प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अभी आपने कहा था कि जो विपरीत पर खड़ा है वो हमेशा पहचानेगा कि राजनीति क्या चल रही है या ये सब। पर ऐसा हम सुनते हैं न कि जो भोला रह जाता है उसका ज़माना भी नहीं रहता। तो अगर हम अपने ऑफिस में ही हैं चाहे, और हम नहीं देख रहे, पॉलिटिक्स से ध्यान हटा दिया है, ये बातें कभी-कभी तंग भी करती हैं इंसान को, नहीं ध्यान दे रहे, जिसको जो बोलना है बोलने दें। पर कई बार ऐसा हो जाता है कि वो उलटा ही पड़ जाता है। तो फिर क्या फ़ायदा हुआ हमारे भोलेपन का?
आचार्य प्रशांत: 'भोलापन' शब्द जो है, वो, वो मायने नहीं रखता जैसे आमतौर पर समझे जाते हैं। भारत में भोला किसको कहा गया?
प्र: शंकर को।
आचार्य: तो बेवकूफ़ तो नहीं होता होगा भोला? या शिव का अर्थ होता है बेवकूफ़?
शिव तो बेवकूफी के विपरीत हैं, विपरीत भी नहीं हैं, आगे हैं, अतीत हैं।
भोला होने का मतलब है कि तुम किसी चीज़ से अछूते हो। जब तुम कहते हो, उदाहरण के लिए, "आई ऍम इनोसेंट ऑफ़ दिस क्राइम "। तो इसका क्या अर्थ होता है? “ये गुनाह मैंने नहीं किया, मेरा इससे कोई लेना देना नहीं है" – ये है भोला होने का अर्थ। “मेरा इससे कोई लेना देना नहीं है, मैं इसके बिना ही भरपूर हूँ, पूर्ण हूँ” – ये होता है भोलेपन का अर्थ। तुम जो कर रहे हो मेरा उससे कोई लेना देना ही नहीं है। क्योंकि तुम जो कर रहे हो वो छोटी और टुच्ची बात है। मुझे करना क्या है?
मेरी हालत ऐसी है कि मैं बैठा हुआ हूँ और भरपूर यहाँ आम-ही-आम रखे हैं। मस्त, रसीले, पीले, हथेली जितने बड़े-बड़े, क्या? आम। और वहाँ पड़ी हैं चुसी हुई गुठलियाँ, जूठी। मैं उनकी ओर देखूँगा? मेरा उनसे कुछ भी लेना देना नहीं है, ये है भोलापन। मुझे इतना मिला हुआ है कि मैं तुम्हारी इन गंदी गुठलियों की ओर देखूँ क्यों? तुम ये सब मेरे सामने लाते हो, वो मेरी निगाह के सामने तो आता है, मेरी निगाह के भीतर नहीं आता। तुम जो कुछ भी मेरी आँख के सामने लाते हो, वो सामने ही रह जाता है, आँख के माध्यम से भीतर प्रवेश नहीं कर पाता। ये है भोलापन। बात समझ में आ रही है?
स्वास्थ्य है भोलापन। कि बीमारी है पर कहाँ है? बाहर है। मेरे भीतर नहीं प्रवेश कर पा रही। आई ऍम इनोसेंट ऑफ़ डिजीज , मैं निर्मल हूँ, मैं गन्दा नहीं हो सकता। ये इन्नोसेंस है, ये भोलापन है। इसका अर्थ ये नहीं है कि मैं जानता नहीं कि गंदगी क्या है, बेवकूफी होगी। ऐसा नहीं है कि मैं समझता नहीं हूँ कि झूठन किसको बोलते हैं और गुठली की नीरसता किसको बोलते हैं, और मल और मलिनता किसको बोलते हैं, ऐसा नहीं कि मैं उसको जानता नहीं। मैं उसको जानता हूँ, मेरा उससे कोई लेना-देना नहीं है। *नो बिज़नेस देयर, नो ट्रक देयर*।
भोले और भोंदू में अंतर होता है न? भोंदू कौन? जिसको समझ में ही नहीं आ रहा कि क्या चल रहा है। और भोला कौन? जो कह रहा है कि जो चल रहा है वो चल रहा होगा, हम मौज में हैं। जो परम चीज़ है वो हमें समझ में आ गयी है, अब ये तुम्हारी छोटी-मोटी निकृष्ट नासमझियों का हम करें क्या? हमें ये सुहाती ही नहीं, हमें इसमें कोई रस ही नहीं है, हम पढ़ना ही नहीं चाहते, हम सुनना ही नहीं चाहते। हम सुनना नहीं चाहते कि ये सब तुम क्या कानाफूसी कर रहे हो। ऐसा नहीं कि तुम हमें बताओगे तो हमें समझ नहीं आएगा, समझ हमें आएगा, समझ आएगा पर रस नहीं आएगा।
इन दोनों का अंतर समझते हो? इन दोनों में अंतर ये है, कि तुम मुझसे आकर के बोलो कि, "आप आज बरकुरजा खाएँगे?" अब मुझे समझ में ही नहीं आया कि तुम मुझे क्या खिला रहे हो। चूँकि समझ ही नहीं आया तो मुझे उसमें कोई रस भी नहीं आया। ये भोंदूपन है। भोंदूपन में रस इसीलिए नहीं आता क्योंकि समझ ही नहीं आया। और भोलापन क्या है? कि तुमने आकर के कहा, "खीर खाओगे?" मैं जानता हूँ खीर क्या है, पर मैं ना सिर्फ़ जानता हूँ, मैं अच्छी तरह जानता हूँ खीर क्या है, और मैं जानता हूँ खीर में हिंसा है। और मैं कह रहा हूँ, "ना! हम प्रेम से ऐसे भरे हुए हैं, खीर की हिंसा बर्दाश्त नहीं कर पाएँगे। तो हमें खीर में कोई रस उठ नहीं रहा।"
हम जानते हैं खीर क्या है, पर जानने के बाद भी हमें खीर में रस नहीं उठ रहा। और जब तुमने कहा था कि, "क्या खाओगे? बरकुरजा।" तब हमें रस क्यों नहीं उठ रहा था? क्योंकि हम जानते ही नहीं हैं कि क्या है। वो अज्ञानी का सुख है। उसी को बोलते हैं, इग्नोरेंस इज़ ब्लिस * । कि तुम्हें पता ही नहीं चला कि तुमसे कौन सा मौका चूक गया, तुम इसीलिए मौज की नींद सो रहे हो। जैसे कोई सो रहा हो और उसकी * ट्रेन छूट जाए। उसे कोई दुःख होगा? तुम सो रहे हो, तुम्हारी ट्रेन छूट गयी, तुम्हें कोई दुःख है? ये इग्नोरेंस इस ब्लिस है। भोलापन बिलकुल अलग बात है, भोलापन और अज्ञान को कभी एक मत बना देना।
अज्ञान में तुम्हें पता है कि ये सब क्या चल रहा है, लेकिन तुम्हें उसमें कोई रस नहीं आता। तुम उसमें लिप्त नहीं होना चाहते। तुम कहते हो, "लेना एक ना देना दो, मैं अलग, मैं असंग, मेरा इस पूरे जगत व्यापर से ताल्लुक क्या?" तुम कहते हो, "ठीक है, जो हो रहा है, हम जानते हैं तुम क्या कह रहे हो। पर हम प्रलोभित नहीं होते। हमें आकर्षण ही नहीं उठता, हम क्या करें? तुम रिझा लो, तुम डरा लो। तुम जब हमें क्रोधित करते हो, हमें नहीं बुरा लगता। और तुम फिर जब आकर मनाते हो, कि माफ़ी माँगते हो, तब हमें कुछ ख़ास अच्छा भी नहीं लग जाता।"
"हम स्वस्थ हैं, विशुद्ध, परिपूर्ण हैं अपने-आप में" – ये है भोलापन। तो भोलापन का मतलब ये नहीं होता कि कुत्ते का बच्चा उठा लिया और बोले, “कितना भोला कुत्ते का बच्चा है।” यही तो करते हो भोलेपन के नाम पर। तुमने अनगढ़ता को, अनभिज्ञता को, अज्ञानता को, भोलेपन का पर्याय बना लिया है; ये भूल है। तुम्हें तो जो जितना भोंदू मिल जाता है, तुम उसको तुरंत कह देते हो, 'भोला है वो'।
याद रखना, भोले शिवशंकर हैं, उनसे नीचे के किसी को भोला मत कह देना।
बहुत मज़ा है इसमें। जिन्हें पता है कि ये क्या चल रहा है, लेकिन फिर भी, कोई रस नहीं आता। रस इसीलिए नहीं आता क्योंकि भीतर रस की गंगा बह रही है पहले ही। तुम ये दो चार बूँद दिखा कर हमें क्या ललचाओगे?
प्र: आचार्य जी, अभी आपने बोला कि हमारी वृत्ति, हमारे पैटर्न हैं, उसकी वजह से हम वृत्तियों के ग़ुलाम हैं। तो हम वो कैसे पहचानें और क्या हम इसमें कुछ कर सकते हैं?
आचार्य: दोनों ही तो कर रहे हैं आप। बंधक रहने का इंतज़ाम भी आप ही कर रहे हैं, और मुक्ति की प्रार्थना भी आप ही कर रहे हैं। अब आप बताइये आपको करना क्या है? दोनों आप करे जा रहे हैं, अब आप चुनाव करिए। अपनी दास्ताँ के सारे प्रबंध आपने करे। ख़ुद करे न? अपने-आप तो नहीं हो गए? आपके दस्तख़त के साथ हुए। और रोज़-रोज़ परमात्मा से गुज़ारिश भी आप ही करते हैं, क्या? कि मुक्ति दे दो। तो दोनों तो आप कर ही रहे हो। दो हो आप, अलग-अलग। एक वो जिसे क़ैद में बड़ा मज़ा है और दूसरा वो जिसे पंख फैला कर उड़ना है, आप दोनों हो। अब आप चुन लो कि इन दोनों में से मुझे क्या होना है, अतः क्या करना है।
हम इंसान नहीं हैं, हम गृहयुद्ध हैं। हमारा दायाँ पाँव हमारे बाएँ पाँव को लंगड़ी लगा रहा है। और हमारा दायाँ हाथ हमारे बाएँ हाथ को चिकोटी काट रहा है। तुम सोचो न, तुम चलो और ख़ुद को ही लंगड़ी मारो बार-बार। ऐसे हैं हम, अपने ही ख़िलाफ़ खड़े हैं। अब चुनिए, यही बचा है करने को।
प्र: पर वो चलना तो, आचार्य जी, हमारी अपनी वृत्तियों की वजह से ही तो नहीं हो पाता।
आचार्य: कुछ भी हो सकता है। चुनने में बड़ी गड़बड़ हो सकती है।
प्र: वो वृत्ति ही जब ख़राब है, तो चुनाव भी तो हमारे खराब ही होंगे?
आचार्य: ये अगर आपको याद रहे तो चुनाव सही हो जाएगा।
(श्रोतागण हँसते हैं)
जिसको ये याद रह गया उसका चुनाव ख़राब हो ही नहीं सकता। मेरी वृत्तियाँ बड़ी ख़राब हैं, और जो कुछ मैं वृत्तियों के वशीभूत हो कर के चुनता हूँ, वो बड़ा भारी पड़ता है। जिसको ये याद रह गया, वो तो बच गया। और जिसे अपने में बड़ा विश्वास है कि, "साहब हम तो चुन ले जाएँगे अपने हिसाब से!" तो वो फँस गया।
प्र: जो पहले ही चुन चुके हैं, उसको कैसे सुधार सकते हैं?
आचार्य: फ्रिज में बहुत सारी बोतलें रखी हैं, जिनकी एक्सपायरी डेट बीत गयी। वो गन्धा रही हैं, क्या करती हैं आप उनका? दूध का पैकेट ले कर आयीं थीं, और उस पर क्या लिखा था? "बेस्ट बिफोर नौ मार्च २०१८",आज रात बारह बजे के बाद क्या करेंगी फिर उसका?
तो फेंकना होगा न, ये थोड़े ही ना कहेंगी कि, "इसको चुना था मैंने कभी।" संसार में तो आप जो भी कुछ चुनेंगे, वो सावधिक होगा। उसकी एक मियाद, एक अवधि होगी। और वो अवधि पूरी हो जाए तो उसको विसर्जित करो भाई, जाने दो, उसे मुक्ति दो। जानते हो उस फ्रिज के भीतर क्या रखा है? उस फ्रिज के भीतर ‘हम’ रखे हैं। हम बहुत पुराने हैं। और अपने-आप को ही हम विसर्जित नहीं होने दे रहे।