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चाँद से आगे ले गया भारत को चंद्रयान || आचार्य प्रशांत, चंद्रयान-2 पर (2019)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्न: आचार्य जी प्रणाम। हाल ही में एक घटनाक्रम हुआ, जिसमें भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा चंद्रयान-२ प्रक्षेपित किया गया। पूरे विश्व की उसपर नज़रें थीं। यह भारतीय वैज्ञानिकों की ओर से एक बहुत बड़ा कदम था। बिलकुल अंतिम क्षणों में भारतीय वैज्ञानिक इस पूरे मिशन में थोड़ी सी गुंजाइश से चूक गए। इसरो के अध्यक्ष इस विफलता पर बहुत भावुक भी हुए। जैसा सोचा गया था, वैसा परिणाम नहीं आया। इसमें पूरा लक्ष्य प्राप्त नहीं हुआ, लेकिन फिर भी विज्ञान की दृष्टि में, विज्ञान के क्षेत्र में इसको किस तरह से देखा जाए?

इसके बारे में कुछ कहें।

और, अध्यात्म और विज्ञान का क्या सम्बन्ध है? आप हमेशा कहते हैं, “तथ्यों को देखना और तथ्यों पर जीना”। तो क्या अध्यात्म और विज्ञान साथ-साथ चलते हैं? कृपया इसपर थोड़ा प्रकाश डालें।

आचार्य प्रशांत जी: बहुत विस्तृत क्षेत्र खोल दिया तुमने।

सबसे पहली बात तो ये कि ये उतनी भी बड़ी दुर्घटना नहीं है जितना कई लोग समझ रहे हैं। ये जो मिशन था इसके तीन हिस्से थे। पहला – ‘ऑर्बिटर’ की स्थापना, जो ऑर्बिट में रहेगा और चक्कर काटेगा। दूसरा ‘लैंडर’ था, और तीसरा ‘लैंडर’ के भीतर ‘रोवर’ था। ‘लैंडर’ और ‘रोवर’ का काम कुल चौदह दिन का था। ‘लैंडर’ का तो इतना ही काम था कि वो उतरेगा, और फ़िर वो पृथ्वी से संपर्क करेगा। ‘रोवर’ का काम था कि वो ‘लैंडर’ से बाहर निकलकर जाएगा, और फ़िर वो थोड़े चन्द्रमा की ज़मीन पर परीक्षण करेगा, तस्वीरें खींचेगा।

जो ‘ऑर्बिटर’ है, जो चन्द्रमा की कक्षा में चक्कर काटेगा, वो साल भर का है। और वो सफल हो गया है। चन्द्रयान -१ जब गया था, तो उसमें सिर्फ़ ‘ऑर्बिटर’ ही मिशन था। इसी तरह चंद्रयान -२ मिशन में भी ‘ऑर्बिटर’ की स्थापना कर दी है, और वो साल भर तक अपना काम करता रहेगा। हाँ, जो सॉफ्ट-लैंडिंग होनी थी, वो सॉफ्ट-लैंडिंग की जगह, हार्ड-लैंडिंग हो गई। जैसे विमान जब आसमान से उतरता है, तो उसको ज़मीन को शून्य की गति से स्पर्श चाहिए। ‘शून्य’ माने एकदम ही छोटी गति से स्पर्श करना चाहिए। ऐसा ही होता है न? विमान उड़ कितनी भी गति से रहा हो, जब तल को छुए, तो उसकी गति शून्य हो जानी चाहिए।

ये जो रॉकेट था, ये विमान से दसों -गुनी गति से यात्रा कर रहा था। फ़िर इसको डीसलरेट होना था, इसको अपनी गति कम करनी थी। तो इसको डेसलरेट किया गया, किया गया, किया गया। तो अब वो नीचे आता जा रहा है लैंडर, राकेट से वो अलग हो चुका है, नीचे आता जा रहा है। और उसकी गति कम की जा रही है लगातार। क्यों की जा रही है? ताकि वो सॉफ्ट-लैंडिंग करे, धीरे उतरे। और गति कम करना बड़ी ज़बरदस्त बात होती है। वो पढ़ा होगा न तुमने – ‘चुनौती के पन्द्रह मिनट (फिफ्टीन मिनट्स ऑफ़ टेरर), क्योंकि इसमें लगातार गति कम करनी है, करनी है, करनी है, करनी है। और अंततः गति इतनी कम कर देनी है कि वो धीरे से चन्द्रमा की सतह पर स्पर्श कर दे, और खुल जाए। फिर चन्द्रमा की सतह पर लैंडर उतर जाएगा, खुलेगा उसका दरवाज़ा, उसमें से रोवर बाहर जाएगा, और वो अपना परीक्षण वगैरह करेगा।

तो इस मिशन में बस यही हुआ है, कि शून्य गति की जगह, उसकी गति थोड़ी ज़्यादा रह गई। जो गति पूरी कम करनी थी, वो उतनी कम नहीं हो पाई। डीसलरेशन(गति कम करना) जितना होना चाहिए था, उतना नहीं हो पाया। तो वो थोड़ी गति से जाकर चन्द्रमा पर उतर गया। अब जब गति से जाकर चन्द्रमा पर उतरेगा, तो क्या होगा? टूट जाएगा। तो हो सकता है कि पूरा टूट गया हो, या हो सकता है कि उसकी जो संपर्क स्थापित करने वाली कड़ी है, जो कम्युनिकेशन लिंक है, जो संपर्क मॉड्यूल है उसके भीतर, वो टूटा हो। ये भी हो सकता है कि वो छितरा ही गया हो पूरा। जो भी है, लेकिन अब संपर्क नहीं हो सकता उससे। संपर्क टूट गया।

अब संपर्क नहीं हो सकता, तो वो जो चन्द्रमा की सतह का काम था, वो तो नहीं हो सकता। हाँ, ऑर्बिटर अपना काम कर रहा है। तो कोई ये न कहे कि मिशन विफल हो गया है। विफल इत्यादि नहीं हो गया है, ‘आधा-सफल’ कहना ज़्यादा उचित होगा।

प्रश्नकर्ता: ये भी कहा जा रहा था कि उसको चन्द्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतरना था।

आचार्य प्रशांत जी: दक्षिणी ध्रुव पर इसीलिए उतरने की बात हो रही थी, क्योंकि दक्षिणी ध्रुव पर ही बर्फ़ और पानी के मिलने के ज़्यादा आसार हैं। अभी ये जो पूरा खेल चल रहा है अभी कि चन्द्रमा को उपनिवेश बनाना है अपना, चन्द्रमा पर जाकर आदमी को स्थापित करना है, तो उसके लिए सबसे पहले क्या चाहिए? पानी चाहिए न। पानी तो बार-बार पृथ्वी से ढोकर नहीं ले जाओगे। तो अभी तक जो अधिकाँश चन्द्र-मिशन रहे हैं, वो चन्द्रमा के इक्वेटर (भूमध्य रेखा) के आसपास उतरे हैं। कम-से-कम दक्षिणी ध्रुव पर तो कोई नहीं उतरा। तो इसीलिए कई और वजहों के अलावा, इस वजह के कारण भी इस मिशन की महत्ता थी कि वहाँ पर उतरेगा, तो पानी वगैरह खोज पाएगा।

पर कोई बात नहीं, वो दोबारा भी हो सकता है।

तो अभी जो घटना घटी है, तुम बात उसकी इसीलिए कर रहे हो क्योंकि ऐसा लग रहा है कि जैसे कोई विभीषिका हो गई, कोई बुरा हादसा हो गया। पहली बात तो, जो चोट भी लगी है, जो नुकसान भी हुआ है , वो उतना बुरा नहीं है, जितना समझा जा रहा है। मिशन बहुत हद तक सफल रहा है। और उसकी सफलता सिर्फ़ इतने तक सीमित नहीं है कि ऑर्बिटर अपनी कक्षा में चक्कर काट रहा है।

सफलता देखो बहुत आगे की है।

मैं समझता हूँ, बड़ी-से-बड़ी सफलता इस मिशन की ये है कि, कल जब मैं यहाँ सत्र के बाद गया हूँ, रात के दो -तीन बजे, तो पूरे रास्ते लगातार सन्देश चन्द्रयान से सम्बन्धित ही आ रहे थे। लगातार! अब ये भारत के लिए नई बात है।

यहाँ लोग रात में जगते हैं या तो पिक्चर देखने को, या क्रिकेट मैच देखने को, या माता का जगराता। इस वजहों से तो हमने हिन्दुस्तानियों को रात में जगते देखा है। संत लोग भी बता गए हैं कि रात में दो -चार तरह के लोग ही जगते हैं – या तो कामी, उसको रात में नींद नहीं आती। ख़ुद भी नहीं सोता, और सोने भी नहीं देता। या चोर, उसको रात में नींद नहीं आती। या फ़िर साधक।

तो कल मैंने हिन्दुस्तान को रात में दो बजे-तीन बजे तक जगा देखा है विज्ञान के लिए। ये बड़ी ज़बरदस्त बात थी। कल हिन्दुस्तान विज्ञान के लिए जगा है रात में।

और लोग ट्विटर पर, फेसबुक पर, वॉट्सएप्प इत्यादि पर, विज्ञान की भाषा में बात कर रहे थे, जोकि अपूर्व है। भारत आमतौर पर विज्ञान का इतना कद्रदान दिखाई कभी देता नहीं। इतना ही नहीं, रात में चार-पाँच बजे तक भी, आम लोग जगे हुए हैं।

कोई प्रार्थना कर रहा है कि क्या पता वहाँ से अब सिग्नल आ जाए। एक ने सन्देश भेजा, “जाग विक्रम, जाग”। ‘विक्रम,’ लैंडर का नाम है। कोई लिख रहा है, “अब तो उठ जा, ब्रह्म मुहूर्त है”। तीन-चार बजे लोग उससे कह रहे हैं, “उठ जा, भारत में इस समय ब्रह्म मुहूर्त है। सो क्यों रहा है? चल उठ, कुछ बोल”।

ये सब जो चल रहा है, ये जो भी हो रहा है, इसके पीछे ये देखो कि भारत में विज्ञान को वो सम्मान मिल रहा है, वो ध्यान मिल रहा है, जिसका वो अधिकारी है।

मैं हमेशा कहा करता हूँ कि दो ही बातें हैं जो तुम्हें माया से, कल्पनाओं से, धारणाओं से, मान्यताओं से मुक्ति दिलाती हैं – एक तथ्य, एक सत्य। ‘तथ्य’ का मतलब है कि – दुनिया की हक़ीक़त को सही-सही जानो। और सत्य पता चल जाएगा, अगर तुमने दुनिया के साथ-साथ अपनी, यानि ‘अहम’ की हक़ीक़त को भी साफ़-साफ़ जान लिया। और जानने के लिए देखो दुनिया में और कुछ होता नहीं। दुनिया में करने लायक काम, कर्म, सम्यक-कर्म तो दो ही हैं – या तो तथ्यों की खोज, अर्थात वैज्ञानिक अन्वेषण। या फ़िर आध्यात्मिक साधना। इन दो के अलावा दुनिया में और कोई काम-धंधा होना ही नहीं चाहिए।

या तो तथ्यों को जानो, वैज्ञानिक हो जाओ। या स्वयं को जानो, आध्यात्मिक हो जाओ। और दोनों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। जो वैज्ञानिक होना चाहता है पूरे तरीके से, उसे एक बिंदु पर आकर आध्यात्मिक होना पड़ेगा। और जिसे आध्यात्मिक होना है, उसे अगर दुनिया का ही कुछ पता नहीं, विज्ञान का कुछ पता नहीं, उसका अध्यात्म अंधविश्वास बन जाएगा।

ये दो काम मैं समझता हूँ करने लायक हैं ज़िंदगी में – एक विज्ञान, और दूसरा अध्यात्म। इसीलिए मैं बारबार इन्हीं की बात करता हूँ – तथ्य और सत्य, फैक्ट्स एंड ट्रुथ।

तो क्या बाकि सब जो पेशे हैं, काम-धंधे हैं, वो क्या करने ही नहीं चाहिए? वो करो, वो करो ताकि संसाधन मिलें विज्ञान के लिए, और संसाधन मिलें अध्यात्म के लिए। बाकी सब काम करने ज़रूरी हैं न। एक आर्किटेक्ट(वास्तुकार )चाहिए ताकि प्रयोगशाला बना दे। आर्किटेक्ट हमें चाहिए ताकि विज्ञान के लिए प्रयोगशाला बने, और अध्यात्म के लिए ध्यान केंद्र बने।

तो बाकी सब काम-धंधे इसीलिए हैं ताकि विज्ञान और अध्यात्म आगे बढ़ सकें।

और मैं लगातार ज़ोर देकर कहता रहा हूँ कि विज्ञान की जिसको समझ नहीं है, वो अध्यात्म में बहुत अनाड़ी रहेगा। बहुत अनाड़ी।

हिन्दुस्तान में दुर्भाग्य से ऐसा ही हुआ है। यहाँ एक-से-एक आध्यात्मिक लोग हैं, और वो रूढ़िवादिता के और अंधविश्वास के शिकार हैं, एक-से-एक। कोई बिल्ली के रास्ता काट जाने पर परेशान हो जाता है, कोई नींबू और सात मिर्चियाँ लटकाता है घर के आगे, दुकान के आगे कि अलक्ष्मी प्रवेश न कर जाए। आप में से भी बहुत लोग करते होंगे। “साँझ के बाद सफ़ाई मत कर देना, दरिद्रता आती है”। संस्था को लोग सहायता राशि देंगे। कितनी? दस हज़ार एक रुपए। ये एक रुपया क्या है? ये एक रुपया क्या है भई? ये एक रुपया क्या है? बताओ न।

प्रश्नकर्ता: मान्यता है ।

आचार्य प्रशांत जी: ये मानना क्या है? ‘शुभ’ मानने की बात है? ‘शुभता’ कोई मान्यता होती है क्या? ये अंधविश्वास है। और कितने ही अंधविश्वास हैं जो आपको एक-से-एक पढ़े-लिखे लोगों में मिल जाएँगे, आध्यात्मिक लोगों में मिल जाएँगे। और ऐसे अंधविश्वास आध्यात्मिक गुरुओं द्वारा भी खूब फैलाए जाते हैं। मैंने देखा है।

कोई बता रहे थे अपने अनुयायियों को कि – “देखो जिस दिन चंद्रग्रहण या सूर्यग्रहण हो, उस ग्रहण की अवधि में कुछ खाना नहीं चाहिए”। किसी ने पूछा, “क्यों”? तो बोलते हैं, “उस ग्रहण की अवधि में चन्द्रमा छुप जाता है। और चन्द्रमा महीने में एक बार छुपता है न। तो खाने को ऐसा लगेगा कि एक महीना बीत गया, और एक महीने में तो खाना सड़ जाता है न”।

तो पूछने वाले ने पूछा, “इसका कोई प्रमाण है आपके पास”? तो वो बोलते हैं, “अभी बताते हैं”। उन्होंने सांभर-चावल मँगाया। चावल पर सांभर रखा और उस बर्तन पर रुद्राक्ष की माला लटका दी। फ़िर बताते हैं कि – “अगर माला एक दिशा में घूमे, तो समझना कि खाना ताज़ा है। और अगर उसके विपरीत दिशा में घूमे तो समझना कि खाना सड़ा हुआ है, बासी है”। फ़िर उन्होंने लटकी हुई माला दिखाई, और उसके घूमने की दिशा पर सबका ध्यान आकर्षित किया।

अगर इस पूरे प्रकरण को ध्यान से देखा जाए, तो साफ़-साफ़ दिखेगा कि ये सिर्फ़ घुमाने वाले की कलाई का खेल है। बस ज़रा-सा झटका देना है। अब इस तरह के काम सब पहले चल जाया करते थे, जब मोबाइल फोन में कैमरा नहीं होता था, न वीडियो बन सकता था। तब हाथ घुमाकर राख मार दिया, तो चल जाता था। कबूतर मार दिया, तो चल जाता था। अब करते हैं, तो कैमरे में रिकॉर्ड हो जाता है, और दिखता है कि पूरी दुनिया को बेवक़ूफ़ बनाया जा रहा है।

लेकिन फ़िर भी इन बातों को मानने वाले बहुत लोग हैं। अभी फ़िर से जब आएगा चंद्रग्रहण, सूर्यग्रहण आएगा, आप देखियेगा कि किस तरह से लोगों का एक सैलाब-सा बहने लगता है। इधर-उधर की बातें, दुनिया भर के पाखंडी, ज्योतिषी, सब आ-आकर सलाहें देना शुरु कर देंगे।

अच्छे खासे लोग, जब कोई भवन बनाएँगे, तो पहुँच जाएँगे किसी वास्तु-शास्त्री के पास। वो फ़िर बताता है कि – “उस कक्ष में एक तस्तरी रखो, उसमें कुछ फूलों की पंखुड़ियाँ रखो, और उसमें फलानी चीज़ रखो, और ये फैला दो”। और ये सब करा जा रहा है।

ये सब कौन लोग हैं, जो ये कर रहे हैं? ये अशिक्षित, गँवार लोग नहीं हैं, जो ऐसा कर रहे हैं। ये वो लोग कर रहे हैं, जिनके पास पैसा है, जो पढ़े-लिखे हैं। और जब वो लोग पढ़े-लिखे हैं, तो भारत देश के समस्या ये है कि यहाँ लोग जो पढ़े-लिखे हैं, पर वो भी थोड़ा ही पढ़े-लिखे हैं। वो इतना तो पढ़े-लिखे हैं, कि उनके सामने बोल दो, “एनर्जी”, तो उनको ये याद आ जाता है कि ‘एनर्जी’ शब्द भौतिक-विज्ञान में हुआ करता था। इतना तो उनको याद है, क्योंकि दसवीं कक्षा तक विज्ञान सभी ने पढ़ा है। पर उनको ये याद नहीं कि ‘एनर्जी’ चीज़ क्या है।

बात समझ में आ रही है?

कोई एकदम ही गँवार हो, तो उसको बुद्धू बनाना मुश्किल है। खासतौर पर वैज्ञानिक शब्दों का सहारा लेकर नहीं। पर आजकल इन सब शब्दों का खूब इस्तेमाल होता है – ‘एनर्जी’, ‘वाइब्रेशन’। इनका इस्तेमाल सबसे ज़्यादा कौन करते हैं? आध्यात्मिक गुरु वगैरह। जैसे आप सब पढ़े-लिखे हैं, शहरी मध्यम वर्ग से हैं आप, सॉफ्टवेयर में काम करते हैं आप।

तो जैसे ही अपने सुना कि कोई गुरु ‘एनर्जी’ वगैरह की बात कर रहा है, तो आपको लगता है कि कोई वैज्ञानिक बात कर रहा है। पर आपको इतनी भी भौतिकी याद नहीं है कि आप देख सको कि वो गड़बड़ कर रहा है। थोड़ी सी याद है। वो जो थोड़ा सा याद है, वो आपके लिए घातक हो जाता है। या तो पूरा याद होता, तो आप तुरंत समझ जाते कि वो जो बात बोल रहे हैं, वो वैज्ञानिक कहीं नहीं है, वो झाँसा दे रहे है।

भारत दोनों तरफ़ से मारा जा रहा है। स्कूलों में ठीक से विज्ञान पढ़ाया नहीं जा रहा, जहाँ भौतिक शिक्षा दी जानी चाहिए, वहाँ भौतिकी की शिक्षा दी नहीं जा रही। और अध्यात्म की ओर जो लोग आ रहे हैं, उन्हें झूठी भौतिकी पढ़ाई जा रही है।

स्कूलों में, कक्षाओं में, जहाँ भौतिकी पढ़ाई जानी चाहिए थी, वहाँ पढ़ाई नहीं जा रही। वहाँ नक़ल करके, या आधा-तीहा जानकर के छात्र पास हो रहे हैं। और फ़िर वो जब अध्यात्म की ओर आते हैं, तो वहाँ पर उन्हें नकली भौतिकी पढ़ा दी जाती है। कोई बताता है ‘वाइब्रेशन’ है, ये है, वो है। भाई, तुमने अगर थोड़ा सा भौतिक-विज्ञान, रसायन-शास्त्र पढ़ा होता, तो समझ जाते कि ‘वाइब्रेशन’ चीज़ क्या होता है। ‘वेव थ्योरी’ थोड़ी पढ़ी होती। और मुश्किल नहीं है, पढ़ी जा सकती है।

तो पूरी दुनिया, और खासकर भारत की प्रगति की राह में मैं बहुत बड़ा रोड़ा मानता हूँ, विज्ञान के प्रति जो हमारी उपेक्षा और अशिक्षा है। अशिक्षा भर होती तो कोई बात नहीं थी, सिर्फ़ अशिक्षा भर होती तो कोई बात नहीं थी। हम उपेक्षा भी करते हैं।

जो लोग विज्ञान के छात्र भी हैं, वो विज्ञान को अधिक-से-अधिक समझते हैं पैसा कमाने का ज़रिया, कि इससे पैसा कमा लेंगे। भारत के जो अच्छे-खासे, बड़े नामवर संस्थान हैं, चाहे वो भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान(आई.आई.टी.) हो, चाहे वो भारतीय विज्ञान संस्थान(आई.आई.एस.सी.) हो, वहाँ से भी निकले हुए लोग अपने निजी जीवन में अंधविश्वास रखते हैं। क्यों? क्योंकि उनका मन वैज्ञानिक नहीं है।

उन्होंने विज्ञान तो पढ़ा, पर विज्ञान उन्होंने पढ़ा सिर्फ़ पैसा कमाने के लिए। पेट की रोटी चलती रहे, इसीलिए उन्होंने विज्ञान पढ़ा। तो ठीक है, उनको डिग्री वगैरह मिल गई। लेकिन उनकी निजी ज़िंदगी में देखो तो, अंधविश्वास से भरपूर है उनकी निजी ज़िंदगी।

भारत में विज्ञान के प्रति उपेक्षा है, सिर्फ़ अशिक्षा होती तो कोई बात नहीं थी। यहाँ तो जो लोग विज्ञान में शिक्षित भी हैं, वो भी अंधविश्वासी हैं। यहाँ विज्ञान के प्रति उपेक्षा और अनादर है। इसीलिये मुझे कल बहुत अच्छा लगा। कल भारत रातभर जगा है, भारत ने कल विज्ञान को आदर दिया। मैं चाहता हूँ वो आदर गहराए।

जब आप कहते हैं कि बड़ी दुर्घटना हो गई, चन्द्रयान टूट गया। जवान लोगों को, बच्चों को, किशोरों को पता चलना चाहिए कि विज्ञान दुर्घटनाओं का ही क्षेत्र है, और यहाँ बड़ी लड़ाईयाँ लड़ी गई हैं।

आपने कहा न, “सेटबैक हो गया”। विज्ञान के क्षेत्र में बड़े-से-बड़े सेटबैक (असफलता) हुए हैं। यहाँ कोई नहीं है, जो चोटिल न हुआ हो, घायल न हुआ हो। पर ये बातें हमें बताई नहीं जातीं। धर्म गुरुओं ने चोट खाई, वो हमें बता दिया जाता है। ये हमें बता दिया जाता है , “कोई था सच का योद्धा, और समाज ने उसको बड़ी तकलीफ़ दी”। हमें बताया जाता है या नहीं? सुकरात और मंसूर के नाम हम सबकी जुबां पर हैं। ये हम सब खूब जानते हैं कि सुकरात को, और मंसूर को, और सरमद को सच बोलने की सज़ा मिली। लेकिन हमने आजतक हिन्दुस्तान के छात्रों को ये नहीं बताया कि कितने वैज्ञानिकों को सच बोलने की कितनी सज़ा मिली है।

हिन्दुस्तान का बच्चा दुनिया के वैज्ञानिकों का नाम ही नहीं जानता। उसमें इतनी उपेक्षा, इतना अनादर है विज्ञान के प्रति, क्योंकि हम अंधविश्वास से भरे हुए लोग हैं। और हमें ये संस्कार ही नहीं दिए गए कि तथ्य जानना, दुनिया को जानना बहुत ज़रूरी है, और दुनिया को नहीं जान सकते तुम विज्ञान के बिना।

और विज्ञान में ऐसी-ऐसी प्रेरक कहानियाँ हैं कि पूछो मत। वो कहानियाँ आपको पता चलें, आप वैज्ञानिकों के मुरीद हो जाएँगे। आप पूजना शुरु कर देंगे उनको।

एक सज्जन अपने बेटे को लेकर मिलने आए मुझसे। वो आई.आई.टी. की परीक्षा की तैयारी कर रहा है। उसको कुछ तनाव इत्यादि था, तो बात करने आया। मैंने देखा कि इसको अपनी ही समस्याएँ इतनी बड़ी लग रही हैं, और जिन नामों से ये रोज़ मुखातिब होता है, उनके बारे में ये कुछ जानता नहीं। इसको पता चले कि उन्होंने कितनी बड़ी-बड़ी समस्याएँ झेलीं थीं, तो ये अपने आप को भूल जाएगा।

केप्लर, बोल्ट्ज़मैन, मैक्सवेल, मैक्स-प्लांक, एवोगैड्रो – पाँच नाम लिए, और इन पाँचों ने जीवन में बड़ी दुश्वारियाँ झेली थीं। और ये पाँचों आई.आई.टी.जे.ई.ई. के पाठ्यक्रम में शामिल हैं। लेकिन इनकी कहानियाँ हमें कभी बताई नहीं जातीं। अधिक-से-अधिक हमें पता रहता है कॉपरनिकस के बारे में, उन्होंने हीलिओ-सेन्ट्रिक ऑर्बिट दे दिया, उसको बहुत मुश्किलें दी गईं। लेकिन हमें नहीं बताया जाता कि केप्लर ने जब इलेप्टिकल ऑर्बिट की बात की, तो उनको भी बहुत तकलीफ़ें झेलनी पड़ीं थीं।

सच बोलने पर कोई सिर्फ़ धार्मिक लोगों का एकाधिकार थोड़े ही है। वैज्ञानिकों को भी सच बोलने की, दुनिया का सच बोलने की बहुत बड़ी कीमत देनी पड़ती है। ये हमारे बच्चों को पता ही नहीं। उनकी रुचि कभी इन चीज़ों में जागृत ही नहीं की जाती। इसीलिए ये देश इतने दिनों तक इतना पिछड़ा रहा, अभी भी पिछड़ा है।

हमारी लड़कियों को बताया ही नहीं जाता ‘रोज़ालिंड फ्रैंकलिन’ के बारे में। डी.एन.ए. की आज हमने खूब बात की चर्चा में, कि प्रकृति खूब चाहती है डी.एन.ए. का प्रचार-प्रसार। ब्रिटिश महिला थीं, अगर ठीक से याद है मुझे, और डी.एन.ए. का जो डबल-हैलिक्स स्ट्रक्चर (ढांचा) होता है, ऐसे जैसे हैलिक्स की तरह गोल घूमती हुईं सीढ़ियाँ ऊपर जा रही हों, सबसे पहले रोज़ालिंड फ्रैंकलिन ने ही खोजा था।

कैसे खोजा था? एक्सरे क्रिस्टलोग्राफ़ी से। क्रिस्टलोग्राफर थीं। भोली थी, उसी के असिस्टेंट(सहायक) ने जाकर, प्रकाशित होने से पहले, उसी की खोज सार्वजनिक कर दी, और लोगों तक पहुँचा दी। जिन तक पहुँचा दी, उनको नोबेल पुरस्कार मिल गया। जिन तक पहुँचा दी, उनको नोबेल पुरस्कार मिल गया। हम चन्द्रयान की दुर्घटना की बात कर रहे हैं, मैं बता रहा हूँ कि विज्ञान के क्षेत्र में कैसी-कैसी त्रासदियाँ होती हैं जिन तक पहुँचा दी, उनको नोबेल पुरस्कार मिल गया। और ये बात हमारे युवाओं को, हमारे बच्चों पता चलनी चाहियें, ताकि प्रति उनके मन में आदर बढ़े। फ़िर हम बहुत चन्द्रयान प्रक्षेपित कर लेंगे।

चन्द्रमा क्या, मंगल, बुद्ध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, जहाँ-जहाँ पहुँचना है, पहुँचेंगे। आकाश-गंगा पार कर जाएगा ये देश। पर पहले यहाँ के बच्चों में विज्ञान के प्रति आदर तो पैदा करिये।

और दूसरों को मिल गया नोबेल पुरस्कार। सैंतीस की उम्र में, सैंतीस की उम्र में, बूढ़े नहीं हो, जवान ही हो, इस स्त्री की मृत्यु हो गई। मृत्यु क्यों हुई जानते हो? एक्सरे से ज़्यादा एक्सपोज़र से। डी.एन.ए. की खोज कर सके, एक्सरे के माध्यम से, उसके लिए उसने इतना एक्सपोज़र सहा, कि उसकी मृत्यु हो गई।

जिसने काम किया, उसकी मृत्यु हो गई, और उस काम का नोबेल पुरस्कार कोई और ले गया। सैंतीस की उम्र में मर गई कैंसर से। कैसी लगी ये घटना?

तक्षिला, नालंदा का तो फ़िर भी सबने नाम सुना है, अलेक्सांद्रिया की लाइब्रेरी थी, सुना है नाम? ईसा से पहले उसको जलाया जुलियस सीज़र ने, ईसा के बाद उसको जलाया ईसाइयों ने, और अंततः उसको जलाया बग़दाद के ख़लीफ़ा ने। और ये सारा काम अभी सात सौ-आठ सौ साल के अंतराल में हुआ। बात ये नहीं है कि वो जलती रही, बात ये कि ज्ञान का वो भण्डार नष्ट किया जाता रहा, और पुनः आता रहा।

बताओ न सबको, सिर्फ़ इधर-उधर की कहानियाँ क्यों बताते हो? इस देश में दो तरह की कहानियाँ चलतीं हैं बस – या तो फ़िल्मी कहानियाँ, या धार्मिक कहानियाँ। या तो फ़िल्मी कहानियाँ, या धार्मिक कहानियाँ। अरे, वैज्ञानिकों की कहानियाँ भी तो कोई बताने वाला हो। क्यों नहीं बताई जातीं?

बाहरवीं के बायोलॉजी के विद्यार्थी, जेनेटिक्स के ग्रेगोर मेंडेल को पढ़ते हैं। पढ़ते हैं न? पर उनका जीवनवृत्त नहीं जानते कि उन्होंने कितनी तकलीफ़ें सहीं। मेंडेल ने तकलीफ़ें कितनी सहीं, ये विद्यार्थी नहीं जानते।

तो चन्द्रयान का जो दूरगामी लाभ है भारत को, वो ये है कि भारत जगा है विज्ञान के प्रति। और भारत का विज्ञान के प्रति जगना बहुत ज़रूरी है, नहीं तो – अंधविश्वास, और अंधविश्वास, और अंधविश्वास!

कहीं बताया जा रहा है कि साँप बड़ी रहस्यमयी और बड़ी आध्यात्मिक प्रजाति होती है – साँप, साँप, साँप! कहीं बिल्लियों की बात की जा रही है, कहीं अन्य जानवरों की बात की जा रही है। अरे ये सब है क्या, समझ तो लो। थोड़ा विज्ञान की तरफ़ तो जाओ।

इतनी बड़ी सज़ा मिल रहे है इस देश को, विज्ञान को न जानने की, कि विज्ञान का ही नाम लेकर धर्मगुरु इस देश को बेवकूफ़ बना रहे हैं।

कोई बताता है कि – “मैं अध्यात्म को ‘क़्वांटम थ्योरी’ से समझाऊँगा”। कोई बताता है कि – “मैं अध्यात्म को ‘क़्वांटम थ्योरी’ से समझाऊँगा”। कोई ‘फील्ड’ बताता है, कोई ‘ऑरा’, फलाना ‘फील्ड’। इन सब शब्दों का प्रयोग तुम जिसको भी प्रयोग करते देखो धर्म में, उससे सावधान हो जाना – ‘क़्वांटम थ्योरी’, ‘फील्ड’, ‘ऑरा’, ‘एनर्जी’ । ये सब विज्ञान का अतिक्रमण और शोषण करने वाले लोग हैं।

विज्ञान में एक गरिमा है, क्या बात है। जानते हो बात क्या है वहाँ पर? वहाँ पर हर चीज़ झुठलाई जा सकती है, फॉलसिफाई की जा सकती है। विज्ञान, विज्ञान ही नहीं, कोई वैज्ञानिक खोज छप ही नहीं सकती, अगर वो फॉलसिफाईएबल न हो। और विज्ञान कहता है तुम शुरुआत करो स्केप्टिसिस्म (संशय ) से। मान मत लो कोई बात। कुछ भी मानो मत, कहो कि – “पता करेंगे”। और खासतौर पर हिन्दुस्तान को इस दृष्टिकोण की ख़ास ज़रुरत है – मानना नहीं है, पता करना है।

और कोई तुमसे कहे कि – “बस ऐसा है”, तो उससे कहिए, “ये बात फॉलसिफाई (मिथ्या सिद्ध करना) कैसे होगी? मैं कैसे जानूँ कि आप जो कह रहे हैं, वो सही है? किन शर्तों में आपकी बात झूठी साबित हो जाएगी, साथ में वो भी तो बताइये। फॉलसिफाइंग कंडिशन (मिथ्या स्थिति) ज़रूरी है रिसर्च पेपर (शोध पत्र ) के लिए, वो आप नहीं बता रहे, तो फ़िर तो आप धूर्त हैं, आप बेवकूफ़ बना रहे हैं”।

बात समझ रहे हो?

रिसर्च पेपर्स (शोध पत्र) के प्रति एक रुचि जगनी चाहिए। देश को माँगना चाहिए। खासतौर पर पढ़े-लिखे लोगों को पाया जाना चाहिए कि वो गूगल पर रिसर्च पेपर भी खोज रहे हैं। नहीं तो नतीजा क्या होता है? नतीजा ये होता है कि लोग कुछ भी प्रचारित कर देते हैं। कोई कहता है, “मैंने फलानी मुद्रा विकसित की है, इसको यूनिवर्सिटी ऑफ़ बर्कले ने पाया है कि ये करने से आपके दिमाग की गतिविधि तीन सौ प्रतिशत बढ़ जाती है”।

और लोग मान भी रहे हैं। कोई नहीं कह रहा है कि – “उसका रिसर्च पेपर तो दिखा दीजिए”। क्योंकि अधिकाँश हिन्दुस्तानियों ने रिसर्च पेपर जैसी कोई चीज़ अपनी ज़िंदगी में पढ़ी ही नहीं होती है। उनका परिचय ही नहीं कराया गया। उन्होंने और दस तरीके के पेपर पढ़े होंगे, रिसर्च पेपर कभी नहीं पढ़ा। तो कुछ भी मानते रहते हैं।

और विज्ञान को क्योंकि हमने पास से देखा नहीं, तो विज्ञान हमको नीरस और उबाऊ लगता है। हमने वैज्ञानिकों की छवि भी ऐसी ही बना रखी है कि उनके बाल खड़े रहते हैं, और वो थोड़े सनकी और बहके हुए होते हैं।

यही करते हो न? वैज्ञानिक की, या प्रोफेसर की यही छवि बनाते हो न? वैज्ञानिक ऐसे-ऐसे हुए हैं, अभी थोड़ी ही देर पहले मैंने कहा था न, कि उनको जान लोगे तो कायल हो जाओगे उनके। फैन (प्रशंसक) बन जाओगे उनके।

अभी हम इस महीने अंग्रेज़ी में ‘फाउंटेनहेड’ पढ़ने जा रहे हैं। उसमें हॉवर्ड रोअर्क का पात्र है। वो तो काल्पनिक चरित्र है। काश कि हमें हॉवर्ड रॉबर्ट्सन का भी पता होता। हॉवर्ड रॉबर्ट्सन वो शख्स था जिसने आइंस्टीन की खोज में भी त्रुटि निकाल दी थी। आया मज़ा कि नहीं आया? जवान आदमी! आइंस्टीन ने ‘ग्रैविटेशनल वेव्स’ (गुरुत्वीय तरँग) को लेकर के अपना एक पेपर प्रकाशित होने भेजा। आइंस्टीन का एक रुतबा था। आमतौर पर पेपर के छपने से पहले उसका एक ‘पियर -रिव्यु’ (सहकर्मी समीक्षा) होता है। ‘पियर-रिव्यु’ माने – किसी अन्य वैज्ञानिक को वो पेपर दिया जाएगा, और वो उसपर अपनी टिप्पणी लिखेगा।

एक ही नहीं, कई वैज्ञानिकों को दिया जाता है, और जब बहुत कड़ा पियर-रिव्यु होता है, उसके बाद वो पेपर छपता है। खासतौर पर जो उत्कृष्ट जरनल (पत्रिका) हैं। ‘जरनल’ माने – विज्ञान की पत्रिकायें। जो उत्कृष्ट जरनल होता है, उसमें आसानी से नहीं छपता है, पियर-रिव्यु होता है। आइंस्टीन ने कहा, “मैं तो ‘आइंस्टीन’ हूँ, मुझे तो १९१५ में जेनेरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी पर नोबेल पुरस्कार मिल चुका है, मेरा कौन पियर -रिव्यु करेगा? मेरा तो छप ही जाएगा”। ये पेपर उन्होंने १९१५ के बाद छपने भेजा था।

पत्रिका ने पियर-रिव्यु के लिए भेज दिया। किसके पास भेज दिया? हॉवर्ड रॉबर्ट्सन के पास। उसने क्या किया? उसने त्रुटि निकाल दी। उसमें आइंस्टीन की गणनाओं में गलती नहीं थी, उन्होंने जो निष्कर्ष निकाला था, वो ग़लत था। आइंस्टीन ने उसमें कह दिया था कि ग्रैविटेशनल वेव्स (गुरुत्वीय तरँग) वास्तव में हो ही नहीं सकतीं। गणित में हैं, वास्तव में नहीं हो सकतीं। हॉवर्ड रॉबर्ट्सन ने कहा, “नहीं सर, आप पुनर्विचार करें, ये हैं”।

वर्ष २०१७ का नोबेल पुरस्कार ग्रैविटेशनल वेव्स(गुरुत्वीय तरँग) को खोजने पर दिया गया है ।

और इतना नहीं था। आइंस्टीन ये सुनकर कुपित हो गए थे, और बोले, “कौन है जो मेरी बात में खोट निकाल रहा है”? उन्हें नाम नहीं पता चला। अनाम पियर-रिव्यु हुआ था। उन्होंने अपना पेपर किसी और पत्रिका में प्रकाशित करा दिया। जब कहीं और प्रकाशित करा दिया, तो आइंस्टीन का ही एक छात्र या सहयोगी, हॉवर्ड रॉबर्ट्सन से मिला। और वो उस घटना को नहीं जानता था कि हॉवर्ड ने उस पेपर को देखा हुआ है, और उसमें एक त्रुटि को पकड़ा हुआ है।

तो वो दोनों बात करने लगे। हॉवर्ड ने आइंस्टीन के उस सहयोगी को उस त्रुटि के बारे में बता दिया, समझा दिया कि जो निष्कर्ष निकाला गया है, उसमें ये खोट है। उसमें ये खोट है। सहयोगी समझ गया, उसने आइंस्टीन को आकर उस खोट के बारे में बताया। आइंस्टीन समझ गए, बोले, “बात ठीक है, इसमें ये खोट है”। उन्होंने इतना ही नहीं किया, वो पेपर जब दोबारा प्रकाशित हुआ, तो उसमें उन्होंने बाक़ायदा अपनी खोट मानी, और हॉवर्ड रॉबर्ट्सन का शुक्रिया अदा किया। लेकिन ये उन्हें कभी पता नहीं चला कि जब वो पहली बार कुपित हुए थे, तो पहली बार भी खोट निकालने वाले रॉबर्ट्सन ही थे।

अब बताओ ये कहानियाँ क्या नीरस हैं? या इन कहानियों में भी रोमांच भी है, रस भी है, भव्यता भी है, उच्चता भी है। हमें ये सब कहानियाँ बताई नहीं जातीं । इन पर फ़िल्में भी नहीं बनतीं, और घरों में भी सुनाई जातीं ये सब बातें।

निकोला टेस्ला थे। ये जो बिजली का कर्रेंट यहाँ आ रहा है, ये डायरेक्ट कर्रेंट नहीं है, ये अल्टेरनेटिंग कर्रेंट है। ठीक है? इसके होने में, टेस्ला और टेस्ला के लोगों का, आविष्कारों और पेटेंट्स का बड़ा हाथ है। तो १८९५ में उनकी पूरी प्रयोगशाला जलकर ख़ाक हो गई। हो सकता है मैं वर्ष ग़लत बता रहा हूँ, इस बात के लिए दोष मत दे देना। १८९५ नहीं, तो १९०३ होगा, ये कोई बड़ी बात नहीं है, बात के सार पर ध्यान दीजिए।

और उस प्रयोगशाला में उनके सारे मॉडल्स, प्रोटोटाइप, रिसर्च पेपर, रिसर्च सामग्री, सब रखा हुआ था। और वो किसी के साथ बाँटते नहीं थे। वो कहते थे, “जब तक पेटेंट नहीं हो जाएगा, तब तक किसी को बताऊँगा नहीं। किसी को बता दिया, तो कहीं वो अपने ही नाम पर न प्रकाशित करा ले”। तो उस प्रयोगशाला में उन्होंने वो सब छिपा कर रखे हुए थे, वो सब जलकर ख़ाक हो गया।

विज्ञान में दुर्घटनाएँ हुई हैं, और लोगों ने उन दुर्घटनाओं से उबरकर के पुनः चढ़ाई की है, और जीता है अपने आप को।

चढ़ाई से याद आता है, एवेरेस्ट पर सबसे पहले कौन चढ़ा था?

श्रोता: एडमंड हिलेरी ।

आचार्य प्रशांत जी: तो वो पहली बार में नहीं चढ़ पाए थे। तो लोगों ने पूछा, “अब क्या करोगे”? तो बोले, “फ़िर आऊँगा। एवेरेस्ट जितना है उतना ही रहेगा, मैं और ऊँचा होकर आऊँगा”। एवेरेस्ट की मजबूरी ये है कि वो और ऊँचा नहीं हो सकता । तू जड़ है, तू प्रकृति है। तू जितना है, तू उतना ही रहेगा। मैं और ऊँचा, और बेहतर होकर आऊँगा”। वो आए और बेहतर होकर, फ़तह किया। ये विज्ञान है।

सीधा विज्ञान से नहीं है ये उदाहरण, पर चढ़ाई से याद आ गया।

पर समझो बात को।

हमें ये जज़्बा हिन्दुस्तान में चाहिए। और कल मुझे बड़ा संतोष हुआ कि वो जज़्बा आधी रात के बाद हिन्दुस्तान में देखने को मिला।

और भी बहुत नाम हैं, उनका अभी नाम लूँ तो, एक-से-एक कहानियाँ हैं विज्ञान में। एक-से-एक! कोई वैज्ञानिक ऐसा रहा जिसे निधिकरण (फंडिंग) नहीं मिला, बिना निधिकरण के ही काम करता गया, करता गया, और अंततः सफल हो गया। किसी के निजी जीवन में एक-से -एक उपद्रव थे, उसने उन उपद्रवों पर ध्यान नहीं दिया, काम करता गया, सफल हो गया।

‘मेरी क्यूरी’ का नाम तो जानते ही हैं। मेरी क्यूरी ने एक व्यक्ति से रिश्ता बनाया। उस रिश्ते को ठीक नहीं माना गया उस समय के समाज में। उस समय के समाज में उस रिश्ते को ठीकनहीं माना गया। मेरी क्यूरी के ही किसी सहकर्मी का वो शिष्य था। तो उस रिश्ते को उस समय में ठीक नहीं माना गया, उसे व्यभिचार (अडल्ट्री) माना गया। कि – “तुमने ठीक नहीं किया, ये अडल्ट्री है”।

फिर नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद, दो बार नोबेल मिला था उनको, नोबेल मिलने के बाद उनका सार्वजनिक अभिनन्दन होना था कहीं पर। वो जब जाने वालीं थीं, तो लोगों ने उनको रोकने की कोशिश की, कि – “आपका तो इस तरह का गैर-वाजिब रिश्ता है, किसी पराए पुरुष के साथ। आपको नहीं जाना चाहिए। राजा क्या एक व्यभिचारिणी से हाथ मिलाएंगे? आप तो पतिता हैं”।

वो पतिता नहीं थीं, वो वैज्ञानिक थीं। वो बोलीं, “जाऊँगी, हाथ भी मिलाऊँगी। अभिनन्दन हो रहा है मेरा, स्वीकार भी करूँगी। मैं क्या हूँ, ये जानना है तो मेरा काम देखो। मेरी निजी ज़िंदगी में ताकझाँक करने की ज़रुरत नहीं है। मेरा किससे क्या रिश्ता है, छोड़ो। मैं क्या हूँ, ये मेरे काम में परिलक्षित होता है। और मैं बताती हूँ मैं कौन हूँ”। फ़िर वो बोलीं, “दो अलग-अलग क्षेत्रों में नोबेल पुरस्कार मिला है मुझे। वो हूँ मैं”।

अब ये कहानियाँ क्या बिलकुल उबाऊ हैं? तो आपको पता क्यों नहीं हैं? भारतीय वैज्ञानिकों की ही जो कहानियाँ हैं, वो आपको क्यों नहीं पता हैं? गणितज्ञों की कहानियाँ आपको क्यों नहीं पता हैं? सी.वी. रमन के बारे में कुछ नहीं जानते, जगदीश चंद्र बसु के बारे में पूछूँगा तो थोड़ा-बहुत बता पाएँगे। उनके बारे में भी जानना, समझ लीजिए उतना ही ज़रूरी है, जितना ज़रूरी है ऋषियों के बारे में जानना।

क्योंकि, मैं फ़िर दोहरा रहा हूँ, जिसको दुनिया का पता, वो दुनिया के पार कैसे जाएगा? और मैं दुनिया का पता करने के लिए इसीलिए नहीं कह रहा हूँ कि तुम जाओ और दुनिया की बेवकूफ़ियों में लिप्त हो जाओ।

मैं कह रहा हूँ कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखो, ताकि अंधविश्वासी न बनो। वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखोगे तो अंधविश्वास से बचे रहोगे, फ़रेबी धर्मगुरुओं से बचे रहोगे। फ़िर तुम्हारे लिए हर तरह की मुक्ति के रास्ते खुल जाएँगे।

आ रही है बात समझ में?

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