
आचार्य प्रशांत: सबसे पहले तो सभी आयोजकों का हार्दिक धन्यवाद, इस आयोजन के लिए और इस पुरस्कार के लिए। और यहाँ उपस्थित सभी बंधुओं को भी नमस्कार। यह अवार्ड पर्यावरण के क्षेत्र में दिया जाता है।
मैं यहाँ तक अभी आ रहा था, पर्यावरण की जब बात होती है, तो हम बात करते हैं जंगलों की, नदियों की, हवा की, भूजल स्तर की, समुद्रों के स्तर की, पशुओं की प्रजातियों की — कितनी संख्या बची है जो बहुत ख़तरे में प्रजातियाँ हैं उनकी। कितने बाघ अभी बचे हुए हैं, हवा कितनी ज़हरीली हो गई है, नदियाँ कितनी दूषित हो गई हैं।
हम यह बात करते हैं, और यह बातें बाहरी तौर पर सूचना देने के लिए अच्छी होती हैं। यह जितने अभी हम आँकड़े कह रहे थे, यह अच्छे सूचकांक हैं, इंडिकेटर्स हैं। लेकिन क्या पर्यावरण को बचाने के लिए इन सूचकांकों पर काम करना पर्याप्त होगा? जो कुछ अभी छोटा समय, कुछ मिनट मेरे पास हैं, उनमें मैं आपसे कुछ सवाल पूछना चाहूँगा।
हम नदियों के दूषण की चिंता तो कर लेते हैं, नदी गंदी हो रही है। पर क्या हम यह पूछ रहे हैं कि हम कैसे हैं जो नदी को गंदा करते हैं? और
जब तक इंसान की भीतरी गंदगी की बात नहीं होगी, तब तक नदियों की गंदगी की बात करना, नदियों की सफ़ाई में उद्यत होना, सफल कैसे हो पाएगा?
हम बात करते हैं एयर क्वालिटी इंडेक्स की। उसमें कहीं भी ह्यूमन क्वालिटी की बात हम नहीं करना चाहते, जैसे कि एयर ने अपनी क्वालिटी ख़ुद ख़राब कर ली हो, जैसे कि हवा में कोई दोष आ गया हो। वह दोष हवा में है या इंसान में है? सारी बातें हम बाहर की दिशा में करना चाहते हैं।
हम उदाहरण के लिए समुद्री स्तर की बात करेंगे, कि समुद्री जो जल स्तर है, वह बढ़ता जा रहा है क्लाइमेट चेंज की वजह से। या जो ग्राउंड वाटर टेबल है, भूजल स्तर, हम उसकी बात करेंगे। हम इन स्तरों की बात कर लेते हैं, पर हम अपने आंतरिक स्तर की बात नहीं करते। हमारा कैसा स्तर है कि यह सारी आपदाएँ हमने इस पृथ्वी पर ला छोड़ी हैं? क्योंकि अभी जितनी भी एनवायरमेंटल डैमेज है, जिसमें विशेषत: क्लाइमेट क्राइसिस का नाम है, वह एंथ्रोपोजेनिक है। वह मनुष्य द्वारा बरपाया गया कहर है।
अब पर्यावरण की बात करना बिना इंसान की बात किए बड़ा अजीब है। हम बाघों की गिनती कर रहे हैं, “कितने बाघ बचे हैं।” हमारे भीतर कितनी हिंसा बची है, हम उसकी गिनती नहीं कर रहे। तो बाघों को गिनने से अपने आप में कोई लाभ नहीं हो जाएगा। मैंने कहा, उससे सूचना तो मिल सकती है, वो लक्षण है एक प्रकार का पर उससे लाभ नहीं होगा।
हम एक्सट्रीम वेदर इवेंट्स तो गिन लेते हैं, कि भीषण जो मौसमी घटनाएँ हैं। लेकिन हमारे भीतर जो अहंकार का एक्सट्रीमिज़्म है, उसको हम नहीं गिनना चाहते। जो भीतरी बिंदु है, जहाँ से सारा बाहरी विनाश हो रहा है, हम उसकी ओर देखना ही नहीं चाहते हैं। उसकी ओर बिल्कुल अंधे होकर रहना चाहते हैं। ऐसे में पर्यावरण की सुरक्षा बड़ा मुश्किल पड़ेगा। और सच पूछिए तो हमें पर्यावरण की सुरक्षा करनी भी नहीं है। पर्यावरण की सुरक्षा भी हम बस इसीलिए करना चाहते हैं ताकि हमारे स्वार्थों पर आँच न आए।
अगर आज मैं आपको उदाहरण दे रहा हूँ, हमें एक दूसरी वैकल्पिक, अल्टरनेट पृथ्वी दे दी जाए, कहा जाए साहब, यह वाला ग्रह तो आपका अब बिल्कुल नष्ट-भ्रष्ट हो गया है। एक दूसरा ग्रह उपस्थित है, लगभग वैसे जैसे अब हम मार्स पर जाने की बात कर रहे हैं। एक दूसरा ग्रह उपस्थित है, तो हम पर्यावरण की चिंता बिल्कुल छोड़ देंगे। हम कहेंगे, “भाड़ में जाए पृथ्वी, भाड़ में जाए प्रजातियाँ, पशु, पक्षी, जंगल, पहाड़, नदियाँ, हमें करना क्या है? हम एक दूसरी जगह उपस्थित हैं।”
आज हम पर्यावरण की बात करते भी हैं, तो बस अपने स्वार्थ की ख़ातिर। भाई मौसम गर्म हो जाएगा तो हमारी सुविधा पर दिक़्क़त आएगी, समुद्री जल स्तर बढ़ जाएगा तो हमारे शहर डूब जाएँगे। एयर क्वालिटी ख़राब होती है तो हमारे फेफड़े ख़राब होते हैं। हम यह नहीं समझते कि पर्यावरण की चिंता जब तक हम अपने स्वार्थ के लिए कर रहे हैं, हम उसी चीज़ को बढ़ावा दे रहे हैं जिसने पर्यावरण को सबसे पहले तबाह किया।
मनुष्य के भीतर का अंधकार और अहंकार यही तो पर्यावरण की तबाही का कारण है न।
और आप पर्यावरण को बचाना भी चाहते हो अपने स्वार्थ की ख़ातिर। लोग कहते हैं, “पर्यावरण को बचाओ ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियाँ बर्बाद न हो जाएँ, ताकि हमारे आने वाली पीढ़ियों को कम कष्ट हो।” माने अगर पृथ्वी को बचाना भी है, तो बस अपनी प्रजाति की ख़ातिर। और अपनी प्रजाति में भी खासकर बस अपनी पीढ़ी की ख़ातिर। और यह बातें बड़े नैतिक बल के साथ अक्सर कही जाती हैं, और बड़े मंचों से कही जाती हैं, कि “सेव द प्लेनेट फॉर द फ्यूचर जनरेशंस।” साहब, फ्यूचर जनरेशंस किसकी? उन सैकड़ों प्रजातियों की, जो रोज़ सदा के लिए विलुप्त होती जा रही हैं हमारे हाथों से?
नहीं, हमें बस अपनी ओर देखना है। और यह अपनी ओर देखना है माने अपनी ओर ध्यान से नहीं देखना, अपनी सच्चाई की ओर नहीं देखना। अपनी ओर देखने का मतलब है, हमें बस अपने स्वार्थों की रक्षा करनी है। और जब तक एनवायरमेंटल एक्शन की सुई इधर को नहीं मुड़ती, इंसान अपने भीतर की ओर देखना शुरू नहीं कर देता, हम बाहर जो कुछ कर रहे हैं, उससे कोई लाभ होने वाला नहीं है। नहीं है।
2019 में, अठावन गीगा टन जो वैश्विक उत्सर्जन था, कार्बन डाइऑक्साइड इक्विवेलेंट, हमने कहा था, हमें इसे कम करना है। और कम भी इतना नहीं कर देना कि कार्बन न्यूट्रल ही हो जाएँ हम, कम भी बस कह रहे हैं, अधिक से अधिक इतना कर पाएँ कि जो तापमान वृद्धि होती है, उसको हम 1.5 डिग्री तक सीमित रख पाएँ। और उतना भी कम करने के लिए हमने कहा था कि जो प्रतिवर्ष अतिरिक्त और ज़्यादा पीपीएम की बात नहीं कर रहे, जो पहले ही वातावरण में मौजूद है, उसमें जो और जोड़ रहे हैं, उसकी बात कर रहे हैं। हमने कहा था, प्रतिवर्ष जो जोड़ते हो, वो अठावन गीगा टन से घटा के तेतीस गीगा टन कर दो। ये 2015 का पेरिस एग्रीमेंट है।
और आज हम 2025 में खड़े हैं। दस साल बाद, वो अठावन का अठावन है, शायद आधा गीगा टन बढ़ गया है। कम होना छोड़ दीजिए, नहीं होगा कम, क्योंकि हम लगातार बाहर की ओर देख रहे हैं। हम इलेक्ट्रिक व्हीकल ले आ देना चाहते हैं, हम ग्रीन टेक्नोलॉजीज़ लेना चाहते हैं। ये कर दो, वो कर दो।
“अरे, प्लास्टिक का बड़ा कचरा फैल रहा है, द ओशंस आर गेटिंग चोक्ड।” कचरा बाहर नहीं फैल रहा है, कचरा हमारे भीतर है। और जब तक इंसान के भीतर के कचरे को साफ़ नहीं करोगे, बाहर कचरे को रोकने का कोई तरीका नहीं है।
पृथ्वी नहीं गर्म हो रही है, हम भीतर से तप रहे हैं, अपनी कामनाओं में। आग लगी हुई है हमारे भीतर, और भोग लूँ और भोग लूँ, मुझे और कंज़म्पशन करना है। ये जो हमारे भीतर आग लगी हुई है, ये ग्लोबल वार्मिंग के रूप में हमें दिखाई दे रही है।
आप जितने भी बहुत ही रोचक एक्सरसाइज़ हैं, आप अपने लिए कर सकते हैं। जितने भी बाहर आपको विनाश के मंज़र दिखाई दे रहे हैं, आपको उनका सबका एक समानांतर इक्विवेलेंट, एक पैरेलल इक्विवेलेंट इंसान के भीतर मिल जाएगा। नदी गंदी है क्योंकि हमने अपने भीतरी प्राकृतिक प्रवाह को गंदा कर दिया है। जंगल कट रहे हैं क्योंकि हमने अपनी इंसानियत काट दी है। और यह कोई महज़ जुबला, मुहावरा या रेटोरिक नहीं है, ये सच्चाई है भाई।
प्रकृति अपना नाश स्वयं थोड़ी कर रही है, सिर्फ़ एक प्रजाति है इस पूरे ग्रह पर जो पूरी पृथ्वी को खाए जा रही है और उसका नाम है इंसानी प्रजाति। तो जो कुछ भी हो रहा है, उसके ज़िम्मेदार हम हैं, और हम अपनी ओर ही नहीं देखना चाहते क्योंकि हम सब कुछ बदलने को तैयार हैं, स्वयं को बदलने को नहीं तैयार हैं।
हम कह रहे हैं कि कोल-फ़ायर्ड प्लांट्स नहीं होने चाहिए, साहब सोलर एनर्जी लेकर आइए, विंड एनर्जी लेकर आइए। वो एनर्जी हमें किस लिए चाहिए? यह हम पूछने को तैयार नहीं हैं, वो एनर्जी हमें बस इसलिए चाहिए कि हम और ज़्यादा कंज़म्प्शन कर सकें। जो बदलना है बाहर बदल लो, अपने भीतर कुछ मत बदलना।
हमारी किताब है, उसका नाम ही हमने दिया है, द क्लाइमेट विदइन। दिखाई आपको बाहर दे रहा है क्योंकि हमारी सारी इंद्रियों की दिशा बाहर की है। आँखें बाहर को देखती हैं, कान बाहर को सुनते हैं, तो इसीलिए हमें ऐसा लग रहा है कि समस्या भी बाहर ही है। समस्या बाहर नहीं है, समस्या भीतर है, और जब तक समस्या को भीतर ही संबोधित नहीं किया जाएगा, कोई समाधान नहीं आने वाला।
लेकिन मैंने यह भी देखा है कि पर्यावरणीय हलकों में अगर भीतर की बात करो तो लोगों को बहुत बुरा लग जाता है। मैं आशा करता हूँ कि आज यहाँ पर हम में से वैसे लोग नहीं हैं, वैसे होना चाहिए, क्योंकि सारी बात मैं उन्हीं से कह रहा हूँ। वो सारा काम बाहर की दिशा में करते हैं, वो गिनेंगे कि कोरल रीफ्स की ब्लीचिंग का स्तर कितना बढ़ गया। वे ब्लीचिंग आ कहाँ से रही है, इसकी बात नहीं करना चाहते। अगर कारण बताएँगे तो बाहरी कारण बताएँगे। भीतरी कारण को तो देखना ही नहीं चाहते क्योंकि भीतर अहंकार बैठा है, भीतर स्वार्थ बैठे हैं, और वो चिल्ला के कह रहे हैं, “पूरी पृथ्वी खा जाऊँगा, मैं नहीं बदलूँगा।” बात समझ में आ रही है? हम बहुत गलत दिशा में समाधान खोज रहे हैं।
देखिए, समाधान वहीं मिल सकता है न जहाँ समस्या है। समस्या वहाँ नहीं है, जंगल में समस्या नहीं है, हिमनद में और पहाड़ों के ऊपर समस्या नहीं है। लैंडस्लाइड नहीं हो रही है, हम भीतरी तौर पर फ्री-स्लाइड में हैं, गिरते ही जा रहे हैं, गिरते ही जा रहे हैं।
सारी यह जो पृथ्वी है, यह हमारे ही भीतर है। और चूँकि भीतर हमने उसकी उपेक्षा कर रखी है, अपमान कर रखा है, इसीलिए बाहर आप इतना नाश देख रहे हो। जब भीतर आप में अपने प्रति समझदारी आ जाती है, तो पर्यावरण संरक्षण कोई दायित्व या फर्ज़-कर्तव्य नहीं रह जाता, वह आपके सहज प्रेम की अभिव्यक्ति बन जाता है। आपको पर्यावरण की रक्षा करनी नहीं पड़ती, रक्षा स्वतः हो जाती है। लेकिन उसके लिए इंसान को ख़ुद से जुड़ना पड़ेगा, अपने आप से पूछना पड़ेगा — “मैं ज़िंदगी में यह सब जो करना चाहता हूँ, क्यों?”
यह जो सारी मेरी भावनाएँ हैं, मैंने कहा था एक बार कि — “योर इमोशंस आर कार्बन।” आप देखिएगा, आप जब भी बहुत खुश हो जाते हो या दुखी हो जाते हो, कुछ भी आपमें भावनात्मक उद्वेग आता है, आप कार्बन इमिशन अपना बढ़ा देते हो। इंसान जब तक ख़ुद को नहीं देखेगा, “मेरी भावनाएँ कहाँ से आ रही हैं? मेरी कामनाएँ कहाँ से आ रही हैं? किसने मुझे कह दिया कि गुड लाइफ़ का मतलब कंज़म्प्शन होता है? ये सब मुझे सीखा किसने दिया?"
जब तक हम अपने आप को देखेंगे नहीं और हम सोचते रहेंगे, “ऐसा तो करना ही है, ऐसा तो करना ही है। एक बड़ी शादी करनी है, उसके बाद बाहर जाकर एक डेस्टिनेशन पर इतना पैसा तो फूँकना ही है, छुट्टियाँ आ गई हैं तो पहाड़ों में जाकर गंदा और बर्बाद तो करना ही है, यही तो करना होता है, इसी का नाम तो खुशी है।” ज़िंदगी में सफल उसी को तो मानना है, जिसका कार्बन फुटप्रिंट इतना बड़ा हो जाए। और हमारे जितने सेलिब्रिटीज़ हैं, उनसे कभी हमें पूछना भी नहीं है, अपना कार्बन फुटप्रिंट दिखाओ। तुम कैसे सेलिब्रिटी? तुम आदर्श कैसे हो सकते हो, अगर तुम ख़ुद ही इस पृथ्वी को बर्बाद करने को तैयार हो?
ये अब आम जानकारी की बात है कि जो पृथ्वी के एक प्रतिशत या पाँच प्रतिशत सबसे अमीर लोग हैं, पर्यावरण को नष्ट करने में उन्हीं का पचास प्रतिशत योगदान है। ये तो आम जानकारी की बात है और ये बाहरी बात है।
अब मैं भीतरी बात पर आता हूँ, यही जो एक प्रतिशत, पाँच प्रतिशत लोग हैं, हम में से हर आम आदमी उनके जैसा ही बन जाना चाहता है। और जब तक हम उनके जैसा बनना चाहते हैं, तब तक हम उनकी इज़्ज़त कर रहे हैं। जब तक हम उन्हें आदर्श मान रहे हैं, जिन्होंने इस पृथ्वी को बर्बाद कर रखा है, बताइए, पर्यावरण की रक्षा कैसे हो जाएगी?
पर हम उनके जैसा क्यों बन जाना चाहते हैं? क्योंकि हम उन्हें बहुत भोग करते देखते हैं। हम देखते हैं कि वो क्या ऐश काट रहा है, और हम अपने आप से पूछते भी नहीं कि ये ऐश का सिद्धांत हमें दे किसने दिया। हमें नहीं पता कि एक सार्थक जीवन क्या होता है, तो हमने सार्थक जीवन का मतलब ही लगा लिया है, जलाओ, काटो, धुआँ उड़ाओ और नष्ट कर दो।
पर्यावरण की रक्षा, पर्यावरण को देखने से नहीं हो पाएगी। पर्यावरण की अगर रक्षा करनी है, तो अंतःकरण को देखना पड़ेगा। और जब तक पर्यावरण को अंतःकरण से जोड़कर नहीं देखा जाता, पर्यावरण को हम बचा नहीं पाएँगे।
मेरी आप सबसे विनती है, ये जो बाहर को जाती हुई नज़र है, जो कहती है कि पेड़ों की गिनती कर लो, ज़मीन देख लो, मिट्टी की गुणवत्ता का स्तर नाप ल। अपनी गुणवत्ता का स्तर नापो, अपनी गुणवत्ता का, और फिर जो बाहरी काम है, वो आप पाएँगे कि बहुत आसान हो गया है। फिर बाहर पर्यावरण को बचाने के लिए बहुत मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। और जब तक आपने भीतर अपने आप को ठीक नहीं किया, बाहर कितने भी हाथ-पाँव मारते रहो, कोई नतीजा नहीं आएगा। कोई नतीजा आ भी नहीं रहा है।
हम जितना सोचते हैं, हम उससे ज़्यादा निकट खड़े हैं विनाश के। आप गोष्ठियाँ करते रहिए, आप यूएन में जाकर मिलते रहिए, आप हर साल COP की मीटिंग करते रहिए, आप सबसे मिल लेते हो, सबसे मीटिंग कर लेते हो, कभी ख़ुद से मीटिंग करते हो क्या? हमें नहीं ज़रूरत है कि हम जाकर बहुत सारे लोगों से मिले, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर। हमें ज़रूरत है सर्वप्रथम कि हम स्वयं से मिलें और पूछें कि — जो ज़िंदगी हम जी रहे हैं, वैसी ज़िंदगी जीनी ज़रूरी है?
पर सबसे मिलने को हम तैयार हैं, सारे नियम-कायदे बनाने को तैयार हैं, स्वयं से मिलने को तैयार नहीं हैं। हमें कहा जाता है, देखो ये सब जानवर हैं न, बच्चों को आजकल सिखाया जाता है, ये जानवर हैं, जानवरों से प्रेम करो। वो जानवरों से क्या प्रेम करेगा, अगर हमारी पूरी दिनचर्या, जो हमको सामाजिक संस्कार मिले हुए हैं, वही हिंसा पर आधारित है तो? पर वह हिंसा अक्सर सूक्ष्म होती है, इसलिए दिखाई नहीं देती।
उदाहरण के लिए, हम बच्चों को कहते हैं, जानवरों से प्रेम करो। लेकिन क्लास में कॉम्पिटिटिव रहो, प्रतिस्पर्धा करो, और ज़िंदगी में आगे निकलकर दिखाओ। एंबिशियस रहो, महत्वाकांक्षी रहो। क्या प्रेम और महत्वाकांक्षा एक साथ चल सकते हैं? जहाँ आपको कहा जा रहा है कि किसी भी कीमत पर दुनिया में आगे निकलकर दिखाना है, आपको एक कासेप्ट, एक सिद्धांत दे दिया गया है सक्सेस का। जब तक सक्सेस का सिद्धांत वैसा ही रहेगा, जैसा है, पर्यावरण को नहीं बचाया जा सकता। क्योंकि हमारी सारी सक्सेस पर्यावरण की कीमत पर ही आती है, दुनिया को जला कर ही आती है।
पैसा कैसे बनाता है? कोई भी व्यापार पैसा कैसे बनाता है? उसको रिसोर्सेज़ चाहिए, तभी तो कुछ मैन्युफैक्चर करेगा। वो रिसोर्सेज़ कहाँ से आते हैं? वो पृथ्वी का दोहन करके ही तो आएँगे, कहीं बाहर से थोड़ी आएँगे। अब हर आदमी को पैसा चाहिए, पैसा चाहिए तो पृथ्वी का दोहन करो। पृथ्वी का ही नहीं दोहन करो, अगर मुनाफ़ा बढ़ाना है, तो तुम्हारे पास जो कर्मचारी हैं, तुम्हारे ग्राहक हैं, उनका भी दोहन करो। लेकिन यही हमारी सफलता की परिभाषा है, जो हमें दे दी गई है। दुनिया भर की जितनी समस्याएँ हैं, मात्र पर्यावरण की ही नहीं, वह सब की सब एक ही केंद्र से निकल रही हैं। और वह केंद्र यहाँ बैठा है — इंसान के दिल में।
इंसान के दिल की जब तक सफ़ाई नहीं होगी, भूल जाइए कि आप गंगा की सफ़ाई कर सकते हैं।
गंगा की पवित्रता को अगर वापस लाना है, तो इंसान की पवित्रता को वापस लाना होगा। नहीं तो बस ज़ुमले। इंसान पर नज़र वापस लौटाइए, और यही काम वास्तविक अध्यात्म का है। इसलिए यह जो पर्यावरण का संकट है, इसका उत्तर वास्तविक अध्यात्म में है। आपकी संस्था यही प्रयास कर रही है।
आपको साधुवाद, कि आपने हमारे प्रयासों को आज सम्मान दिया। इस मंच से अभी इतना ही कहना चाहूँगा, बाक़ी तो लगातार मैं कहता ही रहता हूँ। आपका स्वागत है कि सुने, जुड़े, साथ दें।
धन्यवाद।