बोधशिविर से फ़ायदा क्या है? || युवाओं के संग (2016)

Acharya Prashant

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बोधशिविर से फ़ायदा क्या है? || युवाओं के संग (2016)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बोध-शिविर से फ़ायदा क्या है?

आचार्य प्रशांत: आदमी, शरीर के ऊपर चढ़ी हुई समाज की परत है। जिसको अपना जन्म कहते हो, वो शरीर के साथ होता है। और फिर समाज उस पर एक परत और चढ़ा देता है। ये दोनों ही परतें तुम्हारा दुःख हैं। ये दोनों ही परतें तुम्हें ढकती हैं। जो जैविक परत है, जिसे हम देह कहते हैं, वो भी, और जो सामाजिक परत है, जिसे हम मन कहते हैं, वो भी।

यहाँ पर जब आते हो, तो सीधा संपर्क उससे होता है जो कि तुम्हारी दैहिक परत है, ‘प्रकृति’; देह प्रकृति है। यहाँ आ कर, थोड़ी देर के लिए समाज को भूल जाते हो। समाज को जब भूलते हो तो दो परतों में से कम-से-कम एक से मुक्त होते हो। यहाँ आ कर तुम्हारे सामने हैं, नदी, छोटे-मोटे जानवर, पेड़, आसमान खुला, रेत; ये सब ‘तुम’ हो। ये सब तत्व हैं जिनसे तुम्हारा शरीर निर्मित है। अब यहाँ पर आ कर के तुम्हें सामाजिक संस्कार बहुत याद नहीं आएँगे। तो तुम अपने केंद्र के थोड़ा पास चले। समझ लो केंद्र है, केंद्र के ऊपर चढ़ी हुई शरीर की परत है, और उसके ऊपर भी चढ़ी हुई, मन की, सामाजिक संस्कारों की परत है। यहाँ जब आते हो तो उन संस्कारों से हट कर के शरीर के करीब आते हो, प्रकृति के करीब आते हो।

प्रकृति के करीब आने का अर्थ होता है, केंद्र के करीब आना। इसलिए प्रकृति के करीब आने का अर्थ होता है परमात्मा के करीब आना।

प्रकृति, परमात्मा नहीं है, लेकिन प्रकृति से जो जितना दूर जाएगा, परमात्मा से उतना ही दूर जाएगा। परमात्मा, तुम्हारा केंद्र है। सत्य तुम्हारा केंद्र है। केंद्र के परितः जो पहली परत है, जो पहला वृत्त है, वो प्रकृति का है, वो देह का है। और फिर जो तमाम अन्य परतें हैं, तमाम अन्य घेरे हैं, मंडल हैं, वो सारे समाज के हैं। जब उन सामाजिक वृत्तों से, उन सामाजिक दायरों से, मुक्त होते जाते हो, सिर्फ़ तभी प्रकृति की ओर जा सकते हो। और प्रकृति, परमात्मा को, तुम्हारे हृदय को घेरे हुए, पहला वृत्त है, पहला। तो इसलिए मैंने कहा, कि जो प्रकृति के जितने करीब आएगा, वो परमात्मा के उतने करीब आएगा।

पर प्रकृति पर भी ठहर नहीं जाना होता है। इसलिए तुम्हें अच्छा लगता है, प्रकृति के करीब आ कर। इसलिए तुम कह रहे हो कि यहाँ पर साँस ज़्यादा आसानी से ले पाए। क्योंकि प्रकृति के पास आने का मतलब होता है, अपने पास आना। बात समझ रहे हैं? प्रकृति से दूर जाने का अर्थ होता है, अपने से दूर जाना।

तो सवाल फिर ये उठना चाहिए कि क्या जानवर परमात्मा के ज़्यादा पास हैं? हाँ, बिलकुल पास हैं। जानवरों को वरदान ये मिला हुआ है कि वो सामाजिक रूप से संस्कारित कम होते हैं, या बिलकुल ही नहीं होते। तो इसलिए वो कभी भी प्रकृति से कभी छिटक नहीं सकते, बहुत दूर नहीं जा सकते। ये उनकी ख़ासियत है। मैं कह रहा हूँ, यही उनको वरदान है। पर यही उनका अभिशाप भी है, कि वो प्रकृति पर ही अटक कर रह जाते हैं। ठीक है, समाज उनको संस्कारित नहीं कर सकता, लेकिन वो अपने प्रकृतिगत संस्कार छोड़ भी नहीं सकते।

जानवर की स्थिति समझो। वो प्रकृति पर बैठा है। प्रकृति के मूल में, प्रकृति से नीचे, प्रकृति के पार, सत्य है, परमात्मा है। और प्रकृति से भी और यदि वो ज़्यादा आगे संस्कारित होता गया तो फिर समाज है और बहुत तरह के उपद्रव हैं। ये ठीक है कि वो मात्र प्रकृति द्वारा ही संस्कारित रहेगा, समाज द्वारा संस्कारित नहीं हो पाएगा। तो इस मायने में वो इंसान से बेहतर है। लेकिन वो अपने प्रकृतिगत संस्कार छोड़ भी नहीं पाता। तो वो प्रकृति पर ही अटका रह जाता है, कभी केंद्र तक नहीं पहुँच पाता। उसकी ना आगे की यात्रा है, ना पीछे की यात्रा है; उसकी ना ऊपर की यात्रा है, ना नीचे की यात्रा है।

एक कुत्ता होता है, वो कुत्ता ही पैदा होता है, और कुत्ता ही मर जाता है। वो बुद्ध भी नहीं बन सकता, और कुत्ता होने से नीचे भी नहीं गिर सकता। वो प्रकृति पर ही अटका रह जाएगा, वो देह पर ही अटका रह जाएगा। आदमी अब पशुओं से ज़रा अलग हुआ। मनुष्य के पास दोनों सम्भावनाएँ हैं। एक सम्भावना तो ये है कि वो अपने-आप को और ज़्यादा, और ज़्यादा, गिराता जाए, मन पर मैल चढ़ाता जाए, मन पर प्रभावों की और संस्कारों की और कई-कई तहें जमाता जाए। और इस तरह से वो पशुओं से भी निम्नतर होता जाए; एक तो ये संभावना है मनुष्य की। और दूसरी यह है कि वो प्रकृति के मूल में जा कर के सीधे सत्य में स्थापित हो जाए। तो मनुष्य के पास दोनों तरफ़ के रास्ते खुले हुए हैं, अब ये उसको देखना है, वो किधर को जाएगा।

अगर वो एक सामाजिक प्राणी ही बन कर रह गया, तो वो पशुओं से, कुत्तों से, भी बदतर है। लेकिन उसके पास ये भी सम्भावना है कि वो अपनी सामाजिक परत तो हटाए ही, अपनी प्रकृतिगत परत को भी पार कर के, सीधे सत्य तक पहुँच जाए। अब वो बुद्ध है।

आदमी तुम्हें इसलिए हर प्रकार के मिलेंगे, दोनों तरफ़ के मिलेंगे। ऐसे भी मिलेंगे जो बहुत ही गए-गुज़रे हैं, और ऐसे भी मिलेंगे जो पूजनीय हैं। पशु तुम्हें पशु जैसा ही मिलेगा। कौआ, कौए जैसा ही मिलेगा, चिड़िया, चिड़िया जैसी ही मिलेगी। चींटी, चींटी जैसी ही मिलेगी, हाथी, हाथी जैसा ही मिलेगा। मनुष्यों में तुम्हें बहुत प्रकार की विविधता मिलेगी। पशुओं में नहीं मिलेगी। हाथी सब एक जैसे।

प्र: आचार्य जी, क्या प्रकृति के पास रह कर सत्य को जाना जा सकता है?

आचार्य: प्रकृति के पास रह कर के तुम सामाजिक असत्य से दूर हो जाते हो। और इस कारण सत्य के ज़रा करीब आते हो।

प्रकृति के पास आना समाज से एक प्रकार से मुक्ति देता है।

तुम दो तरीकों से संस्कारित हो न, तुम्हारे दो बेड़ियाँ हैं। पहली बेड़ी होती है प्रकृति की, और एक बेड़ी होती है, समाज की। जब प्रकृति के पास आते हो, तो कम-से-कम उस दूसरी बेड़ी से छूट कर आए हो। तो इसलिए हल्का अनुभव करते हो, क्योंकि अब सिर्फ़ एक बेड़ी बची है, वो एक बेड़ी कौन सी है? प्रकृति की, शरीर की। तो तुम्हें ज़रा सा हल्का लगता है, अच्छा लगता है। बुद्ध वो जिसने दूसरी बेड़ी तो भी तोड़ दिया। जानवर वो जिसने दूसरी बेड़ी पहनी ही नहीं। उसने सिर्फ़ एक पहनी, प्रकृति की, दूसरी समाज वाली उसने कभी पहनी ही नहीं।

इसलिए, शास्त्र कहते हैं, कि जो मनुष्य मुक्त होता जाता है, वो करीब-करीब जानवर जैसा हो जाता है, पशुवत हो जाता है। उसका अर्थ यही है, पशुवत हो जाने का अर्थ यही है, क्या? कि समाज से मुक्त हुआ, पूरे तरीके से प्रकृतिस्थ हो गया है। तो पशुओं जैसा जीवन फिर व्यतीत करता है। पशु माने कैसा? मस्त घूम फिर रहे हैं, परवाह नहीं कर रहे किसी की।

समझ रहे हो बात को?

प्र: आचार्य जी, आज सुबह जब आ रहे थे, तो ऐसा ही लग रहा था, कि मनुष्य जीवन कुछ नहीं है, एक दिन सबको ऐसा ही हो जाना है। लोग आते हैं यहाँ घूमने या और भी वजह से वो शायद इसीलिए आते हैं जिससे वो समझ पाएँ कि उनकी भी एक दिन यही स्थिति आनी है पर कोई समझता नहीं है इस बात को।

आचार्य: मृत्यु, सदैव स्मरण रखने की बात है। मृत्यु, जीवन का विपरीत नहीं है। मृत्यु, जीवन को पूर्ण करता है। ख़त्म नहीं करता। मौत का अर्थ यह नहीं है कि ज़िन्दगी ख़त्म हो गयी।

मौत का अर्थ यह है कि जान लिया कि जिसको आप ज़िन्दगी कहते थे, उसका दूसरा सिरा ये होना ही था।

जिसको आप जीवन कहते हो, वो द्वैतात्मक है। जब वो द्वैतात्मक है तो ख़त्म भी होगा।

जिसने द्वैत के दोनों सिरे एक साथ देख लिए, वो अद्वैत में स्थापित हो जाता है।

और जो एक ही पर अटका रह जाता है, वो बड़ा दुःख पाता है।

हमारी शिक्षा कुछ ऐसी रहती है कि हम जीवन से मोह करें और मौत से डरें, मौत के प्रति द्वेष रखें। आप जिसको जीवन कहते हैं, वो जीवन कहलाता ही इसलिए है क्योंकि उसके ऊपर मृत्यु की छाया है। जितनी जल्दी आप इस बात को पूरी तरह से स्वीकार कर लेंगे, कि ये ‘जीवन’ मृत्यु से अलग नहीं है, उतनी जल्दी आपके जीवन में एक ख़ास मिठास आ जाएगी। दूर से देखोगे तो ऐसा लगेगा कि जो आदमी मौत की बात कर रहा है, उसे कोई दुःख है, या वो मृत्यु की कामना कर रहा है। नहीं, ऐसा नहीं है।

जो आदमी बार-बार मौत की बात कर रहा है, वो जीवन को उसकी पूर्णता में देख रहा है। और जो पूर्णता में स्थापित है, उसमें ही ये हिम्मत आती है कि वो मौत की बात कर पाए।

इसलिए संतों ने बार-बार, मौत का हमें स्मरण कराया है। लगातार मौत की बातें करते हैं, मौत के गीत गाते हैं।

समाज तुमसे कहता है, "मौत को भूल जाओ!" संत तुमसे कहता है, "मौत को लगातार याद रखो!"

समाज कहता है कि, "मौत को भूलोगे, तो सुख में जियोगे।" लेकिन समाज की सलाह पर चल कर, मौत को तो तुम नहीं ही भूल पाते, दुःख को तुम ज़रूर आमंत्रित कर लेते हो।

संत तुमसे कहता है, मृत्यु को सदा याद रखो। और संत की बात पर चल कर जब तुम मृत्यु को याद रखते हो, तो जीवन को उपलब्ध हो जाते हो। जिसे मौत याद है, वो खुल कर जीता है। जो मौत के तथ्य को दबाना चाहता है, भागना चाहता है, बचना चाहता है!

प्र: आचार्य जी, वो दबाव में जी रहा है।

आचार्य: दबाव में जी रहा है।

बस छोटी सी बात है, ये लगातार याद रखना, कि तुम्हारे सामने जो कुछ भी है, समय ने उसे दिया है, और समय तुमसे छीन लेगा। यही मृत्यु है। समय हर वस्तु को, विचार को, व्यक्ति को, रिश्ते को, छीन लेता है। इसी का नाम मृत्यु है।

बात समझ रहे हो?

और यही याद रखना है। जिसे ये छोटी सी बात याद है - बाहर से आया है, समय से आया है, और समय ही ले जाएगा इसको - जिसे ये याद है, अब उसकी मुक्ति पूरी है।

प्र: वो मरने के बाद शांत हो जाता है।

आचार्य: मरने से पहले ही शांत रहता है। मरने के बाद क्या शांत होगा? मरने के बाद की कई शांति नहीं होती बेटा। मरने के बाद का कुछ भी नहीं होता, शांति क्या होगी?

शांति जिसे होती है, अभी होती है, आगे-पीछे नहीं होती, कि भूत में भविष्य में कब होगी! नहीं ऐसा नहीं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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