यद्दृष्ट्वा नापरं दृश्यं यद्भूत्वा न पुनर्भवः । यज्ज्ञात्वा नापरं ज्ञेयं तद्ब्रह्मेत्यवधारयेत् ॥
जिसके दर्शन के पश्चात और कुछ देखने को नहीं बचता, जिसकी प्राप्ति के पश्चात फिर संसार का जन्म नहीं होता, और जिसको जानने के पश्चात और कुछ जानने को नहीं रहता, उसे ही ब्रह्म जानो।।
~ श्लोक, आत्मबोध, ५५
प्रश्न: आचार्य जी, प्रणाम। श्लोक को पढ़कर लगता है कि जैसे ‘ब्रह्म’ भी सामान्य वस्तु के समान, प्राप्त करने की कोई चीज़ है। ‘ब्रह्म’ को देखने, जानने, प्राप्त करने से शंकराचार्य जी का क्या अर्थ है, कृपया स्पष्ट करें।
आचार्य प्रशांत जी: देखना, जानना, प्राप्त करना।
‘ब्रह्म को देखने’ से आशय है कि – तुम्हारी आँखें अब व्यर्थ चीज़ों को इतना कम मूल्य देती हैं, कि वो व्यर्थ चीज़ें दिखाई ही नहीं देतीं। तुम्हारी आँखें अब व्यर्थ चीज़ों को इतना कम मूल्य देती हैं, कि वो व्यर्थ चीज़ें दिखाई देकर भी दिखाई नहीं देतीं। ये है ‘ब्रह्म’ को देखना।
समझ में आ रही है बात?
(कक्ष में लगी बत्तियों की ओर इंगित करते हुए) ऊपर कितनी बत्तियाँ हैं? किसी ने गिना क्या? गिन सकते थे न? आसान था गिनना। दिख तो रहा ही था, गिन सकते थे। गिना क्यों नहीं? क्योंकि व्यर्थ है गिनना। महत्त्व ही नहीं है गिनने का।
लोग कितने बैठे हैं यहाँ पर? ये भी गिना क्या? सबको अपने-अपने पड़ोसी का नाम पता है क्या? क्यों? पूछ तो सकते ही थे? तीन घंटे में ऐसा कभी हुआ है क्या कि नाम भी न पूछा हो? तीन मिनट में पूछ लेते हो। और यहाँ तीन घंटे आज के हो गए, और तीन दिन वैसे हो गए, और नाम भी नहीं पूछा एक दूसरे का। क्यों? क्योंकि कोई महत्त्व नहीं है। जिस चीज़ का महत्त्व है, वो दूसरी है।
‘ब्रह्म को देखने’ का मतलब है – बाकी सबकुछ जो दिखाई दे रहा है, उसको महत्त्वहीन जान लेना।
अस्पताल में तुम्हारा कोई मित्र अभी -अभी भर्ती किया गया हो, क्योंकि दुर्घटना हो गई है, और हालत गंभीर है, और तुम गाड़ी लेकर भागते हो अस्पताल की ओर। अभी-अभी खबर आई है कि दुर्घटना हुई है, आओ। और तुम चलते हो गाड़ी लेकर के। रास्ते में फलों की दुकानें लगी हैं। सेब दिखाई देते हैं? अंगूर दिखाई देते हैं? अनार दिखाई देते हैं? स्त्री दिखाई देती है? पुरुष दिखाई देता है? कुछ दिखाई देता है?
भीड़ को चीरते हुए तुम अस्पताल की ओर जाते हो। बाकी सब ‘दिखकर भी’ नहीं दिख रहा।
ये है ‘ब्रह्म’ को देखना।
बाकी सबकुछ दिखता तो है, पर ‘दिखता’ नहीं। *बाकी सबकुछ दिखता तो है, पर उसको हम हैसियत नहीं देते, मूल्य नहीं देते,* *क्योंकि जो अमूल्य है, हम सीधे उसी की ओर बढ़े जा रहे हैं।* ये है ‘ब्रह्म’ को देखना। कुछ ऐसा दिख गया है हमें, आँखों से नहीं, भीतर से। कुछ ऐसा दिख गया है हमें, जिसके सामने बाकी दृश्य, सब नज़ारे, मूल्यहीन हैं। उसको देखने के बाद, इधर -उधर देखने की इच्छा ही नहीं होती। ये है ‘ब्रह्म’ को देखना।
अब कुछ आँखों के सामने भी आ जाए, तो दिखाई नहीं देता।
ये जो माँस की आँखें हैं, ये उसे देखती हैं, लेकिन दृश्य मन पर अंकित नहीं होता। दृश्य आता है और चला जाता है, मन पर छाप नहीं छोड़ता। मन उसे मूल्य नहीं देता। ये है ‘ब्रह्म’ को देखना।
फिर कहा है, ‘ब्रह्म को जानने’ क्या आशय है?
‘ब्रह्म को जानने’ से आशय है – दुनिया को जान लेना, और दुनिया को जानकर के मिथ्या पा लेना। जब दुनिया मिथ्या हो गई, तो ‘ब्रह्म’ को जान लिया। ‘ब्रह्म’ अज्ञेय है। ‘ब्रह्म’ को सीधे-सीधे नहीं जाना जा सकता। हाँ, दुनिया को जाना जा सकता है। तुम दुनिया को जान लो, तो समझ लो तुमने ‘ब्रह्म’ को जान लिया। जो दुनिया को जान ले, जो दुनिया की नेति-नेति कर ले, सो ‘ब्रह्मविद’ हुआ।
क्योंकि ब्रह्म से एक हुए बिना, ब्रह्म की अनुकम्पा के बिना, तुम दुनिया को जान ही न पाते, दुनिया की नेति-नेति ही न कर पाते। तो जब भी कहा जाए कि – “ब्रह्म को जानो,” तो इसका अर्थ यही जानना कि दुनिया को समझना है। ये दुनिया चीज़ क्या है।
फ़िर कहा – ब्रह्म को प्राप्त करना क्या है?
‘ब्रह्म को प्राप्त’ करना है, अपनी सारी प्राप्तियों का यतार्थ जान लेना। प्राप्तियाँ तो तुम्हारे पास खूब हैं न? कोई है ऐसा जिसके पास कुछ भी न हो, जिसने कुछ भी कभी प्राप्त न किया हो? सबके पास बहुत कुछ है। तुम्हारे पास जो कुछ है, उसके यथार्थ को जानना ही है – ब्रह्म को प्राप्त करना।
जो कुछ तुमने प्राप्त कर रखा है, उसके मूल में प्रवेश कर जाओ – ये क्या है? “मैं कौन हूँ जिसे ये प्राप्त करने की इच्छा उठी? और ये प्राप्त करके क्या मेरी इच्छा संतुष्ट सन्तुष्ट हुई?” – ये है ‘ब्रह्म की प्राप्ति’। क्योंकि जो कुछ तुमने प्राप्त कर रखा है, वो साफ़-साफ़ दिखाई ही तब देगा, उसका यथार्थ ही तब पता चलेगा, जब तुम ‘ब्रह्म को प्राप्त’ गए।
इस बात में भी सावधान रहना।
‘ब्रह्म’ को तुम नहीं प्राप्त करते। ‘ब्रह्म’ को तुम प्राप्त हो जाते हो।
तुम बहुत छोटे हो तृण बराबर, ‘वो’ बहुत बड़ा है, अनंत। तुम उसे कैसे प्राप्त कर लोगे? रेत का कण, पर्वत को कैसे प्राप्त कर लेगा? बूँद सागर को कैसे प्राप्त कर लेगी? ‘तुम्हें’ प्राप्त होना होता है ब्रह्म को। ‘तुम्हें’ जाकर मिटना होता है, ‘ब्रह्म’ तुममें आकर नहीं मिट जाएगा। ‘ब्रह्म’ तुम्हारी छोटी-सी मुट्ठी में नहीं समा जाएगा। ‘तुम्हें’ मिटना होता है, उसे जीतना होता है।
अहंकार बड़ा प्रसन्न होता है कि – “मैं ब्रह्म की प्राप्ति करूँगा। मैंने ब्रह्म को जाना , मैंने ब्रह्म को देखा, मैंने ब्रह्म को प्राप्त किया।” ये मुट्ठी बोल रही है – “मैंने पूरा समुन्दर देखा, जाना, प्राप्त किया,” आँखें बोल रही हैं – “मैंने पूरा आसमान देखा, जाना, प्राप्त किया।”
मूर्खता है न?
तुम ‘उसे’ प्राप्त हो जाओ। इसी को ‘बोध’ कहते हैं, ‘समाधि’ कहते हैं, ‘भक्ति’ कहते हैं, ‘समर्पण’ कहते हैं। तुम जाओ, और उसमें मिट जाओ, क्योंकि बेचैन तुम हो। इसी में तुम्हारी भलाई है।
‘वो’ क्या आएगा तुम्हारे पास? अनंत है ‘वो’। इधर-उधर हिलेगा-डुलेगा भी कैसे, पूरा ही है। जब तुम कहते हो, “आओ मेरे पास,” कैसे आएगा? उसकी मजबूरी समझो। ‘वो’ कहीं जाना चाहे, तो जा ही नहीं सकता। क्यों? क्योंकि हर जगह ‘वो’ पहले ही मौजूद है। वो कहीं छुपना चाहे, तो छुप भी नहीं सकता। क्यों? क्योंकि ‘वो’ कहीं से हट ही नहीं सकता।
‘वो’ ही ‘वो’ है।
और तुम चिल्लाते हो, “हे ईश्वर, कहाँ छुपा है तू?” अरे, वो छुपना भी चाहेगा तो छुपेगा भी कैसी भई। कौन-सी गुफा इतनी बड़ी है जिसमें सत्य समा जाएगा? तो, ‘वो’ नहीं आ जाएगा तुम्हारे पास, कि तुम ‘उसे’ प्राप्त करो। तुम दूर भागे हुए हो उससे, जिससे दूर भागा ही नहीं जा सकता। तुम्हें जाकर अपनी आहुति देनी होगी, समर्पण करना होगा कि –
“मैंने अब अनिवार्य के आगे, अवश्यम्भावी के आगे घुटने टेक दिए”, “मैं प्रस्तुत हूँ, मैं समर्पित हूँ” – ये है ‘ब्रह्म को प्राप्त करना’।