भय और भ्रम हटेंगे या तो विज्ञान से, या आत्मज्ञान से || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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भय और भ्रम हटेंगे या तो विज्ञान से, या आत्मज्ञान से || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बार-बार एक ही ग़लती होती है और फिर डर एवं ग्लानि, ये दो चीज़ें बार-बार आती हैं। यह लगता है कि एक चक्र जैसा बना हुआ है। कृपया समाधान बताने की कृपा करें।

आचार्य प्रशांत: आप कह रही हैं कि बार-बार आपसे एक ही ग़लती होती है और बार-बार एक ही तरह की ग़लती करने के बाद आप में भय उठता है और आप में ग्लानि उठती है। आप आधी बात बता रही हैं, पूरी नहीं बता रही हैं।

पूरी बात ये है कि एक ही तरह की ग़लती आप इसलिए करती हैं क्योंकि एक ही तरह की ग़लती करने में बड़ा आकर्षण है। कोई एक चीज़ है जो बहुत खींचती है और आप उसकी तरफ़ बढ़ी चली जाती हैं, और बढ़ जाने के बाद पता चलता है कि जो आपको आकर्षित कर रहा था वो आपके लिए जाल बिछाए बैठा था।

जैसे किसी हाथी के लिए गड्ढा खोदा गया हो और गड्ढे के ऊपर एक जाल बिछाकर उस पर गन्ने रख दिए हों ख़ूब सारे और हाथी लोभ संवरण ही नहीं कर पा रहा, हाथी गन्ने के लालच से उबर ही नहीं पा रहा। उसे अच्छी तरह पता है पिछली बार गन्ने खाने गया था तो गड्ढे में गिरा था। उसे गड्ढे में गिरना तो याद है, लेकिन गन्ना कुछ इतना रसीला और इतना मीठा है कि वो फिर बढ़ जाता है।

उस गन्ने की बात बताइए, वो गन्ना कौनसा है जो बार-बार आपको गड्ढे में गिराता है। बिना गन्ने के हाथी गड्ढे में बार-बार गिरेगा ही नहीं। कौनसा गन्ना है जो आपको गड्ढे में गिरा रहा है?

और मैं बताऊँ वो गिरा क्यों रहा है? क्योंकि आप उसकी बात नहीं करना चाहतीं।

हमें गड्ढों की बात करना पसंद है, ऐसा लगता है कि किसी दुश्मन ने हमारे लिए गड्ढा खोदा और हम उस गड्ढे में गिर गये। गन्ने की बात हम छुपा जाएँगे क्योंकि वहाँ पर हमारा लालच प्रकट हो जाएगा। अगर हमने बता दिया कि हम ख़ुद ही गये थे अपने पाँव चलकर, गन्ने के लोभ में, इसलिए फँसे, तो हमारी पोल खुलती है न।

कौनसा गन्ना है? किस चीज़ का आपको इतना लालच है? उस पर ग़ौर करिए, उसके क़रीब जाइए। ग़लतियाँ यूँही नहीं हो सकतीं।

प्र: शायद जो साथ चाहिए वो नहीं मिलता, इसलिए शायद उसकी वजह से लगता है कि पकड़कर रखो और वही पकड़ने के चक्कर में जो आज़ादी मिलनी चाहिए, वो नहीं मिलती और फिर वही चक्र शुरू हो जाता है।

आचार्य: ठीक, अब खुली न बात! तो आपको साथ का लालच है। संगति चाहती हैं, अकेलेपन से डर लगता है।

प्र: डर तो बहुत चीज़ों से लगता है। जैसे छिपकली से, पानी से, बिजली से और पता नहीं किन-किन चीजों से लगता है।

आचार्य: जिस भी चीज़ से आप डर रहे हैं, आपका डर बताता है कि आप उससे अनजान हैं। जिस चीज़ को आप जान जाएँगे, उससे आप डरेंगे नहीं। वो चीज़ अगर ख़तरनाक भी है तो आप उससे बचने का उपाय निकालेंगे।

पुराने आदमी को जानते हैं? वो कुछ जानता-समझता नहीं था, कोई उसे ज्ञान नहीं था। तो पहाड़ की चोटी पर कोई पत्थर रखा है, वो उससे भी डर जाता था; उसे लगता था कि वो कोई दानव बैठा हुआ है। वो डर जाता था और लेट जाता था और पूजा-प्रणाम करना शुरू कर देता था। जहाँ अज्ञान होगा, वहाँ डर आ जाएगा। रात में हवा चली, पेड़ों के पत्ते खड़खड़ाए और इस अज्ञानी आदमी को लगता था कि दूर देश से आत्माएँ आयी हैं हवाओं पर सवार होकर के और वो बुरी तरह डर जाता था।

आप जिस चीज़ से डर रहे हैं, निश्चित रूप से उसे जान नहीं रहे हैं। न जानने के कारण ही डर आता है। तो जब आप कहते हैं कि आप अकेलेपन से घबराती हैं और आप तमाम अन्य चीज़ों से भी घबराती हैं, छिपकली से डर जाती हैं, इस चीज़ से डर जाती हैं, उस चीज़ से डर जाती हैं, तो इसका मतलब ये है कि आप संसार को जानती नहीं। जो संसार को जानेगा नहीं, वो संसार की बहुत सारी चीज़ों से व्यर्थ ही डरेगा और बहुत सारी चीज़ों की ओर व्यर्थ ही आकर्षित हो जाएगा।

छोटे बच्चों का ही उदाहरण ले लीजिए। वो दुनिया को जानते नहीं हैं। तो देखा है, साँप को पकड़ने दौड़ पड़ते हैं और घर की ही छोटी-छोटी साधारण चीज़ों से कई बार कितने डर जाते हैं। उनका डर भी फ़िज़ूल है और उनका आकर्षण भी फ़िज़ूल है क्योंकि डर और आकर्षण दोनों उनके कहाँ से आ रहे हैं? अज्ञान से आ रहे हैं।

तो दुनिया से डरने की आपकी वजह यही है कि संसार वास्तव में चीज़ क्या है, इसका आपने अभी ज्ञान लिया नहीं, शोधन किया नहीं।

दो तरीक़े हैं दुनिया को जानने के ताकि डर से मुक्ति मिल सके – या तो वो सब वस्तुएँ जान लो जो दिखाई पड़ती हैं बाहर, या उसको जान लो जो उन वस्तुओं को देखता है। जिन भी लोगों को संसार से आसक्ति होती हो या संसार से भय लगता हो, उनकी आसक्ति और भय दोनों को ही मिटाने के मात्र दो ही तरीक़े हैं – या तो दुनिया को जान लो क्योंकि दुनिया ही तुम्हें हैरान-परेशान कर रही है। कभी खींचती है, कभी रुलाती है। या उसको जान लो जो दुनिया को देख रहा है, यानि कि स्वयं को जान लो।

पहला तरीक़ा कहलाता है विज्ञान, दूसरा तरीक़ा कहलाता है अध्यात्म। एक वैज्ञानिक भूत-प्रेत से नहीं डरेगा, एक वैज्ञानिक नहीं डरेगा चंद्रग्रहण-सूर्यग्रहण देखकर के, एक वैज्ञानिक को तुम बेवकूफ़ नहीं बना पाओगे कि ‘तुम्हारे जीवन पर फ़लाने ग्रह की दशा है, लो ये अँगूठी पहन लो।‘ उसको तुम नहीं बता पाओगे कि ‘तुम्हारा फ़लाना मुहूर्त आने वाला है, तैयारी कर लो।‘ वो दुनिया को समझता है, वो ख़ूब जानता है कि दुनिया, पूरा ब्रह्माण्ड चीज़ क्या है।

तो संसार से मुक्त होने का एक तरीक़ा विज्ञान है, या तो विज्ञान में प्रवेश कर जाओ। और संसार के भय और आसक्ति से मुक्त होने का दूसरा तरीक़ा है अध्यात्म, कि मन को जान लो कि मन क्यों चीज़ों से डरता है, क्यों चीज़ों से उलझता है, क्यों अकेलापन अनुभव करता है, क्यों किसी का साथ माँगता है, ये मन चीज़ क्या है।

दोनों में से जिस भी राह पर चलना चाहो, चल सकते हो। विज्ञान की राह पर चलना है तो किसी विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लो। अध्यात्म की राह पर चलना है तो गुरु के पास जाओ और आध्यात्मिक साधना की राह पकड़ो। इन दो तरीक़ों के अलावा भय से और आसक्ति से, आकर्षण से और विकर्षण से मुक्ति का और कोई मार्ग नहीं। अब आपको जो मार्ग चुनना हो, आप चुन लीजिए।

प्र२: अध्यात्म तो काफ़ी समय से चल रहा है। उस पर गहन चर्चाएँ क्लास में भी सर के सामने होती रहती हैं। पर क्यों समझ में नहीं आती हैं मुझे चीज़ें? हर बार वही ग़लतियाँ दोहराई जा रही हैं, हर बार वही दर्द लेकर के आपके पास बैठ जाती हूँ। मुझसे बैठा नहीं जा रहा; शिकायत भी बहुत ज़्यादा है, यही बस रोज़ का एक क्रम बना हुआ है।

आचार्य: तो वो पूरा आपको अपना वृत्तांत सुनाना पड़ेगा, पूरा किस्सा बताना पड़ेगा। आपको तो फिर अब सीधे-सीधे साधना की पद्धति चाहिए। आपके लिए तो चिकित्सक को पर्चा लिखना पड़ेगा। पूरी बात पता चलेगी, निदान होगा, समाधान भी हो जाएगा।

प्र३: आचार्य जी, आप मुझे मानसिक तनाव दूर करने का सबसे अच्छा उपाय बता दीजिए।

आचार्य: बस तनाव ही दूर करना है, और बाक़ी चीज़ें नहीं?

प्र३: मुझे सिर्फ़ मानसिक तनाव ज़्यादा है।

आचार्य: फिर नहीं हटेगा। जितने विकार होते हैं वो सब एक कुनबा हैं और उनमें आपस में बड़ी मोहब्बत है। विकार समझते हो न, विकार माने दोष। जितनी परेशानियाँ होती हैं वो सब आपस में क्या हैं? वो भाई-बहन हैं सब और उनमें आपस में बड़ी मोहब्बत है।

तो तनाव, मोह, भ्रम, आलस, आसक्ति, भय, ईर्ष्या, तुलना – ये सब आपस में क्या हैं? भाई-बहन हैं। और इन्होंने आपस में सौगंध खाई हुई है, क्या? ‘जीएँगे तो साथ, और बहना, मरेंगे तो साथ’, और बड़ी पक्की कसम है, तोड़ नहीं पाओगे।

हम गड़बड़ कर देते हैं, हम कहते हैं, "नहीं, इनमें से एक को मारना है। बाक़ी ज़िन्दा छूटते हों तो छूट जायें।" ऐसा हो नहीं सकता। या तो मरेंगे तो सब मरेंगे, नहीं तो कोई नहीं मरेगा।

अब तनाव को मारना है—वो मंझला भाई है—लेकिन मोह बचाए रखना है, ये नहीं हो पाएगा। तनाव मारना है तो मोह को भी मारना पड़ेगा। ‘नहीं! नहीं! नहीं! वो तो बड़ा प्यारा बच्चा है।‘ वो प्यारा बच्चा नहीं है, वो छोटा भाई है, और जिसका वो छोटा भाई है उसी के साथ जिएगा-मरेगा।

एक को बचाओगे तो पूरा कुनबा बचा रहेगा। उस कुनबे में सैंकड़ों बीमारियाँ हैं, उन सैकड़ों बीमारियों में से अगर तुमने एक से भी यारी कर ली है तो वो सैकड़ों के सैकड़ों ज़िन्दा रहेंगे; उनमें से एक भी नहीं मरेगा। जिसको एक हटाना हो वो उन सबको हटाने को तैयार रहे।

और ये भी समझ लो कि तुम्हारे जीवन से अगर कोई एक भी बीमारी नहीं हट रही, तो ये सीधा-सीधा संकेत है इस बात का कि किसी दूसरी बीमारी से तुम्हारा बड़ा नाता है। जो एक चीज़ तुम्हें बुरी लगती है ज़िंदगी में वो तुम्हारी ज़िंदगी में बसी ही इसलिए हुई है क्योंकि तुमने किसी दूसरी चीज़ को पकड़ रखा है जो तुम्हें भली लगती है।

अब ये रूमाल है, ठीक? इस तरफ़ से ये गंदा हो गया। हो गया न? (रूमाल के एक तरफ़ लगे एक निशान को दिखाते हुए) निशान लग गया। और इधर से ये अपेक्षतया साफ़ है। अब मुझे ये बड़ा अच्छा लगता है क्योंकि ये तो है साफ़-साफ़। और मैं चाहता हूँ कि ये जो हिस्सा है ये रहे ही नहीं, मुझे नया रूमाल चाहिए। नया रूमाल चाहिए लेकिन ये हिस्सा बचा रहे। ऐसा हो सकता है क्या? जाएँगे तो दोनों पक्ष जाएँगे और रहेंगे तो फिर दोनों रहेंगे।

हम असंभव की माँग करते हैं। हम कहते हैं एक बचा रहे, दूसरा चला जाए। शराब पीयें तो मज़ा तो आये पर नशा न आये। ऐसा कैसे होगा भाई? खा-पी तो खूब लें, पर न डकार आये, न वज़न बढ़े। ऐसा कैसे होगा भाई?

मुस्कुराहट आ गयी! ये मुस्कुराहट ही तो डकार है। बात खुल जाती है न, खाया-पिया ख़ूब है और वज़न बढ़ना और डकार तो फिर भी थोड़ी अपनी बात है, हम तो और आगे की माँग करते हैं। खा-पी खूब लें, बिल भी न देना पड़े। ऐसा कैसे होगा भाई? या तो खाओ मत, और अगर खा रहे हो तो क़ीमत चुकाओ। अगर दिखाई ही दे रहा है ज़िन्दगी में कि लूट रहा है कोई, तो वो खाना खाना बंद करो। खा थोड़ा-सा रहे हो, क़ीमत इतनी चुका रहे हो, तो क्यों खाए जा रहे हो?

सीधी-सी बात है न?

पर हम शिक़ायत करेंगे कि वो बड़ा लुटेरा है। इतना बड़ा बिल ले आया। तो मैं तो पूछूँगा न कि देवी जी, खाया ही क्यों, जब पता है कि यहाँ लूट मची है तो? जब जानते ही हो कि यहाँ मामला लूट का है, तो खाते ही क्यों हो? वो भी तुम बार-बार खाते हो। एक ही भूल बार-बार दोहराते हो।

मुक्ति के साथ जानते हो एक शब्द क्या जुड़ा हुआ है – बल।

जो उसकी ओर चल देता है न—उसे मुक्ति बोल लो, स्वतंत्रता बोल लो, आज़ादी बोल लो—उसे आगे बढ़ने की ताक़त अपनेआप मिलती जाती है। ये भावना तो अपने भीतर लाना ही मत कि तुम कमज़ोर हो। कोई कमज़ोर नहीं है।

दुनिया के कामों के लिए तुम कमज़ोर हो सकते हो। दो सौ किलो का पत्थर उठाने के लिए तुम कमज़ोर हो सकते हो, लेकिन मुक्ति की ओर बढ़ने के लिए कोई कमज़ोर नहीं होता। तुम आगे बढ़ो, ताक़त ख़ुद-ब-ख़ुद मिलेगी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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