बोध क्या है? बोध और ज्ञान में क्या अंतर है? || श्रीमद्भगवद्गीता पर (2020)

Acharya Prashant

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बोध क्या है? बोध और ज्ञान में क्या अंतर है? || श्रीमद्भगवद्गीता पर (2020)

ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते। ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्।।

वह परब्रह्म ज्योतियों की भी ज्योति और माया से अत्यंत परे कहा जाता है। वह परमात्मा बोधस्वरूप, जानने के योग्य एवं तत्वज्ञान से प्राप्त करने योग्य है और सबके हृदय में वह विशेष रूप से स्थित है। —श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १३, श्लोक १८

प्रश्नकर्ता: परमात्मा को बोधस्वरूप कहा गया है और कहा गया है कि वह जानने के योग्य एवं तत्वज्ञान से प्राप्त करने योग्य है। लेकिन जो ख़ुद बोधस्वरूप है, उसका बोध कौन करेगा? कृपया इस पर प्रकाश डालें। धन्यवाद।

आचार्य प्रशांत: उसका बोध उसके प्रकाश से आप्लावित उसी का अंश करेगा, कह सकते हो कि वह स्वयं अपना बोध करेगा।

बोध ‘ज्ञान’ नहीं होता, बोध एक तरह की रिक्तता होती है, शून्यता होती है।

बोध में आपको कुछ पता नहीं चलता इसीलिए। पता तो तब चले न जब बोध करने वाला और बोध का विषय अलग-अलग हों, तो कुछ पता चल जाएगा। ‘अ’ ‘ब’ को देखे तो ‘अ’ को ‘ब’ का पता चला, इसीलिए यह साधारण बोध सिर्फ ज्ञान कहलाता है, यह बोध नहीं है।

बोध तब है जब बोधकर्ता और बोध का विषय दोनों एक हों। अब कुछ जाना नहीं, बल्कि जाने हुए से आज़ाद हो गए। अब न बोधी है, न बोध्य वस्तु है; बोध मात्र है, एक खालीपन। पहले दो थे, बल्कि तीन थे, दो कौन? ‘अ’ और ‘ब’। ‘अ’ लगा हुआ था ‘ब’ को जानने में तो तीसरा भी आ गया था। जब ‘अ’ ‘ब’ का ज्ञान लेता है तो एक बन जाता है ज्ञाता, एक बन जाता है ज्ञेय और दोनों के मध्य आ जाता है ज्ञान, क्योंकि मामला ही तो द्वैतात्मक था, ‘अ’ और ‘ब’।

और बोध का मतलब होता है कि वास्तव में जान गए जो है। वास्तव में उसको जानोगे जो है तो तुम तो जान नहीं सकते, क्योंकि ज्ञान का एक सीधा सूत्र होता है – ‘तुम उसको ही जान सकते हो जो बिलकुल तुम्हारे जैसा है’। तो ‘अ’ किसको जानेगा? ‘ब’ को ही जानेगा, क्योंकि ‘अ’ और ‘ब’ पड़ोसी हैं। ‘अ’ और ‘ब’ एक ही वर्णमाला के हिस्से हैं तो ‘अ’ और ‘ब’ एक दूसरे को बिलकुल जान सकते हैं, निस्संदेह।

अधूरा अधूरे को बिलकुल जान लेगा बिना किसी परेशानी के, बल्कि ये कह लो कि अधूरे को अधूरा ही जानकारी में मिलेगा। सत्य को कौन जानेगा? झूठ? अंधेरा रौशनी को जान सकता है? अंधेरा क्या रौशनी को जानेगा?

बोध का मतलब होता है कि सच ने जाना, किसको? सच को। माने किसी ने किसी को नहीं जाना। तो हुआ क्या बोध में? अरे, यह हुआ कि झूठ मिट गया, पागल! जानना-वानना कुछ नहीं हुआ। जानना तो तब होता है जब ‘अ’, ‘ब’, ‘स’, सब खिचड़ी पका रहे होते हैं। तब कहते हो कि यह जाना, यह सूचना मिली, यह ज्ञान हुआ और वो सब बेकार लफ़्फ़ाज़ी होती है।

बोध का मतलब होता है – कुछ नहीं जाना। जानने निकले थे, गायब हो गए। बंटू गया था कुछ बड़ा जानने, अभी तक लापता है—यह हुआ बोध। और बंटू गया था कुछ जानने और संटू को लेकर आगया आपने साथ—यह होता है ज्ञान। अंतर समझ में आ रहा है? बंटू निकले कि कुछ बड़ा हो जाए और ले आए संटू को अपने साथ, यह हुआ ज्ञान। और बंटू खोजने गए थे, आज तक लौटे नहीं हैं, यह हुआ बोध। कुछ मिला क्या बंटू को? मिला कुछ नहीं। तो बोध में इसी तरह जाना कुछ नहीं जाता।

बोध की महिमा इसलिए गाई जाती है क्योंकि उसमें तुम लापता हो जाते हो और तुम्हारा लापता होना बहुत ज़रूरी है, क्योंकि बंटू धरती का बोझ है। यही कृपा हुई कि बंटू लापता हो गया। लापता न होता तो अपने-आपको भी कष्ट देता और पूरी दुनिया को ले डूबता। तो बोध का फायदा यह नहीं होता कि बंटू कुछ पा गए; बोध का फायदा होता है कि बंटू गुम हो गए।

जो गुम होने के लिए तैयार हो, जिनमें इतनी ईमानदारी हो अपने प्रति, उन्हीं को बोध हो सकता है। बाकी तो यही होगा, बंटू गए संटू को ले आए, और अब चन्टू और फंटू भी हैं।

तो यह जो प्रश्न है कि बोध करता कौन है; बोध कोई नहीं करता। बस जो बोध नहीं कर सकता था, जिसमें काबिलियत ही नहीं थी बोध करने की, वो गुम हो जाता है, लुप्त हो जाता है। इसको कहते हैं बोध। बोध करने वाला कोई बचता ही नहीं, क्योंकि बोध जिसका होना है, वह इतना बड़ा है कि उसका बोध कोई नहीं कर सकता उसके अलावा। और वह अपना बोध क्या करे? परमात्मा थोड़े ही पगलाया हुआ है कि पूछेगा कि “मैं कौन हूँ?”

बोध का अर्थ इतना ही होता है कि वह जो इतना छोटा था कि बस ज्ञान में ही लिप्त रहता था, उसे बोध कभी हो ही नहीं सकता था, उसने अपने छुटपन को त्याग दिया, उसने अपने अस्तित्व को त्याग दिया, अब वह बचा ही नहीं—यह बोध है। ‘किसी’ को नहीं हुआ बोध।

समझ में आया? क्या समझ में आया? (एक श्रोता की ओर इशारा करते हुए) आप मुझे खेलने का मज़ा भी नहीं लेने देते, इतनी जल्दी हार जाते हैं। (हँसी) समझ में आया?

यह जो समझने के लिए तैयार और तत्पर बैठा है, यही तो समस्या है। प्रार्थना करिए कि इसे कम समझ में आए, इसका जो अहंकार है कि 'मैं सब कुछ समझ लूँगा। मैं बड़ा होशियार हूँ, सब कुछ इस खोपड़ी में भर लूँगा'—यही तो समस्या है, इसी को तो मिटाना है। जब कुछ समझ में न आए तो बोध है।

रूमी की एक कविता है, उसका हिंदी अनुवाद था। कुछ ऐसी ही पंक्ति थी कि 'तेरी होशियारी खा गई तुझे'। ख़ुद को संबोधित कर रहे थे कि तेरी होशियारी खा गई तुझे। फिर आगे ख़ुद बोला था कि वही पर्दा है, उसी का नाम पर्दा है। आदमी की होशियारी ही पर्दा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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