बुढ़ऊ के पुनर्जन्म की आँखोंदेखी घटना || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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बुढ़ऊ के पुनर्जन्म की आँखोंदेखी घटना || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: सातवीं-आठवीं की बात होगी‌, तो हमारे साथ एक पढ़ा करता था, और उसका आठवीं में ही नाम पड़ गया था क्लास में — बुढ़ऊ। क्यों पड़ गया था? क्योंकि वो कक्षा के औसत विद्यार्थी से उम्र में लगभग दो साल बड़ा था। और इतना ही नहीं था, कुछ उसने ज़िंदगी इस तरह से जी थी कि उसके बाल, वही, पंद्रह-वंद्रह की उम्र में ही सफ़ेद होने लग गए थे। तो उसका नाम क्या था? बुढ़ऊ।

तो, आठवीं में जो परीक्षाएँ होती हैं, हॉफ़-इयरली , अर्धवार्षिक, उनके नतीजे आये। बुढ़ऊ का वैसे ही नतीजा आया जो आना था। अब उसके बाद क्या देखा जाए? उसके बाद देखा जाए कि बुढ़ऊ सातवीं के लड़के-लड़कियों से मेल-जोल बढ़ा रहे हैं, उन्हीं के साथ खेल रहे हैं। उनको ज्ञान दे रहे हैं, मदद कर रहे हैं। सीनियर बन रहे हैं उनके सामने जाकर, कि हाँ, ऐसा हो सकता है, वैसा हो सकता है।

एक दिन बुढ़ऊ ने इन्तहा कर दी। असैम्बली में जाकर के वो सातवीं की लाइन में लग गए। आठवीं का बुढ़ऊ जाकर कहाँ लग गया? सातवीं की लाइन में लग गया। तो (हँसते हुए), मैं मॉनिटर हुआ करता था, मैने कहा, 'ये ज़्यादा हो गया अब। और जो तुम कर रहे हो सो कर रहे हो, वापस तो आओ।' तो मुश्किल से उसको वापस खींचा। फिर पूछा कि कर क्या रहे हो? तो वो बोलता है, ‘अगले साल की तैयारी।' बोल रहा है, 'तुम्हारा क्या है? तुम तो बीत जाओगे। हमें तो उन्हीं के साथ रहना है।'

तो ये सब जो पुनर्जन्म वाले हैं, ये बुढ़ऊ जैसे हैं हमारे; कि अब इस साल से तो कुछ उम्मीद बची नहीं। हॉफ-इयरली ने ही बता दिया है कि आगे क्या होना है। अभी जो परिणाम आये हैं वो हॉफ-इयरली के ही हैं। लेकिन हम यहीं पर ही उम्मीद खो चुके हैं पूरी कि किसी भी तरीक़े से हम नौवीं में पहुँचेंगे। तो हमनें अभी से ही अगले जन्म की तैयारी शुरू कर दी है। सब सातवीं की लड़कियों से मेल-जोल बढ़ाना चालू कर दिया है। और किताबें वैसे भी हमारी बिलकुल नयी की नयी थीं, अब तो हम उनको बिलकुल ही नहीं छू रहे। अरे, कहीं दाग़-धब्बा लग जाएगा, ख़राब हो जाएँगी। एकदम साफ़ बचनी चाहिए अगले जन्म के लिए!

ऐसे हैं सब पुनर्जन्म वाले। कौन मेहनत करे इस जन्म में! ये तो वैसे ही बर्बाद हो चुका है। और बर्बाद इसलिए हो चुका है क्योंकि जन्म बर्बाद करने का बहुत पुराना अनुभव है हमें। पाँचवी भी दोहराए थे। छठी भी दोहराए थे। अब आठवीं भी दोहराएँगे।

बुढ़ऊ तो फिर भी होशियार थे। आठवीं वो वाकई दोहराते तो उनका नाम वही लिखा जाता जो नाम उनका पिछले साल था। लेकिन जो पुनर्जन्म वाले हैं, ये महामूर्ख हैं।

जो कर सकते हो वो अभी कर लो। कष्ट भी अभी है, समाधान भी अभी है; पाप भी अभी है, पुन्य भी अभी है; कर्म भी अभी है, कर्मफल भी अभी है; बंधन भी अभी है, और मुक्ति भी अगर तुम्हें पानी है तो अभी है। क्यों भविष्य पर इतना तुम भरोसा और इतना बोझ डालते हो? यहाँ भई, आने वाले कल का भरोसा नहीं, तुम अगले जन्म के भरोसे बैठ गए! ये तो तुमनें ज़बरदस्त यकीन कर लिया भविष्य पर। समझ रहे हो?

आदमी वर्तमान से दूर भागता है भविष्य की ओर। तो दुनिया के लोग, बाक़ी दुनिया के लोग तो भविष्य की ओर इतना ही भागते हैं कि जो आज नहीं मिला वो पाँच साल बाद मिल जाएगा। हमने तो इन्तहा ही कर डाली भविष्य की ओर भागने की। हम कह रहे हैं, 'जो आज नहीं मिला वो पाँच जन्म बाद मिल जाएगा। भविष्य तो ख़त्म होने का ही नहीं है। भविष्य तो आता ही रहेगा। पाँच जन्म हैं, नहीं तो पाँच सौ जन्म हैं; जल्दी क्या पड़ी है!'

और उनपर हम ताने कसते हैं, जो पाँच या दस साल बाद के ख़्वाबों में जीते हैं। उनको हम कहते हैं, 'इनको देखो, ये दस साल बाद का भरोसा बनाकर बैठे हुए हैं।' और जो तुम दस जन्म का भरोसा बनाकर बैठे हो, तुम होशियार हो गए? जो दस साल बाद की योजना बना रहा है उसकी योजना तो फिर भी संभव है कि पूरी हो जाए। तुम्हारी कैसे पूरी होगी?

आ रही है बात समझ में?

काम करो काम। 'ख़बर नहीं इस जग में पल की।' अगले पल का भी कुछ पता नहीं है। अभी भी मौका है, जो कुछ निपटाना है निपटा लो। जो कुछ भी लम्बित पड़ा है उसको पूरा कर लो। सबसे मूर्ख आदमी वो है जो उस चीज़ को कल के लिए छोड़ रहा है जो अभी ख़त्म की जा सकती है। तुम माया का सहारा ले रहे हो। माया माने समय। ये महामूर्खता की बात है।

जो बिलकुल भरोसे का नहीं है, तुम उसको विश्वसनीय मान रहे हो। तुमने समय को विश्वसनीय मान लिया। इससे बड़ी मूर्खता क्या होगी! समय सब बदल देता है। तुम्हें क्या लग रहा है, कल की सुबह तुम्हारे भरोसे, अनुमान, अपेक्षा के अनुसार आने वाली है? बिलकुल भी नहीं। आज सुबह वो हुआ क्या जिसकी तुम्हें उम्मीद थी? तो तुम कल की सुबह पर इतना भरोसा कैसे कर लेते हो? कितना गहरा आलस और तमसा है भीतर, कि तुम उठ करके अभी निपटाना ही नहीं चाहते जिसकी माँग तुमसे धर्म और कर्तव्य कर रहे हैं!

इसी को मैं कह रहा था आध्यात्मिक आदमी में एक बेचैनी होती है। कल को तकिया बनाकर के तो वो चैन से बिलकुल नहीं सो सकता। कल का तकिया उसके लिए काँटों के तकिये के समान होता है। उसे चुभता है। समय के चक्कर में तो वैसे ही फँसे हुए हो। तुम और ज़्यादा समय को अपनी ज़िंदगी में अधिकार दे रहे हो, कल पर भरोसा करके।

धैर्य और आलस, इनमें अंतर होता है। धीरज प्रमाद नहीं होता। त्वरा होनी चाहिए एक जीवन में। जब बात आये सच की तो तुमको चाहिए एक ज़बरदस्त त्वरा भी, जो कह रही है — ‘अभी मिल जाए’, और अनन्त धैर्य भी, जो कह रहा है — 'अगर अभी नहीं मिला तो इसका मतलब ये नहीं है कि हम माँगना छोड़ देंगे।' दोनों बातें।

माँग तो यही है कि अभी मिल जाए। लेकिन हठ ये भी है कि अगर अभी नहीं मिला तो भी हम माँगते तो रहेंगे अनन्त काल तक। ये दोनों साथ चाहिए। इसीलिए तो आध्यात्मिक हो पाना इतना मुश्किल है, क्योंकि दो विपरीत लगने वाले गुणों को एक साथ साधना पड़ता है। ज़बरदस्त अधीरता भी चाहिए, जो ज़िद करके, हठ करके कह रही हो — अभी। अगर अभी हो सकता हो तो बिलकुल अभी; अभी, अभी, अभी। और अगर नहीं हो सकता दस साल तक, तो इस दस साल में हमारी माँग दम नहीं तोड़ देगी। दस साल बाद भी तुम हमको यहीं पर पाओगे इतनी ही उत्कंठा से माँगते हुए कि चाहिए, अभी दो।

हम कायम रहेंगे अपनी माँगों को लेकर के। हम पिघल नहीं जाएँगे। हम हार नहीं जाएँगे। हमारा हठ दम नहीं तोड़ देगा। ऐसा आदमी चाहिए। जो कल पर भरोसा बिलकुल नहीं कर रहा, लेकिन अगर बात कल पर चली गई, तो वो कल का मुकाबला करने के लिए भी तैयार है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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