ततो यदुत्तरतरं तदरूपमनामयम्। य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्त्यथेतरे दुःखमेवापियन्ति॥
जो उस (हिरण्यगर्भ रूप) से श्रेष्ठ है, वह परब्रह्म परमात्मा रूप है और दुखों से परे है, जो विद्वान उसे जानते हैं, वह अमर हो जाते हैं, इस ज्ञान से रहित अनन्य लोग दुःख को प्राप्त होते हैं।
~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (अध्याय ३, श्लोक १०)
आचार्य प्रशांत: दुःख क्या है?
सीधी सी परिभाषा समझ लो। जो तुम वास्तव में चाहते हो उसका ना प्राप्त होना ही दुःख है। जो तुम्हारी कामना है असली, उसकी आप्राप्ति का नाम ही दुःख है। ग़ौर से समझना, तुम्हारी असली कामना की अप्राप्ति का नाम ही दुःख है।
असली कामना अप्राप्त क्यों रह गई?
नकली कामना प्राप्त हो गई। जब नकली कामना प्राप्त हुई तो बहुत सारा क्या मिला? सुख। तो दुःख अकेला नहीं मिलता किसी को, जिसको दुःख मिला उसे साथ में सुख भी मिला है। बस यह जो दुःख है, यह थोड़ा असली है ज़्यादा, और जो सुख है वह थोड़ा नकली है ज़्यादा।
पा तो तुम कुछ ऐसा भी सकते थे जो तुम्हारे भीतर की रिक्तता को भर देता, जो तुम्हारे गहरे-से-गहरे दुःख को ख़त्म कर देता। समय भी था, सामर्थ्य भी था। पर तुमने उस समय का, अवसर का, सामर्थ्य का उपयोग किया कुछ और पाने के लिए। कुछ और क्यों पा लिया? क्योंकि वह आकर्षक लग रहा था।
जहाँ पाने निकले थे वहाँ यूँ ही तो पाने नहीं निकल गए थे? लोक कल्याण के लिए तो नहीं, व्यक्तिगत सुख के लिए ही न? तो व्यक्तिगत सुख वहाँ से खूब ले आए। वहाँ से सुख ले आए, लेकिन जो पीछे छाती में दुःख पल रहा था वह कायम रहा, वह दुःख कायम ही रहा। जो सुख लेकर के आए थे, कुछ समय पर, कुछ समय के बाद वह सुख भी विनिष्ट हो गया। बचा क्या? सिर्फ़ दुःख ही दुःख। तो दुःख निरंतर है, दुःख का ही जन्म होता है। दुःख की ही जीवन की सारी यात्रा है। सुख बीच-बीच में आता है।
सुख क्या है?
दुःख को मिटाने का अधूरा और असफल प्रयास ही सुख है।
दुःख तो था ही था। दुःख पाने के लिए कुछ विशेष करने की ज़रूरत नहीं है। दुःख ही जन्म लेता है माँ के गर्भ से बालक के रूप में। तुम कितनी भी कहानियाँ बना लो कि कितना हँसता-खेलता नन्हा मासूम बालक है। वास्तव में वह दुःख का पिंड है। देखो उसकी कैसी-कैसी कामनाएँ हैं, देखो कैसी-कैसी बातों पर वह डर जाता है, देखो कैसी उसकी सीमाएँ हैं, देखो कैसा उसका अज्ञान है। और वही अज्ञान आगे की यात्रा करता है। वही अज्ञान जीवन भर साथ बना रहता है। वही कामनाएँ जो एक नन्हे शिशु में बीज रूप में होती हैं, वही आगे चलकर के बड़ा पेड़ बन जाती हैं। उन सब कामनाओं के मूल में दुःख है।
क्या दुःख? 'मैं अधूरा हूँ, कोई कमी है। मैं कहाँ फँस गया? मैं वह तो नहीं जो मैं प्रतीत होता हूँ।' यह दुःख है। अब यह दुःख हमें लगातार रहता है क्योंकि यह दुःख लगातार लगा रहता है। तो हम प्रयत्न करते हैं इसको मिटाने का।
अहम् की नैसर्गिक स्थिति आत्मा की है और आत्मा आनंद स्वरूपा है, दुःख उसका स्वभाव नहीं। तो अहम् जब दुःख का अनुभव करता है, जब अहम् के होने में ही दुःख है तो वह क्रियाशील हो जाता है। अहम् का सारा कर्ता भाव इसीलिए है ताकि वह दुःख से मुक्ति पा सके।
समझ में आ रही बात? समझ में आ रहा है कि आम-आदमी को ऊर्जा कहाँ से मिलती है? हममें से हर व्यक्ति गतिशील, क्रियाशील क्यों हैं? क्योंकि हम भीतर-ही-भीतर किसका अनुभव करते हैं? दुःख का। इसीलिए हम विश्राम में नहीं आ पाते हैं। हमें लगातार कुछ-न-कुछ करते रहना पड़ता है क्योंकि दुखी आदमी को करना पड़ेगा न। दुःख इतना है कि उसे दौड़-भाग करनी पड़ेगी। रहा नहीं जा रहा, चैन नहीं मिल रहा। तो यह दुखी व्यक्ति जो है, यह जीवन भर गति करता है। इसकी गति का नाम ही जीवन है।
अब अगर यह होश से भरी, समझदारी से भरी, बोध से भरी गति करे तो वास्तव में अपने दुःख का अंत भी कर सकता है। लेकिन दुःख का अंत तो तब करेगा न जब इसकी नीयत हो कि 'मुझे दुःख के मूल तक पहुँचना है और दुःख का अंत ही कर देना है।' उसकी जगह वह इरादा यह बना लेता है कि 'कोई हल्का-फुल्का तात्कालिक उपचार मिल रहा हो, वो ले लेते हैं न!'
कहीं जाकर के एक सुंदर, सु-मधुर शाम बिताते हैं। कुछ घण्टे किसी सुंदर जोड़ीदार के साथ काट लिए, कुछ अच्छा खा-पी आए, मन बहलाने के तरीके हज़ारों हैं। इन सब तरीकों में नीयत की खोट है। क्या खोट है? तुम जानते हो कि तुम्हारा दुःख कितना गहरा है लेकिन तुम उसको दे क्या रहे हो? सतही उपचार। वह सतही उपचार सतह जितना काम कर जाएगा। एक शाम तुम रंगभरी निश्चित रूप से बिता सकते हो। शाम बीत जाएगी, काली गहरी रात आएगी। दुःख वापस है, और वापस ही नहीं है, उस शाम के बाद वह दुःख और कचोटेगा। वह रात और काली लगेगी।
जीवन इसलिए नहीं है कि तुम दुःख से भरा जो यह अपना अस्तित्व है, जो अपनी काया है, इसके ऊपर सुख का सतही मरहम या लेप लगाते रहो। जीवन इसलिए है ताकि तुम अपनी ही छाती भेद दो सीधे; वहीं पर दुःख बैठा हुआ है। खाल पर माल मलने से कुछ नहीं होगा। अपने ही मर्म स्थल का भेदन करना पड़ता है, तब दुःख से मुक्ति मिलती है।
लेकिन खाल पर लेप लगाने की दुकानें क्या, पूरी-पूरी बाज़ारें खुली हुई हैं जहाँ सस्ता सुख बिकता रहता है। यह सस्ता सुख खरीदने वाले हर व्यक्ति को यही जानना कि दुःख से बहुत पीड़ित है, बहुत आक्रांत है। दुःख से पीड़ित तो है लेकिन इतना हौसला और इतनी ईमानदारी भी नहीं दिखा पा रहा कि अपनी समस्या का असली इलाज करे। तो क्या कर रहा है? 'अरे भाई, नशे की कोई चीज़ दे दो न, चार घण्टे के लिए ही काम हो जाए।'
उससे पूछो 'चार घण्टे का ही काम क्यों कर रहा है? मैं तुझे कुछ ऐसा दूँगा कि तेरे चालीस साल चैन में बीतेंगे। तू यह चार घण्टे की चीज़ क्यों माँग रहा है?'
तो कहेगा 'बिलकुल दीजिए, चालीस साल वाली चीज़ दीजिए।' तुम जैसे ही उसको चालीस साल वाली चीज़ दोगे, कहोगे कि, 'इसकी कीमत लगती है।' कीमत क्या लगती है? 'कीमत यह लगती है कि तूने जो दुःख से निर्मित सब धारणाएँ बना रखी हैं, जीवन बना रखे हैं, वह सब मुझे सौंप दे। दुःख केन्द्रित तूने जो यह अपनी पूरी दुनिया बना रखी है, मुझे दे दे, और मैं तुझे ऐसी बूटी दे दूँगा जिससे तू सदा के लिए दुःख से मुक्त हो जाएगा।'
वास्तव में यह जो आदान-प्रदान है इसी में दुःख से मुक्ति है। 'मैं तुझे दुःख से मुक्ति नहीं दे रहा, मैं तुझसे तेरे दुःख ले रहा हूँ। दे नहीं रहा, ले रहा हूँ। मैंने अभी तुझसे क्या बोला था? मैं तुझे कुछ ऐसा दूँगा कि तू दुःख से मुक्त हो जाएगा। वह देने का मतलब यही है कि मैं तुझसे लिए ले रहा हूँ तेरे सारे दुःख।'
दुःख से मुक्ति का क्या मतलब होता है?
तुम दुःख से मुक्त हो गए। मतलब तुम्हारे साथ पहले क्या था? दुःख था। अब तुम्हारे पास दुःख नहीं है। मैं तुमसे ले रहा हूँ न तुम्हारे दुःख। दो मुझे, मैं ले रहा हूँ। चालीस साल के लिए मुक्त हो जाओगे। जीवन में तुम्हारे चालीस साल बचे हैं अभी, चालीस साल जीने वाले हो तुम। तुम मुक्त हो जाओगे चालीस साल से। लाओ दो, मुझे दो, दुःख दो सारे मुझे।
वो इनकार कर देगा, 'नहीं दूँगा।' उसे नहीं देने, अब कौन क्या करेगा? तुम ही बादशाह हो, तुम्हारी हुकूमत चलती है। तुमने इनकार कर दिया अपने दुखों को तिरोहित करने से। कौन छीनेगा, कौन बहा देगा?
यह सब मैं क्यों बोल रहा हूँ? यह सब मैं इसलिए बोल रहा हूँ क्योंकि हम यह धारणा पकड़े रहते हैं कि हमारे दुःख किसी और की वजह से हैं।
दुनिया में कोई ऐसा नहीं है जिसका एक क्षण का भी दुःख किसी और की वजह से हो। दुःख सदा और सर्वदा चुनाव है आपका। और दुःख से मुक्ति का मतलब कुछ पाना नहीं होता, दुःख से मुक्ति का सीधा-साधा मतलब दुःख से मुक्ति ही होता है। दुःख से मुक्त हो जाओ, दुःख को छोड़ दो।
दुःख को लेकिन छोड़ोगे तब न जब अपना ही जबड़ा काट कर, अपना ही मसूड़ा काट कर जो खून का स्वाद मिलता है उसकी लत को छोड़ने को राज़ी हो जाओ। कुत्ते की आदत होती है यह, कुछ भी कड़ा चबाता है, सूखी हड्डी चबाता है तो उसका अपना ही मसूड़ा छिल जाता है, वहाँ से खून टपकता है। तो वहाँ से खून टपकता है तो उसको लगता है कि यह खून आ रहा है इस हड्डी से। वह हड्डी को और ज़ोर से चबाता है; हड्डी को और ज़ोर से चबाता है, उसका मसूड़ा और छिलता है और खून टपकता है। उसको लगता है खून आ रहा है इस हड्डी से, वो और ज़ोर से चबाता है। हम ऐसे हैं, हम हड्डी छोड़ने को राज़ी ही नहीं। सूखी, बेकार, सड़ी हड्डी, उससे हमने अपनी ज़िंदगी भर रखी है। राज़ी नहीं छोड़ने को।
इसलिए हमसे ऋषिवर कह रहे हैं कि ब्रह्म दुःख से परे है। तुम या तो अपने दुखों का चयन कर सकते हो या ब्रह्म का चयन कर सकते हो। और इस ज्ञान से रहित लोग दुःख को प्राप्त होते हैं। जो दुःख को प्राप्त हैं लोग, उनको भी ज्ञान है। उनको क्या ज्ञान है? उनको यही ज्ञान है कि दुःख तो आकस्मिक है, दुःख तो संयोगवश है, दुःख तो किसी दूसरे, किसी पराए की करतूत है, दुःख तो हमारे ऊपर किया गया अत्याचार और अन्याय है।
नहीं, दुःख किसी और की करतूत नहीं। दुःख किसी और द्वारा किया गया आप पर अन्याय नहीं। दुःख आपका अपना चुनाव है। आप अपना झूठा ज्ञान एक तरफ़ रखें। ऋषि का सच्चा ज्ञान अगर आप समझ पाएँ, उसके आगे नमन कर पाएँ, तो दुःख से आपको मुक्ति मिलेगी।
जो विद्वान जानते हैं इस बात को वह अमर हो जाते हैं। अमर होने से क्या आशय है? सारा दुःख ही यही है — सीमित बना दिया मुझको। परिवर्तनशील बना दिया मुझको। मरण धर्मा होकर बैठ गया हूँ मैं। और भीतर कुछ है जो ख़त्म होने से सहमत ही नहीं हो रहा। वह स्वीकार ही नहीं कर रहा कि कभी ख़ात्मा आएगा। ख़ात्मे का नाम लो, वो तुरंत ही बिदक जाता है।
यह तुम अपने-आपको झूठा ज्ञान पिला रहे हो न कि 'मुझे तो एक दिन ख़त्म होना है।' इसीलिए तो मृत्यु इतनी बुरी लगती है क्योंकि मृत्यु झूठा ज्ञान है।
सच्चा ज्ञान क्या है?
सच्चा ज्ञान यह है कि तुम अपने बारे में यह जो मरण धर्मा जो धारणा बना कर बैठे हो, इस धारणा से बाज आओ। तुम वह नहीं हो वास्तव में जो मर सकता है। पर तुम बने वही बैठे हो जो मर सकता है। और इस बात में तुम्हारा बहुत गहरा यकीन है कि 'मैं तो मरूँगा'। ठीक है, तुम अपने इस यकीन का ही प्रयोग कर लो। ज़बरदस्ती रटो मत कि 'मैं नहीं मरूँगा, मैं नहीं मरूँगा'। वह एक और बड़ी त्रासदी हो जाती है।
वह त्रासदी आजकल खूब चलती है, क्या? कि जो मरण धर्मा अहंकार है उसने इस बात को रट लिया कि 'मैं तो अमर हूँ'। और वह अपना नारा लगा रहा है और मंत्र जप रहा है कि 'मैं तो अजन्मा और अमर हूँ। न तो मैं कभी आया था, न मैं कभी जाऊँगा'। वह इस तरह की बातें दोहरा रहा है। जबकि उसकी छाती में क्या बैठा हुआ है? अहंकार भी बैठा हुआ है, मरने का भय भी बैठा हुआ है। वह नहीं करना है।
तुम अगर मरणशील ही अपने-आपको मानते हो तो इस मरणशीलता का पूरा परीक्षण करो। कौन है जो मरना चाहता है? कैसे जाना उसने कि वह ख़त्म हो जाएगा? जो ख़त्म होने वाली चीज़ है वह क्या है? क्या वह चीज़ से हटकर भी कुछ और है? क्या तुम चीज़ हो? ख़त्म अगर तुम हो जाओगे तो कहाँ जाओगे? ख़त्म तुम हो जाते हो तो मिट जाते हो या बदल जाते हो? क्या तुम बदल भी सकते हो? इन प्रश्नों को पूछना बहुत ज़रूरी है। हमारी शिक्षा व्यवस्था हमें इन प्रश्नों की ओर भेजती नहीं है, पर यह सवाल पूछे जाने चाहिए।
सेल्फ माने — 'मैं'। उसको तुम आत्मा बोल दो चाहे अहम्, वह निश्चित रूप से शिक्षा व्यवस्था का हिस्सा होना चाहिए। और इसमें किसी धार्मिक आस्था का कोई सवाल नहीं है। हिंदू हो, मुसलमान हो, इसाई हो, दुनिया की किसी धारा को मानने वाला हो, 'मैं' तो सबके पास होता है न? या ऐसा कह दोगे तुम कि, "मैं फलाने पंथ का मानने वाला हूँ, मेरा तो कोई 'मैं' ही नहीं है।" 'मैं' तो सभी बोलते हैं न? तो 'मैं' नाम से विषय होना चाहिए। स्कूलों की पढ़ाई में, कॉलेज की पढ़ाई में। और कोई इसे यह ना समझे कि यह होने से किसी एक संप्रदाय विशेष का दबदबा हो जाएगा या पक्षपात हो रहा है। यह किसी एक धर्म के पक्ष में या विपक्ष में नहीं है।
'मैं' सबका है। जब सबका है तो 'मैं' सबको पढ़ाया भी जाना चाहिए। कहाँ से आता है, कहाँ को जाता है? क्या माँगता है? किस बात से डरता है? विद्वान लोग होने चाहिए जो पाठ्यक्रम निर्धारित करें। विद्वान लोग होने चाहिए जो शिक्षण कार्य करें। और अगर स्कूलों और कॉलेजों की व्यवस्था में अहम् नाम का विषय आ गया—आत्मा नाम के विषय से हो सकता है कि आप थोड़ा घबराएँ, परहेज़ करें। आत्मा को तो हम कह देंगे कि 'यह तो भई, देखिए, आपने वेदांत से शब्द उठा लिया।' चलिए आत्मा को रखिए, (नहीं उपयोग करेंगे)। 'अहम्' तो रख सकते हैं? 'अहम्' नाम का विषय अगर आ गया हमारे पाठ्यक्रम में तो दुनिया की पूरी तस्वीर बदल जाएगी।
ज़्यादा-से-ज़्यादा समस्याएँ जो आज मनुष्य के सामने हैं, इसीलिए हैं क्योंकि हम जानते ही नहीं हम कौन हैं। और बेहोश ज़िंदगी जिए जा रहे हैं। हम अपने-आपको चूँकि मृत्यु धर्मा जानते हैं, इसीलिए आज चारों तरफ़ बस मौत का ही नाच देख रहे हैं।