प्रश्नकर्ता: जब तेज भूख महसूस होती है और खाना खा लेते हैं, तो भूख का जो विचार पहले बहुत सता रहा होता है, अब सताना बंद कर देता है। कुछ समय फिर शांति अनुभव होती है। क्या बात बस इतनी सी है,क्या भूख और भोजन की प्रक्रिया मन की व्याकुलता और फिर शांति की प्राप्ति का प्रतीक है?
आचार्य प्रशांत: है भी और नहीं भी है। इशारा,इशारा भर होता है, उससे ज़्यादा नहीं। भोजन करके तुम्हें जो शांति मिलती है, उस शांति में ही आने वाली व्याकुलता छुपी होती है। ये वो भोजन थोड़े ही है जो पेट में ठहरेगा, ये तो जाते ही नष्ट होना,पचना शुरू हो जाता है। और भोजन जैसे-जैसे नष्ट होता जा रहा है, भूख वैसे-वैसे उठती जा रही है। ये ऐसी शांति है जो अपने साथ अशांति लेकर के आयी है। ये ऐसा भोजन है जो अपने साथ भूख लेकर के आया है। पूरी प्रक्रिया ही ऐसी है न।
तुम भोजन इसीलिए कर ही नहीं रहे हो कि भोजन आखिरी हो। तुम भोजन इसीलिए कर ही नहीं रहे हो कि भोजन पेट में रच-बस जाए, स्थायी हो जाए। तुम भोजन कर ही इसीलिए रहे हो कि भोजन पच जाए,खत्म हो जाए। अब ये अज़ीब बात है, भोजन शांति का प्रतीक है और तुम भोजन को पचा जाना चाहते हो, तो तुम किसको पचा जाना चाहते हो? तो इस प्रक्रिया में ही शांति का अंत निहित है, अगर उसे आप शांति कहना चाहते हो तो। भूख और भोजन का जो उदाहरण लिया है, वो उदाहरण दुनिया के हर भोग्य पदार्थ पर लागू होता है। आप भोगते इसीलिए थोड़े ही हो कि भोगे जाने वाली वस्तु वैसी ही रह जाए जैसी वो भोगने से पहले थी। भोगने का तो अर्थ ही होता है कि जिसको भोगा, उसको नष्ट कर दिया,उसके चीथड़े कर दिये,उसको वैसा छोड़ा ही नहीं जैसा वो पहले था।
तुमने जिस भी वस्तु को, व्यक्ति को भोगा है, क्या भोगकर कभी भी वैसा ही छोड़ दिया है जैसा वो भोगने से पहले था? आकर्षित तुम किसकी ओर हो रहे थे? उसकी ओर जो वो भोगने से पहले था। ठीक? आकर्षित तुम हो रहे थे उसकी ओर जैसा वो भोगने से पहले था, पर भोगकर तुमने उसे बदल दिया। तो अब शांति तो मिलेगी नहीं।
सत्य अकेला ऐसा है जिसे बदला नहीं जा सकता, जिसे भोगा नहीं जा सकता, जिसमें तुम कोई बदलाव नहीं ला सकते। दुनिया की बाकी सारी वस्तुओं की और व्यक्तियों की और विचारों की मज़बूरी समझना,उन बेचारों की मज़बूरी ये है कि वो तुम्हारे पास आते हैं और पास आते ही तुम भी बदल जाते हो और वो भी बदल जाते हैं। रिश्ता बन जाता है न। एक स्त्री,एक पुरुष हैं और दूर-दूर हैं तो कुछ और हैं और जैसे ही पास आते हैं स्त्री के प्रभाव से पुरुष बदल गया और पुरुष के प्रभाव से स्त्री बदल गयी।
दो बच्चे खेल रहे हों,दूर-दूर हैं, अपना खेल रहे हैं लेकिन जैसे ही पास आये दोनों बदल गये। हमारे रिश्ते ही ऐसे हैं कि वो एक-दूसरे को बदल देते हैं। तो हमारी हालत ऐसी है कि जैसे अब ये चाय है। ये चाय मुझे बड़ी आकर्षक लगे और मैं इस चाय को उठाकर पीना चाहूँ और मैं हूँ बर्फ़ का पुतला। मैं हूँ बर्फ़ का पुतला और ये जो चाय है,ये उबल रही है, भाप दे रही है। ऐसे ही तो आकर्षण होता है।
द्वैत में आकर्षण विपरीत के प्रति ही तो होता है। जो तुम से विपरीत है उसी की तरफ़ खिंचते हो। अब मैं क्या हूँ? पुतला और ये क्या है? ( चाय के कप की ओर इशारा करते हुए ) खौलती चाय,अब ये आयी मेरे करीब आयी मेरे करीब,अब यहाँ तक आ गयी है, बताओ क्या हुआ? मेरा पिघलना शुरू हो गया और इसका ठंडा होना शुरू हो गया।
और अब देखो भोगते ही क्या होगा। भोगा (चाय की चुस्की लेकर) क्या हुआ? मैं वो नहीं रहा जो मैं था और ये वो नहीं रही जो ये थी। आकर्षित मुझे कौन कर रहा था? गर्म चाय। और मिली मुझे क्या? बर्फ़ीली चाय। मुझे तृप्ति मिलेगी कभी? मुझे किसने आकर्षित किया था? गर्म चाय ने। और मुझे मिली क्या? बर्फ़ीली चाय। मुझे तृप्ति मिलेगी कभी?
अब वही बात चाय की भी है। चाय को किसने आकर्षित करा था? इस बर्फीले मर्द ने। बर्फ़ीला मर्द है साहब पक्का,पिघलता ही नहीं। अब वो दूर से देख रही है तो पिघले कैसे? और गयी उसके पास तो पाया कि ये तो लिबलिबा है। चाय ने बर्फ़ को जहाँ-जहाँ स्पर्श करा, वहाँ बर्फ़ की मर्दानगी गयी,गा़यब,गल गयी। कह रही है, ‘दूर से ही तुम थे पक्के, पास से तो गुलगुले हो। हमें देखते नहीं हो कि बहना शुरू कर देते हो।’ अब बर्फ़ की यही मज़बूरी। ये चाय उसके पास आती नहीं है कि उसका बहना शुरू। और चाय कह रही है धत्त, अरे! बिना बहे रह जाओ तो तुममें आकर्षण कुछ। समझ में आ रही है मेरी बात?
संसार में तुम जिस भी चीज़ को शांति का,तृप्ति का साधन बनाओगे वो चीज़ बेचारी असफल हो जाएगी। मैं बेचारी कह रहा हूँ क्योंकि उसकी मज़बूरी है। तुम उसे छूकर उसे कुछ और कर देते हो। तुम उसे भोगकर के कुछ और कर देते हो। तो फिर कौन है जो तुम्हें सन्तुष्टि दे सकता है? सिर्फ़ वो जो तुम्हारे स्पर्श से कहीं आगे का हो। तुम्हारा स्पर्श उस पर कोई दाग ही न लगा पाये, जो अस्पर्श्य हो। ऐसे किसी को ही सत्य कहा गया है, परमात्मा कहा गया है। वो तुम्हारे काम का है क्योंकि तुम उस पर हावी नहीं हो सकते। वो तुम्हारे काम का है क्योंकि तुम उसे बदल नहीं सकते। और इसी कसौटी पर कसना किसी को भी जो दावा करता हो कि तुम्हारा हितैषी है।
तुम्हारे संसर्ग से जो परिवर्तित हो जाता हो,वो कभी तुम्हारे काम नहीं आएगा। और जो तुम्हारे संसर्ग के बावजू़द वही रह आता हो जो वो है, मात्र वही तुम्हारे काम आ सकता है। तुम्हारे सामने आते जिसमें बदलाव आ जाते हों, जान लेना कि ये तो खुद ही कमज़ोर है, मज़बूर है,मेरे क्या काम आएगा। जो कोई ऐसा हो कि अड़ा रहता हो, डटा रहता हो,अडिग, अकम्प, अपरिवर्तनीय वही है तुम्हारे काम का क्योंकि तुम्हें चाहिए ही वही।
भोग के लिए मात्र एक सम्यक् वस्तु है, उस वस्तु का नाम है परमात्मा। भोगना ही है तो उसको भोगो। तुम्हें चैन अगर आज तक अपने सभी भोगों में नहीं मिला तो इसीलिए नहीं मिला क्योंकि तुमने भोगने वाली चीज़ भोगी ही नहीं। भोगनेवाली एक ही चीज़ है उसको सत्य कहते हैं, उसको भोगो। उसके साथ मज़ा ये है कि तुम उसे भोगने जाओगे, वो भोगने वाले को ही लपेट लेगा।
अब अगर तुम हल्के आदमी होओगे तो तुम इस बात से डर के सत्य की ओर जाओगे ही नहीं और अगर तुम जिज्ञासु होओगे, पिपासु होओगे, मुमुक्षु होओगे तो तुम इसी बात से आकर्षित होकर सत्य की ओर जाओगे कि कोई तो मिला है ऐसा जो हमें अपने आप में पूरा समाविष्ट कर लेगा। कोई तो मिला है ऐसा कि जिसका बाहुपाश इतना मज़बूत होगा कि हम भरभराकर मिट जाएँगे, टूट जाएँगे, रेत हो जाएँगे, ढेर हो जाएँगे। अब ये तो तुम्हारे बाँकेपन पर है।
तुम डरे हुए आदमी हो तो मज़बूती की दिशा से उल्टा दौड़ोगे और तुममें ज़रा हिम्मत है,श्रद्धा है तो जिस दिशा तुम्हें दिखाई देगा कि मज़बूती है तुम उसी दिशा जाओगे। तय कर लो। मज़बूरी और मज़बूती दोनों कोई तथ्य नहीं होते। सत्य के प्रति तुम्हारी असहमति का नाम है मज़बूरी और सत्य के प्रति तुम्हारी सहमति का नाम है मज़बूती। अन्यथा कोई मज़बूरी,कोई मज़बूती होती नहीं। इसीलिए कह रहा हूँ,तुम तय करो क्योंकि सहमति-असहमति तुम्हारे हाथ में है। तुम तय करो तुम्हें क्या चाहिए।