भीतर तो मात्र अंधेरा है || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2020)

Acharya Prashant

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भीतर तो मात्र अंधेरा है || आचार्य प्रशांत, वेदांत पर (2020)

आचार्य प्रशांत: जो इतिहास में पहला था और जो प्रकाश की किरण आपके जीवन में पहली है, वो दोनों ही आपसे नहीं आनी है। आप तो बस इतना कर सकते हो कि जब प्रकाश की किरण आने का समय हो उस समय सोये मत रहना। आप प्रकाश ला तो नहीं सकते, हाँ आये हुए प्रकाश से अपनेआप को वंचित ज़रूर रख सकते हो।

अहंकार की दुर्बलता समझिए। सूरज उगा सकते हैं आप? सूरज उगा सकते हैं? हाँ, इतना ज़रूर आपके अधिकार में है कि सूरज उग आया है, आप तब भी सो रहे हैं। रोशनी लाना तो आपके अधिकार में नहीं है, पर आयी हुई रोशनी से भी वंचित रह जाना आपके अधिकार में है।

तो हम ऐसे ही हैं। हम बहुत कुछ कर सकते हैं, हम बहुत सूरमा लोग हैं। पर हम जो कुछ भी कर सकते हैं, उल्टी दिशा में ही कर सकते हैं। इसीलिए अध्यात्म आपसे कहता है कि कुछ नया करने की मत सोचो, पहले तो ये देखो कि तुम जो करे जा रहे हो, वो क्या है? क्योंकि रोशनी आपकी ज़िन्दगी में अगर नहीं है, तो इसलिए नहीं कि वो अप्रकट है या ग़ायब है, क्योंकि सूरज को आपसे कोई रंजिश है। रोशनी अगर आपकी ज़िंदगी में नहीं है तो वो आपकी किसी करतूत का नतीजा है।

मत पूछो कैसे लाएँ रोशनी अपने जीवन में। पहले बताओ ऐसी करतूत क्या कर रहे हो कि आयी हुई रोशनी भी तुम्हें प्रकाशित नहीं कर पा रही?

एक-एक ऋचा सम्बोधित किसको है? अहंकार को। उसके अलावा कोई है नहीं जो परेशान हो, उसके अलावा है नहीं कोई जिसे उद्बोधन की आवश्यकता हो। उसके अलावा किससे बात की जाएगी? तो ये एक-एक ऋचा, बीमारी को काटने वाले सिद्धान्त की तरह है। यूँही कोई बात नहीं बोल दी गयी, इन बातों का सम्बन्ध सत्य से कम और स्वास्थ्य से ज़्यादा है — बीमारी को काटना है, मन की बीमारी को। ऋचाओं में व्याप्त मर्म को आप अगर सत्य कहना चाहते हैं तो आप कोई बहुत सटीक बात नहीं कह रहे हैं, क्योंकि सत्य तो शब्दों में वर्णित किया जा नहीं सकता, असत्य को ज़रूर शब्दों से काटा जा सकता है। या कम-से-कम असत्य को काटने की दिशा और प्रेरणा दी जा सकती है शब्दों से, इतना काम करने का अधिकार रखते हैं शब्द।

तो जो भी श्लोक आप पढ़ें, चाहे श्लोक हो, चाहे वचन हो, दोहा हो, चौपाई हो, उसको ऐसे ही देखिएगा — किस झूठ को काटा जा रहा है। ये नहीं देखना है कि इसमें कौनसा सच बताया जा रहा है।

ये बात याद रखेंगे? ये पूछना है अपनेआप से कि इसमें कौनसा झूठ काटा जा रहा है? अगर आप इसको (फ़ुटनोट में उद्धृत श्लोक के सन्दर्भ में) ऐसे देखेंगे कि परमात्मा ने पहले ऋषि को, कपिल मुनि को पैदा किया था। तो आपको बहुत मूल्य मिल ही नहीं रहा इस श्लोक से, क्योंकि ये सूचना आपके किस काम की? कि परमात्मा ने ही कपिल मुनि को पैदा किया, फिर परमात्मा ने ही उनमें बोध जाग्रत किया। ये क्या कहानी बना ली।

किस चीज़ को नकारा जा रहा है यहाँ पर, जब कहा जा रहा है कि वही जो परमतत्व है, उसी से पहले ऋषि को बोध प्राप्त हुआ। तो किस बात को नकारा जा रहा है? इस श्लोक के अंश पर विचार करके बताएँ कि कौनसी बात नकारने के लिए ये श्लोक कहा गया? वो बात ये थी कि विचार के द्वारा कोई ऋषित्व तक, सन्तत्व तक, बोध तक, बुद्धत्व तक पहुँच सकता है। अहंकार का दावा यही है। अहंकार क्या कहता है? मैं बैठे-बैठे, मैं विचार करके, वैसा ही हो जाऊँगा जैसे ऋषि हुए थे। मैं यात्रा कर-करके, वहाँ पहुँच जाऊँगा जहाँ ऋषि पहुँचे हुए हैं।

तो उस बात को काटने के लिए यहाँ ऋषि कह रहे हैं, नहीं, तुम यात्रा करके अगर कहीं पहुँच भी गये तो बेटा तुम्हीं तो पहुँच गये, और तुम तो बड़े बीमार हो। तुम कहीं भी पहुँच जाओ, तुम स्वास्थ्य कैसे हो जाओगे। स्वस्थ नहीं, स्वास्थ्य कैसे हो जाओगे तुम? तुम तो स्वस्थ तक नहीं हो, तुम तो बीमार हो। बोध तो स्वास्थ्य का नाम है।

हम ऐसे ही सोचते हैं, हम कहते हैं कि हम कुछ ऐसा करेंगे कि उसको पा लेंगे। अध्यात्म में इस तरह के जुमले खूब सुने हैं न, ‘सच की खोज’, ‘मेरी जागृति’, 'मेरा एनलाइटनमेंट (प्रबोधन)’। अरे जब तक आप खोज ही रहे हैं, खोजी मौजूद है, खोजने वाला 'मैं' मौजूद है, यात्रा करने वाला यात्री मौजूद है, तब तक तो सारी बीमारी ही मौजूद है न।

तो ऋषि यहाँ पर कह रहे हैं शिष्य से, ‘बेटा, तुमसे न हो पाएगा।’ यही याद रखना है। वो करो जो तुमसे हो सकता है। उसकी चर्चा भी मत करो जो तुमसे हो ही नहीं सकता। और जो तुमसे नहीं हो सकता, अगर मन बहुत पूछे कि वो फिर कौन करता है, तो फिर बोल दो 'परमतत्व'। तो 'परमतत्व' कुछ है नहीं, मन बस जब कोई नाजायज़, अवैध सवाल करता है, तो मन को चुप करने के लिए एक शब्द है, 'आत्मा', 'सत्य', 'परमतत्व', 'परमात्मा', जो भी बोलना है बोल दो उसको चुप करने के लिए।

वो बार-बार पूछेगा, तुमने नहीं किया तो किसने किया, हमने नहीं किया तो किसने किया? हो तो गया है, ये जादू है, हो गया है। अब मन ने तो हमेशा यही देखा है कि जब भी कुछ होता है तो उसके पीछे कोई करने वाला होता है। तो फिर वो पूछता है, किसने किया? नासमझ है। तो उसको फिर क्या झुनझुना देना होता है? कुछ नाम दे देना होता है। अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग नाम दे दिये हैं। पर नाम देने में कोई उपियोगिता नहीं है। उपियोगिता ये जानने में है कि तुमने नहीं किया। तुम ज़रा अपने आसन से नीचे उतरो, अहंकार छोड़ो। तुमने नहीं किया, ये जानना ज़रूरी है। किसने किया, ये जानना बेकार की बात है। तुमने नहीं किया।

इसका क्या मतलब है, हमें कुछ नहीं करना है? हमें वो करना है जो हम कर सकते हैं, हमें क्या करना है? हमें ये करना है कि वो जो करते ही रहते हैं, उस पर ग़ौर करना है। बात स्पष्ट हो रही है कुछ? कुछ नया नहीं करना है। हिमालय नहीं फाँद जाना है। हिमालय फाँद भी जाओ तो भी तारों तक थोड़े ही पहुँच जाओगे, या पहुँच जाओगे?

ये देखो कि आजन्म करते क्या रहे हो, प्रतिदिन क्या करते हो उस पर विचार करो, उसको साफ़-साफ़ देख लो। इतना ही हमारे अधिकार में है, इसी की उपयोगिता है।

मेरे लिए बड़े-से-बड़ा अचम्भा होता है जब मैं देखता हूँ किसी की आत्मछवि उसके दैनिक क्रिया-कलापों से बिलकुल मेल नहीं खा रही, बिलकुल हटकर के है। और इससे बड़ा अजूबा हो नहीं सकता। दिनभर गड़बड़ियाँ, दिनभर चूकें, दिनभर प्रमाद, दिनभर आलस, और उसके बाद भी साहब को ग़ुमान ये है कि हम कुछ हैं। ये कैसे कर ले जाते हो?

तुम्हारी आत्मछवि, माने सेल्फ़ कॉन्सेप्ट आता कहाँ से है? किस सपने में उतरता है? ईमानदारी की बात तो ये है न कि मैं अपनेआप को वैसा ही जानूँगा जैसा जीवन मुझे प्रतिदिन प्रमाण देता है। बार-बार ठोकरें खाकर गिर रहे हो। घंटे के हिसाब से दर्जन बेवकूफ़ियाँ कर रहे हो। और उसके बाद भी अपनेआप को ऐसे कह रहे हो कि साहब देखिए हम तो...।

कैसे? बट हाओ (लेकिन कैसे)?

ऋषि यही कह रहे हैं, उपनिषद् बस इतना ही समझा रहे हैं, कि बेटा तुम ग़लतफ़हमी में हो अपने बारे में, तुम वो हो ही नहीं जो तुम अपने बारे में सोचते हो। यही नहीं है, तुम अपने बारे में ऊँचा सोचते हो, तुम नीचे हो। तुम बहुत नीचा भी अपने बारे में सोच लो तो भी तुम वो सोच नहीं पाओगे अपने बारे में जो तुम वास्तव में हो। तो बात ऊँचा या नीचा सोचने की भी कम है, बात सोचने की ज़्यादा है। तुम्हारी सोच तुम्हें वहाँ तक नहीं ले जा पाएगी, तुम्हारा कर्म तुम्हें वहाँ तक नहीं ले जा पाएगा।

बड़े प्यारे तरीके से कहते हैं। कहते हैं:

आँखें जाती हैं उस जगह को खोजने, उन्हें कुछ दिखाई नहीं देता। ज़बान चाहती है उस जगह के बारे में बोलना, उसको शब्द नहीं मिलते। मन जाता है उस जगह की खोज में, कल्पना में, वापस लौट आता है।

ले-देकर बात बस यही है, तुमसे नहीं हो पाएगा। तुम्हारे बस की नहीं है, तुम्हारे पास वो उपकरण ही नहीं है। तुम ग़लत जगह अपनी ऊर्जा लगा रहे हो। तुम सही जगह ऊर्जा लगाओ न। तुम्हारे पास बहुत बड़ी लड़ाई है लड़ने को, पर तुम काल्पनिक युद्धों में व्यस्त हो। सही लड़ाई को तुमने पीठ दिखा रखी है। दिनभर जूझ रहे हो पर व्यर्थ ही है, ऊर्जा भी ज़ाया कर रहे हो, संग्राम में भी हो, पर उससे कुछ मिलना नहीं है। इसका मतलब ये नहीं है कि शान्त हो जाओ, चुपचाप पड़ जाओ, कहीं उलझो नहीं। उलझने के लिए तो बहुत बड़ी चुनौती तैयार है पर तुम उस चुनौती के लिए तैयार नहीं। समझ में आ रही है बात?

उपनिषदों की ऋचाओं को ऐसे नहीं देखना है कि कहीं से परमसत्य के फूल बरस पड़े। ये बातें बड़ी तार्किक हैं। बड़ी गणितीय हैं। यूँही किसी ने आँख बन्द करके कुछ बोल नहीं दिया। ऋषि हैं, सामने शिष्य बैठे हैं, शिष्य का मुँह देख कर बात बोली जा रही है। शिष्य की आँखों में झाँक कर बात बोली जा रही है।

हमसे कहा जा रहा है, हमारे अहंकार को सम्बोधित किया जा रहा है, अहंकार को बचा मत ले जाना। फिर कहता हूँ, अपनेआप से पूछा करिए, ‘मेरे भीतर के कौनसे जाले को काटने के लिए इस ऋचा में झाड़ू मारा गया है?’

और आप ऋचा को समझे या नहीं समझे इसका पैमाना यही है कि आप ये समझे या नहीं समझे कि आपके भीतर की कौनसी बात को काटने के लिए रची गयी ऋचा।

आपको ऋचा का अर्थ बिलकुल समझ में आ गया, रट ही लिया। अर्थ भी रट लिया, ऋचा भी रट ली, बहुत लोग इसी में दक्ष होते हैं। उनका काम होता है संस्कृत रटना, वो रट के घूम रहे हैं। बस ये सवाल पूछो उनसे, ‘कौनसे झूठ को काटने के लिए ये बात बोली गयी है?’ अगर ये पता है तो सब पता है, ये नहीं पता तो बेकार।

अगर कहीं कोई झूठ नहीं है तो ऋषियों को बोलने की कोई ज़रूरत नहीं है। वो तो अपने मौन में ही आनन्दित हैं, वो काहे को बोलेंगे। शब्द व्यर्थ की बात हैं, उन्हें बोलना पड़ता है क्योंकि उनसे झूठ बोला गया है। वो झूठ कहाँ है? कभी शिष्यों के प्रश्नों में, कभी शिष्यों की आँखो में, कभी शिष्यों के चेहरे पर। चूँकि उनसे झूठ बोला गया, किनसे? ऋषियों से। इसीलिए उस झूठ को काटने के लिए उन्होंने फिर ऋचा को बोला। अन्यथा कुछ नहीं बोलते। उनके सामने कोई सच्चा आदमी बैठ जाए। बस मौन से मौन मिलता रहेगा, शब्दों की कोई ज़रूरत नहीं। स्पष्ट हो रही है बात?

(श्लोक का अनुवाद पढ़ते हैं) ‘वो प्रत्येक योनि का अधिष्ठाता है, वो सबको — माने सब लोगों को, प्रजातियों को, योनियों को — भिन्न रूप प्रदान करता है।’

वो कुछ नहीं करता। आप बस ये समझ लो कि आप नहीं करते। क्योंकि हमारा ग़ुमान क्या है? हम करते हैं। नहीं, आप नहीं करते। और अगर आप इतने से ही सन्तुष्ट हो जाओ कि आप नहीं करते तो ये कहने की कोई ज़रूरत भी नहीं है कि परमात्मा करता है। अगर आपको कह दिया जाए आप नहीं करते, और आप इतने से मान जाओ, मौन हो जाओ, तो कोई ज़रूरत नहीं है ये कहने की कि कोई परमात्मा करता है। पर हम इतने से मानते नहीं, हमसे जब कहा जाता है आप नहीं करते तो तत्काल हम प्रतिप्रश्न क्या करते हैं? ‘हम नहीं करते तो कौन करता है?’ जैसे कोई छोटा बच्चा पूछे, तो छोटे बच्चे को फिर क्या बोल दिया जाता है? 'वो करता है, आसमान वाला अंकल।’ बच्चा खुश हो गया, 'अच्छा, आसमान वाले अंकल ने करा है।' आसमान वाले अंकल ने कुछ नहीं करा है, बस तुमने नहीं करा है, ये जान लो। तुमने नहीं करा है। ये जानना बहुत ज़रूरी है।

जो कुछ भी सुन्दर है, आनन्द-प्रद है, बोध-प्रद है, वो हमने किया नहीं क्योंकि वो हम कर सकते नहीं। सत्य, और आनन्द, और बोध का स्रोत हमारे भीतर होता नहीं। लेकिन हमारा दावा यही होता है कि वो सब हमने करा। और हमारे जीवन में जो कुछ भी कष्टप्रद है, और नकली है, और मूर्खता से भरा हुआ है, उसको लेकर के हमारा दावा होता है कि, क्या करें भगवान की मर्ज़ी थी, भगवान ने किया। जबकि वो किया हमने।

सच्चा आदमी होने का मतलब होता है साफ़ समझ लेना, कि जो भी आपके दुख-दर्द, तकलीफ़ हैं, वो आपने करे। और अगर आपके जीवन में सौन्दर्य है, सुलझाव है और आनन्द है, तो उसके लिए बस अनुग्रहीत रहिए, वो आपको मिला है, वो आपने किया नहीं, वो आपने अर्जित नहीं करा।

और बहुत ईमानदार रहिए उन सब चीज़ों के बारे में जो आपने अर्जित करी हैं। उन नियामतों का क्या नाम है जो आपने कमायी हैं? तनाव, अवसाद, कलह, बेवकूफ़ियाँ, डर, ये हमारी सम्पदा हैं, ये हमने ज़रूर अर्जित करी हैं। पर इन पर हम कभी अपनी मालकियत बताते नहीं। जैसे किसी छोटे बच्चे से पूछा जाए कि, वो शीशे का कटोरा किसने तोड़ा है। ‘वो तो हमने किया नहीं। वो शायद बड़ी बहन ने किया होगा।’ उस पर हम कभी अपना दावा नहीं ठोकते। वो पड़ोसी ने करा है। वो कभी भगवान ने करा है, कभी माया ने करा है, कभी क़िस्मत ने करा है। वो मैं क्या करूँ, मैं तो बड़ा होनहार था, क़िस्मत दगा दे गयी। वक़्त करता जो वफ़ा आप हमारे होते, वक़्त बेवफ़ा निकला। अच्छा!

ऋषि इसी झूठ को काट रहे हैं। वक़्त बेवफ़ा नहीं है, हम बेवकूफ़ हैं। समझ में आ रही है बात? इस बात को संस्कृत में भी बोलोगे तो ऐसी ही रहेगी। बस बेवकूफ़ की जगह मूढ़ हो जाएगा। वो शायद आपको सुनने में ज़्यादा सुसंस्कृत और शालीन लगे। मैं बोल देता हूँ 'बेवकूफ़', तो कहते हो ये कैसा अध्यात्म है, बेवकूफ़ बोल दिया। ऋषि लेकिन यही बोल रहे हैं भाई। इससे अलग कुछ नहीं।

वो युग मर्यादा का था, तो उनकी भाषा भी मर्यादित थी। तो वो बड़े स-सम्मान बोलते थे, वो ऐसे नहीं बोलते थे कि बात चुभ जाए। ये युग मर्यादा का है क्या? इस युग में मर्यादित भाषा चलती है? ये सब लोग जो प्रसिद्धियाँ पा रहे हैं, दुनिया में और सोशल मीडिया में, ये अपनी मर्यादित भाषा के कारण प्रसिद्धियाँ पा रहे हैं? तो संस्कृत के इसी श्लोक का जब मैं आज की भाषा में अनुवाद करूँगा, तो मुझे आज की मर्यादा के अनुरूप शब्दों का चयन करना पड़ेगा।

प्रकृति में हैं सब प्रजातियाँ, सब योनियाँ। क्यों है इतनी विविधता प्रकृति में? चौरासी लाख कही जाती हैं, चौरासी लाख नहीं होंगी तो हो सकता है चौरासी हज़ार हों, दो करोड़ हों। कोई संख्या ही होगी। वो संख्या कहाँ से आ गयी? किसके लिए है वो संख्या? जहाँ से मन आया वहाँ से वो संख्या आ गयी।

ये सूत्र बार-बार दोहराता हूँ, भूलना नहीं है। जब भी कुछ पूछा जाए कि कहाँ से आया, तो तत्काल क्या पूछना है? ‘किसके लिए आया?’ किसको दिखाई दे रही हैं ये लाखों योनियाँ? हमें ही दिखाई दे रही हैं न? तो ये वहीं से आयी जहाँ से हम आये। हम कहाँ से आये? जहाँ को हम जा रहे हैं। हम कहाँ को जा रहे हैं? पूछो अपनेआप से। जहाँ को तुम जा रहे हो, वहीं से ये सारा संसार आया है। हम कैसे मान लें कि हम वहीं से आये हैं जहाँ को हम जा रहे हैं? बच्चा साँझ ढले अगर किसी दिशा में जा रहा है तो वो उसका घर ही होगा, जहाँ से वो सुबह-सुबह निकल पड़ा था, भटक गया था। घर की तलाश में तुम घूम रहे हो न? आदमी यही तो बोलता है न यात्रा कर रहा हूँ, यात्रा कर रहा हूँ, मंज़िल चाहिए, मंज़िल माने घर, आख़िरी ठिकाना। जहाँ से निकले हो, वहीं को जाना चाहते हो।

एक बिन्दु है मौन का, एक शान्ति है जहाँ से उठे हैं हम, वहीं को जाना है।

काहे को उठे हैं हम? इरादा क्या था उठने वाले का? भइया, किसको लग रहा है कि उठे हो तुम? जब तुम कहते हो काहे को उठे हम? तो ये बताओ किसको लग रहा है कि तुम उठे हुए हो? तुम्हें ही लग रहा है न कि तुम उठे हुए हो? उठे हो माने, अस्तित्वमान हो। तुम्हें ही लग रहा है न? तुम हो, इसीलिए तुम उठे हुए हो। तुम न रहो, तो न तुम हो, न संसार है, न कोई अस्तित्व है। न कुछ उठा हुआ है, न कोई उठाने वाला है। न कुछ रचा हुआ है, न कोई रचने वाला है। तुम हो इसीलिए ये सारी दुनिया है। और तुम क्यों हो, क्योंकि तुम बेचैन हो। बेचैन क्यों हो, क्योंकि तुम अन्धेरे में हो। अन्धेरे में क्यों हो, ध्यान नहीं दे रहे न। ध्यान दो। अब संसार बचा क्या?

तुम प्रकाशित हो जाओ, फिर अन्धेरे में तुम्हें सब जो भूत-प्रेत दिखाई दे रहे हैं, वो बचे क्या? तो बार-बार पूछते हो कहाँ से आये, कहाँ से आये, कहाँ से आये? अरे! अन्धेरे से आये पागल। हैं थोड़े ही। अन्धेरे से उठ रहे हैं, रोशनी ले आ दो, सब हट जाएँगे। हैं नहीं वास्तव में वो। समझ में आ रही है बात?

ये जो कुछ भी हमें दिखाई दे रहा है, वेदान्त कहता है, ये हमारे अहंकार का 'प्रक्षेपण' बोल लो, या ये बोल लो कि 'द्वैत का साथी' है, 'द्वैत का दूसरा सिरा' है। हम हैं इसलिए ये सब कुछ है।

बार-बार ये न पूछा करो कि लोमड़ी की फ़लानी प्रजाति कहाँ से आ गयी, अन्ततः वो तुमसे आयी है। वैसे तुम शोध कर सकते हो और पता कर सकते हो लोमड़ी क्या थी, ये थी, वो थी। फिर तुम कहोगे ऐसा था, वैसा था, फिर बिलकुल अमीबा तक पहुँच जाओगे, फिर कहोगे नहीं और पहले जाना है। जीवन कहाँ से शुरू हुआ, अच्छा पानी से शुरू हुआ। वहाँ पर फ़लाने रसायन मिले, अमीनो एसिड बने। उससे जीवन की शुरुआत हो गयी।

ये सब बातें ग़लत नहीं हैं। लेकिन ये सब बातें तुम्हें शुरुआत तक नहीं ले जाती। कहोगे पानी से शुरुआत हुई तो पूछोगे पानी कहाँ से आ गया भाई? फिर पानी तुम जहाँ से बताओगे, वहाँ से आ गया। तो भी पूछना पड़ेगा, वो कहाँ से आ गया? फॅंस जाओगे न? ये फॅंसा-फॅंसी से अच्छा है सीधे कह दो हमने किया। इतना फ़साद कौन फैलाये कि वो किसने किया, वो किसने किया, वो किसने किया। इससे अच्छा है यही कह दो कि हमने किया, बात ख़त्म करो; हमने किया। और बात जब ख़त्म हो गयी तो कुछ बचा ही नहीं। खेल तो सारा यही है न कि बात ख़त्म करनी है।

सवाल एक समस्या की तरह होता है, कष्ट देता है। सवाल ख़त्म करना है, कर दो। झूठ बोल के नहीं क्योंकि झूठ से ख़त्म ही नहीं होता सवाल। उसे वास्तविक समाप्ति देनी है। वास्तविक समाप्ति किसी भी चीज़ की कहाँ है? वो हम पर ही है।

कोई भी चीज़ तुम्हें जब तक खटक रही है तभी तक वो तुम्हारे लिए समस्या है। उस चीज़ का क्या बदल लोगे तुम? हाँ, इस खटकने का कुछ बदल सकते हो। जिसको इतनी खटा-खट हुआ करती है, उसको ही क्यों नहीं सुधार देते? कितनी चीज़ें बदलते रहोगे?

पूछा करो, किसके लिए? फॉर हूम? बड़ी समस्या, बड़ी तकलीफ़ है, किसको? सस्ता उत्तर नहीं दे देना है कि मुझे ही तो है, नहीं। मुझे माने किसको? कहाँ से होने लग गयी? क्या इसी स्थिति में दस साल पहले भी मुझे तकलीफ़ होती? क्या यही काम कोई और व्यक्ति कर रहा होता, तो भी मुझे तकलीफ़ होती? क्या यही काम किसी और के साथ हो रहा होता, तो भी मुझे तकलीफ़ होती? ये कुछ मूल प्रश्न हैं जो पूछने ज़रूरी होते हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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