भय से छुटकारे का सरल उपाय

Acharya Prashant

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भय से छुटकारे का सरल उपाय

ब्राह्यान्तराणां शत्रूणां स्वभावं पश्य भारत। यन्न पश्यति तद्भूतं मुच्यते स महाभयात् ॥ -कामगीता (श्लोक ८)

अनुवाद: भारत! बाहरी और भीतरी शत्रुओं के स्वभाव को देखिए-समझिए। (ये मायामय होने के कारण मिथ्या हैं, ऐसा निश्चय कीजिए)। जो मायिक पदार्थों को ममत्व की दृष्टि से नहीं देखता, वह महान भय से छुटकारा पा जाता है।

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, यहाँ सरल शब्दों में भयमुक्ति या जीवनमुक्ति के बारे में जो कहा गया है, उस बात को अह्म को आसानी से आत्मसात करने में क्यों समस्या होती है?

आचार्य प्रशांत: जिसको हम भयमुक्ति कहते हैं या जीवनमुक्ति कहते हैं वो वास्तव में अह्म मुक्ति होती है। अह्म ही भय है। अह्म ही सामान्य जीवन है।

अह्म की दृष्टि से देखें तो भयमुक्ति या जीवनमुक्ति उसके लिए जीवन का अंत होती है, उसके लिए मृत्यु समान होती है और मृत्यु से कौन नहीं घबराएगा? कौन है जो मृत्यु को सहर्ष स्वीकारेगा? आमंत्रित करेगा? इसलिए अह्म इन सीधी बातों को जानते समझते भी अस्वीकार करता है, कुछ कुतर्क करता है। अह्म कहता है, "मैं जिंदा हूँ।" ये उसकी मूल धारणा है। "मैं हूँ। मैं अभी जिस भी स्थिति में हूँ, जो कुछ भी अनुभव करता हूँ, अच्छा हूँ, बुरा हूँ, मैं हूँ तो सही न?"

और अध्यात्म कहता है: ये सब कुछ जो तुम्हें होने जैसा प्रतीत हो रहा है, तुम्हें इसी से तो मुक्ति चाहिए। याद रखिए अध्यात्म ये नहीं कहता कि, "तुम्हारी हस्ती अगर एक घर जैसी है तो मैं तुम्हें उसके एक गंदे कमरे से उठाकर के दूसरे स्वच्छ कमरे में रख दूँगा", ये नहीं कहता अध्यात्म। अध्यात्म कहता है, "तुम्हारी हस्ती अगर एक घर जैसी है तो तुम्हें उस घर से ही बाहर आना है।"

और हस्ती घर जैसी है, घर के बाहर क्या है? ये कभी जाना नहीं, समझा नहीं। घर के बाहर जो कुछ है वो हस्ती के बाहर है। घर के बाहर जो कुछ है वो मन के ही बाहर है, माने घर के बाहर जो कुछ है वो कल्पना के ही बाहर है। उसके बारे में विचार क्या कल्पना भी नहीं की जा सकती। अब घर के भीतर अह्म ने जीवन देखा है, घर के भीतर ही, मात्र घर के भीतर ही अह्म ने जीवन देखा है। उसको लगता है जीवन जो है वो ऐसा ही है।

जब तुम उससे कहोगे, “आओ मैं तुमको एक विराट मुक्ति दे रहा हूँ, घर से बाहर ले जा रहा हूँ।” तो उसको ये लगता है कि तुम उसे जीवन से ही बाहर ले जा रहे हो, उसकी ज़िंदगी ही ख़त्म किये दे रहे हो। और इसलिए फिर उसके भीतर से बड़ा भय और बड़ा विरोध आता है।

यही कारण है कि झूठी साधना बड़े लंबे समय तक चल सकती है, सुरक्षित। लेकिन जहाँ कहीं सच्ची साधना हो रही होगी वहाँ तुम्हारे लिए टिकना बड़ा मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि वहॉं चूँकि काम असली है इसीलिए तुम्हें डर उठेगा, एकदम तड़प जाओगे। तुम्हारा जो डर उठ रहा है, तुम्हारे भीतर से जो विरोध उठ रहा है, वही इस बात का प्रमाण है कि तुम्हें जीवनमुक्ति की ओर धकेला जा रहा है। जीवन मुक्ति दूर से देखने पर बड़ा सुंदर आदर्श जैसी प्रतीत होती है। और जो जीवनमुक्त हो गया है उससे पूछोगे तो वो जीवनमुक्ति के गीत ही सुना देगा।

इन दो स्थितियों में जीवनमुक्ति बड़ी आकर्षक लगती है। पहली बात किसी और की जीवनमुक्ति की बात हो रही हो और तुम दूर से बस उस बात को देख रहे हो, सुन रहे हो। लगेगा, "वाह! क्या बात है! जीवन मुक्ति में ऐसा होता है, जीवन मुक्ति में वैसा होता है, शाबाश!" और जो जीवनमुक्त है उससे कहोगे कि तुम अपनी स्थिती का कुछ हाल सुनाओ तो वो गाते-गाते जो हाल सुनाएगा वो भी बड़ा आत्मिक होगा, बड़ा सुंदर होगा, बड़ा आकर्षक होगा।

लेकिन जब अपने पर आन पड़ती है, वो जो एक अधूरा, अधपका जीवन जी रहा है, उससे तुम कहते हो कि, "चल तुझे मैं वास्तव में जीवन मुक्ति दिलाऊँगा।" तो उसके लिए बड़ी समस्या, भीषण डर खड़ा हो जाता है। उसके लिए आफ़त आ गई, महा आफ़त! “ये क्या हो रहा है मेरे साथ? क्यों हो रहा है मेरे साथ? जैसी भी ज़िंदगी है, अभी है तो सही। ये जो मुझे जीवन मुक्ति दिला रहे हैं, उसमें तो ज़िंदगी ही नहीं बचेगी।”

हमारे लिए तो ज़िंदगी क्या है? हमारे लिए तो ज़िंदगी यही है: उठा-पटक, तनाव, इस चीज़ का डर, उस चीज़ का खौफ़, फलानी चीज़ का लालच, फलानी चीज़ की चिंता। यही है न ज़िंदगी? और अगर यही ज़िंदगी है, सिर्फ़ यही ज़िंदगी है—तुम्हारी ज़िंदगी से अगर चिंता हट जाए, तनाव हट जाए, भय हट जाए, मोह हट जाए, भ्रम हट जाए, तो तुम्हें क्या लगेगा? ज़िंदगी हीं हट गई क्योंकि ज़िंदगी थी क्या? एक अनवरत श्रृंखलाएँ इन्हीं सब चीज़ों की।

कोई भी क्षण होता है तुम्हारे जीवन में जब तुम पूरे तरीके से मुक्त होते हो इन सब से? भय नहीं होता तो तनाव होता है, तनाव नहीं होता तो आशा होती है, आशा नहीं होती तो अवसाद होता है, अवसाद नहीं होता तो सुख होता है, सुख नहीं होता तो दुःख होता है। मन की कोई-न-कोई स्थिति तो लगातार चलती ही रहती है न?

कोई भी पल होता है जीवन में जब मन सब स्थितियों से मुक्त हो गया हो? ना! मन में लगातार कुछ-न-कुछ फ़िज़ा, कुछ माहौल बना ही रहता है। और अध्यात्म का मतलब होता है कि मन को सब मौसमों से आज़ाद कर के आकाश में ही स्थापित कर देना।

मौसम अब रहेंगे लेकिन बाहर-बाहर रहेंगे, भीतर साफ आकाश है। या ऐसे कह लो कि मन अब आकाशवत हो गया, जिसपर आते-जाते गुज़रते मौसमों का कोई अंतर नहीं पड़ता। कभी आसमान को गंदा होते हुए देखा है? मौसम आते-जाते रहते हैं, कभी धूल उठती है, कभी बारिश हो रही है, सब चलता रहता है। आसमान तो न साफ हो जाता है, न गंदा हो जाता है, न गीला हो जाता है, न गर्म हो जाता है कितनी भी धूप हो।

तो जीवन हमारा इन्हीं सब चीजों की श्रृंखला है। अध्यात्म कहता है इन सब चीजों से मुक्त हो जाना है। तो हमें लगता है, "इन सब चीजों से मुक्त हो गए तो जीएँगे कहाँ?" देखते नहीं हो आम आदमी आध्यात्मिक आदमी पर अक्सर यही आरोप लगाता है, ऐसी ही उलाहना देता है, वह कहता है, “अरे तुम क्या जानो जीवन के रंगों को, जीवन के रंगों को तो हम जानते हैं। तुमने क्या करा? तुम तो जीवन के भगोड़े हो।"

संसारियों को बड़ा सुख मिलता है इस तरह की बातें करते हुए। कहते हैं, “अरे! ज़िंदगी तो हमने देखी है, तुम तो आध्यात्मिक होकर जीवन से पलायन कर गए।" और ज़िंदगी जो कहते हैं उन्होंने देखी है उसका क्या मतलब होता है? उसका मतलब होता है कि ये रोज़ जूता खाते हैं, ये रोज़ सोते समय कँप जाते हैं, भय से थर्राते हैं, लालच इनके गले में पट्टा डाले हुए है, भय इनके सर पर तलवार की तरह लटक रहा है, मौत इन्हें खाने-पीने-जीने नहीं देती और इन सब विकारों को, दोषों को, नरकों को वो कहते हैं कि, "ये जीवन के हमारे रंग हैं।" वो कहते हैं, “यही तो जीवन के रंग हैं। इनके बिना जीवन बेरौनक है, फीका है।"

अब ऐसा आदमी जो इन्हीं चीजों को जीवन के रंग और रौनक समझ रहा हो उससे तुम कहो कि, "मैं तुझे भय से और लोभ से और मोह से और भ्रम से आज़ाद करा दूँगा।" वो कहेगा, "मार ही डालोगे क्या? ये सब चले गए तो जीवन में बचेगा क्या?" जैसे किसी शराबी की तुम शराब छुड़ाओ। वो कहेगा, "अगर शराब चली गई तो जीएँगे कैसे?" समझ में आ रही है बात?

इसलिए अह्म इन चीज़ों को आत्मसात नहीं करना चाहता। और इसीलिए जब कभी अह्म सत्य को और मुक्ति को आत्मसात करता है, तो कहा जाता है कि ये कोई दैवीय घटना घटी है। क्योंकि प्राकृतिक तौर पर तो ऐसा होना संभव ही नहीं था। प्राकृतिक तौर पर हम ऐसे बने ही नहीं हैं कि मुक्ति हमें भली चीज़ लगे, सुंदर चीज़ लगे कि मुक्ति को हम समर्थन दें अपनी।

इसीलिए लाखों में कोई एक होता है जो हार्दिक रूप से समर्थन दे पाता है और समर्पित हो पाता है अपनी मुक्ति को। वो घटना इतनी विरल होती है कि कहा जाता है ये अपने-आप तो घट नहीं सकती थी। ये घटना इतनी अद्भुत है कि प्राकृतिक तौर पर इसका होना असंभव था। तो फिर कह दिया जाता है: ज़रूर ये अनुग्रह है, ग्रेस है। अपने-आप तो नहीं हो पाती।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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