ख़ास तरीक़ा होता है इन ग्रंथों को पढ़ने का या इन वार्ताओं को सुनने का। जिनको वो तरीक़ा नहीं आता वो अर्थ का अनर्थ कर लेते हैं, उन्हें लाभ नहीं होता, उन्हें क्रोध वगैरह ज़्यादा आ जाता है। उन्हें लगता है, ये क्या बात हो रही है ऐसी-वैसी?

तो ये जो जीव है, इसमें जो चीज़ सबसे बाहर है उसको कहते हैं अन्नमय कोश। अन्नमय कोश माने वो सब कुछ जो बाहर से लेकर के बना है। बाहर से अन्न लेकर के, जल लेकर के, हवा लेकर के, धूप लेकर के जिसका निर्माण हुआ है उसको कहते हैं अन्नमय कोश। तो शरीर का रेशा-रेशा कहलाता है अन्नमय कोश। इस अन्नमय कोश में अगर हम अस्तित्व की ही बात कर रहे हैं तो अन्नमय कोश से भी बाहर का एक कोश तुम और जोड़ सकते हो। अगर पांच कोश हैं तो एक छ्ठा कोश भी जोड़ा जा सकता है। छ्ठा कोश बताओ क्या होगा?

भीतर से बाहर की ओर आते-आते जो तुम्हें सबसे बाहरी कोश मिला वो है अन्नमय कोश; ये (शरीर)। इससे भी बाहर एक और कोश तुम कह सकते हो कि होता है, हालांकि शास्त्रीय तौर पर उसका कोई उल्लेख नहीं है, लेकिन फिर भी कह सकते हो। क्या? संसार।

तो सबसे बाहरी कोश तो संसार है। मैं उसको इसलिए जोड़ना चाहता हूँ क्योंकि संसार भी है तो हमारे ही अस्तित्व का हिस्सा न? विशुद्ध अद्वैत का अर्थ क्या होता है? जो कुछ भी है, मेरा ही प्रक्षेपण। और मेरा प्रक्षेपण है झूठा ही। तो दो हैं, मात्र दो: मैं और संसार। मैं माने आत्मा। मात्र दो हैं, आत्मा और संसार और इन दो में भी एक प्रक्षेपण मात्र है, मिथ्या है, तो ले-दे करके बचा कौन? एक। आत्मा! और आत्मा एक भी नहीं है क्योंकि एक अकेला हो नहीं सकता तो उसको एक कहना भी ठीक नहीं है तो बस अद्वैत बोल दो। ठीक है?

तो इसीलिए हम ये कहें कि आत्मा है और फिर आत्मा के अलावा पांच कोश हैं और फिर संसार है तो हमने तीन बना दिए न। नहीं समझे? हमने कह दिया आत्मा है फिर पांच कोश हैं और फिर बाहर संसार है, तो ये तो हमने तीन बना दिए। तीन न बनाओ, दो ही रहने दो। आत्मा और पांच कोश और छ्ट्ठा कोश संसार को मान लो क्योंकि संसार भी हमारा ही विस्तार है। ठीक है?

तो संसार से दाना-पानी लेकर के हमने जिस कोश का निर्माण करा उसको क्या कहते हैं? अन्नमय कोश। ये (शरीर) अन्नमय कोश है, ठीक है?

अन्नमय कोश में जो कुछ है वो या तो ठोस है या तरल है। उसके अलावा जो अगला कोश है उसे कहते हैं प्राणमय कोश जिसमें तमाम तरह की वायु हैं—चौदह तरह की वायु मानी गई हैं—बहुत सारी वायु हैं, उन्हीं वायुओं को कहते हैं प्राण, प्राण हैं। तो ऐसे कहा जाता था कि प्राण नहीं हैं तो श्वास का चलना बंद हो जाता है और शरीर में जितनी भी गतियाँ होती हैं वो सब बंद हो जाती हैं।

वो सब जितनी गतियाँ होती हैं शरीर में उनकी प्रतिनिधि है वायु, क्योंकि वायु गति करती है। गति तो तरल पदार्थ भी करते हैं लेकिन जीवन का प्रतिनिधि माना गया वायु को। इसीलिए जो वायु का कोश है उसे नाम दिया गया प्राणमय कोश। आखिरी बात ये है कि जब ये (नाक की) वायु चलनी बंद हो जाती है तो प्राण नहीं है, तो उसको नाम दिया गया प्राणमय कोश। ठीक है?

उसके बाद कौनसा कोश आता है? मनोमय कोश। मनोमय कोश क्या है? जहाँ पर—अभी हम स्थूल से सूक्ष्म की ओर जा रहे हैं, अंदर की ओर—मनोमय कोश आपके अस्तित्व का वो तल है जहाँ अव्यवस्थित मानसिक गतिविधि चलती ही रहती है, लगातार। मन है और मन वृत्तियों द्वारा संचालित है। मन उच्छृंखल है, मन पूरे तरीक़े से मात्र प्राकृतिक गति कर रहा है। उसको प्रकृति के आगे जाने की कोई अभीप्सा नहीं हैं। ये कोश कहलाता है मनोमय कोश। मनोमय कोश सक्रिय होता है पशुओं में भी। मनोमय कोश पशुओं में भी सक्रिय होता है। ठीक है?

मनोमय कोश को सक्रिय करने के लिए ठीक वैसे आपको कोई साधना नहीं करनी पड़ती जैसे कि अन्नमय कोश और प्राणमय कोश को सक्रिय करने के लिए आपको कोई साधना नहीं करनी है। मनोमय कोश स्वयं ही सक्रिय रहता है। एक छोटे बच्चे में भी सक्रिय रहता है।

उसके बाद आपके अस्तित्व का वो तल आता है जिस पर बहुत कम लोग पहुँचते हैं। वो है विज्ञानमय कोश। विज्ञानमय कोश विचारणा का वो विरल तल है, जिसमें विचार पहली बात तो व्यवस्थित हो जाता है और दूसरी बात अपनी ओर मुड़ जाता है। विचार व्यवस्थित हो गया है, विचार जैसे किसी ज़बरदस्त ताक़त के प्रभावक्षेत्र में आ गया है। अब विचार की पूरी शक्ति एकाग्र होकर के कुछ पाना चाहती है। विचार की इस अवस्था को कहते हैं विज्ञान।

मनोमय कोश और विज्ञानमय कोश में अंतर समझना। बिखरा हुआ विचार, वृत्तियों द्वारा शासित विचार, ये आएगा मनोमय कोश में। और एकाग्र विचार, अनुशासित विचार, व्यवस्थित विचार, योजनाबद्ध विचार, ये आएगा विज्ञानमय कोश में। आ रही है बात समझ में?

और अगर विज्ञानमय कोश में जो साधना कर रहा है विचार, जो आत्मजिज्ञासा कर रहा है विचार, तो विचार फिर कटने लगता है। विचार अपनी ही आंच में पिघलने लगता है और रह जाता है एक निर्विचार आनंद। उसको कहते हैं आनंदमय कोश। आनंद है पर उस आनंद का कारण कोई विचार या विषय नहीं है। एक विषयहीन आनंद है, ये आनंदमय कोश है। इसमें अहम् विषयहीन हो गया है।

आनंदमय कोश बहुत तात्कालिक होता है। अहम् आनंदमय कोश में बहुत समय तक नहीं रह सकता। या तो वो किसी निचले तल पर गिर जाएगा, या उठकर के आत्मा में समाहित हो जाएगा। जबकि बाकी सब कोशों से अहम् लंबे समय तक सुविधा-पूर्वक संबंधित रह सकता है। उदाहरण के लिए जो लोग देह से तादात्म्य रखते हैं, देह भाव में जीते हैं, वो बड़े मज़े से जीवन भर अन्नमय कोश में रह सकते हैं। ये सब आपके हस्ती के तल हैं न, और जो अहम् है वो किसी भी तल पर निवास कर सकता है।

अब पशुओं को ले लो। उनका पूरा जीवन ही कहाँ बीत रहा है? अन्नमय कोश में बीत रहा है। उनको किसी भी हाल में तीसरे कोश से ऊपर की यात्रा तो करनी ही नहीं है। अन्नमय में हैं, प्राणमय में हैं, कभी मनोमय कोश में हैं। और ऊपर की यात्रा उन्हें करनी नहीं है। ऐसे ही बहुत सारे मनुष्य भी होते हैं जिनका अधिकांश जीवन बीत रहा है अन्नमय कोश में या मनोमय कोश में।

जो बुद्धिजीवी हो गए उनका जीवन कहाँ बीतने लग जाता है? विज्ञानमय कोश में। और जो आध्यात्मिक साधक हो गए, उन्हें किसका स्वाद मिलने लग जाता है? आनंदमय कोश का। लेकिन आनंदमय कोश का स्वाद आप लगातार नहीं ले सकते, चिरकाल तक नहीं ले सकते। आनंदमय कोश का स्वाद उदाहरण के लिए आपको दिलवा देंगी ज्ञान की विधियाँ, या भक्ति में भजन या कीर्तन। आप आधे घंटे के लिए कहाँ स्थापित हो गए? आनंदमय कोश में।

आप एक अकारण आनंद में विश्राम करने लग गए। आपको पता भी नहीं है कि इतना चैन, इतनी अनूठी शांति क्यों मिल रही है। आप सब भूल गए, बिलकुल खो गए, विचार ही लुप्त हो गया। लेकिन भजन क्या चौबीस घंटे चलेगा? ध्यान की कोई भी विधि होगी थोड़ी देर में समाप्त हो जाएगी न?

यही वजह है मैं बार-बार कहता हूँ कि ध्यान की विधियाँ भी आत्मा के ख़िलाफ़ आखिरकार एक अवरोध बन जाती हैं। आप थोड़ी देर के लिए आनंदमय तक पहुँचते हो, वहाँ पर रस पीते हो आनंद का और उसी रस से, उतने से ही तृप्त होकर के फिर आप वापस नीचे कहीं गिर जाते हो; मनोमय कोश में आ गए, कहीं और आ गए। विरले होते हैं वो जो आनंदमय कोश को साधन मात्र, मार्ग मात्र समझते हैं आत्मा तक पहुँचने का। जो आनंदमय कोश का भी अतिक्रमण कर गया वो आत्मा में प्रवेश कर जाता है।

आनंदमय कोश आख़िरी अवरोध है। आनंदमय कोश अपने-आपमें एक भारी प्रलोभन है। आनंदमय कोश आपको क्या लालच दे देता है? वो आपसे कहता है, “ज़िन्दगी चल रही है न? तुम्हें नीचे के सुख तो मिल ही रहे हैं। शरीर के सुख मिल रहे हैं, मन के सुख मिल रहे हैं, ज्ञान के सुख मिल रहे हैं।"

शरीर का सुख कहाँ मिल रहा है? अन्नमय कोश में। जिसे तुम कहते हो जीवन का सुख वो तुम्हें कहाँ मिल रहा है? प्राणमय कोश में। इच्छाओं को पूरा करने का सुख, मनोमय कोश में है। ज्ञान से जितने तरह की उपलब्धियाँ और सुविधाएँ हासिल की जाती हैं उनके सुख विज्ञानमय कोश में हैं। ये सब तो तुमको सुख मिल ही रहे हैं, साथ-ही-साथ रो़ज तुम थोड़ी देर के लिए समाधि का भी सुख ले लिया करो। किस कोश में? आनंदमय कोश में। कैसे ले लिया समाधि का सुख? ध्यान पर बैठ गए, कुछ गा लिए, कोई और विधि आज़मा ली तो थोड़ी देर के लिए आनंदमय कोश का भी सुख ले लिया। पाँचों कोशों का अनुभव ले लिया, क्या बात है! क्या बात है! बस किससे चूक गए? आत्मा से। जो सब कोशों के पार है। जो पांचवे कोश का उल्लंघन करने के बाद मिलती है, उसपर चूक गए। समझ में आ रही है बात?

तो ये जो हमें एक तरीक़ा दिया गया है, ये एक आदर्श है, ये एक मॉडल है, ये एक नमूना है। पांच कोश कहीं होते नहीं हैं। ये एक तरीक़े की व्यवस्था बनाई गई है, अपने अस्तित्व को समझने के लिए कि हम हैं कौन।

ऋषि से किसी ने पूछा होगा, "हम हैं कौन?" तो ऋषि ने ऐसे करके जवाब दिया होगा कि "देखो, हम पांच तलों पर जीने वाले लोग हैं। और ये पांच तल हो सकते हैं।" और ये जो पांचों तल हैं ये पांचों अनात्मा के तल हैं, इन पांचों तलों पर अहंकार जीवित रह जाता है। इन पांचों तलों पर अहंकार ही वास करता है। इसीलिए ये पांचों तल वो हैं जिनका तुमको कभी-ना-कभी त्याग करना है या उल्लंघन करना है। वास्तव में तुम हो आत्मा जो पांचों कोशों से विलग है और अतीत है।

जी तो तुम इन कोशों में ही रहे हो न लेकिन? तो फिर इन कोशों का करना क्या है? जीवन क्यों है? जीवन का तो मतलब ही ये है कि तुम कोशों में जी रहे हो। फिर ये कोश इसलिए है ताकि इन कोशों का तुम सही इस्तेमाल करके इन्हीं कोशों से आगे निकल जाओ। इन कोशों को भोगने की नज़र से नहीं देखना है, संसाधन की दृष्टि से देखना है। ये दो बहुत अलग-अलग बात हैं। इन कोशों को ऐसे नहीं देखना है कि इन्हीं कोशों को भोग-भोग के इन्हीं से सुख ले लें। इन कोशों को ऐसे देखना है कि ये जो कोश हैं, ये मेरे लिए ऊर्जा हैं, ईंधन हैं, अवसर हैं, संसाधन हैं। मुझे इनका समुचित प्रयोग करना है ताकि मैं इन्हीं का इस्तेमाल करूँगा और इन्हीं से आगे निकल जाऊँगा।

इन कोशों में सब आ गया न? शरीर आ गया, मन आ गया, बुद्धि आ गई और तुमने शरीर-मन-बुद्धि का प्रयोग करके जो कुछ भी अर्जित करा है, ज्ञान-संपदा-धन वो सब भी आ गया। तो पांच कोशों में तुम्हारा पूरा संसार आ गया। इस तुम्हारे पूरे संसार का तुम्हें करना क्या है? प्रयोग करना है, समुचित प्रयोग। इसका प्रयोग करके बस लांघ जाना है। समझ में आ रही है बात? तो ये है पंचकोशीय व्यवस्था।

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