🔥 "मेरा नाम 'आज़ाद' है, बाप का नाम 'स्वाधीनता' है और मेरा घर है 'जेल'” 🔥
भगत सिंह ने जब अपना घर छोड़ा, तो चिट्ठी के अंत में लिखा, "मेरी शादी की चिंता मत करना, मेरी दुल्हन आज़ादी है "।
एक ओर, जहाँ दुनिया को ये मुद्दा बड़ा गंभीर लगता था, तो दूसरी ओर हमारे युवा क्रांतिकारी इसपर खूब मज़ाक किया करते!
जब अपने साथी की टाँग खींचते हुए भगत सिंह ने ये मुद्दा छेड़ा। तो उन्हें ये जवाब मिला,
"मेरी शादी तो हो चुकी है। 'बमतुल बुखारा' से, और जब तक वो मेरे साथ है मुझे कोई अंग्रेज़ पकड़ नहीं सकता ।"
और आज ये जवाब मज़ाक कम, भविष्यवाणी ज़्यादा लगता है।
भगत सिंह का वो साथी 'आज़ाद' ही जिया, और 'आज़ाद' ही शहीद हुआ।
हम बात कर रहे हैं — श्री चंद्रशेखर आज़ाद की। और 'बमतुल बुखारा ' वे अपनी माउसर पिस्टल को कहते थे।
जानते हैं उन्हें 'आज़ाद' नाम किसने दिया?
15 साल की उम्र में माता-पिता ने बनारस भेजा। वे चाहते थे कि युवा चंद्रशेखर संस्कृत के बड़े विद्वान बनें। लेकिन युवा चंद्रशेखर को शुरू से आज़ादी प्यारी थी। छोटी उम्र में ही गाँधी जी के 'असहयोग आंदोलन' का हिस्सा बन गए। और आंदोलन के लिए जेल भी गए।
जब मजिस्ट्रेट के सामने पेशी हुई, तो मजिस्ट्रेट ने पूछा, "तुम्हारा नाम क्या है? किसके बेटे हो? घर कहाँ है तुम्हारा?"
तो युवा चंद्रशेखर ने कहा, "मेरा नाम 'आज़ाद' है, बाप का नाम 'स्वाधीनता' है और मेरा घर है 'जेल'।”
इस तेवर को देख मजिस्ट्रेट ने उन्हें 15 कोड़ों की सज़ा दी। उन्होंने ख़ुशी से स्वीकार की। और इसी दिन के बाद से वे ‘आज़ाद’ कहलाए जाने लगे।
पर धोखा मत खा जाइएगा, आज़ाद हमेशा इतने गंभीर नहीं रहते थे!
अगर आप HSRA (उनकी संस्था) के साथी शिव वर्मा, भगवानदास माहौर व मनमथ नाथगुप्ता से पूछेंगे तो वो आपको अंदर की बात बताएँगे।
आज़ाद बहुत ही मिलनसार व्यक्ति थे, गंभीर परिस्थितियों में अक्सर चुटकुले मारा करते! साथ ही इतनी आत्मीयता से बात करते के सभी साथियों के माता-पिता उन्हें अपना बड़ा बेटा मानते।
और हो भी क्यों न? जब HSRA के युवा साथी 16-17 साल के थे तब आज़ाद 20 वर्ष के थे। वो आज़ाद ही थे जिसने सभी नए क्रांतिकारियों को ट्रेनिंग दी। और बड़े भाई की तरह ख़याल रखा।
सिर्फ़ इतना ही नहीं, नियमित रूप से साथियों के माता-पिता से मिलते। लगातार ध्यान रखते कि उन्हें क्रांतिकारी गतिविधियों के बारे में भनक भी न लगे, और उनकी चिंता न बढ़ जाए।
एक और बात बताएँ? आज़ाद को साइकिल चलाना बहुत पसंद था। यदि कोई उनसे आगे निकल जाए तो उसे रेस में हराकर ही उन्हें चैन मिलता था। रोज़ सुबह झाँसी की छावनी के कई सिपाहियों को इसी तरह हराते और शाम को चाव से क़िस्सा सुनाते।
जब काकोरी काण्ड के बाद अश्फ़ाकुल्ला ख़ान और रामप्रासाद बिसमिल पकड़े गए, तो पुलिस आज़ाद को ढूँढ रही थी। उनके सिर पर हज़ारों का इनाम था। ऐसे में HSRA बिखरने लगा, तब पुलिस से छिपे रहते हुए उन्होंने पंजाब व उत्तर प्रदेश के सभी क्रांतिकारियों को एकजुट रखा और आज़ादी के संघर्ष को मज़बूती दी।
पुलिस से छिपे रहने के लिए, वे कभी वेश बदलते, तो कभी स्थान। दो वक्त का खाना पहुँचाने के लिए उनके साथी अपने घरों से रोटियाँ चुराया करते। पैसा कमाने के लिए कारखानों में काम करते, कॉलेज में पढ़ रहे साथियों के हॉस्टल से आंदोलन की योजना बनाया करते।
भूख, प्यास, आर्थिक तंगी, पकड़े जाने का ख़तरा, कुछ भी उनको रोक न पाया।
25 साल की उम्र में जब प्रयागराज के अल्फ्रेड पार्क में उन्होंने ख़ुद को अंग्रेजों से घिरा पाया। तो 27 फरवरी 1931 को उन्होंने अपनी आज़ादी त्यागने की जगह मौत को चुना।
उनकी 'बमतुल बुखारा' ने अपना वादा पूरा किया।
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तब से लेकर अब तक भारत ने लगभग 100 वर्षों का सफर तय कर लिया है। देश की आबादी 27 करोड़ से बढ़कर 143 करोड़ तक पहुँच चुकी है, साक्षरता दर 9% से बढ़कर 77% तक पहुँच चुकी है, औसत आयु 25 साल से बढ़कर 70 साल तक पहुँच चुकी है, अन्य कई मानदंडों में देश की बेहतरी हुई है।
बस एक कमी है… अब ‘आज़ाद’ जैसे युवा पैदा नहीं होते।
बाहरी आज़ादी मिलने के बाद भारत के पास मौका था अपनी भीतरी आजादी पर काम करने का। समाज को अंधविश्वास, भ्रम, हिंसा, भ्रष्टाचार, रूढ़िवादिता व अधर्म से मुक्त करने का। लेकिन बाहरी विकास की दौड़ में हम अपने आंतरिक बल को खो बैठे।
आज क्लाइमेट चेंज की तबाही दस्तक दे रही है, अंधविश्वास फिर से जड़ें मज़बूत कर रहा है, मानसिक रोग व अवसाद चरम पर हैं, और मुख्यधारा में आचार्य प्रशांत के अलावा कोई आवाज़ इन मुद्दों को उठाते दिखाई नहीं देती।
हमारे भीतर के ‘आज़ाद’ को जगाने के लिए आचार्य प्रशांत दिन-रात संघर्षरत हैं।