प्रश्नकर्ता: नमस्ते, आचार्य जी। मैं अपना प्रश्न एक उदाहरण से प्रारम्भ करूँगा। जैसे आज़ादी के तुरन्त बाद भारत और पाकिस्तान जो साथ में देश थे वो अलग हो गये। और उसके कुछ समय तक भी पाकिस्तान नहीं चल पाया और उसमें से भी पाकिस्तान और बांग्लादेश दोनों अलग हो गए। तो आचार्य जी, मेरा प्रश्न यह है कि हम जो मनुष्य हैं वो समय के साथ-साथ दलों में क्यों बँट जाते हैं। राष्ट्र, धर्म, जाति और उनमें क्यों बँट जाते हैं। और उसके बाद भी सबडिवीज़न (उपखंड) भी उसी में हो जाता है। और इसके लिए हमें क्या करना चाहिए।
आचार्य प्रशांत: क्या करना चाहिए तो आ जाएगा जब समझ जाओगे जब कि हम बाँटते क्यों हैं। भीतर जो अहम् होता है न वो बड़ी छोटी चीज़ होता है। वो अपने चारों ओर ऐसे सीमा खींचकर रखता है। अपने होने के लिए ही उसको विभाजन करना पड़ता है, ठीक है? उदाहरण के लिए, मैं चोपड़ा खानदान का वंशज हूँ, कुलदीपक हूँ। तो विभाजन करना पड़ गया न? अब आप चोपड़ा खानदान के कुलदीपक हैं और बग़ल में कौन लोग रहते हैं? वो कुमार फ़ैमिली। तो आप उनसे अलग हो गए, आपको होना पड़ेगा। जो चोपड़ा लोग हैं वो कुमार लोग नहीं हो सकते। वो दो अलग-अलग लोग हो गए, बस हो गया। और आप चूँकि स्वयं को जानते नहीं तो इसीलिए आपको कहना पड़ता है कि आपका क्या नाम है, अमित चोपड़ा।
जब आप ख़ुद को नहीं जानते कि आपकी असली पहचान क्या है, तो आप अमित चोपड़ा बन जाते हो। और अमित चोपड़ा बनते ही बग़ल में जो सुनील कुमार रहता था, उससे तो आप अलग हो गए न। लो हो गया बँटवारा, बात ख़त्म। अहम् को अपने होने के लिए किसी-न-किसी से चिपकना पड़ेगा, ठीक है? उस बेचारे की मजबूरी यह है कि वो सबसे नहीं चिपक सकता, वो छोटू है। वो उछलकर के किसी एक की पॉकेट (जेब) में घुस सकता है। जैसे चूहा छोटा-सा कोई। आप यहाँ इतने लोग बैठे हो, आप सबकी पॉकेट में वो इकट्ठे नहीं घुस सकता। और अपने जीने के लिए ज़रूरी है वो किसी-न-किसी की पॉकेट में घुसे ज़रूर। अहम् फ्री रेडिकल (मुक्त मूलक) की तरह है, अकेले नहीं चल पायेगा बहुत देर तक। वो कहीं-न-कहीं जाकर के रिएक्शन (अभिक्रिया) करेगा। तो वो जाकर के कहाँ घुस गया है? द चोपड़ास की जेब में।
लेकिन एक बार वो किसी की जेब में घुस गया, तो बाक़ी सब उसके लिए क्या हो गए? पराये हो गए न? तो लो खिंच गई रेखा। आप जो कुछ भी बनोगे, आपने एक-दो को अपना और बाक़ी पूरे जगत को बना दिया पराया। वो एक गाना था मैं उसको, सारे गाने ऐसे सुना करता हूँ जैसे पता नहीं क्या चल रहा है। तो एक गाना है कि ‘मुबारकें तुम्हें कि तुम किसी के नूर हो गए, किसी के इतने पास हो कि सबसे दूर हो गए’। ये अहंकार की हालत होती है। अब वो किसी और सन्दर्भ में गाया गया होगा, पर मैंने सुना, मैंने कहा, ‘वाह! बेटा, तुम्हें पता भी नहीं है तुमने क्या गा दिया। किसी के इतने पास हो कि सबसे दूर हो गए। ये अहंकार की हालत होती है। उसे किसी-न-किसी को चिपकना पड़ता ही पड़ता है।
मैं कौन हूँ? मैं यूपी वाला हूँ। तो अब तमिल वाला कौन हो गया? पराया हो गया न। और उस बेचारे की औक़ात नहीं है कि बोल दे कि मैं तो पूर्ण सत्य हूँ। वो बोल ही नहीं पायेगा, उसकी हिम्मत नहीं है अहंकार की ये बोलने की। तो बोलता है, ‘मैं यूपी वाला हूँ’। और यूपी वाला बोलते ही अब चाहे तमिल हो कि कश्मीरी हो कि उड़िया हो, सब उसके लिए अब पराये हो गए। ये चलता है खेल। तो इसीलिए बड़ा मज़ेदार किस्सा रहा न पाकिस्तान का; वो ये बोलकर बँटे कि देखो हिन्दू और मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र होते हैं। हमें तो अलग होना है। हम नहीं रहते इनके साथ।
चलो भाई अलग हो लो। अब वो अलग हो गये। वो जितने थे वो सब एक ही धर्म के थे मुसलमान थे सब-के-सब। वो भी आपस में लड़ लिये। बोले होंगे सब एक ही धर्म के, भाषा तो अलग-अलग है न। उर्दू वालों के साथ बंगाली वालों का कुछ नहीं चल सकता, हमारा बांग्ला। हमारा बांग्ला भाषा है, तुम्हारा उर्दू भाषा है। और जो उर्दू वाले थे वो बांग्ला वालों पर ज़ुल्म भी करने लग गये। चुनाव हुए, चुनाव में जीत गए बांग्लादेश वाले। तब बांग्लादेश नहीं था, तब उसको बोलते थे ईस्ट पाकिस्तान। तो वो जीत भी गये लेकिन वो शेख मुजीबुर्रहमान थे, उनको सत्ता सौंपने से मना कर दिया इधर वालों ने। और आकर के वहाँ पर उन पर अत्याचार और शुरू कर दिए। और कहने को वो सब मुसलमान ही; उधर भी मुसलमान, इधर भी मुसलमान। सबकुछ एक कर दो, लड़ाइयाँ तब भी होंगी।
जब भारत अंग्रेज़ों की दासता में था, ब्रिटिश भारत। तो भी हिन्दुओं और मुसलमानों का डीएनए तो एक ही था न, एक जैसे ही दिखते हैं। किसी को बताओ नहीं, दो शक्लें दिखाओ, बोलेंगे, ‘ये तो एक ही लोग हैं, भाई-भाई हैं।’ ठीक है न? हाँ, ये है बस कि तुम एक के दाढ़ी मत बढ़ा देना, एक के तिलक मत लगा देना तो कोई नहीं बता पायेगा। बाहर वाला बिलकुल कहेगा, ये दोनों भाई-भाई हैं हिन्दू-मुसलमान, इनमें कोई अन्तर नहीं है। डीएनए एक था लेकिन उन्होंने बँटवारे का कारण खोज लिया; कारण क्या खोज लिया? धर्म, अच्छा। फिर धर्म एक था तो बँटवारे का कारण खोज लिया, क्या खोज लिया? भाषा।
और अभी भी पाकिस्तान में जाओ तो वहाँ जो बलूच हैं और जो पश्तून हैं वो अलग होना चाहते हैं। उन्होंने बँटवारे का कोई और कारण खोज लिया है। वो कह रहे हैं, ‘हमें अलग होना, हम नहीं, हमारी इनसे अभी भी हमारी भाषा अलग है और ये लोग अलग हैं। ये हमें रिप्रेजेंटेशन (प्रतिनिधित्व) नहीं मिल रहा है ठीक से। हम पर अत्याचार हो रहा है। तो आपको बँटवारे का कारण खोजना पड़ेगा, जब तक आप आध्यात्मिक नहीं हो। इसी को बोलते हैं, हिंसा। हिंसा माने, मैं अलग हूँ। हिंसा ये नहीं होती कि मैंने दूसरे को मारा। हिंसा होती है—‘मैं अलग हूँ’। और अहंकार की मजबूरी है उसे ये बोलना पड़ेगा, मैं?
श्रोतागण: मैं अलग हूँ।
आचार्य: क्योंकि उसने तो अपने जन्म के समय ही बोल दिया था— ‘मैं देह हूँ, दुनिया अलग है। जीव अलग है, जगत अलग है।’ इसीलिए द्वैत दुख मूल है और द्वैत माने हिंसा। जहाँ दो आये, वहाँ हिंसा शुरू। और वो हिंसा कभी रुकती नहीं है। बँटवारा, बँटवारे पर बटवारा। बाँटते चलो, काटते चलो, काटते चलो। जिनको अपना बोलते हो, उनसे भी नहीं भिड़े रहते हो क्या? अभी ये चोपड़ा मेन्शन (उल्लिखित) है, ‘द चोपड़ाज़’ उसके आगे बड़ा-बड़ा लिखा है और अन्दर जो मारा-कूटी चल रही है। (श्रोता हँसते हैं)
तो ये थोड़ी है कि चोपड़ाज़ जाकर कुमार्स से ही भिड़ रहे हैं। वो आपस में भी तो एक-दूसरे का सिर फोड़ रहे हैं कि नहीं फोड़ रहे हैं? एक कमरे वाले दूसरे कमरे वालों से लड़े हुए हैं, एक फ़्लोर (मंज़िल) वाले दूसरी फ़्लोर वाले से लड़े हुए हैं और एक कमरे के अन्दर जो हैं उनका तो कोई हिसाब ही नहीं माथा-कूट। फोड़ दिया एक-दूसरे को। कमरे के अन्दर ही फोड़ दिया।
तो किसी भी जगह पर आकर के अहंकार ये नहीं कह पाता कि अब जो कुछ है सब मेरा अपना है। वो कहीं भी रहता है कुछ उसका होता है और कुछ पराया होता है। जिनको बिलकुल अपना बोलता है, ये तो मेरे अपने हैं, वहाँ भी परायापन उसे रखना पड़ता है, उसकी मजबूरी हो जाती है। समझ में आ रही है बात?
तो अगर एकता चाहिए तो उसका एक ही तरीक़ा होता है ‘अध्यात्म’। वास्तविक एकता समाजवाद से नहीं आनी है, न राष्ट्रवाद से आनी है। वास्तविक एकता तो अध्यात्म से ही आ सकती है क्योंकि एक ही चीज़ है जो एक है, उसको ‘आत्मा’ बोलते हैं। आत्मा एकमात्र बिन्दु है जहाँ सारे इंसान एक हो जाते हैं। और अगर आत्मा नहीं है तो बाक़ी सब इंसानों में अन्तर-ही-अन्तर हैं, अन्तर-ही-अन्तर हैं। मुझमें और तुममें क्या? अन्तर-ही-अन्तर, अन्तर-ही-अन्तर। मुझमें, तुममें एक ही चीज़ साझी है, आत्मा। तो अगर आत्मा नहीं है तो अन्तर-ही-अन्तर होंगे और अन्तर माने विभाजन। सबकुछ बँटेगा, सब टूट जाएगा। अगर आत्मा नहीं है तो सब टूट जाना है।
इसलिए वेदान्त बहुत ज़रूरी है अगर राष्ट्र बचाना है तो और विश्व बचाना है तो और मनुष्य बचाना है तो और सब पशु-पक्षी और पर्यावरण बचाना है तो। आत्मा ही अकेला यूनिफ़ाइंग (एकीकृत) प्रिंसिपल (सिद्धान्त) है। उसके अलावा सब सिर्फ़ डिविज़न, डिविज़न, डिविज़न, डिविज़न, डिविज़न। समझ में आ रही है बात? मैं अलग हूँ, पशु-पक्षियों की स्पीशीज़ (प्रजातियाँ) अलग हैं। मैं उनकी परवाह काहे को करूँ। आत्मा एकमात्र बिन्दु है जहाँ पर कुछ अलग-अलग नहीं रह जाता, सब एक हो जाता है। जब सब एक हो जाता है तो जैसे अपनी परवाह करते हो वैसे उसकी भी करोगे न। समझ में आ रही है बात?
प्र२: सर, एक ऑनलाइन प्रतिभागी थे, उनका प्रश्न यह था कि आध्यात्मिक प्रगति का, स्पिरिचुअल प्रोग्रेस के इन्डीकेटर्स (सूचक) क्या होते हैं। तो उन्होंने उसमें एक चीज़ पूछी थी, क्या तनाव कम होना एक आध्यात्मिक प्रगति का सूचक हो सकता है?
आचार्य: हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है। सही काम करते थे और उसमें तनाव होता था, वो तनाव कम हो गया है। सही काम ब-दस्तूर निरन्तर जारी है, सही काम छोड़ नहीं दिया। लेकिन अब उसमें तनाव कम लगता है। ये तो शुभ संकेत है, ये अच्छी बात है। सही काम करते थे छः महीने पहले तो बहुत तनाव हो जाता था, डर लगता था और चिन्ताएँ। अब वही काम करते हैं तो डर कम हो गया है, तनाव कम हो गया है। तो ये तो शुभ संकेत है।
पर फालतू काम करते थे पहले और उसमें तनाव होता था। अब फालतू काम मज़े में करते हैं, कोई तनाव नहीं होता। तो इसको कैसे कह दूँ कि शुभ है? तो सही काम करते हुए अगर कम तनाव है तो ये अच्छी बात है। ग़लत काम कर रहे हो और तनाव बढ़ गया है तो अच्छी बात है। अध्यात्म दोनों काम करता है। सही, में तनाव कम कर देता है और ग़लत में तनाव बढ़ा देता है। यही बात डर पर लागू होती है। सही काम करने आ रहे थे, डर लगता था न जाने क्या अन्जाम होगा, वो डर कम हो गया है ये शुभ संकेत है। और एकदम कोई भ्रष्ट काम कर रहे हो, गर्हित। और वो करने में भी अब डर नहीं लगता। तो ये कैसे शुभ हो सकता है?
तो पहला संकेत तो आध्यात्मिक प्रगति का ये होता है कि आप अपनी सीमा में, अपने स्तर पर, जिसको जानते हो कि सही है उसको जीना शुरू कर देते हो। ये आध्यात्मिक प्रगति का पहला लक्षण है। बींग ट्रू टू वनसेल्फ़् (स्वयं के प्रति सच्चा होना)। किसी दूसरे की बात नहीं है। किसी बाहर वाले की बात नहीं है। जो चीज़ मैं जानता ही हूँ कि ठीक है लेकिन उसको ठीक जानते हुए भी आज तक उसकी उपेक्षा कर रहा था, उसको अनदेखा कर रहा था। आपके लिए उसको अनदेखा करना मुश्किल हो जाता है। आप कहते हो, जब ये ठीक है, तो इसको सम्बोधित करना पड़ेगा न। उसको या तो जीवन में लाना पड़ेगा या कुछ और करना पड़ेगा।
ये पहला लक्षण है कि आपके जीवन का केन्द्र बन जाता है ‘सही’। जो सही है, वो करना पड़ेगा। उसके बाद ये बात आती है कि डर कम हो जाता है, शंका कम हो जाती है, तनाव कम हो जाता है। सही के प्रति ये सब कम हो जाए तो अच्छी बात है। ग़लत के प्रति ये सब कम हो गये तो ग़ज़ब हो गया, महाअशुभ। सही काम करते हुए झिझक होती थी, डर होता था और विचलन होता था। ये सब हो जाता था। सही काम करते हुए ये सब होता था वो कम हो गया, तो, तो आध्यात्मिक प्रगति है।
और ग़लत काम करते हुए आप कहो कि मेडिटेशन (ध्यान) की कोई विधि बता दीजिये, टेंशन (तनाव) बहुत होता है। काम क्या करते हैं? काम करते हैं जनता को ठगने का, लूटने का और उससे तनाव बढ़ जाता है। ठगोगे, लूटोगे तो डर भी लगेगा कि कहीं कोई आकर बदला न ले ले, पुलिस न आ जाए, पचास तरीक़े के झंझट, तनाव। तो फिर आ गए, मेडिटेशन बताइए, मेडिटेशन बताइए या फिर और सूत्र बताइए, कोई क्रिया बताइए, कोई विधि बताइए और उनको कुछ बता भी दी गुरुजी ने। और अब वो वही ठगी का धन्धा करते हैं और उनको तनाव भी नहीं होता क्योंकि बढ़िया उनको कुछ सूत्र मिल गया है। तो ये तो बड़ी अशुभ बात हो गई न। तो बड़ी गड़बड़ बात हो गयी।
तो अध्यात्म इसलिए नहीं है सर्वप्रथम कि वो आपका तनाव कम कर दे। वो सर्वप्रथम इसलिए है कि आपको सही दिशा, सही आयाम की ओर प्रेरित कर दे। उसके बाद फिर तनाव वो कम करता है। अगर उसमें लगे रहोगे आध्यात्मिक पथ पर, तो सही के प्रति जितना भी संशय है, शंका है, डर है, तनाव है, भ्रम है वो फिर कम होता है। ग़लत काम करते हुए ये आशा करना कि डर कम हो जाए, बड़ी ग़लत बात है। और विधियाँ आती हैं ऐसी जो ग़लत काम करते हुए भी आपके डर को कम कर देंगी लेकिन वो चीज़ गड़बड़ है, वो ठीक नहीं है।
प्र३: प्रणाम आचार्य जी, मेरा सवाल बहुत छोटा-सा था कि मैं जब भी किसी पल में होती हूँ तो मैं या तो पास्ट (अतीत) में चली जाती हूँ या फ़्यूचर (भविष्य) में चली जाती हूँ। मैं उसी मोमेंट (पल) में रह नहीं पाती। तो ऐसा कैसे हो कि मैं वहाँ पर जीना शुरू कर पाऊँ। मुझे कुछ टाइम (समय) बाद पता चलता है कि मैं फिर से स्किप (छोड़) करके आगे चली गई हूँ या पीछे चली गई हूँ।
आचार्य: मैं आपके सामने बैठा हूँ, तो मुझसे ये हो ही नहीं पायेगा या ऐसे कह लीजिये कि मैं अफ़ोर्ड (मूल्य वहन) नहीं कर पाऊँगा कि अभी आप मुझसे बात कर रही हैं और मैं अतीत में चला जाऊँ और जो पिछली बातचीत चल रही थी, उसी में मगन रहा आऊँ। पिछली बातचीत मेरे कैम्पस (स्कूल या कॉलेज का खुला स्थल) के दिनों की चल रही थी। और जब आप कैम्पस का नाम लेते हैं तो न जाने कितनी स्मृतियाँ उभर आती हैं। मेरे लिए बहुत आसान हो कि मैं सोचने लग जाऊँ, ‘अच्छा! फिर क्या हुआ था। अरे! मेरा वो दोस्त कहाँ पर होगा, उस बन्दे ने क्या कर लिया करियर (आजीविका) में।’ कितनी बातें मैं सोच सकता हूँ। फ़लानी लड़की थी, मुझे बहुत पसन्द थी। आजकल कहाँ होगी, कितने बच्चे हो गए होंगे। ये सब सोच सकता हूँ न?
लेकिन वो गए पिछले प्रश्नकर्ता, आप सामने आकर बैठ गई हैं, मैं कैसे अपनेआप को मोहलत दे दूँ, इजाज़त दे दूँ कि मैं अतीत में चला जाऊँ। कैसे करूँ, बताइए? और मैं कैसे अपनेआप को अनुमति दे दूँ कि मैं सोचूँ कि आपके बाद अगले प्रश्नकर्ता कौन आएँगे, मैं कैसे करूँ? मुझे समझाइए, मैं करना चाहता हूँ। क्योंकि मुझे भी यादें बुला रही हैं पीछे से, ‘अच्छा! फिर क्या हुआ था, फिर फ़लाना प्ले (नाटक) था, उसकी रिहर्सल (पूर्वाभ्यास) चल रही थी। उसमें ऐसी मज़ेदार घटना हुई थी। इतनी चीज़ें होती हैं, आप सब कैम्पसों से होकर गुज़रे हैं, आपको पता है कैम्पस की खट्टी-मीठी यादें सबकी होती हैं, होती हैं न? तो मैं क्यों न उनमें खो जाऊँ! मैं कह रहा हूँ कि मैं अफ़ोर्ड नहीं कर सकता। और वो तभी होता है जब आप उसको अफ़ोर्ड न कर पाओ। माने आपके पास वो अवकाश न हो, आपके पास वो मोहलत न हो, आप अपनेआप को अनुमति न दे पाओ, वो तभी होता है।
नहीं तो मन की तो प्रकृति हम जानते ही हैं समय में भागने की है। समय की दो ही दिशाएँ होती हैं, पीछे और आगे। दोनों दिशाओं में भागता है। मन को कुछ ऐसा दीजिये जो उसको बाँध ले। खूँटा, जैसे खूँटे से गाय बँधी होती है न। मन को खूँटा चाहिए, खूँटा। मन को क्या चाहिए? आपको पता है? वास्तव में, शास्त्रों में एक जगह आत्मा को ये कहा भी गया है, खूँटा, खूँटा। वो मन को बाँधकर रखती है। वो नहीं है तो मन भागेगा। और इसमें मन का दोष नहीं है। इसमें उस अहम् का दोष है जो इतना सशक्त नहीं है कि मन उसमें बँधा रह सके।
अपनेआप को कुछ अच्छा, ऊँचा, सुन्दर, बहुत आकर्षक दीजिए जीवन में। फिर मन आगे-पीछे नहीं भाग सकता। वो भागना चाहेगा ही नहीं, उसको मिल गई बढ़िया चीज़, वो काहे को इधर-उधर भागेगा। ऐसी-ऐसी बात है कि घर में छोटू है एक। वो कभी बाएँ घर में भागता है, बाएँ घर का नाम है ‘अतीत-सदन’। और कभी दाएँ घर में भागता है, उसका नाम है ‘आगत-निवास’। और इधर-उधर दोनों दिशाओं में भागता रहता है। काहे को भागता है? भूखा है। इधर कढ़ी बनी है, उधर रसगुल्ले, बढ़िया। और उसके अपने घर में क्या है? दो दिन पुरानी बासी, सूखी, पपड़ियाई रोटियाँ। तो इधर-उधर भागेगा न।
हाँ, तो आपका असली घर होना चाहिए, वर्तमान। लेकिन कभी आप बाएँ जाते हो, अतीत-सदन। कभी जाते हो दाएँ, आगत-निवास। कभी पास्ट , कभी फ़्यूचर क्योंकि अपने घर में सूखा पड़ा हुआ है। अपना घर भरना पड़ता है। मन की बेचैनी आपको यही बताने के लिए है कि फिलहाल उसके पास कुछ नहीं है। उसे अभी दीजिए।
जानते हैं सौन्दर्य की एक परिभाषा क्या है? ब्यूटी इज़ दैट विच लीव्ज़ यू स्टिल , (सुन्दरता वह है जो आपको स्थिर कर देती है) सौन्दर्य के आगे आपकी गति रुक जाती है। जो कुछ आपकी गति को रोक दे, उसे सुन्दर कहते हैं। तो जीवन को सौन्दर्य चाहिए। जिसके आगे विचार का प्रवाह रुक जाए, समय की गति रुक जाए, उसे सौन्दर्य कहते हैं। माने जिसके आगे अहम् सहर्ष घुटने टेक दे, उसे सौन्दर्य कहते हैं। ये नहीं कि किसी ने मजबूर किया, कोई धमका रहा है, न्, न्, न् राज़ी-खुशी, मुस्कराते हुए अहम् ने घुटने टेक दिए। बोला, ‘न आगे जाना, न पीछे जाना, बस तेरे सामने ही बैठना है मुझको। उसको सौन्दर्य कहते हैं।’
जीवन को सौन्दर्य दीजिये। कुछ अच्छा, कुछ ऊँचा। चाहे साहित्य में, चाहे कर्म में, चाहे आजीविका में, चाहे मिशन के तौर पर। जिस भी तरीक़े से और जितने ज़्यादा तरीक़ों से हो सके जीवन में सौन्दर्य को लेकर आइए। चुनौतियों में सौन्दर्य होता है। आप कोई ऊँचा काम करना चाहते हों, कठिन पड़ रहा है, आप उससे जूझ रहे हैं। ये इतनी सुन्दर बात होती है कि कोई जो ऊपर-ऊपर से बलहीन दिख रहा है वो किसी ऊँचे उद्देश्य के साथ जूझ पड़ा है बहुत बड़ी चुनौतियों से। और ऐसी चुनौतियाँ जो लग रहा है कि इसके तो बूते की नहीं हैं जीतना, पर वो जूझ पड़ा है। ये इतना सुन्दर दृश्य होता है, वो दृश्य आप अपने जीवन में पैदा कर लीजिये। आप ही वो बन जाइए, जूझने वाले।
आप किसी चीज़ में जूझे हुए हों, ऐसा हुआ है कि मन इधर-उधर की सोचने लगे? किसके साथ हुआ, कुश्ती लड़ रहे हो, कुश्ती या बॉक्सिंग और मन आगे-पीछे की सोचने में पड़ जाता है क्या? होता है कभी? हाँ, तो मन को सौन्दर्य चाहिए या मन को चुनौती चाहिए या मन को प्रेम चाहिए। किसी भी तरीक़े से आप कह सकते हैं, पर उसे दीजिये कुछ जो खूँटे की तरह वो आपको बाँध ले। और इतना नहीं मुश्किल होता है, कुछ तो आपको पसन्द होगा न। जो कुछ भी आपको पसन्द है, उसमें जो उच्चतम है, उसकी तरफ़ बढ़िए। वो यात्रा प्रेम की भी होती है और चुनौती की भी। आप इधर-उधर नहीं भागेंगे फिर।
देखिये, दो बातें हो सकती हैं, एक ऐसी ज़िन्दगी जीना जिसमें बाहर से सब ठीक-ठाक है और भीतर मामला सूखा हुआ है बिलकुल। और एक ऐसी ज़िन्दगी जीना—एकदम ज़मीनी तौर पर बोल रहा हूँ—और एक ऐसी ज़िन्दगी जीना जिसमें बाहर चुनौती है और चोट है लेकिन भीतर हरियाली है। दूसरी तरह की ज़िन्दगी चुनिए। मन उसमें नहीं भागता। एकदम सही रहता है, खेल।
कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आए। अंतरि भीगी आतमा, हरी भई बनराए।। ~कबीर साहब
ये सब श्लोक इसीलिए हैं कि एक पुलक उठे भीतर कि क्या है ये जिसमें आदमी भीग ही जाता है अन्तर, सारा सूखा मिट जाता है, हरीतिमा छा जाती है। है क्या ये? ज़िन्दगी जो आपको बड़े से बड़ी राहत दे सकती है वो यही है कि आप भविष्य की चिन्ता से मुक्त हो जाएँ। वर्तमान में कितना भी कष्ट मिल रहा हो, कैसी भी आपको चुनौती मिल रही हो, अगर वो आपको भविष्य की चिन्ता से मुक्त करे दे रही है, तो उसे स्वीकार कर लें।
प्र३: मुझे कुछ टाइम (समय) हो गया है आपको सुनते हुए, तो जैसे भविष्य से लगता है कि बहुत दूर की बात है। तो ऐसे मैं कुछ नहीं सोचती हूँ। मतलब भविष्य में ऐसा अब तो कुछ देखना एकदम बन्द कर दिया है, कुछ पता भी नहीं रहता कि कैसे होगा। लेकिन इमिडिएट नेक्स्ट (तुरन्त अगला) जैसे अभी तो मैं एकदम खो गयी हूँ, ऐसे कई बार होता है मैं बहुत किसी को सुन रही हूँ, पढ़ रही हूँ। लेकिन ये हमेशा कैसे रहे, मतलब ये कॉन्टिनुअस (लगातार) कैसे हो?
आचार्य: कॉन्टिनुअस कैसे नहीं रहता?
प्र३: मतलब मुझे ऐसा लगता है मैं छिटक गई, फिर से।
आचार्य: कैसे छिटक जाते हो, जैसे आप कह रहे हो, अभी है? अभी है, इस क्षण में है?
प्र३: हाँ, में सिर हिलाते हुए।
आचार्य: तो फिर छिटक कैसे जाते हो? कॉन्टिन्यूटी ब्रेक (निरन्तरता टूटती) कैसे होती है?
प्र३: पता नहीं, अगर वो पता चले कि कैसे छिटक रहे हैं तो?
आचार्य: नहीं, ऐसा थोड़ी होता है। छिटकने के पल में दर्द तो होता होगा? तो आपकी रज़ामन्दी भी शामिल है उसमें। अगर इस पल में एक मस्त, बेसुध आनन्द है तो छिटकने के पल में ऐसा थोड़ा सा तो होता ही होगा जैसे मछली को निकाल दिया पानी से। कुछ तो पीड़ा होती होगी न? अभी डूबे हुए हो और छिटकने का मतलब है कि पानी से मछली निकाल दी गयी। कुछ तो दर्द होता होगा थोड़ा-बहुत।
प्र३: कुछ टाइम बाद पता चलता है।
आचार्य: ऐसा नहीं होता है, कुछ टाइम बाद नहीं पता चलता। इसका मतलब फिर ये है कि मछली डूबी ही नहीं थी, वो आधी बाहर पहले ही थी। वो जब थोड़ी और निकाली गई तो उसको लगा ऐसी कोई ख़ास बात थोड़ी हुई है। और गहरा डूबिए, जितना गहरा डूबेंगे उतना ज़्यादा तकलीफ़ होगी जब छिटकेंगे, बाहर निकाले जायेंगे। जब तकलीफ़ होगी तो आपको फिर ख़ुद ही मजबूर होकर के कुछ करना पड़ेगा। ना काबिले बर्दाश्त। कुछ चीज़ों को अपने लिए बना लीजिए, ना काबिले बर्दाश्त। ये चीज़ हम बर्दाश्त नहीं करते, तो नहीं करते। क्या है मछली वाला?
अधिक सनेही माछरी, दूजा अलप सनेह। जबहीं जलते बिछुरे, तबही त्यागे देह।। ~कबीर साहब
आचार्य: अधिक सनेही माछरी, दूजा प्रेम?
श्रोता: दूजा अलप सनेह।
आचार्य: दूजा अलप सनेह। ज्यों ही जल से निकरे, तड़ से त्यागे देह। कबीर सनेही माछरी। मछली ही है जो स्नेह जानती है, प्रतीक है, समझिएगा। और बाक़ी सबका तो जो स्नेह है वो अल्प है, छोटा है। “दूजा अलप स्नेह”, ज्यों ही जल से निकले, झट से त्यागे देह। तो ऐसे ही हो जाइए न कि सागर से निकालोगे, तुरन्त मर जाएँगे। बस ऐसी कड़ी शर्त रख दीजिये कि जान दे देंगे, ख़त्म। जो ये शर्त रख देता है उसके बाद फिर उस पर ज़्यादती नहीं करी जा सकती।
प्र४: प्रणाम आचार्य जी। आज अर्थ डे (पृथ्वी दिवस) है, 22 अप्रैल। तो मैं कुछ रिपोर्ट्स (विवरण) पढ रहा था जैसे 1980 और 1990 के बाद से अभी तक जो औसत तापमान है विश्व का वो लगभग डेढ़ डिग्री 1.6 उस रिपोर्ट में बढ़ गया है। और जो बर्फ़ है जैसे आर्कटिका और अन्टार्कटिका, इसमें हो ये रहा है कि बीच-बीच में वाटर पूल्स (जल कुण्ड) बन रहे हैं। जैसे पूरा बर्फ़ और बीच में थोड़ा सा पानी बन गया। अब जब वो वाटर पूल बन जाता है तो उस जगह का पानी ज़्यादा गर्मी सोक (अवशोषण) करता है क्योंकि बर्फ़ गर्मी को लौटा देता है लेकिन पानी सोक लेता है।
तो अब उस वाटर पूल बनने की वजह से अब वो बर्फ़ का जो पूरा मास (द्रव्यमान) है वो और जल्दी गलेगा। तो ये वाटर पूल बनना शुरू हो चुका है आर्कटिका, अन्टार्कटिका में। उसके बाद इस पिछले साल ऐसा हीट वेव (गर्मी की लहर) की वजह से यूरोपियन देशों में लगभग पन्द्रह हज़ार लोग मारे गए हैं। मतलब हीट वेव से उनका, उनका मौत लिंक्ड (जुड़ा) है डायरेक्टली, इनडायरेक्टली (प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से)।
और जो ग्रीन हाउस गैसेस थे जैसे— कार्बन-डायऑक्साईड और मीथेन, यह तो बढ़ ही रहे थे। अब स्टडी (अध्ययन) यह भी कह रही है कि नाइट्रस-ऑक्साइड इसका भी ग्रोथ रेट (वृद्धि दर) तो मीथेन और कार्बन-डायऑक्साईड से थोड़ा ज़्यादा ही है। और जो अर्थ (पृथ्वी) का जो एटमोस्फ़ेरिक सिस्टम (वायुमंडलीय प्रणाली) है ये नॉन-लीनियर (अरेखीय, विषम) है। नॉन-लीनियर का अर्थ है कि बहुत जल्दी बहुत ज़्यादा बदलाव आ सकता है। कोई सिस्टम (तन्त्र) अग़र नॉन-लीनियर है तो उसका ये अर्थ होता है। तो उसकी वजह से ऐसा हुआ है कि ईस्ट अफ्रीका में तो सूखा पड़ा है लेकिन पाकिस्तान के इलाकों में बाढ़ आया था। तो ये नॉन-लीनियरिटी दर्शा रहा है कि पहले पृथ्वी नॉन-लीनियर था वो और-और ज़्यादा नॉन-लीनियर होते जा रहा है। तो सडन चेंजेस (अचानक बदलाव) बहुत जल्दी आ रहे हैं इसलिए फ़्लैश-फ्लड (आकस्मिक बाढ़) आना बढ़ गया है।
तो ये जो पूरा एक आर्टिकल (लेख) था, उसके बीच में एक आया कि व्हाई इज़ दिस हैपनिंग? ऐसा क्यों हो रहा है। तो अगले पैराग्राफ़ (अनुछेद लेखन) में उसके, उसका रीज़न (कारण) लिखा हुआ था। लेकिन बीच-बीच में क्या होता है कि दो पैराग्राफ़ के बीच में ऐड (विज्ञापन) आ जाता है। तो उसमें उसी वक़्त एक ऐड आ रहा था, व्हाई इज़ दिस हैपनिंग , उसके ठीक नीचे जिसमें दिखाया जा रहा था कि एक आदमी और एक औरत कैसे क़रीब आ रहे हैं वो एक शायद किसी सेक्सुअल वेब सीरीज़ का क्लिपिंग होगा, ट्रेलर होगा।
तो वो मुझे बड़ा अच्छा लगा कि वहाँ लिखा हुआ था ऐसा क्यों हो रहा है, क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) क्यों बढ़ रहा है और ठीक उसके नीचे एक लस्टफ़ुल इमोशन (कामुक भावना) है। तो वो ख़ैर वो ग़लती से कर दिए होंगे। उनको पता नहीं है वो क्या लिख रहे हैं, उसके नीचे उनके पैराग्राफ में पूरा एक्सप्लानेशन (स्पष्टीकरण) था क्लाइमेट चेंज का। लेकिन वो ग़लती से सही बात कह दिए वहाँ पर, तो इस बारे में?
आचार्य: हाँ, वो तो है ही, मैं क्या बोलूँ। आपकी जो अन्धी भावनाएँ होती हैं, चाहे वो लस्ट (काम-वासना) की हों, डिज़ायर (कामना) हो, ग्रीड (लालच) हो कुछ हो, डर हो, ये सब आपको प्रेरित करती हैं कि जाकर के संसाधनों का दोहन करो, अन्धाधुन्ध।
अब वॉर (युद्ध) है, वॉर ऐज़ ए कॉन्ट्रीब्यूटर टू क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन में योगदानकर्ता के रूप में ‘युद्ध’) इस पर हुई हैं स्टडीज़ (अध्ययन)। आपको दूसरे का कुछ क्षेत्र, कुछ ज़मीन उसकी जीतनी है, तो उसके लिए तो आप कितने भी कार्बन-इमिशन (कार्बन उत्सर्जन) करने को तैयार हो जाओगे न; क्योंकि आपकी भावना ये है कि जीत लूँ, उसको हरा दूँ। उसके लिए आपको बम गिराने पड़ रहे हैं, जलाना पड़ रहा है पेड़ों को, जंगल ही आपने जला दिए पूरे। शहरों में आपने आग लगा दी, बिल्डिंगें (ईमारतें) जल रही हैं। तो आप करोगे न।
एक वीडियो था अंग्रेज़ी में उसका हमने शीर्षक ही यही दिया था, ’ऑल योर इमोशन्स आर कार्बन’ (आपकी सभी भावनाएँ कार्बन हैं)। ऑल योर इमोशन्स आर कार्बन, क्योंकि भाव अन्धा होता है, उसे न आगा-पीछा समझ में आता है, न आपा समझ में आता। न आगे का समझ में आता, न पीछे का, न अपना, न इधर, न उधर, न स्वयं। किसी को नहीं समझता वो। तो वो फिर बस जो करता है सो करता है। भाव एक रहता है सबको कि खुशी चाहिए, हैप्पीनेस। वो हैप्पीनेस अगर दुनिया जलाकर मिलती है तो इंसान कहेगा, ‘कोई बात नहीं। कन्ज़प्शन (उपभोग) से हैप्पीनेस (खुशी) मिलनी है तो ठीक है, कन्ज़्यूम करेंगे। मन हो रहा है, भावना ये है कि कन्ज़प्शन करना है। तो करेंगे, क्यों नहीं करेंगे।’
हम संस्कृति की बात कर रहे थे न। जब तक संस्कृति ऐसी नहीं हो जाएगी, माँ-बाप बच्चों को शिक्षा नहीं देंगे कि अपनी भावनाओं को महत्व मत देना बहुत। तब तक वो संस्कृति आध्यात्मिक नहीं होने वाली। हमने उल्टा कर दिया है। हम बार-बार बोला करते हैं, रिस्पेक्ट फ़ीलिंग्स, रिस्पेक्ट फ़ीलिंग्स (भावनाओं का सम्मान करो)। क्योंकि हम जानते ही नहीं न कि फ़ीलिंग्स (भावनाएँ) कहाँ से आती हैं। कहते हैं न कि डोन्ट हर्ट समबडीज़ फ़ीलिंग्स (किसी की भावनाओं को ठेस न पहुँचाएँ)। हम ये नहीं बोलते, ’डोन्ट ब्लॉक समबडीज़ ग्रोथ’ (किसी के विकास को मत रोको)।
एक जगी हुई संस्कृति में ये नहीं सिखाया जाएगा कि डोन्ट हर्ट समबडीज़ फ़ीलिंग्स। ये भी नहीं कहा जाएगा कि डेलिब्रेटली हर्ट समबडीज़ फ़ीलिंग्स (जानबूझकर किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाओ), ये भी नहीं कहा जाएगा। वहाँ फ़ीलिंग्स को किनारे पर, हाशिए पर रख दिया जाएगा। कहेंगे, ‘न हमें हर्ट (आहत) करनी हैं और न हम हर्ट करने से बचना चाहते हैं। कभी हर्ट हो गयीं तो हो गयीं, नहीं हुईं तो नहीं हुईं। बात फ़ीलिंग्स की है ही नहीं। हमारा एक-दूसरे से सम्बन्ध, एक-दूसरे को जागृति देने का है।’
तो वो संस्कृति कहेगी कि समाज में जो भी लोग हैं वो आपस में जो भी व्यवहार करें, उस व्यवहार का उद्देश्य होना चाहिए कि तेरी भी आँख खुले, तुझे भी कुछ बातें समझ में आयें और मेरी भी आँख खुले। उस संस्कृति के सब नियम-क़ायदे, परम्पराएँ, प्रतीक जागृति-उन्मुखी होंगे। फ़ीलिंग्स उन्मुखी नहीं होंगे कि अरे! अरे! ऐसा मत करो, बेचारे को बुरा लग जाएगा। कहेंगे, ‘जान-बूझकर हम किसी को बुरा लगाना नहीं चाहते। पर जागृति की प्रक्रिया में अगर किसी की भावनाओं को ठेस लगती है तो फिर कोई बात नहीं।’
जागृति, भावना से ज़्यादा महत्व की है। जब ऐसा होने लगेगा और सिर्फ़ जब ऐसा होने लगेगा तब आप पाओगे कि क्लाइमेट चेंज वगैरह ऐसी समस्याओं का समाधान हो सकता है। पता नहीं ऐसा हो सकता है कि नहीं, मैं भविष्य की ओर ज़्यादा देखता नहीं इसलिए मुझे पता नहीं। बहुत मुझे आशा है नहीं। पर हो सकता हो, नहीं हो सकता हो, प्रयास तो करना चाहिए।
प्र४: धन्यवाद।