आचार्य प्रशांत: पूछ रहे हैं— मैंने आपके वीडियोज़ अपने ब्रेकअप के बाद सुनने शुरू किये। जब मुझे जीवन ने पीड़ा दी, उसके बाद ही मैं आपको ध्यान से घंटों तक सुन पाया। अब मैं मौज़ में हूँ।पर वो बीता एक साल जो मैंने रो-धोकर बिताया, वो न होता अगर मैं आपको पहले सुन लेता। हमसब लातों के भूत क्यों हैं? सीधे सच को क्यों नहीं अपनाते?
देखो, सीधा सच अगर तुमको सीधा-सीधा दिखने लगे, सीधे सच को सीधे ही देखने की अगर तुम्हारी मंशा ही हो जाए तो झूठ का खेल फिर तत्काल ही ख़त्म हो जाएगा न! ये जो इतना प्रपंच चल रहा है—नाटक-नौटंकी; ये होगा ही नहीं। सीधा सच अपने मुक़ाबले में किसी को ठहरने नहीं देता। उसका कोई उत्तर नहीं होता, उसका कोई सानी नहीं होता, उसका कोई विरोध किया नहीं जा सकता। तो खेल बड़ा एकतरफ़ा हो जाएगा अगर एक तरफ़ साक्षात सत्य है और दूसरी तरफ़ झूठ। झूठ मुक़ाबले में कहीं ठहरेगा ही नहीं।
खेल चलता रहे, अगर यही हमारी भीतरी इच्छा है तो फिर बहुत ज़रूरी है कि सच और झूठ के इस मुक़ाबले में किसी तरह से कुछ छल करके सच का पलड़ा हल्का किया जाए और झूठ को किसी तरीक़े से मज़बूत किया जाए।
बात समझ रहे हो न?
अगर मुक़ाबला सफ़ाई से हो, ईमानदारी से हो तो सच और झूठ की लड़ाई जैसी कोई चीज़ होगी ही नहीं क्योंकि सच के मुक़ाबले झूठ एक पल भी कहाँ ठहरेगा? लेकिन दुनियाभर में हम देखते हैं कि सच-झूठ का मुक़ाबला चल रहा है, लगभग बराबरी का चल रहा है। कभी सच, कभी झूठ। तुम ये भी कह सकते हो कि अक्सर तो अनुभव में ये आता है कि झूठ ही ज़्यादा जीत रहा है।
ऐसा सिर्फ़ तब हो पाएगा, जब सच-झूठ आमने-सामने हों और सच के खिलाफ़ तुमने कई तरीक़े के भ्रम और तर्क तैयार कर रखे हो और झूठ के पक्ष में तुमने कई तरीक़े की चालें चल रखी हों। सिर्फ़ तब ऐसा हो सकता है कि दो ऐसी ताक़तें जो बेमेल हैं, जिनकी शक्ति की आपस में कोई तुलना ही नहीं है, वो दोनों ताक़तें आपस में करीब-करीब समान शक्ति वाले प्रतिद्वंदियों की तरह उलझा दी जाए।
हम ख़ुद को बचाकर रखना चाहते हैं। ये हमारी मूल वृत्ति है। मूल वृत्ति समझ रहे हो? गहरी चाहत, पहली कामना, मूल कामना, मदर डिज़ायर । और ख़ुद को बचाकर रखने के लिए जो हो सकता है, यथासंभव हमसब करते हैं।
अब जो तुम अपनेआप को समझते हो, जिसको तुम बचाना चाहते हो, वही अगर गड़बड़ हो, उसी में अगर खोट हो तो उसको बचाने के लिए उम्रभर तुमने जो भी यत्न किये, वो सब तो ग़लत ही हुए न! ग़लत केंद्र से हुए, ग़लत लक्ष्य के लिए हुए। यही ग़लती हम कर देते हैं। ‘हम’ मूलतः झूठ है, इसलिए सच का विरोध हमारे लिए आवश्यक हो जाता है। और जब सच का विरोध आवश्यक हो गया तो हम करेंगे।
भूलना नहीं कि सच हारता नहीं है। जब भी कभी सच-झूठ का द्वंद होते देखो और उसमें पाओ की झूठ भारी पड़ा है, सच नहीं हारा, तुम्हारे लिए सच हारा है। सच तो अपनेआप में पूर्ण है, एक एब्सॉल्यूट है, वो कैसे हार जाएगा। हाँ, जहाँ तक तुम्हारे मामले की बात है, तुम्हारी दुनिया की बात है; तुमने अपनी नज़र में, तुमने अपनी ज़िंदगी में, तुमने अपनी दुनिया में सच को हरवा दिया। यह, भाई, तुम्हारा फैसला है। तुमने क्यों हरवा दिया अपनी दुनिया में सच को? क्योंकि सच को जिताओगे तो तुम भी सच से अछूते नहीं रह पाओगे न!
सच तो पूर्ण है। और वो किसी सीमा को मानता नहीं, उसको अगर तुमने जिता दिया तो वो तुम्हारे ऊपर ही चढ़ आएगा। वो तुमसे ही कहेगा कि तुम ही बदलो। तो फिर हम सच के खिलाफ़ कई तरीक़े के छल रचते हैं। सच हमें पता ही न चले, इसके लिए हम कई तरीक़े की कोशिशें करते हैं। हम ख़ुद को ही गुमराह करने में बहुत माहिर हैं, इसलिए हमें सच नहीं दिखाई पड़ता। सच के खिलाफ़ जो एक हमारी चाल होती है, कई चालों में, वो होती है—सुख, मैं अभी सुखी अनुभव कर रहा हूँ तो सब ठीक ही होगा न! मैं अभी सुखी अनुभव कर रहा हूँ तो जो चल रहा होगा, ठीक ही चल रहा होगा। हमने अपने सुख को सच-झूठ नापने का पैमाना बना लिया है।
हम कहते हैं न, ‘मैं वो करूँगा जो मुझे अच्छा लगेगा’। माने, मैं वो करूँगा जो मुझे सुख देगा। देख रहे हो, हम क्या कह रहे हैं? बात के आधार को समझो। हम कह रहे हैं कि जहाँ मेरा सुख है वही जगह मेरे लिए उचित है। जिस काम से मुझे सुख मिल रहा होगा, वो काम मेरे लिए उचित है। तो हमने मूल पैमाना, केन्द्रीय कसौटी किसको बना लिया? सुख को। हम कहते हैं, सुख मिल रहा है तो ठीक ही होगा। यहाँ गड़बड़ हो जाती है न! अगर हम मूलतः झूठ ही हों तो झूठ को किसमें सुख मिलेगा? झूठ में ही तो। एक बार ग़ौर करके देखो। हम कह देते हैं, ‘मैं वो करूँगा जो मेरी मर्ज़ी है’ या ‘जिसको जो पसंद आये वो करो, भाई! सब आज़ाद हैं। इस तरह की बातें हम ख़ूब करते हैं, सुनते हैं। हम कभी विचार नहीं करते कि तुम जैसे हो उसी कोटी, उसी आयाम के कर्म में और अनुभव में तुमको सुख मिल जाना है।
हम मानते ही नहीं। हम समझते हैं— जहाँ सुख है वहीं पर सच्चाई है, वहीं पर औचित्य है। अब जीवन में बहुत सारे काल ऐसे आते हैं जब हमें अपेक्षतया सुख मिल रहा होता है और वो समय वो होता है जब हम सच का सबसे ज़्यादा तिरस्कार करते हैं। हम कहते हैं, 'सब अभी ठीक चल तो रहा है, जब सब ठीक चल रहा है। तो ज़रूरत क्या है किसी तरह की छेड़खानी करने की, भीतर कुछ उथल-पुथल करने की, खोजबीन करने की, चीज़ों को परखने की, जो जैसा चल रहा है चलने दो। गाड़ी बढ़िया चल रही है न! गाड़ी बढ़िया चल रही है। ज़रूरत क्या है कि रोक करके बोनट खोलो और देखो कि तेल-पानी सब ठीक-ठाक है कि नहीं? और बात में दम भी लगता है कि भाई, अगर गाड़ी ठीक चल रही है तो क्यों उसमें खोल-खाल करके जाँचना है कि अन्दर क्या है?
बस बात इतनी-सी है कि जहाँतक हमारी गाड़ी का सवाल है, वो बहुत आत्मघाती रूप से भी कुछ समय के लिए ठीक चलती प्रतीत हो सकती है। वहीं पर हम गच्चा खा जाते हैं। सुख की अवधियाँ हमें बहुत धोखे में रख जाती हैं। फिर जब अनायास दुःख टूटता है जो कि वास्तव में अनायास नहीं होता, वो हमारे सुख की ही छाया होता है, एक तरह से सुख का ही परिणाम होता है। जब दुःख आता है तो हमें धक्का लगता है, धोखे जैसा लगता है। फिर हमें मजबूर होकर इधर-उधर देखना पड़ता है कि क्या हो गया? क्या हो गया?
तो यहाँ पर है मूल भूल। हम चूँकि मूलतः ग़लत हैं, इसलिए जो सही है, उसका साथ देने में हमको एक आधारभूत झिझक रहती है। देखा है न आपने? हम कहते भी हैं कि ग़लत आदतें पकड़ना आसान है, छोड़ना मुश्किल है; ग़लत रास्ता पकड़ना आसान है, सही रास्ता पकड़ना मुश्किल है, ये सब बातें हम कहते हैं न? क्यों कहते हैं? इनसे आपको क्या इशारा मिल रहा है? यही कि हमारे भीतर कुछ बैठा है ऐसा जो निरपेक्ष नहीं है, जो सच और झूठ के मध्य में निष्पक्ष नहीं है। वो कुछ इस तरह से संस्कारित है, उसकी वृत्ति कुछ ऐसी है कि उसे झूठ की तरफ़ ही जाना है।
यह बात स्वीकार करने में हमें बड़ी चोट लगती है कि हम मूलत: ग़लत लोग हैं। यहाँ तक तो हम फिर भी एक बार को तैयार हो जाते हैं मानने को कि मैं बंदा अच्छा था, मुझे समाज ने बिगाड़ दिया। मैं आदमी बढ़िया था, मुझे मेरे अनुभवों ने घायल और गंदा कर दिया। ये तो हम फिर भी एक बार को मानने को राज़ी हो जाएँगे लेकिन हम ये मानने में बड़ी तकलीफ़ मानते हैं कि हम जन्म से ही गड़बड़ हैं। और ये बात हमको आमतौर पर तो लोग नहीं ही बताते, आम ज़माना तो नहीं ही बताता; अक्सर चिंतक, विचारक, हमारे हितैषी और गुरु लोग भी नहीं बताते। हमारे मन में एक झूठी छवि और झूठा सिद्धांत भर दिया गया है कि बच्चा तो मासूम होता है, बच्चा तो भगवान का रूप होता है या पैदा तो सब निर्दोष, निष्पाप ही होते हैं। ये बात बड़ी झूठी है और हमारी तमाम शंकाओं का कारण है।
जबतक हमें हमारी वास्तविक स्थिति से परिचित नहीं कराया जाएगा, हमें पता कैसे चलेगा हम कितने पानी में हैं? हमें कौन-कौन से रोग लगे हुए है? जबतक मुझे साफ़-साफ़ बताया ही नहीं जाएगा कि मुझे कौनसे रोग लगे हैं? मैं क्यों उनका उपचार करूँगा और कैसे करूँगा? हमें ये पता होना ज़रूरी है कि एक तरह से विकार और दोष ही जन्म लेते हैं। झूठ ही जन्म लेता है। हमसब यहाँ ज़मीन पर इसलिए नहीं बैठे हुए हैं कि हम बड़े महात्मा लोग हैं सब और यहाँ पर महान पुण्य-कर्म करने के लिए अवतरित हुए हैं। हमसब यहाँ इसलिए बैठे हुए हैं क्योंकि हमसब दोषों के, विकारों के, कह लीजिए कि पापों के पुतले हैं इसलिए हमें यहाँ बैठना पड़ रहा है।
यही वजह है कि जानने वाले ज्ञानियों ने बार-बार यही माँगा कि अगला जन्म न लेना पड़े। उनसे कोई पूछे कि आपकी गहरी इच्छा क्या? तो यही कहेंगे कि बस अब जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त होना है, कोई अगला जन्म नहीं होना चाहिए, यही आख़िरी हो। इसमें भावना क्या है? इस बात के पीछे मूल सिद्धांत क्या है? वो सिद्धांत यही है कि अगर मेरे पाप बचे रह गये, अगर मेरे कर्मफल सब कटे नहीं, अगर अतृप्त वासनाओं को मैं पकड़े रह गया तो फिर जन्म लेना पड़ेगा। बात भले सांकेतिक हो, बात भले तथ्यपरक न हो, इशारे की तरह सिर्फ़ समझाने के लिए कह दी गयी हो लेकिन उसके पीछे का सिद्धांत बहुत महत्त्वपूर्ण है।
वह सिद्धांत यही बता रहा है कि माँ के गर्भ से जो बच्चा जन्मता है, उसी में खोट होती है। वो जो चीज़ पैदा हो रही है, वो चीज़ ही गड़बड़ है। जब वो चीज़ गड़बड़ है तो उसका जो मूल रुझान है, वही गड़बड़ होना है। उसे उसके प्रति आत्मविश्वास और सम्मान से बाद में भर लेना, उसे ठसक और चौड़ बाद में सिखा लेना पहले उसे उसकी हालत से रू-ब-रू कराओ और उसके भीतर थोड़ी विनम्रता लाओ। उसको बताओ कि तू पैदा ऐसा हुआ है कि तू जो भी करेगा वो ग़लत ही होगा। तेरी जो पहली इच्छा होगी, जो पहला रुझान होगा, वो पशुवत होगा, जानवरों जैसा होगा।
हाँ, बचने के लिए, तेरी मदद करने के लिए, तुझे चेतना भी साथ में बक्श दी गयी है। तो इतनी गनीमत रहेगी तेरे साथ कि जो तेरा पहला रुझान हो, जो तेरी तात्कालिक इच्छा हो, जो तेरी वृत्ति का त्वरित प्रवाह हो,तू उसके खिलाफ़ चैतन्य रूप से कोई निर्णय कर ले। बचने का इतना मौक़ा ज़रूर मिलेगा लेकिन फिर भी शारीरिक वृत्तियों की तलवार तेरे सिर पर ज़िंदगी भर लटकती रहेगी। पल-पल तुझे कर्म करने हैं, पल-पल तुझे निर्णय करने हैं और जब भी तू कर्म करने निकलेगा, विचार करने निकलेगा, निर्णय करने निकलेगा, तेरा पहला रुझान ग़लत ही होगा, तू बनाया ही ऐसा गया है, तू पैदा ही ऐसा हुआ है।
तुझे सच और झूठ में से किसी एक का पक्ष लेना होगा, किसी एक की तरफ़़ फैसला करना होगा, तेरी पहली मंशा यही होगी कि मैं खिंच के झूठ के पास चला जाऊँ। वहीं तुझे सुख मिलता है। जब तू ख़ुद झूठ है तो तुझे सुख कहाँ मिलेगा? झूठ के पास ही न! तो सामने सच और झूठ होंगे, तू झट-से झूठ की ओर भागेगा और सच तेरे सामने आएगा, तू डर के दुबक जाएगा, छुपेगा। हाँ, बाद में तू चैतन्य रूप से जी को कड़ा करके निर्णय ले कि नहीं, भले ही सच कितना डरावना लगता हो, झूठ कितना आकर्षक लगता हो, मुझे जाना सच की ओर है तो अलग बात है।
लेकिन अपनी स्थिति को समझ, बेटा। झूठ तुझे प्राकृतिक रूप से आकर्षित करेगा और सच की तरफ़़ तुझे श्रम करके जाना होगा। ये बड़ी अजीब बात है क्योंकि सच तो स्वभाव है। हम कहते हैं कि साहब, सच तो स्वभाव है न! हम कहते हैं— सच स्वाभाविक है। नहीं भाई, बात समझिए आप। ये जो पैदा होता है न! वो अपने स्वभाव से इतनी दूर और प्रकृति के इतने पास होता है कि प्रकृति तो उसे झट से खींच लेती है और स्वभाव की ओर जाने के लिए उसको श्रम करना पड़ता है।
ऐसे समझिए जैसे कि किसी पहाड़ के ऊपर आपका घर हो। घर माने जहाँ आपको होना ही चाहिए, जैसे— स्वभाव। एकदम शिखर पर आपका घर है, वही आपका स्वभाव है और वहाँ से बाहर निकलते ही ढ़लान है, नीचे जाने की। अब घर से दूर जाना आपके लिए सरल है। घर से दूर आप जल्दी चले जाएँगे लेकिन घर की ओर वापस जाने में बड़ा श्रम लगेगा। भले ही वो आपका अपना घर है। घर से बाहर निकलते ही प्रकृति आपको खींच लेगी। सब प्राकृतिक ताक़तें, भौतिक ताक़तें, गुरुत्वाकर्षण वग़ैरह। वो आपको खींच लेंगी।
हम अपनी शून्य अवस्था से या हम अपनी पूर्णता से बाहर आ गये, हम अपने घर से बाहर आ गये। घर से बाहर आ गये तो ढ़लान है। और उस ढ़लान पर खड़े होने का मतलब है कि वापस घर की ओर जाने के लिए मेहनत करनी पड़ेगी, लेकिन फिसलकर नीचे जाना बहुत आसान है। घर से नीचे क्या है? एक ढ़लान। घर से एक ढ़लान शुरू होती है जो नीचे को लेकर आती है। आप अगर उस ढ़लान पर खड़े हैं तो क्या घर की ओर जाना आसान है या घर से दूर जाना आसान है? दूर जाना आसान है न!
आदमी की यही हालत है। पैदा होने का मतलब ही है घर से बाहर आ गये। और घर से मेरा मतलब माँ का गर्भ नहीं है कि पैदा होने का मतलब है— गर्भ से बाहर आ गये। वो घर दूसरा है जिसकी बात हो रही है। तो ये हमारी स्थिति है।
हमें ये भूल ही जाता है कि हमारी ये प्राकृतिक वृत्ति, हमारी पहली इच्छा सदा ग़लत ही होती है। उसके खिलाफ़ संघर्ष करना पड़ता है, उसके खिलाफ़ श्रम करना पड़ता है। उसी को आध्यात्मिक साधना बोलते हैं। इस नियम को बहुत कम लोग याद रख पाते हैं। इतना अनुशासन बहुत कम लोग दिखा पाते हैं कि जो भी आपको पहला विचार उठे, जो भी आपकी पहली भावना उठे, जो भी आपका त्वरित रुझान उठे, उसे रोक दें, उसे मान्यता न दे दें, उसके साथ बहने न लग जाएँ। क्योंकि जो भी आपको तुरंत ही लग रहा होगा और बिलकुल साफ़-साफ़, स्पष्ट, सही लग रहा होगा, वही तो ग़लत होता है।
सच कभी आपको तुरंत नहीं मिलेगा। हम कहते ज़रूर हैं कि संतों ने कहा है कि सत्य तो सहज है और अप्रयास मिलता है, कोई कोशिश नहीं करनी पड़ती। भाई, वो संतों की हालत है, हमारी नहीं। हमारे लिए तो झूठ ही सहज है। और हमें सत्य सप्रयास मिलेगा, झूठ अप्रयास मिलेगा। सत्य के लिए हमें बहुत सोच करके, बहुत मनन, बहुत ध्यान करना पड़ेगा तो सही बात समझ में आएगी। झूठी बात हमें तत्काल आकर्षित कर जाएगी, बिलकुल सही लगेगी। तो हम ऐसे हैं ही।
हर बच्चे को सिखाया जाना चाहिए अपने पर कम भरोसा करना। हर बच्चे को सिखाया जाना चाहिए गंभीर और विचारशील होना। हर बच्चे को सिखाया जाना चाहिए कि वो ख़तरे में है और उसका सबसे बड़ा ख़तरा वो स्वयं है। लेकिन ये हमें बताया नहीं जाता। हम अपने प्रति बड़े विश्वास और बड़े आग्रह से भरे होते हैं। हमें लगता है— ठीक ही है। और ख़ासतौर पर जो चीज़ हमें पहली नज़र में भा जाए, उसके खिलाफ़ तो हमें कोई संदेह होता ही नहीं, हम कहते हैं, ‘यह तो पहली ही नज़र में जच गयी चीज़।’ और जो चीज़ आपको पहली नज़र में जच जाए, उससे ज़्यादा कुछ और ग़लत हो नहीं सकता आपके लिए।
सच आपको नहीं जच सकता, भाई, पहली नज़र में। पहली नज़र में तो झूठ ही पसंद आएगा। जो कुछ पहली नज़र में जच जाए आपको, उसको तो आप इसीलिए ठुकरा दीजिए क्योंकि वो पहली नज़र में जच गया। अगर वो सच होता तो इतनी जल्दी पसंद नहीं आ जाता। झूठ ही बहुत जल्दी पसंद आ जाता है। कोई घटिया-सा गीत हो फ़िल्मी, आप जाते हो किसी के पास कहने कि ये मुझे समझा दो, ये मुझे समझ में नहीं आ रहा। एकदम ज़लील किस्म का फ़िल्मी गाना होगा और आप हों बिलकुल नासमझ जिसको कभी कुछ समझ में ना आया हो लेकिन आपको भी वो गीत समझ में आ जाएगा।
न तो आप ये कहोगे कि आप नासमझ हो, न तो आप ये कहोगे कि गीत ज़रा कठिन है। यही गीता का कोई श्लोक हो, आपको कहाँ समझ में आना है! वहाँ बहुत प्रयास करना पड़ेगा। झूठ ही है जो जल्दी ही सही लगता है और फ़िल्मों-गीतों की बातें कभी किसी को ग़लत लगी हैं क्या? कम ही बिरले होंगे जिन्हें दिखाई पड़ता है कि वहाँ सब झूठ है। और गीता जो बात कह रही है, उस बात पर अगर कृष्ण की मुहर न लगी हो और गीता का नाम न जुड़ा हो उस बात के साथ, तो आप तुरंत उस बात को ठुकरा देंगे। न जाने तो कितनी बार मैं ही प्रयोग करके देख चुका हूँ।
गीता के ही किसी श्लोक को आप साधारण हिन्दी में किसी से कह दीजिए और उसे बताइए मत कि ये बात कृष्ण की है। वो तत्काल कहेगा कि क्या बेवकूफ़ी की बात कर रहे हो? ऐसा थोड़े ही है। और आपसे ख़ूब बहस कर लेगा। जब वो ख़ूब बहस कर ले, ख़ूब बहस कर ले, तब आप उससे कहिए कि ये गीता के इस अध्याय का ये श्लोक है तो वो कहेगा, ‘अच्छा, गीता में लिखा है? फिर ठीक होगा।’
गीता हमें ग़लत लगेगी, फ़िल्मी गीत हमें सही लगेगा। हम ऐसे ही लोग हैं। हमें ख़ुद पर अविश्वास करना आना चाहिए। पहला काम ये करिए कि जो कुछ आपको ठीक लगता हो, वहीं सतर्क हो जाइए, वहीं ख़तरा है। सबसे पहले उन चीज़ों से बचिए जो आपको निस्संदेह सही लगती हैं। उन चीजों से बचिए जो आपको बेशर्त प्यारी लगती हैं। वहीं पर आप चोट खा रहे हैं, वहीं पर ख़तरा है।
और एक बात। अभी कह रहे हो कि बहुत दुख में था, मेरा ब्रेकअप , संबन्धविच्छेद हुआ। फिर तुमने मुझे सुनना शुरू करा और कह रहे हो वो सब जो मैंने आध्यात्मिक श्रवण करा उसके फलस्वरूप अब तुम मज़े में हो। और उसके बाद अब तुम्हारी जिज्ञासा ये है कि मैं फिलहाल तो मज़े में हूँ पर मुझे अतीत में इतना कष्ट क्यों मिला? नहीं, ये जिज्ञासा मत करो। अतीत का कष्ट तुम्हें अब लौटकर नहीं आएगा। किसी का अतीत लौटकर नहीं आता लेकिन अगर तुम्हारी दृष्टि अतीत के कष्ट पर है, तुम अभी की अपनी स्थिति को बहुत सुरक्षित समझ रहे हो और सोच रहे हो कि सब दुख-दर्द तो अतीत-मात्र में था तो फिर तुम्हारा भविष्य तुम्हारे लिए दुख लेकर तैयार खड़ा है।
तुम देखो न क्या पूछ रहे हो! तुम कह रहे हो— ‘मुझे अतीत में दुख क्यों मिला? ये बताइए।’ तुम पूछ रहे हो— ‘अतीत में मैंने क्या ग़लती कर दी?’ तुम अतीत की छोड़ो। अभी तुम कौनसा ग़लतियों से मुक्त हो गये हो? अतीत की वो पूछे न! जिसका वर्तमान पूर्णरूपेण भ्रम से और दोष से मुक्त हो गया हो। जो अभी ही ग़लती कर रहा हो, वो बीती हुई ग़लती की बात करे, शोभा नहीं देता। और तुम अभी भी यही ग़लती कर रहे हो कि तुम बीती हुई ग़लती की बात कर रहे हो।
नतीजा ये मिलेगा कि भविष्य में दुःख लौटकर आएगा। तो ये मत पूछो कि मैंने कल क्या ग़लती करी थी? पूछो, ‘मैं अभी क्या ग़लती कर रहा हूँ?’ जो कोई पूछे— ‘मैंने कल क्या ग़लती करी थी?’ उसमें बड़ा अहंकार है। वो कह रहा है, ‘मैंने ग़लती कल करी थी, आज तो मैं कोई ग़लती नहीं कर रहा।’ ये अहंकार मत रखो। हो सकता है तुम अभी भी बहुत बड़ी ग़लती कर रहे हो, उस पर ध्यान दो। कल ग़लती करी थी, नहीं करी थी; बात बीत गयी।
वर्तमान पर ग़ौर करो। देखो कि यहाँ कहाँ-कहाँ पर दोष है। उन दोषों को समझो, जानो, मिटाओ।
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