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बुलंद जीवन कैसे जिएँ? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

Acharya Prashant

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बुलंद जीवन कैसे जिएँ? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, मैं कई महीनों से आपको सुन रहा हूँ। एक वीडियो में आपने कहा है कि बेपरवाह जियो और बुलंद जियो। जैसे कबीर साहब ने कहा है कि "बुरा जो खोजन मैं चला, बुरा न मिलया कोय"। पहले मैं दूसरों को देखता था, फिर ख़ुद को देखने लगा।

अब जब से ख़ुद को देखने लगा तो अपनी कमियाँ धीरे-धीरे समझ में आने लगीं। अब समस्या ये है कि भूतकाल में हमने जो भी कर्म किये उनके परिणामस्वरूप तीन तरह की भावनाएँ उत्पन्न होती हैं मन में — डर, ग्लानि और कष्ट। डर कि हमने कुछ अगर सही नहीं किया है तो उसका परिणाम नकारात्मक होगा; ग्लानि कि हमने ग़लत किया; और एक तरह का कष्ट।

अब इन तीनों के साथ आज बेपरवाह और बुलंद कैसे जीना है?

आपने एक चीज़ कही थी कि जो कर्ता है वही भोक्ता भी है। तो कर्मफल सुनिश्चित है या जैसा भी हमने किया है वो होना है। अब उसके साथ बेपरवाही और बुलंदी कैसे लायें?

आचार्य प्रशांत: ग़लत बोल गये।

प्र: क्षमा चाहूँगा अगर ग़लत बोला।

आचार्य: क्षमा अब कैसे मिलेगी वो सुनिए। ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि जो करता है वो भुगतता है। जिसने किया था, अगर वो बचा हुआ है तो ही भुगतता है। जिसने किया था, वो बचा हुआ है तो ही भुगतता है।

नहीं समझ में आ रही बात?

आपने कुछ करा और करके मर गये तो कौन भुगतेगा? बचे रहोगे तब न भुगतोगे; बचे मत रहो।

प्र: यहाँ बचे रहने से तात्पर्य है कि अहम् भाव?

आचार्य: वो जो था करते वक़्त वही मत रह जाओ। भुगतने के लिए ज़रूरी है कि वही बने रह जाओ जो बनकर तुमने कर्म करा था। कर्मफल से मुक्ति संभव है, कर्तापन त्याग करके। कर्ता ही भोगता है। मरना पड़ता है आंतरिक तौर पर। फिर कष्ट नहीं मिलेगा।

आज अगर तुमको अतीत को लेकर के दुख है, ग्लानि है, भय है तो उसकी वजह साफ़ है — वही हो जो अतीत में थे। तो इंतज़ार कर रहे हो कि जो कुछ करा है उसका अंजाम आएगा, भुगतेंगे। सूक्ष्म बात है तो ये है कि कर्मफल तत्काल ही मिल गया होता है। लेकिन जिस तरह से आप कर्मफल को समझ रहे हैं, समझिए बूमरैंग जैसा होता है — बूमरैंग समझते हैं? यहाँ से फेंका, वापस कहाँ आता है?

प्र: वापस हमारे ही पास आता है।

आचार्य: तो जहाँ खड़े थे वहाँ न खड़े रहो, तो लगेगा?

प्र: नहीं।

आचार्य: बस ये बात।

जो पहले थे आज भी वही बने हुए हो, इसीलिए पहले जो करा उससे इतना डरते हो।

पहले करे भी वो सारे काम थे जिनके परिणाम में डर मिलेगा क्योंकि वही काम तो ललचाते हैं न करने के लिए। बार-बार कहता हूँ न — भय और लोभ साथ-साथ चलते हैं। जो चीज़ आपको आज लालच दे रही है — करो, करो, करो, बड़ा आकर्षण है — वही चीज़ तो भय है आपका। भय न होता तो लालच कैसा होता!

फिर लालच में आकर जो कर देते हो, आगे उसकी ग्लानि में जीते हो। ये तो पहले ही निश्चित था क्योंकि भय और लोभ एक ही चीज़ है। जिसने लालच किया है वो डरे न, हो नहीं सकता। और डरा हुआ आदमी और ज़्यादा लालच करेगा क्योंकि उसकी बुद्धि मंद पड़ जानी है।

अतीत से जिनको भी मुक्ति चाहिए हो, उसकी क़ीमत समझिए अच्छे से। आगे बढ़ जाइए। अतीत को सुलझाने की कोशिश मत करिए, आगे बढ़िए। अतीत से लड़िए मत, आगे बढ़िए। कर्ण से मत हो जाइए। कर्ण अर्जुन से थोड़े ही लड़ रहा था, कर्ण अपने ही अतीत से लड़ रहा था; हार निश्चित थी।

अतीत से लड़कर आप जीत नहीं सकते क्योंकि आप स्वयं अतीत हैं।

हाँ, अतीत का आप उल्लंघन कर सकते हैं। उल्लंघन माने? ये रहा अतीत, मैं इसको लाँघ के आगे बढ़ गया। और क्यों न बढ़ें भाई! शरीर अतीत का है, स्मृतियाँ अतीत की हैं, चेतना किसी काल की होती है क्या!

हम अगर शरीर हैं तो निश्चित रूप से अतीत में अटके रहेंगे। पर यदि चैतन्य हूँ मैं तो निश्चित अतीत से आगे बढ़ जाऊँगा। अतीत में रहा होगा कोई, मैं उसे जानता ही नहीं या उसे मैं वैसे ही जानता हूँ जैसे सड़क पर चलते किसी साधारण आदमी को। हाँ, मैं जानता हूँ, वो जा रहा है, रमेश जा रहा है। कुछ साल पहले तक वो मैं था।

आप जीवन में आगे बढ़ रहे हैं या नहीं, उसका एक लक्षण ये भी होता है — आप अपनी पुरानी तस्वीरें देखें और आप कहें, ‘ये है कौन?’ आप अपनी पुरानी रिकॉर्डिंग्स देखें, अपनी पुरानी करतूतें देखें, पुराने विचार देखें और कहें, ‘ये है कौन? ये सब किसने किया था? भोंपू कहीं का!‘ आप पुराना अपना कुछ देखें और कहें, ‘अरे! देखो, ये हूँ मैं।’ और बड़े शान से उसको बताये ँ कि देखो ऐसा देखो वैसा, क्या लाभ?

या तो अतीत में कुछ ऐसा हो जो बिलकुल सच्चा हो, तो सच की उम्र नहीं होती, वो टिका रह जाए अलग बात है। पर हमारे अतीत में तो ऐसा कुछ होता नहीं न जो सच्चा है। हमारे अतीत में तो अधिकतर वही होता है जो कालबद्ध है, झूठा है; अभी आया, अभी गया। उससे चिपककर बैठे हो, क्या मिल रहा है?

अब ये सुनकर हम बहुत असहज हो जाते हैं क्योंकि हम अधिकांशत: जिन चीज़ों के साथ जी रहे हैं, वो सब अतीत की हैं। बड़ी दिक़्क़त हो जाएगी, पुराना प्रेमपत्र उठाओ और पूछो जिसको लिखा था उसी को दिखाकर, ‘ये किसने लिखा था? क्या फ़ालतू बातें हैं।‘ बड़ी घमासान मचेगी; है न! तो हम असहज हो जाते हैं, ‘अरे! ये क्या, ये क्या! नहीं-नहीं, अतीत कैसे छोड़ सकते हैं!’

अतीत नहीं छोड़ना तो कोई बात नहीं, फिर जो करा था वो भुगतते चलो। बूमरैंग फेंका था वो पलट के आ रहा है अपने मुँह की ओर, खड़े रहो मुँह खोलकर ऐसे — आइए, मारिए मुँह पर मेरे। क्योंकि हम यहाँ से टर ही नहीं सकते। ये अतीत का बिंदु है, हम यहीं आसन मार कर खड़े हो गये हैं बिलकुल।

समस्या क्या है एक बेहतर बंदा बनने में? क्या समस्या है? वो समस्या मैं जानता हूँ, मैं भी आप ही की तरह हूँ। पर मैं चाहता हूँ कि आप बोलें, सोचें। कुछ बिगड़ जाएगा थोड़े बेहतर हो जाओगे तो। उल्टा होता है, हम कई बार बड़े फ़क्र से बताते हैं, ‘देखिए साहब, मेरी तो आदतें आज भी वही हैं जो पंद्रह की उम्र में थीं। मेरे दोस्त आज भी वही हैं और पता है हम करते भी वही सब कुछ हैं जो हम पंद्रह की उम्र में करते थे।’

मिले हो ऐसे लोगों से जिन्हें इसी बात पर नाज़ रहता है, ‘हम तो साहब वही हैं, हम नहीं बदलते। मौसम बदलते हैं वक़्त के साथ, हम नहीं बदलते।’ और शायरी भी इस तरह की ख़ूब है — तुम बदल न जाना हम नहीं बदलते। शायरों ने समझाया है न, बदल न जाना।

बदलने को नहीं कहा जा रहा; चमगादड़ या गिरगिटान होने को नहीं कहा जा रहा। उल्लंघन करने की बात हो रही है, बदलाव की बात नहीं हो रही है। बदलने का अर्थ होता है — जेल में हो, एक कोठरी से दूसरी कोठरी में आ गये। ये बदलाव है। उल्लंघन का अर्थ है दीवार फांद गये। दोनों बातों में ज़मीन आसमान का अंतर है न। आप सुन रहे हैं या सहम रहे हैं?

ठीक।

आपने कोई अपराध नहीं कर दिया अगर आप बिलकुल तरोताज़ा होकर खड़े हो गये। ये सब जो आपको बताया जाता है न कि वफ़ा की क़समें और बेवफ़ाई की दुहाइयाँ, यही आपको वो इंसान बनाए रखती हैं जो आप आज से चालीस साल पहले थे।

‘देख भाई, तू वही बंदा रहना जैसा हॉस्टल (छात्रावास) में था।‘ अब हॉस्टल में कैसे थे, खुलकर बताने की बात नहीं; और अब आपको मजबूर किया जा रहा है, ‘वही रहना जैसा तू हॉस्टल में था।’ ‘सुनो जी! सात जन्म तक मत बदलना’ — ये तो सुनकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। सात साल नहीं, सत्तर साल नहीं, यहाँ तो सीधे सात जन्म के लिए पकड़ लिया। ‘आज जैसे वो ऐसे ही रहना।‘

आज वो कैसा है, आपको पता भी है। झाँकिए उसके तन में तो पता चलेगा। अभी वो कुछ नहीं है, अभी वो बस कामवासना में लिप्त है। आप चाहती हैं वो ऐसे ही रहे? वो ऐसा रहेगा तो मर भी जाएगा क्योंकि वो सब एक तरह का तनाव होता है। अभी ख़ून का बहाव तेज़ हो गया, दिल की धड़कन तेज़ है, ऐसे रहेगा तो थोड़ी देर में मर जाएगा।

कोई नैतिक बाध्यता, मोरल ओब्लिगेशन नहीं है आपके ऊपर। और हम बड़े दबे संकुचाये रहते हैं। किसी पुराने से मिलते हैं तो उसको वही चेहरा अपना दिखाना चाहते हैं जिससे वो परिचित है। जो हमारे सामने है उसको नहीं शर्म आती कि वो गिरा हुआ क्यों है, हमें शर्म आने लग जाती है कि हम उठे हुए क्यों हैं। तो फिर हम नाटक करके, प्रपंच करके एक झूठमूठ का गिरा हुआ चेहरा उसको दिखाते हैं।

किसी के साथ बैठकर के आप ख़ूब पिया करते थे, अब आपको पीने में उतना मन नहीं लगता लेकिन उससे मिलेंगे और वो कहेगा, ‘आ बैठ पीते हैं’, तो आपको डर लगेगा कि अगर मैंने बोल दिया कि नहीं पीऊँगा तो ये कहेगा, ‘बेवफ़ा कहीं का!‘

उसको नहीं शर्म आ रही कि वो आज तक बेहतर नहीं हो पाया, कोई तरक़्क़ी नहीं कर पाया। आपको शर्म आ रही है कि आप तरक़्क़ी कर गये। सच को लेकर के हमें जितनी लज्जा आती है, काश! कि झूठ को लेकर उसका दसांश भी आती। सबसे ज़्यादा लजाता हुआ वो आदमी है जिसको सच का कुछ पता चल गया; एकदम मुँह छुपाये-छुपाये फिरता है हरदम।

आप कोई कुकर्म करके आयें, घर में बिलकुल ठाठ से घुसेंगे। ‘देखो माँ, आज तुम्हारे लिए ढाई लाख की घूस लाया हूँ दफ़्तर से।’ माँ-बेटा दोनों नाचेंगे उछल-उछल के, नोट उछालेंगे। ‘देखो, आज मेरा सपूत ढाई लाख की घूस लाया है दफ़्तर से।’

पर यहाँ महोत्सव से सब जाएँगे तो कुछ लोग खिड़कियों से अंदर जा रहे हैं, रोशनदान से अंदर जा रहे हैं, दीवारें फांद रहे हैं; चुपचाप जा रहे हैं, अन्दर सीसीटीवी में पकड़े जाएँगे। एकदम चुपके-चुपके घुस रहे हैं, मुँह छुपाकर घुस रहे हैं; कोई कह रहा है, ‘मैं वो हूँ नहीं, कोई मुखौटा लगाया है।’ कोई मुँह रंग कर जा रहा है। सब होता है, जानता हूँ मैं। कई तो बिना बताये आते हैं, कई कुछ और बोलकर आते हैं।

सबसे पहले तो थोड़ी ठसक जगाओ। लजाना छोड़ो, थोड़ी बेशर्मी ज़रूरी है। “पर्दा नहीं जब कोई ख़ुदा से, बंदों से पर्दा करना क्या!“ और ऐसे बंदों से पर्दा जो किसी गिनती के नहीं हैं। सारा पर्दा इन्हीं से है! लोग आने शुरू हो गये हैं, ‘ये इतनी फ़ोटो खींच रहे हैं, हमारी अगर खिंच गयी हो तो देखिए, सोशल मीडिया पर मत डालिएगा। ये सब ज़रा असामाजिक क़िस्म की जगहें होती हैं। यहाँ आना शरीफ़ों में अच्छा नहीं माना जाता।’

ये इतना वीडियो आते हैं, देखा, उसमें कई बार ब्लरिंग (धुंधलापन) रहती है, वो सब क्या है; वो यही तो है। ‘देखिए, अगर किसी को पता चल गया तो मैं कहीं का नहीं रहूँगा। मेरा मुँह काला कर दीजिए, प्लीज़!‘ हम कर भी देते हैं। अभी तो आपमें से ही बहुत लोग आएँगे; कर देंगे, तुरन्त कर देंगे। अभी जब तुममें इतना दम ही नहीं कि छाती ठोककर सामने आ सको तो हमें क्या पड़ी है तुम्हारा चेहरा दिखाने की।

‘छी! अब तू इतना गिर गया है, इतना घिनौना काम करेगा! तू महोत्सव में गया, हमारे पुरखों की आत्मा भी तड़प रही होगी आज। हमने कौनसे पाप किये थे, कितने घिनौने संस्कार दिये थे हमने तुझे, तू उपनिषद् पढ़कर आया है!‘ हाँ, सिर झुक गया, ज़मीन में गड़ गये लाज के मारे।

ये सब डर सिर्फ़ एक ज़िद से आता है — बदलना नहीं है; बेहतर नहीं होना है। न जाने कौनसे सुरख़ाब के पर लगे हैं आपके अतीत में जो चिपके रहना चाहते हैं उससे। और अतीत अगर इतना प्यारा है तो क्यों कहते हो कि अतीत तड़पाता है; प्यारी चीज़ें तो नहीं तड़पाती।

अब मैं बताता हूँ क्या होगा — बहुत लोग ये मान के आये होंगे कि वसूल भी लेंगे, सवाल भी पूछ लेंगे और ये भी बोल देंगे कि मुँह ढक दीजिएगा। अब मैंने कर दिया है व्यंग्य और ये हो गया ग़लत, तो अब वो क्या करेंगे — वो सवाल ही नहीं पूछेंगे। क्योंकि अगर पूछ दिया तो पूछने के बाद अब ये कहना थोड़ा बुरा सा लगेगा कि मुँह काला करिए, तो कुशलता इसी में है कि अब पूछो ही मत। कोई बात नहीं भाई, ऋषिकेश आना व्यर्थ गया! कोई बात नहीं!

हम कर देंगे, अपनेआप कर देंगे, आप बेधड़क होकर पूछिए। आप नहीं भी बोलोगे तो कर देंगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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