प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर। मेरा सवाल था कि फ़िल्मों का हमारी लाइफ़ में क्या रोल रहता है? और जिस तरीक़े की इंडियन सिनेमाज़ फ़िल्म्स बनाती हैं, जो फ्रूटलेस फ़िल्म्स होती हैं कम्पैरिज़न टू जो हॉलीवुड फ़िल्म्स होती हैं, वो ज़्यादा लॉजिकल होती हैं और ज़्यादा रियलिज़्म पे बेस्ड होती हैं। तो क्या हमें अच्छे डायरेक्टर्स की या स्टोरीटेलर्स की ज़रूरत है? और क्या ये फ़िल्म मेकिंग एक अच्छा करियर ऑप्शन हो सकता है, अगर इसे कोई आर्ट के तरीक़े से देखता है?
आचार्य प्रशांत: तो ये हिंदुस्तान है और यहाँ फ़िल्में बनती हैं। यहाँ का ही डायरेक्टर, प्रोड्यूसर, स्क्रिप्ट राइटर, फ़ाइनेंसर होता है। यहाँ का ही डिस्ट्रीब्यूटर होता है। यहाँ की ही ऑडियंस, माने दर्शक होते हैं। जो हो रहा है, सब हमारे ही दायरे में तो हो रहा है ना। कहाँ से लाएँ अच्छे लोग? अमेरिका से लाएँ? कहाँ से लाएँ? चीन से लाएँ? कहाँ से लाएँ? वो फ़िल्म वही बनाएँगे जो आप देखना चाहते हो।
एक घटिया फ़िल्म बनती है, 800 करोड़-1000 करोड़ कर जाती है। तो आपने क्या संदेश दिया है? दुनिया भर के— मतलब बाक़ी सब जो बॉलीवुड, टॉलीवुड, भारतीय जितने भी निर्माता-निर्देशक हैं, उनको आपने क्या संदेश दिया है? — ऐसी फिर से बनाना, अगर बर्बाद नहीं होना चाहते। और अगर कोई ढंग की फ़िल्म बना दोगे, तो तुम्हें कहीं का नहीं छोड़ेंगे, नंगा कर देंगे, सड़क पर ला देंगे। और यही सड़ा मसाला दिखाओ, तो 1000 करोड़ तुम्हारे घर में बरसेगा।
भाई, वो जिसने कहानी लिखी, जो पैसे लगा रहा है उस पिक्चर पर, वो इसी समाज से उठा है ना। हो सकता है आप में से ही कोई आगे चल के फ़िल्म बनाए, या कि कोई अभिनेता बन जाए। तो हम जैसे हैं, वैसी हमारी फ़िल्में होती हैं। हम किसको दोष देना चाहते हैं? हमें ही तो फ़िल्में बनानी हैं ना। बाहर से कोई आएगा? तभी तो मैंने पूछा कि अमेरिका से, चीन से लाएँ क्या फ़िल्म बनाने वालों को? चाँद से लाएँ? एलियंस आ के फ़िल्म बनाएँ? हमें ही बनानी है।
कोई ढंग की चीज़ बना दें, तो देखता कौन है? क्योंकि हम इतना दोष देते हैं — मीडिया को जिसमें फ़िल्में भी आती हैं, टीवी भी आता है, सोशल मीडिया भी आता है। हम नेताओं को भी दोष देते हैं। कहते हैं, "इन्हीं सब ने बर्बाद कर रखा है।" ये सब हमारे पसंदीदा व्हिपिंग बॉयज़ हैं। है ना? "सारे नेता चोर हैं, पूरे बॉलीवुड को आग लगा दो, ये टीवी में कचरा दिखाते रहते हैं हर समय।” यही सब चलता है कि नहीं? "इंस्टाग्राम ने जेनरेशन तबाह कर दी।" इंस्टाग्राम कोई इंसान है? उसने क्या जेनरेशन तबाह कर दी? तुम ही तो उस पर रील बना के डालते हो, तुम ही देखते हो, तुम ही नाचते हो। इंस्टाग्राम क्या करेगा? और तुम्हारी फीड में वही आता है जो तुम बार-बार देख रहे होते हो। फीड क्या करेगी? एल्गोरिदम तो बस ये कहता है — जो इसको पसंद है, वही इसको बार-बार दिखाओ और ज़्यादा दिखाओ।
कैसे आए बदलाव? बताइए तो। एक साधारण सा सही संदेश देने के लिए, संदेश देने वाले को बहुत मेहनत करनी पड़ती है। और वो मेहनत करता भी है, तो उसको उसका कोई रिटर्न, कोई प्रतिसाद मिलता नहीं है। वैसे लोग फिर भी अपने दिल की ख़ातिर मेहनत किए जाते हैं। तो आप उनसे क्या और माँग करना चाहते हो? कि तुम और ज़्यादा मेहनत करो।
हम जितने बर्बाद हैं, हम तो रहेंगे। हमारे स्वाद में तो कचरा घुसा हुआ है, तो हमें तो कचरा ही चखना है। लेकिन फिर भी तुम अपना घर, अपनी ज़िन्दगी, अपने पैसे दाँव पर लगाकर अच्छी फ़िल्में बनाओ ताकि हम उन्हें फ्लॉप करा दें। देखो, हम तो ऐसे ही रहेंगे, हम तो कचरा ही देखेंगे। लेकिन तुम एक काम करो — तुम अपनी जमा पूँजी से 50, 60, 100 करोड़ लगाके, जितना भी है या कर्ज़ा लेकर के फ़िल्म बनाओ ताकि हम उस फ़िल्म को फ्लॉप करा दें। और जब हम फ़िल्म को फ्लॉप करा देंगे, और तुम्हारा दिवालिया पिट जाएगा, और तुम पागल हो जाओगे, और सड़क पर आ जाओगे, और एक दिन तुम बिल्कुल परेशान होकर आत्महत्या कर लोगे — तो हम तुम्हें शहीद घोषित कर देंगे। हमने कहा — "देखो, कितना अच्छा आदमी था। बढ़िया काम करा और शहीद हो गया। क्योंकि ये दुनिया ही ख़राब है।"
राज कपूर ने फ़िल्म बनाई — 'मेरा नाम जोकर'। वो बोलते थे — "ये मेरी ज़िन्दगी का महाकाव्य है।" हर आदमी अपने आप में न एक रेंज होता है, एक स्पेक्ट्रम होता है। वो एक ऊँचे से ऊँचा काम भी कर सकता है, थोड़ा और एक निचला काम भी कर सकता है। इसका मतलब ये नहीं है कि वो रेंज इन्फिनाइट होती है। कुछ ऐसा होता है कि थोड़ा बेहतर भी हो सकता है और थोड़ा गड़बड़ भी हो सकता है।
तो राज कपूर, जो अच्छे से अच्छा काम कर सकते थे उन्होंने कर डाला, उन्होंने — “मेरा नाम जोकर” बना दी। और उसको उन्होंने एपिक बोला क्योंकि वो 3 घंटे से ज़्यादा लंबी पिक्चर थी, और बहुत पैसा उसमें लगा दिया। बहुत बड़े बजट की मूवी थी। दिल से बनाई हुई फ़िल्म थी वो। और हमारी ऑडियंस ने पीट दी, दो दिन नहीं चली वो। क्यों? क्योंकि दिल से बनाई थी, हमें दिल से नफ़रत है। तो राज कपूर ने क्या करा? उन्होंने कहा, "ठीक है, तुम्हें यही चाहिए? तो मैं कुछ ऐसा बनाऊँगा जो चलेगा।" और उन पर लोन भी बहुत आ गया था। “मेरा नाम जोकर” के लिए खूब लोन लिया था, तो लोन भी खूब चढ़ गया था।
तो उन्होंने बनाई — “बॉबी।" और 'बॉबी' में उन्होंने लिया ये जो टीनेजर्स होते हैं उनको, जिनको आज की आप लोगों की भाषा में निब्बा-निब्बी बोलते हैं। तो बहुत कम उम्र के ऋषि कपूर — एकदम टीनेजर — और डिंपल कपाड़िया। और वो एक छोटी सी बाइक, आधे साइज़ की, और वो दोनों उस पर घूम रहे हैं और ये सब हो रहा है। और कुछ बिकिनी में सीन डाल दिए, कुछ किसिंग के सीन डाल दिए, और बहुत साधारण सी उसकी कहानी लिख दी — लव स्टोरी। और वो इतनी चली, इतनी चली, इतनी चली कि “मेरा नाम जोकर” का सारा कर्ज़ा पटा दिया राज कपूर ने। अब बताओ, वो आगे कौन सी फ़िल्म बनाएँगे? वो समझ में आ गया उनको कि क्या चलता है। तो उन्होंने आगे फिर और बोले — चलो, ठीक है, यही चलना है तो यही चलाते हैं — “राम तेरी गंगा मैली।"
लोगों को ना गहराई चाहिए, ना समझदारी चाहिए, ना दिल से उठे हुए गीत चाहिए। बदलाव हम में आएगा तो हमारी फ़िल्में बदलेंगी ना।
नहीं तो ये बिल्कुल होगा कि कोई ऐसे ही पागल, मसख़रा, दीवाना — अपनी ज़िन्दगी की आहुति दे के आपके लिए कुछ बहुत अच्छा कर भी देगा, तो आप बस उसे अधिक से अधिक शहीद का दर्जा दे पाओगे। आप उसके साथ जी नहीं पाओगे, आप उसके साथ लड़ नहीं पाओगे, आप उसकी जान ले लोगे। भारत में क्या सत्यजित रे नहीं हुए हैं? आप में से फिर बताइए, कितनों ने 'पाथेर पंचाली' देखी है? “अप्पू का चरित्र” कितनों को पता है? आप पूछ रहे हो सवाल — आपने ही ना देखी हो, तो फिर सवाल क्या पूछ रहे हो? अच्छी फ़िल्में तो भारत में भी बनी हैं।
गुरुदत्त की जान किसने ले ली? ये कह रहे हैं — "गुरुदत्त है कौन? ये तो बताओ — कोई गुरु जी है क्या?” उस बंदे ने भी बहुत दिल से काम करा था। गीतकारों में — भारतीय गीतकारों में — जो लिरिसिस्ट होते हैं, शैलेंद्र से ऊपर आज तक कोई नहीं हुआ है। शैलेंद्र भी 40-45 साल के थे, चले गए। किसने उनकी जान ले ली? हमने। क्योंकि कोई अच्छा काम करे, तो हमसे बर्दाश्त नहीं होता।
हम बहुत गंदे लोग हैं और सबसे ज़्यादा हमें उससे दुश्मनी हो जाती है जो हमसे कम गंदा है।
उस इंसान का होना, हमें अपने मुँह पर थप्पड़ की तरह लगता है। क्योंकि हम तो कहते हैं ना कि — गंदा होकर ही जिया जा सकता है। अब देखो, कोई आया, उसने साफ़ फ़िल्म बना दी। तुम जो झूठ बोलते थे, उसका पर्दाफ़ाश कर दिया। तुम बोलते थे कि ज़िन्दगी सिर्फ़ गंदी जी जा सकती है। देखो, उसने एक साफ़ चीज़ बना कर दिखा दी। तो फिर हम बदला लेते हैं। बदला कैसे लेते हैं? उसकी फ़िल्म फ्लॉप कराके या वो जिस भी काम में है, उस काम में अड़चन डाल कर के। हाँ, फिर जब वो मर जाएगा, तो हम कह रहे हैं — हम क्या बना देंगे उसको? — शहीद। मर जाएगा — शहीद बना दोगे, जब वो ज़िंदा है तब उसके साथ खड़े हो लो ना!
मैं कह रहा था — ये तीन तरह के लोग होते हैं जिनको हम खूब गालियाँ देते हैं। ठीक है ना? आप नेताओं को गाली दे देते हो, आप बॉलीवुड वालों को गाली दे देते हो और सोशल मीडिया, टीवी — इन सभी क्षेत्रों से कुछ लोगों को मैं जानता हूँ। और जैसे वो आपको स्क्रीन पर दिखाई देते हैं, या मंच से दिखाई देते हैं भाषण देते हुए — वो उतने ना बेवक़ूफ़ हैं, ना कमीने। उन्हें सब पता है। टीवी वाले बोलते हैं — "इनको हिंदू-मुस्लिम ना दिखाएँ, तो ये देखते नहीं हैं।" बोले — "हमें भी पता है हम इन्हें कचरा दिखा रहे हैं दिन-रात। पर इन्हें कोई ढंग की चीज़ दिखाओ, तो ये चैनल बदल देते हैं। और ये चैनल बदल देंगे, तो ऐड रेवेन्यू नहीं आएगी। ऐड रेवेन्यू नहीं आएगी, तो चैनल बंद हो जाएगा।" बोला — "जो एकदम सबसे गिरा हुआ कचरा है, जनता वही देखना चाहती है और वही सबसे ज़्यादा देखती है।"
नेता भी उतने नहीं धूर्त होते जितने हमारे सामने बन जाते हैं। वो कहते हैं — "ये ऐसे मूर्ख हैं कि इनके सामने धूर्त बनना पड़ता है। इनसे समझदारी की बात करो, तो ये काट लेंगे आपको। तो इनको बेवक़ूफ़ बनाने के अलावा कोई चारा नहीं है चुनावों में। अब क्या करें?" नेता को गाली दें या ख़ुद को? और भूलिएगा नहीं — नेता भी एक दिन हमारे ही जैसा था। इन्हीं कुर्सियों पर बैठा था। आपके कॉलेज से भी कुछ नेता निकले होंगे। तो जैसे हम हैं, उसको बदलना पड़ेगा, नहीं तो फिर हम अपने आप को आश्रित छोड़ रहे हैं शहादत के लिए तैयार कुछ लोगों पर।
हम कह रहे हैं — "हम तो नहीं बदलेंगे। कुछ ख़ास बिरले लोग आकर, कुछ दीवाने आकर वीरगति को प्राप्त हो जाएँ — तो ठीक है।"
हमें नहीं बनना है — ना भगत सिंह, ना सुखदेव, ना राजगुरु। हम बस, हमें बिस्मिल की बातें करनी हैं — “सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है।” तुम्हारे दिल में? पॉपकॉर्न खा रहे हो वहाँ बैठ के, जहाँ फाँसी लग रही है — तुम यहाँ कोने में बैठ के कह रहे हो — "तुम्हारे दिल में सरफ़रोशी की तमन्ना है?” सीरियसली? तो यही चलता रहेगा। भगत सिंह को भी फाँसी देने वाला हिंदुस्तानी था। उनके विरोध में जिसने सारे तर्क करे थे, वो भी हिंदुस्तानी था। उन्हें फाँसी देने के बाद, बाहर लोग इकट्ठा होने लग गए थे — धरना, विरोध के लिए। तो जल्दी से उनकी लाश को काट-काट के, काट-काट के ले गए नदी किनारे, वहाँ जला दिया। ये सब काम भी हिंदुस्तानियों ने करा था।
ज़्यादातर हिंदुस्तानियों का स्वतंत्रता संग्राम से कोई लेना-देना थोड़े था। नहीं तो इतना बड़ा देश था — ये इतने समय तक गुलाम कैसे बना रह जाता? जानते हो आज़ादी आई, तो पहले प्रधानमंत्री नेहरू — उन्होंने, लोगों के पास कोई संचार के माध्यम नहीं थे, आबादी अनपढ़ थी। उन्हें कुछ पता ही नहीं था। ना टीवी है, इंटरनेट तो क्या — रेडियो भी नहीं। तो लोग भेजे गए दूर-दराज़ के गाँव-गँवई में, बताने के लिए कि "भाई, देश आज़ाद हो गया है।" नहीं तो — उन्हें पता ही ना चले कि देश आज़ाद हो गया है। तो जानते हो लोगों ने क्या पूछा? "अच्छा, देश आज़ाद हो गया है? तो अब हमें किसकी आज्ञा माननी है?"
हमारे लिए आज़ादी भी आज्ञा पालन है। हम ऐसे लोग हैं, हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता हमारे ऊपर कौन बैठा है।
कोई बैठा रहे हमारे ऊपर, “कोउ नृप होउ, हमहि का हानि।” नृप माने — राजा। कोई राजा हो, हमें क्या फ़र्क़ पड़ता है? हम ऐसे लोग हैं। अब हम ऐसे लोग हैं, तो भगत सिंह तो दो-चार ही होंगे न! बाक़ी पूरे देश को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा था — कौन राज कर रहा है, कौन नहीं कर रहा है। हमारी माइक्रो कंसर्न्स होती हैं। हमारे छोटे-छोटे, क्षुद्र स्वार्थ होते हैं — “मैं, मेरे कपड़े, बीवी की साड़ी, बच्चे की फ़ीस” — इससे ज़्यादा कुछ नहीं, कुछ नहीं।
मेरा बैचमेट है, अमेरिका में रहता है। अभी भारत आया हुआ है। तो ट्रंप को लेकर के बात हो रही थी। मैंने कहा — "ये जो पैरिस एग्रीमेंट से इन्होंने अपने आप को वापस खींच लिया है, और ये हर तरीक़े से….हम पहले ही बिल्कुल विनाश की कगार पर खड़े थे। यहाँ पर एज पर — यहाँ पर खड़ी हुई थी पृथ्वी। और ये आदमी आगे लात मारकर पूरा सब समाप्त ही कर दे रहा है।" तो कहता है — "आम आदमी को इससे फ़र्क़ ही नहीं पड़ता न! आम आदमी को फ़र्क़ पड़ता है कि भाई रोटियाँ और अंडे महंगे तो नहीं हो गए।" और ये अमेरिका की बात हो रही है। बोला — "क्लाइमेट चेंज तो 100–50 साल बाद की बात है।"
मैंने कहा 100–50 साल बाद की नहीं, अभी की बात है। डेढ़ डिग्री तो हम अभी से पार कर गए। भाई, आगे की नहीं बात है। बोले — "आम आदमी को फ़र्क़ नहीं पड़ता।" ऐसा होता है आम आदमी। भारत में भी, बाहर भी — और भारत में कुछ ज़्यादा ही है। हमें हमारे कर्तव्यों के तौर पर बस इतना ही बता दिया गया है कि तुम्हारा क्या कर्तव्य है? “अच्छा पति बनना, अच्छी पत्नी बनना, अच्छी माँ बनना, अपना घर साफ़ रखना।”
हम हिंदुस्तानियों के घर अंदर से काफ़ी साफ़ होते हैं। हम तो मतलब थोड़े ज़्यादा ही इसमें लेकर के कई बार एडिक्टेड से होते हैं — फिनिकी, घर एकदम ऐसे धूल का आख़िरी कण भी हटाओ। और जितने गंदे हमारे सार्वजनिक स्थल होते हैं, उसकी कोई इंतहा नहीं है। घर बहुत साफ़ होगा, बाहर गंदगी होगी। ये हमारी मूल्य-व्यवस्था का हिस्सा है। दुनिया के लिए कुछ नहीं करना है। जो हमारी संकीर्ण इच्छाएँ हैं, हमारे छोटे-छोटे स्वार्थ हैं, उसी के लिए जीना है, उसी के लिए मर जाना है।
जैसे कहते हैं न कि भगत सिंह ज़रूर हो — पर किसी और के घर में हो, हमारे घर में न हो। हमारे घर में तो हमें हमारा आज्ञाकारी बेटा चाहिए, जिसकी सॉफ़्टवेयर में जॉब लग जाए, जो अमेरिका में भी रहे तो भारतीय संस्कारों का पालन करे। देसी बहू लाए, दो बच्चे पैदा करे — दोनों लड़के — और दुनिया में लगती हो आग तो लगे, हमारा घर ठीक चलना चाहिए।
तो ऐसी ही फ़िल्में बनती हैं फिर। तुम्हारे सारे फ़ैमिली ड्रामे और क्या होते हैं? और वो खूब चलते हैं कि नहीं चलते हैं? जिस दिन आप बतौर ऑडियंस इनको अस्वीकार करना शुरू कर दोगे — ये पागल थोड़ी हैं कि ऐसी फ़िल्में या ऐसे शोज़ बनाएँगे, ऐसे वेब सीरीज़ बनाएँगे? आपको वही देखने में रस आता है। चटखारे लेते हो, तो वो और बनाते हैं। किसी तरह की घटिया कॉन्ट्रोवर्सी हो जाए किसी फ़िल्म के बारे में, तो और 25 लोग उसे देखने पहुँच जाते हैं। कॉन्ट्रोवर्सी हो गई — तब तो बिल्कुल देखने मत जाओ। मुफ़्त में दिखा रहा है क्या वो?
और आप तो कोई ₹100 वाला भी टिकट लेकर नहीं देखने जाते हो। आप तो मेट्रो में रह रहे हो, आपके तो टिकट भी मोटे-मोटे होते हैं। फिर वहाँ जाकर पॉपकॉर्न, वो भी ₹300 का। ये सारा पैसा किसकी जेब में जा रहा है? उसी की जेब में जा रहा है जिसने एक ज़लील काम करा है — एक घटिया फ़िल्म बनाई है। जानबूझकर घटिया फ़िल्म बनाई है आपकी ज़िन्दगी को और ज़्यादा गंदा करने के लिए। और आप उसकी फ़िल्म देखने जा रहे हो, उसको पैसे देकर इंसेंटिवाइज़ कर रहे हो।
हमारी संस्था की जान निकल गई है अपनी बात लोगों तक पहुँचाने में। क्यों? क्योंकि कोई भी एल्गोरिदम सोशल मीडिया का हमारे कंटेंट को फेवर नहीं करता है। जो बात मैं बोल रहा हूँ, ये बात अपने आप लोगों तक पहुँचती ही नहीं, क्योंकि लोग थोड़ा सा देखते हैं और कहते हैं — "यार छोड़ो न, मुझे कच्चा बादाम देखने दो।" एल्गोरिदम कहता है कि यह तो, एक तो वीडियो लंबा-लंबा, एक घंटे का है — एक घंटे का था। तीन मिनट देख के कच्चा बादाम देखा। अगली बार उसको कच्चा ही बादाम दिखाना।
वही चीज़ टीवी के साथ है। टीवी चैनल्स के भी ओनर्स हों, प्रोड्यूसर्स हों — सब हाथ जोड़ के कहते हैं, हमें कहते हैं — "हमें पता है आप सबसे ऊँचा और बेहतरीन काम कर रहे हैं, पर ये चीज़ हमारी ऑडियंस को नहीं चाहिए। उनको यह चाहिए कि रश्मिका ने क्या किया जिससे अंशुल इशिका को छोड़ दे।" बहुत बात करो तो कहते हैं — "अच्छा, एक काम करिए — आप ना रात में 12:00 बजे वाला स्लॉट ले लीजिए। उस समय जितने संन्यासी, बैरागी होते हैं वही जागते होते हैं। क्योंकि प्राइम टाइम की जो ऑडियंस है, उसको तो रश्मा..(अभिनय करते हुए) यही चाहिए उसको। ये इशिका माने होता क्या है, मालूम नहीं है — संस्कृत का शब्द तो है नहीं।" या सुबह का ले लीजिए — आप पाँच से छ: का। आप बताइए क्या करना है, रिकॉर्ड करना है? हम सब कर देंगे, बढ़िया कर देंगे।
अच्छाई, ऊँचाई मुफ़्त नहीं मिलती, उसका साथ देना पड़ता है, और उसका साथ नहीं दोगे तो अभी जितनी मिल रही है, उतनी मिलनी भी बंद हो जाएगी।
कुछ अगर अच्छा लगा है — फ़िल्मों की बात कर रहे हो न — कोई फ़िल्म अच्छी लगी है, तो ख़ुद उसके प्रचारक बनो, सब तक पहुँचाओ उसे। सब तक नहीं पहुँचाओगे तो अगली बार वैसी कोई फ़िल्म बनेगी भी नहीं। बनाने वाला थर्राएगा, कहेगा — "अच्छे काम का अंजाम बर्बादी होता है।" क्यों? एक उदाहरण तैयार करना चाहते हो? यू आर सेटिंग अ वेरी बैड एग्ज़ाम्पल फॉर समबडी हू वांट्स टू डू रियली गुड वर्क।
तुम मुझसे कह रहे हो कि "तेरी बर्बादी में मेरा जश्न है!" कुछ अगर देखो — गंदगी अपने आप फैल जाती है। आराम से फैल जाती है कि नहीं फैल जाती है? अच्छाई फैलानी पड़ती है। गिर जाओ तो गिरना तो ख़ुद-ब-ख़ुद हो जाता है, उठना ताक़त लगाकर होता है। फिसल जाओ किसी ढलान पर, तो फिसलना तो ख़ुद-ब-ख़ुद हो जाता है, ख़ासकर जब ढलान रपटीली हो — फिसल जाओगे।
पर अब ऊपर आना है, पहाड़ चढ़ना है — वो मुश्किल होता है। तो जो आदमी पहाड़ चढ़ रहा हो, उसका साथ दो। वरना ये माँग करना बंद करो कि मुझे अच्छी फ़िल्में देखनी हैं। ये माँग करना बंद करो कि मुझे सार्वजनिक क्षेत्र में अच्छा साहित्य चाहिए, अच्छी बातें चाहिए, अच्छा दर्शन चाहिए, अच्छा विचार चाहिए। कुछ नहीं मिलेगा तुम्हें। वही मिलेगा फिर, जो तुम्हें चाहिए।