भौतिक वस्तुओं की क्या महत्ता है? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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भौतिक वस्तुओं की क्या महत्ता है? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्न: आचार्य जी, प्रणाम! अभी तक जितना जीवन जिया, सब भौतिक वस्तुएँ एकत्रित करने में बिता दिया। आपके वीडियोज़ सुनने शुरु किए आठ-नौ महीने से, तो झूठ दिखता है कि कितना बेहोशी वाला जीवन जिया है। फ़िर, कहीं-न-कहीं उनका आकर्षण बना रहता है। जब परिवार में अपने परिवारजनों को देखते हैं, तो वो सारी भौतिकता अपनी ओर आकर्षित करती है, दबाव डालती है।

आचार्य प्रशांत जी: पदार्थ तो बढ़िया चीज़ है ही। उसमें क्या बुराई है?

पदार्थ में, चीज़ों में, वस्तुओं में, बुराई क्या हो गई? पर समझ लेना कि उसमें अच्छाई भी कब है। उसमें अच्छाई भी तब है, जब वो तुम्हारे काम आए। जब वो तुम्हारे काम आए।

एक सज्जन को देखा मैंने, वो अपनी एक बहुत बड़ी गाड़ी, जो उन्होंने नई-नई ही खरीदी थी, महंगी गाड़ी, एक -तिहाई दाम में बेच रहे थे। तो किसी ने बताया कि इस नई गाड़ी में इनके जवान बेटे की मौत हो गई थी। तो इस गाड़ी को वो किसी भी तरीक़े से अपनी नज़रों से हटाना चाहते हैं।

गाड़ी, शानदार। चालीस-पचास लाख की गाड़ी। मस्त गाड़ी, वो भी नई। और वो उसको देखना भी नहीं चाहते थे। कह रहे थे, “हटाओ सामने से, आग लगा दो। कोई नहीं खरीदता हो तो, कबाड़ में दे दो।” घर में भी नहीं रखते थे। किसी और को दे रखी थी – “अपने पास रखो, बिकती हो तो बेचो, नहीं तो इसको काटने भेज दो।”

क्यों? पदार्थ ही तो था। कितना शानदार पदार्थ था। इतना शानदार पदार्थ था, इतना महँगा पदार्थ था। पदार्थ ही तो है न? गाड़ी क्या है? पदार्थ है न गाड़ी। वो उसको क्यों देखना भी नहीं चाहते थे? क्योंकि काम नहीं आई। बल्कि काम बिगाड़ गई।

पदार्थ प्यारा तब है, जब काम आ जाए न।

मेरी भी एक बहुत पुरानी गाड़ी थी। दिल्ली में नियम लग गया है कि पंद्रह साल पुरानी पेट्रोल गाड़ी अब सड़क पर लाना प्रतिबंधित है। पर उसके साथ बहुत सारी चीज़ें जुड़ी हुई थीं, न जाने कितनी बातें थीं। ‘अद्वैत’ (संस्था) की शुरुआत भी उसी गाड़ी से हुई थी। आज उसकी कोई कीमत नहीं है, खस्ता हालत है। पर मैं उसको भोपाल छोड़कर आया, क्यों? उस पदार्थ को मैं अभी -भी कबाड़ी को क्यों नहीं दे रहा हूँ?

प्रश्नकर्ता : क्योंकि काम आई थी।

आचार्य प्रशांत जी: पदार्थ बहुत प्यारी चीज़ है, अगर काम आ जाए। ये तो देख लो कि तुम्हारा पदार्थ तुम्हारे काम आ रहा है, या नहीं आ रहा है। होगा बहुत महँगा, संसार उसकी बहुत कीमत लगाता होगा, तुम्हारे काम आ रहा है? तुम्हारे काम आ रहा है?

और ‘काम आने’ की परिभाषा क्या होती है? अंततः तुम्हें चाहिए तो चैन और शांति ही न? सबसे यही चाहिए। घर से भी यही चाहिए, कोठी से भी यही चाहिए, व्यापार-कारोबार, धंधे से भी यही चाहिए। पति से भी यही चाहिए, पत्नी से भी यही चाहिए। पत्नी, दोस्त-यार, ज्ञान से भी वही चाहिए, अध्यात्म से भी वही चाहिए, गुरु से भी वही चाहिए।

तुम जिसकी ओर जाते हो, इसीलिए जाते हो कि चैन मिल जाए। भीतर की तड़प शांत हो जाए। तो ये है ‘काम आने’ की परिभाषा।

अब बता दो कि तुम्हें पदार्थ से चैन मिल रहा है क्या? जिस हद तक उससे चैन मिलता हो, जिस हद तक पदार्थ तुम्हें चैन देने में उपयोगी हो, उस हद तक उसका मूल्य है। और उतना ही उसका मूल्य है, उससे ज़्यादा नहीं।

और जिस हद तक वो पदार्थ तुम्हारे माथे का बोझ हो, कि कमाओ और खरीदो, कमाओ और खरीदो, तुम्हारे ऊपर एक बड़ी चट्टान की तरह पड़ा हुआ हो कि हर महीने बस किश्त चुकाते रहो, उस हद तक पदार्थ बिलकुल त्याज्य है। उठाकर फेंक दो बाहर, उसके होने से क्या लाभ है। ज़िंदगी खराब ही हो रही है।

जीना तो इसी दुनिया में ही है, और ‘जीने’ से मतलब है कि तुम्हें पदार्थ से रिश्ता तो रखना ही पड़ेगा। साँस तो ले रही हो न, और ‘साँस’ माने? पदार्थ। ये जो हवा भीतर जाती है, ये क्या है? पदार्थ। जो कहते हैं, “साहब हमने सारे पदार्थों का त्याग कर दिया है, अब हम बड़े सन्यासी हुए, ऋषि-मुनि हो गये,” उनसे पूछो, “साँस लेते हो या नहीं?” साँस भी लेते हो तो, पदार्थ ही भीतर तक जाता है। और बिलकुल अंदर तक घुस जाता है।

और ये जितना शरीर के भीतर दौड़ रहा है, ये सब पदार्थ ही है, और सब बाहर से ही आया है। तुम्हारे शरीर में फिलहाल ऐसा अब कुछ भी नहीं है जो तुम माँ के गर्भ से लेकर आए थे। भीतर की जितनी भी सामग्री है, वो सब पदार्थ ही है। और सब कहाँ से आयी है? बाहर से ही आई है। जो खाया है, जो पीया है, जो साँस ली, वही भीतर का माल बन गया। तो पदार्थ से रिश्ता तो रखना ही पड़ेगा जब तक ज़िंदा हो। चल किसपर रहे हो? ज़मीन पर। ज़मीन क्या है? पदार्थ।

तो बात इसकी नहीं है कि पदार्थ अच्छी चीज़ है या बुरी चीज़ है। पदार्थ न अच्छा है, न बुरा है – *अनिवार्य है।*** जीव हो तुम, जीव के लिये पदार्थ अनिवार्य है।

तो अब सवाल बदल गया। अब सवाल ये नहीं है कि – “मैं भौतिकवादी हूँ, भौतिकवादी होना अच्छी बात है या बुरी बात है?” अब सवाल यह है – “पदार्थ के साथ तुम्हारा रिश्ता क्या है?” क्योंकि रिश्ता तो रखना पड़ेगा, मजबूरी है, अनिवार्य है।

अब सवाल यह है कि – “पदार्थ के साथ तुम्हारा रिश्ता क्या है?

इसका उपयोग अगर तुम कर सको ‘राम’ तक पहुँचने में, तो ये भला। और इसी का उपयोग अगर तुम करो राम से दूर रहने के लिये, तो ये बुरा। ‘राम’ कसौटी हैं किसी भी रिश्ते की। पदार्थ अगर तुम्हारे जीवन में ‘राम’ को लेकर आता है, तो और लाओ पदार्थ को। और पदार्थ अगर तुम्हारे जीवन से ‘राम’ को दूर करता है, तो भाड़ में जाए ऐसा पदार्थ। ये बात विवेक की है, इसमें इस पार या उस पार का उत्तर नहीं दिया जा सकता।

जो बहुत गरीब हैं, वो अपनी गरीबी के कारण ध्यान नहीं कर पाते। जो बहुत अमीर हैं, वो अपनी अमीरी के कारण ध्यान नहीं कर पाते। जो इस कारण ध्यान नहीं कर पा रहा, कि उसके पास पदार्थ की कमी है, उसके लिये ज़रूरी है कि वो और पदार्थ पैदा करे। और जो इस कारण ध्यान नहीं कर पा रहा कि उसने बहुत पदार्थ इकट्ठा कर लिया है, उसके लिये ज़रूरी है कि वो पदार्थ का त्याग करे।

दो आदमी आते हैं तुम्हारे पास, और दोनों हैं चालीस साल के। एक का वज़न है तीस किलो, और एक का वज़न है एक-सौ तीस किलो। क्या सलाह दोगे? कदकाठी बराबर है दोनों की। एक तीस किलो का है, और दूसरा एक-सौ तीस किलो का है। एक को बोलोगी, “तू पदार्थ इकट्ठा करो, ये तीस किलो नहीं चलेगा। बिलकुल दोगुना हो जा। कम-से-कम साठ पर पहुँच।” और जो एक-सौ तीस का है, उसको क्या बोलोगे? “तू पदार्थ आधा कर। ये पदार्थ ही तेरी ज़िंदगी का बोझ है। त्याग कर इसका। बिलकुल आधा हो जा। पैंसठ पर पहुँच।” यही कहोगे न?

सही रिश्ता ज़रूरी है। और सही रिश्ता है या नहीं, इसकी कसौटी ‘राम’ है, सत्य है, शांति है, चैन है।

तुम्हारे पास अगर कोई ऊँचा उद्देश्य हो, और उस ऊँचे उद्देश्य के लिये करोड़ों लगते हों, तो कमाओ करोड़ों। और तुम्हारे पास कोई ऊँचा उद्देश्य नहीं है, और तुम करोड़ों कमा रहे हो गुलछर्रे उड़ाने के लिए, तो लानत है ऐसे पैसे पर।

पैसा अच्छा या बुरा नहीं है, पैसे का उपयोग अच्छा या बुरा होता है।

तुम्हारे पास उपयोग करने के लिये अगर कोई सार्थक लक्ष्य है, और उसके लिये तुम्हें अरबों चाहिये, तो अरबों होने चाहिए तुम्हारे पास। निकलो, और पैदा करो। और तुम्हारे पास जीवन में कोई ऊँचा लक्ष्य नहीं है, फिर भी तुम कमाए जा रहे हो, तो ये अय्याशी है।

ये तुम्हें डुबोएगी, ये तुम्हें दुर्गन्ध से भर देगी।

कसौटी पैसा नहीं है। कसौटी ‘राम’ है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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