ब्रह्म मुहूर्त कब होता है?

Acharya Prashant

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ब्रह्म मुहूर्त कब होता है?
यह सोच कि सुबह तीन बजे या चार बजे उठ गए तो ब्रह्म मुहूर्त हो गया, बिल्कुल निराधार है। ऋषि-मुनि प्राचीन काल में सुबह प्रार्थना, सत्संग, और ब्रह्म चर्चा करते थे, इसलिए उस समय को ब्रह्म मुहूर्त कहा गया। लेकिन अगर ब्रह्म चर्चा ही न हो रही हो, तो उसे ब्रह्म मुहूर्त कैसे कह सकते हैं? इसलिए कोई समय विशेष ब्रह्म मुहूर्त नहीं होता। विशेष वह समय है, जो तुम्हें समय के पार ले जाए। जहाँ ब्रह्म चर्चा हो, वही ब्रह्म मुहूर्त है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी! सुबह तीन बजे उठता हूँ और सुबह चार से पाँच तक एक मंदिर में ध्यान करता हूँ। पर अब सर्दियाँ निकट आ रही हैं तो मेरा शरीर साथ नहीं देता। तो आचार्य जी, मन और शरीर को काबू में कैसे करूँ और जीवन में अनुशासन कैसे लाऊँ?

आचार्य प्रशांत: तीन बजे सुबह उठते हैं तो अभी तो आप सो रहे होंगे (अभी रात्रि के एक बज रहे हैं)। और तीन बजे आप उठते हैं मंदिर जाने के लिए, और अभी आप सो रहे होंगे। और अभी मैं आपसे बात कर रहा हूँ, कुछ बात समझ में आई?

ध्यान का मतलब होता है — सही चीज़ को ध्येय बनाना। बस वो ध्येय रहे जिस तक पहुँचना है, बाकी चीज़ों का ख़्याल नहीं करना। अगर ध्येय है कृष्ण की बात को समझना, तो इस वक्त आपको जगा हुआ होना चाहिए था न क्योंकि कृष्ण की बात तो घड़ी देखकर नहीं उतरेगी।

अब रात के बज रहे होंगे एक; एक बजने वाले हैं और कृष्ण की बात अभी हो रही है, और आप तो नियम पर चल रहे हो। आप कह रहे हो, ‘मैं सो गया।' हो सकता है आप अभी जगे हुए हो। जगे हुए हो तो माफ करो। पर संभावना यही है कि अगर नियमित रूप से सोते हो जल्दी कि तीन बजे उठ पाओ तो अभी भी सो रहे होगे।

यहाँ कृष्ण की बात चल रही है, वहाँ आप सो रहे हो। बताओ भला करा कि बुरा करा? और अगर तीन बजे उठ भी जाओगे और जाकर के चार से पाँच तक, मान लो कृष्ण मंदिर ही है, उसमें बैठ भी जाओगे तो कृष्ण क्या बड़ा आनंद मानेंगे? वो कहेंगे, ‘जब तो मेरी बात हो रही थी तब तो तू सो रहा था, अब यहाँ आ गया है।’

तो सबसे पहले तो ये समझो कि ब्रह्म मुहूर्त होता क्या है। हम सोचते हैं कि सुबह तीन बजे उठ गए, चार बजे उठ गए तो वो ब्रह्म मुहूर्त है। बेकार की बात, बिल्कुल बेकार की बात! जब भी कभी ब्रह्म की चर्चा छिड़ गई, सो ही मुहूर्त 'ब्रह्म मुहूर्त' है।

ब्रह्म मुहूर्त कोई चार बजे नहीं होता है। तुम्हारे लिए ये (सजीव सत्र) है ब्रह्म मुहूर्त। मुझे बताओ तुम जगे हुए क्यों नहीं हो? क्या करोगे चार बजे जगकर? कृष्ण तो अभी हैं। बोलो। और जिनके जीवन में ब्रह्म हैं ही नहीं, चौबीस घंटों में एक मिनट को ब्रह्म नहीं हैं, वो अगर कहें कि हम साढ़े तीन बजे उठते हैं, चार बजे उठते हैं तो पगले हुए कि नहीं हुए?

अरे! तुम ये छोड़ दो कि साढ़े तीन बजे तुम्हारा ब्रह्म मुहूर्त होगा, तुम्हारे तो चौबीस घंटों में एक मिनट भी ब्रह्म नहीं है; तो कौन-सा ब्रह्म मुहूर्त? बात समझ में आ रही है?

जब बात हुई थी कि सुबह-सवेरे ब्रह्म मुहूर्त होता है, तो बात इसलिए हुई थी कि क्योंकि उन दिनों ऋषियों का, मुनियों का ऐसा चलन था। उस समय की व्यवस्था ऐसी थी, समाज ऐसा था कि वो सुबह-सुबह उठ करके प्रार्थना करते थे, सत्संग करते थे, ब्रह्म-वार्ता होती थी। तो वो ब्रह्म मुहूर्त होता था। लेकिन अगर ब्रह्म की बात ही सुबह न हो रही हो तो ब्रह्म मुहूर्त कैसा?

समय तो समय है, क्या रखा है! बिल्कुल बेकार की बात है कि कोई समय विशेष होता है। न, कोई समय विशेष नहीं होता। घड़ी की टिक-टिक चल ही रही है, अनवरत, चौबीस घंटे।

कोई समय विशेष नहीं होता, विशेष बस वो समय होता है जो तुम्हें समय के पार ले जा दे। और उस समय तो तुम सो रहे हो। वो पल ख़ास होता है जिसमें तुम पल को भूल जाओ। वो समय विशेष है जब तुम समय को भूल जाओ। समय के पार जो है बस उसकी याद बचे, क्या समय हुआ है इसको भूल जाओ। वो हुआ ब्रह्म मुहूर्त।

समझ में आई बात? तो ये तीन-चार-पाँच के झंझट से मुक्त हो जाओ।

हाँ, तीन-चार-पाँच बजे उठने से अगर तुम्हें ब्रह्म का सान्निध्य मिलता हो तो तुम ज़रूर उठो तीन बजे, चार बजे। पर नहीं मिलता तो क्यों अपने ऊपर बोझ लादते हो!

फिर पूछा है कि अब जाड़े आ रहे हैं, जाकर मंदिर में बैठूँगा, वहाँ ठंडा पत्थर, और कहा है कि मेरा शरीर भी अब साथ नहीं देता। बेटा, अभी ये तुम गीता पर कोर्स कर रहे हो, तो कृष्ण साफ़ बताते हैं न, ऐसी जगह पर बैठो जो न गर्म हो, न ठंडी हो, जहाँ न उमस हो, न जहाँ रूखापन हो। क्योंकि तुम्हें ध्यान लगाना है किसपर? उस पर (ऊपर की ओर संकेत)। और जहाँ बैठे हो, और जिस समय बैठे हो, उस समय अगर इधर-उधर की चीज़ें कचोटें तो तुम्हारा ध्यान किसपर लगेगा? किसपर लगेगा? जो आसपास है उस पर।

तुम जाओ और किसी ऐसी दरी वग़ैरा पर बैठ जाओ जो चुभती है और कहो कि 'हम ध्यान लगा रहे हैं'; और दरी चुभ रही है तो ध्यान परमात्मा पर लगने की बजाय काहे पर लग जाएगा? दरी पर लग जाएगा। ये क्या कर लिया तुमने?

अब जनवरी की ठंड हो, उसमें तुम सुबह चार बजे जाकर के ठंडे पत्थर पर बैठ जाओ और कहो, ‘ध्यान लगा रहे हैं’, तो सारी शक्ति तुम्हारी, सारे प्राण तुम्हारे, सारी ऊर्जा तुम्हारी बस इसी चक्कर में रहेगी कि 'किसी तरह जान बच जाए, पाला आज न पड़े।' ये न हो कि उठने लगे कहीं और पता चले लकवा मार गया है।

एक आदमी होता है जो अय्याश होता है, वो विलासिता में डूबा होता है, वो लगातार अपने आपको क्या दे रहा है? सुख देने की कोशिश कर रहा है, है न? उसने अपना ध्येय किसको बना लिया है? भौतिक सुख को।

एक दूसरा आदमी है जो ज़बरदस्ती अपने ऊपर दुख ला रहा है। उसने अपनी ज़िंदगी में किसको महत्वपूर्ण बना लिया? भौतिक दुख को। इन दोनों में समानता क्या है? दोनों भौतिक हैं। और ध्यान का मतलब होता है — उसपर केंद्रित हो जाना जो सब भूतों से परे है, जो भौतिक नहीं है।

तो जो लोग विलासिता में डूबे हुए हैं, वो भी भौतिक चीज़ में ही डूबे हैं, और जो लोग दुखों में डूबे हैं, वो भी भौतिक चीज़ों में ही डूबे हैं। ये दोनों ही ध्यानी के लक्षण नहीं हैं। ध्यानी कहता है, 'भाई, मुझे माहौल ऐसा चाहिए जिसमें न सुख आकर्षित करे, न दुख डराए; न गर्मी ज़्यादा हो, न ठंडक ज़्यादा हो।'

मैं अभी आपके सामने बैठा हूँ तो मैंने इतनी तो व्यवस्था करी है न कि ये जो मेज़ है, ये ज़रा संतुलित ऊँचाई की हो। अब मेज़ अगर यहाँ तक (सिर से ऊपर की ऊँचाई तक) आती हो और मुझे ऐसे कूद-कूदकर बोलना पड़े तो बोल चुका!

और ये जो कुर्सी हो, वो डगमग-डगमग हिलती हो, वैसे थोड़ी-बहुत हिल रही है लेकिन इससे ज़्यादा हिलती हो तो बोल चुका! बोलो?

मैं क्यों कहता हूँ कि सत्र शुरू होने से पहले, दो-तीन घंटे पहले खाना-वाना खाकर निवृत हो जाओ? क्योंकि सत्र से ठीक पहले खाना खाओगे तो डकारे मारोगे और अगर खाना ही नहीं खाया है और मैंने खींच दिया एक-दो बजे तक तो मुझे गालियाँ दोगे। दोनों ही स्थितियों में जो बोल रहा हूँ, उस पर ध्यान लगेगा नहीं।

तो ध्यानी का लक्षण ये होता है कि वो अपने इर्द-गिर्द ऐसी स्थितियाँ नहीं बनने देता कि स्थितियाँ ही प्रधान और महत्त्वपूर्ण हो जाएँ। बात समझ में आ रही है?

सुख भी मन को पकड़ता है, महत्त्वपूर्ण हो जाता है और दुख भी मन को पकड़ता है, महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इसीलिए जानने वालों ने कहा, ‘न सुख, न दुख।’ तुम अपने लिए ज़बरदस्ती दुख का निर्माण मत करो। कुछ नहीं विशेष है सुबह चार और पाँच बजे में।

ठीक है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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