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ब्रह्मविद्या को सबसे कठिन विद्या क्यों कहा जाता है? || श्रीमद्भगवद्गीता पर (2020)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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आचार्य प्रशांत: छठा, सातवाँ और बाईसवाँ श्लोक उद्धृत कर रहीं हैं। कह रही हैं कि इंद्रियाँ, विषय, मन, बुद्धि, अहंकार, सुख-दु:ख, चेतना, धृति, ये सब क्षेत्र हैं और इनका दृष्टा है पुरुष। लेकिन यह पुरुष प्रकृतिस्थ है इसीलिए यह प्रकृति का भोग करता है, जन्म लेता है और मरता है। ठीक।

तो कह रहीं हैं, “यह सब पढ़कर तो मुझे यह समझ में आ रहा है कि बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना। यह पुरुष इतना पगलाया क्यों घूम रहा है, आचार्य जी?” और आगे पूछ रहीं हैं, “ध्यान, भक्ति, योग, ज्ञान, इन सबका कोई गुण नहीं है क्या इस पुरुष में? तो ये सब क्या बेकार ही गए?”

पुरुष पगलाया क्यों घूम रहा है? पुरुष ही जाने, मैं क्या बताऊँ! उसको प्यार हो गया है कसम से, और क्यों पगलाता है कोई। (हँसी) प्रकृति है इतनी कट्टो! आपने लिख दिया बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना, पुरुष को थोड़े ही लग रहा है कि शादी बेगानी है। उसकी आँखों में तो बंदनवार है और कानों में शहनाई है। वो तो अपनी शादी देख रहा है।

अरे, कभी कोई दिखाई देती है रूपवती तो उसको देख करके यह थोड़े ही तुम्हें सपना आता है कि किसी बेगाने से इसकी शादी हो रही होगी, आता है क्या? हक़ीक़त भले यही हो कि कोई संभावना ही नहीं है कि उससे तुम्हारा विवाह होगा, लेकिन कभी यह ख़याल आया है? कोई दिखाई दी है कामिनी, तो उसे देखते ही कभी यह हुआ है कि तुम्हें यह दृश्य उभरा हो कि देखो, इसकी शादी हो रही होगी किसी बहुत आकर्षक, मजबूत नौजवान के साथ, ऐसा कभी आता है? नहीं आता न? फिर उसे कुछ समझ में नहीं आता। क्या अपना, क्या पराया!

और इसका कुछ कारण नहीं बता सकता मैं आपको। आप पूछेंगीं क्यों? क्यों? क्यों? तो मैं कहूँगा – वृत्ति, विकार, दोष। ये तो शब्द हैं। मैं कह दूँगा कि वृत्ति होती है आदमी की फिसल जाने की। आप उसमें और गहरा घुसेंगी तो मैं कहूँगा कि प्रकृति है। देखो, प्रकृति चाहती है कि वह बनी रहे, मैं फिर आपको इवॉल्यूशनरी थ्योरी (विकासवादी सिद्धांत) समझा दूँगा। उससे क्या होगा? अब्दुल्ला के कान में शहनाइयाँ तो बज ही रहीं हैं।

बात तो तब है जब प्रकृति को देखें आप और कहें कि प्रकृति है। सुंदर है फूल, लेकिन भोगने के लिए नहीं है। यह नहीं कि फूल देखा फट से ले करके बाल में लगा लिया। यह तो हो गई न अब्दुल्ला वाली बात। फूल खिला था प्रकृति के भीतर ही रमण करने के लिए, उसमें परागकण थे, फूल फल बनना चाहता था, फूल बीज बनना चाहता था और आपने क्या कर लिया? उस बेगाने खेल में आपने हस्तक्षेप कर दिया और फूल उठा करके अपने जूड़े में लगा लिया। इसी को कहते हैं न बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना?

फूल शादी ही तो करने के लिए पैदा होता है। फूल क्या है? फूल पौधे का जननांग है। ये जो फूल ले करके मुँह में लगाते रहते हो, यह क्या है? वह ऐसे ही है जैसे तुमने किसी का जननांग लेकर मुँह में लगा लिया अपने। यही काम तुम इंसानों के साथ करो तो लोग कहेंगे, छी, छी, छी! कितनी भद्दी हरकत है! क्या रख रहे हो मुँह में अपने, बाहर निकालो।

यही जब फूल के साथ करते हो, गुलदस्ता, एक फूल नहीं है, पूरा बुके है। कभी सोचा है, वह फूल हैं क्या? वो जेनिटल्स (जननांग) हैं पौधे के और यह वाहियात, अश्लील, वल्गर बात है कि तुम जा करके किसी को किसी के जेनिटल्स का तोहफ़ा दे रहे हो कि तू मुझे इतनी प्यारी है कि मैं तेरे लिए यह जननांग लाया हूँ। (हँसी) इससे बेहूदी और अश्लील बात कोई हो सकती है?

चलो बेहूदी, अश्लील है तो ठीक है, फूल से भी तो पूछ लो कि उसका औचित्य क्या है होने का। उसे अपनी शादी करनी थी न? उसे क्या करना था? अपनी शादी करनी थी, वह इसलिए था, और तुम उसको ले करके चल दिए अपना वैलेंटाइंस डे मनाने। यही है बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना।

प्रकृति अपना खेल ख़ुद चला रही है, उसमें हस्तक्षेप मत करो। फूल तुम्हारे लिए नहीं है। दुनिया में कुछ भी तुम्हारे भोगने के लिए नहीं है। जब मैं कह रहा हूँ ‘तुम्हारे’, तो उससे मेरा आशय है तुम्हारे लिए; तुम्हारे शरीर के लिए नहीं कह रहा। शरीर के लिए निश्चित रूप से फल है। तुम्हारे लिए इस दुनिया में कुछ भी नहीं है। हाँ, यह शरीर दुनिया से उठा है तो इसका भरण-पोषण तो दुनिया ही करेगी। शरीर के लिए दुनिया में बहुत कुछ है; तुम्हारे लिए दुनिया में कुछ भी नहीं है। तुम क्यों दीवाने हुए जा रहे हो बेगानी शादी में?

प्रकृति अपना नृत्य-नाच रही है, उस नृत्य में तुम्हारे लिए जगह ही नहीं है। पर होता है, जैसे मान लो पंद्रह-बीस औरतें अपनी मौज़ में नाच रही हों, ठीक है? वो अपना गोल-गोल घूमकर नाच रही हैं और उनके बीच में कोई धुत्त शराबी घुस जाए एक—यह है प्रकृति और पुरुष का आम रिश्ता।

प्रकृति अपना नृत्य कर रही है, वे औरतें अपने में मगन हैं, यह बीच में घुस गया, “ओ जूली! ओ शीला! हमें भी संभालो, कहीं हम कहीं गिर न पड़ें।” ऐसा होते देखा है न? ख़ासतौर पर शादियों में होता है। अंबाला वाले ताऊजी, उनका काम ही यही होता है, शादियों में पी करके जहाँ औरतें नाच रही हों, वहाँ घुस जाना।

प्रकृति अपने-आपमें एक पूर्ण महोत्सव है। वहाँ जो चल रहा है सो चल रहा है। अंतरिक्ष की तस्वीरें भी आती हैं तो देखा है कि कितनी सुंदर होती हैं। आकाशगंगाएँ देखी हैं कि कैसी होती हैं? ऐसा लगता है कि जैसे किसी चित्रकार ने, किसी बहुत बड़े कलाकार ने हीरे बिखेर दिए हों आसमान में। और वह अपने-आपमें बहुत सुंदर खेल है, जिसमें तुम्हारी कोई ज़रूरत नहीं। तुम दीवाने क्यों हुए जा रहे हो? तुम अधिक-से-अधिक उनके क्या हो सकते हो? निरपेक्ष दृष्टा। देख लो, उसमें हस्तक्षेप की कोशिश मत करो, भाई। उसे बनाने-बिगाड़ने की कोशिश मत करो।

फूल अपने-आपमें सुंदर है, उसे देख लो। उसमें अपनी नाक मत घुसेड़ो और न ही उसे तोड़ने की कोशिश करो। हाँ, तुम्हारे शरीर को आवश्यकता है कुछ भोजन इत्यादि की प्रकृति से, तुम्हारी त्वचा को आवश्यकता है कपड़ों की, तुम्हारी देह को आवश्यकता है छत की, वह सब ले लो। क्यों? क्योंकि तुम्हारी देह भी क्या है? प्रकृति।

प्रकृति तो प्रकृति के साथ सहयोग करती है न। तोता बैठता है न आम खाने के लिए, देखा है न आम के पेड़ पर तोते आ जाते हैं। और देखा है न ज़मीन को कुत्ता भी खोदता है गर्मी के दिनों में, थोड़ी सी ठंडी जगह मिल जाए, वह उसमें घुसकर सो जाता है।

तो प्रकृति को हक है प्रकृति के साथ सहयोग करने का, शरीर को हक है कि वह संसार में घर बना ले। जब कुत्ता भी घर बनाता है तो तुम क्यों नहीं बना सकते, बिल्कुल बनाओ। शरीर को हक है कि वह घर माँगे। तुम कुछ मत माँगो, भैया। कुछ अंतर समझ में आ रहा है? पेट को हक है कि वह भोजन माँगे; तुम कुछ मत माँगो। पेट को क्यों हक है कि भोजन माँगे? क्योंकि पेट भी प्रकृति है। शरीर को क्यों हक है कि वह कहे कि ठंड बहुत लग रही है तो कपड़ा दे दो? क्योंकि शरीर भी प्रकृति है। तो यह सब व्यवस्था कर सकते हो, या यह कह लो कि यह व्यवस्था शारीरिक प्रकृति स्वयं ही कर लेगी। दिक्कत तब होती है जब हम मानसिक रूप से प्रकृति पर आश्रित हो जाते हैं।

प्रकृति के साथ एक फिजिकल (भौतिक) संबंध होना तो अनिवार्य है क्योंकि सब फिजिकलिटी (भौतिकता) क्या है? प्राकृतिक। लेकिन दिक्कत तब होती है जब प्रकृति के साथ हमारा एक मानसिक, साइकोलॉजिकल संबंध भी हो जाता है। वह संबंध संबंध मात्र नहीं होता, वहाँ आश्रयता, निर्भरता होती है। वही है ‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’ होना। जिस चीज़ से तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए था, तुम उसमें आकर फँस गए।

तुम्हें लगने लगा कि यह जो चारों तरफ़ पसरा हुआ है, यह तुमको साइकोलॉजिकल कंटेंटमेंट (मानसिक संतुष्टि) दे देगा। नहीं दे पाएगा। तुम्हारे शरीर को भोजन दे सकता है संसार, तुम्हारे शरीर को कपड़े दे सकता है, तुम्हें छत क्या, बहुत बड़ा महल दे सकता है संसार, लेकिन तुम्हारा मन जिस चीज़ के लिए तड़प रहा है, वो शांति, उसको संसार नहीं दे सकता, यह समझना ज़रूरी है।

दुनिया से वह लो जो दुनिया दे सकती है। जो चीज़ दुनिया दे ही नहीं सकती, वह लेने के लिए काहे मचल रहे हो? पाओगे नहीं, और जीवन व्यर्थ करोगे पाने की कोशिश में।

फिर पूछ रहीं हैं, “ध्यान, भक्तियोग इत्यादि ये सब तो पुरुष के गुणों में वर्णित ही नहीं है, तो यह सब क्या है?”

ये गुण नहीं हैं, गुण तो प्रकृति के होते हैं। इन्हें कहा जाता है ग्रेस , अनुकंपा।

पुरुष को तो मूर्ख बनना ही है, उसे तो प्रकृति के चक्कर में फँसना ही है। वह न फँसे तो यह पुरुष का सद्गुण नहीं है, यह पार का उपहार है, कहीं की अनुकंपा है। पुरुष अगर फँस गया प्रकृति के खेल में तो यह साधारण सी बात है। प्रकृति है ही इतनी कट्टो कि पुरुष का फँसना तय है। लेकिन अगर पुरुष नहीं फँसा तो इस बात का श्रेय पुरुष को मत दे देना।

पुरुष अगर फँस गया तो श्रेय प्रकृति को है, पुरुष नहीं फँसा तो श्रेय पुरुष को नहीं है, क्योंकि पुरुष के पास ऐसा कुछ नहीं है कि वह फँसने से बच जाए। पुरुष अगर नहीं फँसा तो यह मालिक की कृपा है। अपने ऊपर मत तुम ले लेना दावा, तुम मत निकल पड़ना यह कहने कि देखो, मैं इतना होशियार हूँ कि फँसा नहीं। जहाँ तुम कह रहे हो कि मैं इतना होशियार हूँ, फँसा नहीं, वहीं समझ लो कि पूरी तरह फँसे हुए हो। हमारा निर्माण ही ऐसा हुआ है कि हम तो फँसेंगे। जो न फँसे, वो सौ-सौ बार धन्यवाद दे कि तूने बचा लिया, नहीं तो हम तो कहीं के नहीं रहते।

प्र२: आचार्य जी, तो प्रक्रिया यही होगी अपने जीवन में उतारने के लिए कि प्रकृति को प्रकृति देखें।

आचार्य: जो कुछ भी दिखे, सब प्रकृति है। प्रकृति को प्रकृति नहीं देखना है; जो दिखे, सब प्रकृति है और जो देखे, वह भी प्रकृति है। जो ही पकड़ में आ गया, वह सब प्रकृति ही है।

यह गड़बड़ नहीं करनी है कि क्षेत्र में बस दृश्य को उपस्थित माना, दृष्टा भी कहाँ है? क्षेत्र में। यह बात हमने आज दस बार दोहराई है, भूल मत जाइएगा। कहें कि हम प्रकृति को देख रहे हैं। अरे भैया, प्रकृति को देख नहीं रहे हैं, आप भी प्रकृति हैं। जो देख रहा है, वह भी प्रकृति है।

प्र२: इस प्रक्रिया में हमारे करने के लिए क्या है फिर?

आचार्य: हमारे करने के लिए है यह है कि हम अपने-आपको कुछ और न मान लें। जब हम मान लेते हैं कि हम प्रकृति से ऊपर हैं तो फिर हमने बड़ा दंभ जगता है। जब भी कुछ हो तो तुरंत अब याद दिलाए कि यह सब प्रकृति ही तो है। भीतर जो भी भाव उठे, वृत्ति उठे, वासना उठे, तुरंत अपने-आपको याद दिलाएँ कि यह सब प्रकृति ही तो है। कहाँ फँस रहा हूँ? प्रकृति है, प्रकृति का खेल है।

प्र३: अगर आशीर्वाद ऊपर से मिलते हैं तो सबको क्यों नहीं मिलते? क्या यह हमारी पात्रता पर निर्भर करता है?

आचार्य: पात्रता कुछ नहीं होती, नीयत होती है – नीयत का ही नाम पात्रता है। ऊपर वाला बरसात कर सकता है, तुम्हारी छतरी थोड़ी बंद कर सकता है। बरसात वह कर रहा है, तुमने छतरी खोल ही रखी है तो भीगोगे थोड़े ही। उसका काम है बरसात करना, लेकिन छतरी बंद करना तो तुम्हारा काम है न? और इसमें पात्रता नहीं चाहिए कि जो सुपात्र होते हैं वे ही तो छतरी बंद कर पाते हैं; इसमें नीयत चाहिए। छतरी बंद करो, बारिश हो ही रही है।

प्र३: नीयत हम कैसे बदले?

आचार्य: मैं नहीं बदल सकता, भैया। कुछ तुम भी करोगे। नीयत तो अपनी होती है, भाई। तुम्हारा जो मामला, वहाँ कुछ नहीं कर सकता मैं।

प्र३: मैं क्या कर सकता हूँ?

आचार्य: फिलहाल जो नीयत है, उसको कायम रखो और आमतौर पर जो नीयत रहती है, उस पर नज़र रखो। हम कभी भी नीयतों से और इरादों से खाली तो होते नहीं, हमेशा कुछ-न-कुछ हम चाह ही रहे होते हैं, कुछ-न-कुछ इरादा कर ही रहे होते हैं, है न? तो उन इरादों पर नज़र रखो। देखो कि अभी क्या इरादा बना रखा है मैंने। यह पूछते चलो अपने-आपसे और जहाँ दिखाई दे कि इरादा गड़बड़ है, उसका समर्थन मत करो।

प्र४: ग्रंथों के शब्दों का जो अर्थ या छवि मन में पहले से बनी है, वे छवियाँ ग्रंथों के वास्तविक अर्थ का अनर्थ कर देती हैं।

आचार्य: इसलिए बार-बार जाना पड़ेगा और बार–बार अपनी गलती स्वीकार करनी पड़ेगी। आदमी वृत्तियों की करतूतों को रोक नहीं सकता, लेकिन इतना सजग तो हो सकता है न कि उसे पता हो कि मेरी वृत्तियाँ करतूत करती हैं, और तदनुसार फिर मुझे अपने निर्णय लेने होंगे।

उदाहरण के लिए, आपकी कार है मान लीजिए, उसके पहियों का अलाइनमेंट (संरेखण), बैलेंसिंग (संतुलन), यह सब नहीं ठीक है। तो क्या नतीजा होगा? गाड़ी एक तरफ को भागेगी, ठीक है? दाएँ भागेगी, बाएँ भागेगी। अगर आप स्टियरिंग छोड़ दोगे तो वह एक दिशा को मुड़ने लग जाएगी। आप उस चीज़ को अब रोक नहीं सकते क्योंकि गाड़ी की भौतिक व्यवस्था में ही वह दोष अब प्रवेश कर चुका है। गाड़ी के हार्डवेयर में ही वह दोष अब निहित हो चुका है, है न? तो फिर आप क्या करते हो?

आपको पता है कि पहिए एलाइंड नहीं हैं, तो फिर आप क्या करते हो? चलना है अभी, आधी रात का वक़्त है, आप जा करके सब ठीक भी नहीं करवा सकते। आपको रास्ता तो तय करना ही है, तो फिर आप क्या करते हो? आप स्टियरिंग को पकड़ने का अपना तरीका थोड़ा सा बदल देते हो। आप हाथ का भार एक तरफ़ थोड़ा ज़्यादा देते हो क्योंकि आपको पता है कि यह दाएँ ओर को मुड़ेगा तो आप ज़रा से बाईं ओर को खींचकर रखते हो, फिर गाड़ी सीधी चलती है, है न?

ऐसी ही वृत्तियाँ होती हैं। हमें जब पता है कि हम ग्रंथों के पास जाएँगे और उनको पढ़ने में भूल करेंगे-ही-करेंगे, तो हमें बार-बार पढ़ना होगा। हमें तुरंत ही आत्मविश्वास से नहीं भर जाना होगा कि मैंने तो पढ़ लिया और मैंने जान लिया, क्योंकि हमें यह भी अच्छे से पता है कि हमारी वृत्ति है तत्काल अपने पर विश्वास कर लेने की, ‘मैंने तो जान लिया’।

जब मैं आईआईटी जेईई की तैयारी कर रहा था तो मेरे जो फिजिक्स (भौतिकी) के शिक्षक थे, जब वे सवाल दें और कोई जल्दी ही हाथ खड़ा कर दे कि मैंने कर दिया, तो वे उसकी ओर देखते भी नहीं थे। वे कहते थे कि इसने गलत ही करा है। क्या कहते थे? इसने गलत ही करा है, मैं इसकी ओर देखूँगा भी नहीं। वे उपेक्षा कर दें और अगर वह ज़्यादा ज़ोर दे तो उसको फिर डाँट दें। कई होते हैं जो आत्मविश्वास से, कॉन्फिडेंस से इतने छलछला रहे होते हैं कि उनका सीधा उठा हाथ न देखा जाए तो फिर ऐसे-ऐसे करते हैं। (हाथ को हिलाते हुए) तो ये फिर डाँट खाया करते थे।

वे (शिक्षक) बोलते थे कि इतना तो मैं भी तुम्हें जानता हूँ, तुम अपने को इतना भी नहीं जानते कि तुम्हें नहीं पता कि यह सवाल तुम नहीं कर सकते इतनी जल्दी हल। वर्ष उन्नीस सौ पंचानबे का जेईई दे रहे थे, बोले यह उन्नीस सौ ब्यानबे के जेईई का सवाल हैं। पूरे शहर में तीन लड़के थे जो पूरी तैयारी के बाद इसको हल करके आए थे। और तुम अभी अनाड़ी, तैयारी करनी अभी तुमने शुरू की है और तुम इसको तत्काल हल कर दोगे? हो ही नहीं सकता न।

लेकिन यह वृत्ति हमारी रहती है कि जल्दी ही यह मान लेने कि हमें समझ में आ गया या हमने समस्या का समाधान कर दिया, इत्यादि-इत्यादि। हमें इसी से बचकर रहना है।

एक किसी परीक्षा के बाद, प्रवेश परीक्षा थी, एंट्रेंस एग्ज़ाम , वे सेंटर (केंद्र) के बाहर खड़े हुए थे, देखने आए थे कि भाई, उनके छात्रों ने क्या करा। तो वहाँ मैंने उनको कहते सुना कि यहाँ बहुत सारे निकल रहे हैं जो बहुत खुश हैं, इनमें से एक का भी सिलेक्शन (चयन) नहीं होगा। बोले कि यहाँ जितने बाहर निकल रहे हैं न, जो कह रहे हैं कि सौ में से सत्तर का कर दिया या अस्सी का कर दिया, इनके दस भी नहीं आने वाले, क्योंकि इन्हें तो इतना भी नहीं पता है कि ये असफल रहे हैं।

एक असफलता होती है जिसमें आपको इतनी सफलता तो मिली होती है न कि आप जान गए कि आप असफल है और एक असफलता वह होती है जिसमें आप इतने बुद्धू बने कि आपको यह पता तक नहीं चला कि आप असफल हैं।

उन दिनों जिस स्तर के आते थे परीक्षा-पत्र, वो स्तर थोड़ा अलग होता था। तब ऐसा नहीं होता था कि सौ में से सत्तर और अस्सी आप ले आएँ। बीस, पच्चीस, तीस, ऐसा कट ऑफ होता था, कई बार इससे भी कम। जो सौ में से चालीस-पचास ले आए, उसकी तो अच्छी रैंक ही आ जाती थी।

तो वे कहा करें कि मुझे ज़्यादा भरोसा उन पर होता है जो मुँह लटकाए निकलते हैं बाहर और कहते हैं बहुत-बहुत कठिन परीक्षा थी, शायद पैंतालीस आ जाएँगे। बोले कि इसकी संभावना है कि यह चयनित हो सकता है क्योंकि यह जान तो पाया कि परीक्षा-पत्र कितना कठिन था। चूँकि यह जानता है कि परीक्षा-पत्र बहुत कठिन था इसीलिए अगर यह कह रहा है कि इसके पैंतालीस आ सकते हैं तो शायद आएँगे भी। लेकिन जिस बुद्धू को यह पता ही नहीं कि सामने जो समस्या रखी गई है उसके, वह कितनी पेचीदा है, वो उसको हल कैसे कर लेगा?

इसी तरीके से आपके सामने गीता हों, कि उपनिषद हों, और आपको लग रहा है कि मैंने तो फोड़ दिया। जितने छात्र होते थे, सभी इसी भाषा में बात करते थे। कितना किया? अस्सी का फोड़कर आया हूँ। तो वैसे ही आपके सामने गीता हो और आप कहें कि आज तेरहवाँ अध्याय फोड़ दिया, तो तुम जाओ एक साल और तैयारी करो। यह अटेम्प्ट (प्रयास) तो तुम्हारा बेकार ही गया।

ब्रह्मविद्या सब विद्याओं की माँ मानी गई है। यह अतिशय सूक्ष्म होती है। तो ब्रह्मविद्या को जानने का एक व्यावहारिक लाभ सदा से यह कहा गया है कि जो ब्रह्मविद्या जान लेगा, उसका मन इतना कुशाग्र हो जाता है, इतना शॉर्प हो जाता है कि अब दुनिया की कोई भी विद्या बहुत आसानी से सीख लेगा।

अगर ब्रह्मविद्या आपको समझ में आ गई, तो आप बाकी कुछ भी हो, वह आपको बच्चों का खेल लगेगा। भौतिकी, रसायनशास्त्र, जीवशास्त्र, अंतरिक्ष-शास्त्र, कॉस्मोलॉजी, एस्ट्रोलॉजी (ज्योतिष)। बताओ क्यों? वह सब सीख ले जाओगे अगर तो तुम्हारा मन बिल्कुल उस धारदार छुरी की तरह हो गया है जो सूक्ष्म से सूक्ष्मतम तत्व को भी काट देती है, विश्लेषित कर देती है, तो अब तुम्हारा मन किसी भी तरह की समस्या को काट लेगा।

तो जब इतनी सूक्ष्म और इतनी कठिन है ब्रह्मविद्या, तो मुझे बताइए कि आप लोग उसे जल्दी से समझ कैसे लेते हैं भाई? गणित का एक साधारण सवाल, उसमें तो उलझ जाते हैं और आधा-पौन घंटा लग गया, दो घंटा लग गया, सिर खुजा रहे हैं। पापा जी हो सकता है कि ख़ुद बी.टेक. हों, इंजीनियर हों, उसके बाद अमेरिका से एम.एस., एम.टेक. भी करके आए हों और बेटा दसवीं–ग्यारहवीं में है, उसके मैथ्स (गणित), फिजिक्स (भौतिकी) का सवाल नहीं हल कर पा रहे हैं। पिताजी की उम्र है पैंतालीस-पचास साल और उनके सामने एक साधारण सा कैलकुलस का सवाल रख दिया गया है, उसे हल नहीं कर पा रहे हैं, जबकि कैलकुलस वे खूब पढ़े हैं। और उनके सामने उपनिषदों के ब्रह्मवाक्य रखे जाते हैं, कहते हैं कि यह तो हमें पता है।

तुम्हें न्यूटन का कैलकुलस समझ में आ नहीं रहा, कृष्ण की गीता समझ में आ गई इतनी जल्दी? कृष्ण न्यूटन से भी हल्के हो गए? बोलो। पर नहीं, न्यूटन को तो फिर भी हम इज्ज़त दे देते हैं क्योंकि वहाँ मामला स्थूल है, वहाँ पता चल जाता है कि सवाल हल नहीं हुआ। कृष्ण को हम न्यूटन जितना भी सम्मान नहीं देते, वहाँ हम कह देते हैं कि “हाँ, पढ़ लिया, पैंतीस श्लोक हैं। हाँ, देख लिया। क्षेत्र–क्षेत्रज्ञ क्या होता है, पता है।”

भाई, समय लगेगा, जान लगेगी, श्रम लगेगा, तब कुछ बात समझ में आएगी। ऐसे थोड़े ही कि अगर समीकरण है, इक्वेशन है, तब तो मान लिया कि हल नहीं हो रहा और श्लोक है तो कह दिया, “ठीक है। ठीक है। हाँ, हमें भी पता है, हमें भी पता है।”

मेहनत करिए। कठिन है; असंभव नहीं है, हो जाएगा। बस अतिविश्वास से बचिएगा और जल्दी से अपने-आपको सफल घोषित कर देने की मन की वृत्ति से बचिएगा। अपने प्रति सदा संदेहग्रस्त रहें। आत्मविश्वास से ज़्यादा ज़हरीला कुछ नहीं होता इंसान के लिए, क्योंकि आत्मविश्वास का वास्तविक अर्थ होता है अहम् विश्वास।

आत्मविश्वास का यही मतलब होता है न कि मुझे अपने अहंकार पर विश्वास है? और अहंकार से ज़्यादा खोखला और झूठा और कमजोर कोई होता नहीं, इसीलिए आत्मविश्वास से ज़्यादा कमज़ोर कोई दूसरी चीज़ नहीं होती। आत्मविश्वास से बचिए, सत्य पर श्रद्धा और अपने प्रति संदेह रखिए लगातार।

जब भी लगे कि बात समझ में आ गई है, जब भी लगे कि मामला बिल्कुल साफ़ है, पार ही हो गए, तर गए, तभी समझ लीजिएगा कि माया मारने ही वाली है झटका। बकरा मोटा किया जा रहा है, अब कटेगा। माया जिनको पटखनी देने वाली होती है, उन्हें इसी विश्वास से भर देती है कि उनको सब बात समझ में आ रही है। वे अपनी मान्यताओं के प्रति बड़े आग्रही हो जाते हैं, वे बहुत जोर से, बड़े यकीन के साथ दावा करते हैं कि मुझे तो पता है, मैं जानता हूँ। जब भी आपका मन बड़े आग्रह के साथ बोले कि मुझे पता है, मैं जानता हूँ, मैं समझ गया इत्यादि, तभी समझ लीजिएगा कि आ रहा है झटका।

ग्रंथों को आप कितना भी पढ़ लें, उनके अर्थ कभी पूरी तरह नहीं खुलते। वास्तव में कोई भी ग्रंथ आपके सामने उतना ही अपने-आपको उद्घाटित करेगा जितनी आपकी सामर्थ्य है। इसीलिए जैसे-जैसे आपकी सामर्थ्य बढ़ती जाएगी, वैसे-वैसे आपके लिए ग्रंथ बढ़ता जाएगा। आप आज पढ़िए गीता को, आपके लिए उसका एक अर्थ होगा, पाँच साल बाद पढ़िए, बिल्कुल दूसरा अर्थ होगा, अगर इन पाँच सालों में आपने कुछ आंतरिक प्रगति करी है तो।

गहरा आदमी गीता को पढ़ेगा तो गहरा अर्थ देखेगा, उथला आदमी गीता को पढ़ेगा तो बहुत उथला अर्थ देखेगा। और अंतिम अर्थ कोई नहीं। गहराई का अंत कोई नहीं, अथाह है, अतल है।

कभी भी यह घोषणा मत कर दीजिएगा कि मैं पढ़ चुका हूँ। मुझे बड़ा विचित्र लगता है, लोग आते हैं, कहते हैं, “देखिए, मैं यह सब पढ़ चुका हूँ।” ‘पढ़ चुका हूँ’ माने? चुका दिया तुमने इनको? चुका देने का अर्थ जानते हो क्या होता है? ख़त्म कर देना, किसी चीज़ के अंत तक पहुँच जाना, उसको कहते हैं कि वह चीज़ चुक गई। तो तुमने कैसे कह दिया कि मैं पढ़ ‘चुका’ हूँ। तुम ग्रंथ के अंत तक पहुँच गए? तुम सत्य की सीमा तक पहुँच गए? अरे, शाबाश!

तुम यह कह दो कि तुमने दो-चार बार पाठ किया है। वो तो कुछ भी नहीं है, वो तो मामूली शुरुआत है। डटे रहें, लगे रहें। और अपने-आपको बताइए कि एक साधारण सी स्नातक की डिग्री लेने में भी तीन-चार साल लग जाते हैं तो ग्रंथ क्या तीन महीने में खुल जाएँगें?

शरीर का भी पूरा विज्ञान सीखने में जानते हैं न डॉक्टरों को कितने साल लग जाते हैं। पहले एम.बी.बी.एस. करते हैं, फिर एम.डी. करते हैं, फिर डी.एम. करते हैं और उसके बाद भी कुछ भरोसा नहीं कि साहब ‘डॉक्टर झटका’ ही न निकल जाएँ। डॉक्टर झटका से परिचय करा चुका हूँ मैं आप लोगों का। कौन से डॉक्टर झटका? लोट-पोट वाले, वो डी.एम. थे, वो भी अमेरिका से। (हँसी) उसके बाद भी वो नाक का और आँख का उपचार हथौड़े से करते थे।

तो जब पंद्रह साल डॉक्टरी पढ़कर भी इस बात का ख़तरा रहता है कि आप डॉक्टर झटका बन सकते हो, तो ग्रंथ क्या तुम्हें पंद्रह दिन या पंद्रह महीनों में समझ में आ जाएँगे? लगे रहो, बस। बात उबाऊ लगेगी। कहोगे, “वही श्लोक, वही शब्द, यही दोहराना है? रट तो लिया पूरा।” नहीं, फिर भी दोहराना है।

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