भारत ने इतनी असफलताएँ क्यों पाईं? || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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भारत ने इतनी असफलताएँ क्यों पाईं? || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: भारत ने जो असफलताएँ पाई हैं, जो दुःख पाए हैं वो इसलिए नहीं पाए है कि वो सच के पथ पर चला है। हम इतने भी दूध के धुले नहीं रहे हैं जितना आप प्रदर्शित कर रही हैं। तमाम खामियां, खोटें, ऐब हममे रहे हैं और उन्ही के कारण हमे जो असफलताएँ मिली हैं वो मिली हैं।

देखिए सच की निशानी होती है साहस। सच के रास्ते पर जो आदमी चल रहा है उसका अनिवार्य लक्षण होता है निर्भयता। और जो साहसी है और जो निर्भय है वो हार नहीं सकता। अगर आप बात कर रही हैं तमाम युद्ध में मिली हारों की तो वो हारें इसलिए नहीं मिली हैं कि भारतीय सब जन सच्चाई के रास्ते पर चलते थे, वो हारें इसलिए मिली हैं क्योंकि हम सच्चाई के रास्ते से विमुख हो गए थे। ये नाता तो आप जोड़ ही मत दीजिएगा कि जो सच्चा होता है वो कमज़ोर हो जाता है और हारने लग जाता है। बिल्कुल झूठी और बिल्कुल गलत बात है ये। ये बात कोई भी अपने मन में ज़रा भी ना रखे।

मैं कह रहा हूँ जो आदमी सच्चा है वो मर तो सकता है पर हार देखने के लिए वो ज़िंदा नहीं बचेगा और जब तक वो जीया है तब तक वो हारेगा नहीं क्योंकि हार होती ही तब है जब तुम घुटने टेक दो। आप किसी को पीट सकते हो बुरे तरीके से, उसकी दुर्गति कर सकते हो, हड्डी-पसली एक कर सकते हो, लेकिन क्या वो हार गया? हारा तो वो तब तक नहीं ना जब तक कि उसने पलटवार करने का, दुबारा लड़ने का संकल्प ही त्याग नहीं दिया। आपने किसी को बिल्कुल भुर्ता बना डाला ऐसी उसकी पिटाई करी, किसी भी तरीके से, सामरिक तरीके से, आर्थिक तरीके से, कैसे भी, लेकिन अगर अभी उसमें जज़्बा बाकी है, वो कह रहा है कि मैं पलटूँगा, मैं दुबारा उठूँगा तो अभी वो हारा है क्या? अभी तो लड़ाई बाकी है, अभी तो अगली पारी आएगी।

तो हार सच्चे आदमी की कभी हो ही नहीं सकती। भारतीयों की अगर हार हुई है तो सच्चाई में कोई कमी रह गई होगी। जिस देश का, जिस मिट्टी का सबसे बड़ा और सबसे मान्य धर्मग्रंथ ही कहता हो कि “अर्जुन तू तो लड़ और ये सोच मत कि अंजाम क्या होगा। अंजाम के लिए नहीं सच के लिए लड़ अर्जुन, कृष्ण के लिए लड़ अर्जुन।” जिस देश का सबसे बड़ा धर्मग्रंथ ही युद्धभूमि की पृष्ठभूमि में रचा गया हो वो देश हार कैसे सकता है? और अगर हारा तो इसका मतलब उस देश ने गीता भुला दी थी।

तो ये मत कहिए कि “अरे, हम तो बड़े सच्चे लोग थे, हम तो धर्म की और कृष्णों की और ऋषियों की सीख पर चलते रहें। हम तब भी हार गए, इसका मतलब कौन नाकामयाब है? इसका मतलब कि साहब, कृष्ण में ही कोई खोट है, धर्म में ही कोई खोट है, सच में ही कोई खोट है।” नहीं, नही, नहीं कुतर्क मत करिए। न सच में खोट है, न कृष्ण में खोट है, न धर्म में खोट है, खोट हममें है जो हमने उनकी सीख का पालन नहीं करा। अगर हम हारे हैं तो इसलिए नहीं कि हम उनकी सीख पर चलते थे, अगर हम हारे हैं तो इसलिए क्योंकि हम उनकी सीख पर बहुत-बहुत कम चलते थे।

ये तो हमने ज़बरदस्त कुतर्क कर दिया। तुम किसी की सीख का पालन ना करो और हार जाओ या किसी की सीख का बस आंशिक पालन करो और हार जाओ और कहो कि “साहब, मैंने आपकी सीख पचास प्रतिशत तो मानी थी न, देखिए मैं तब भी हार गया।” तो तुम इस बात को छुपा रहे हो कि तुमने उसकी सीख सिर्फ पचास प्रतिशत मानी थी और पचास प्रतिशत नहीं मानी थी। और सच का रास्ता ऐसा नहीं होता है कि उसपे आप तीस, चालीस, पचास, सत्तर प्रतिशत चल करके जीत जाएँगे। सच के रास्ते पर तो पूर्ण समर्पण चाहिए, निष्ठा पूरी शत-प्रतिशत चाहिए। शत-प्रतिशत, नहीं है तो हार मिलेगी। ये भी हो सकता है कि अठानवे-निन्यानवे प्रतिशत पर भी आपको हार झेलनी पड़े, दोष आपका ही होगा, सच का नहीं। और कायरता को और भगोड़ेपन को और दब्बूपन को तो आप कभी जोड़ ही मत लीजिएगा सच के साथ। सच्चा आदमी विवेकपूर्ण होता है, उसकी बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण हो जाती है। जबरदस्त तरीके से सोचता है वो। दुश्मन को हराने के लिए या सत्य की स्थापना के लिए वो जैसा विचार कर सकता है और जैसी चतुर चाल चल सकता है वैसा अधार्मिक आदमी चल ही नहीं सकता।

ब्रह्मविद्या के बारे में कहते ही यही है कि ब्रह्मविद्या ऐसी विद्या है कि इसके बाद बाकी सब विद्याएँ आसान लगने लगती है। जो ब्रह्मविद्या में पारंगत हो गया वो दुनिया की बाकी सब विद्याओं में पारंगत हो जाएगा। इसी तरीके से जो सत्य के प्रति निष्ठापूर्ण हो गया, जो धर्म में निष्णात हो गया उसका विचार जबरदस्त रूप से पैना हो जाता है। आप उसको हरा नहीं सकते, न तर्क में, न ज्ञान में, न विज्ञान में, न युद्ध में।

सच के साथ हमने दो-चार बड़े दुर्भाग्यपूर्ण चित्र जोड़ दिए हैं। हमने छवि ऐसी बना ली है कि “सच्चा आदमी कैसा होता है? अच्छा होता है पर बेवकूफ सा होता है, समझदार नहीं होता, दुनियादारी नहीं जानता और उसको एक झापड़ लगा दो तो हें-हें हें-हें करके खीस निपोरेगा और पीछे हो जाएगा। ठसक नहीं होती, छाती चौड़ी करके वो लड़ नहीं जाएगा। वो कहेगा, ‘अरे, कोई बात नहीं गाल पर ही तो मारा है और गाल तो मिथ्या है, देह तो मैं हूँ नहीं।’ वो इस तरह कि कुछ बातें बोलेगा और आप उसे जितना दबाएँगे वो दबता जाएगा।

और कैसा होता है सच्चा आदमी? ये जो हमारी प्रचलित छवि बन गई है आजकल सच की, मैं वो बता रहा हूँ आपको। कि और कैसा होता है सच्चा आदमी? “वो दुनियादारी की कोई समझ नहीं रखता, उसको आसानी से बेवकूफ बना सकते हो।” और कैसा होता है? “शारीरिक रूप से दुर्बल होता है, ऐसे ही दुबला-पतला सा है। उसको ऐसे ‘शु’ करदो तो भाग जाएगा। और हाँ, भागते हुए भी उसको रंच मात्र भी न क्रोध आएगा न शर्म आएगी, क्रोध तो उसमे होता ही नहीं। धार्मिक आदमी है उसको कभी आक्रोश उठता ही नहीं।” इस तरह की हमने छवियां बना रखी हैं। नतीजा ये निकला है कि हमने सच का संबंध अनिवार्य रूप से दुर्बलता से जोड़ दिया है जबकि सच का सीधा-सीधा संबंध शक्ति से है, ताक़त से है। और जो कोई अशक्त है, दुर्बल है वो ये साफ़ समझ ले कि वो सच के साथ नहीं है, चाहे वो कोई व्यक्ति हो चाहे कोई देश हो। और देश क्या है? जहाँ के व्यक्ति दुर्बल हो वो देश बली हो सकता है क्या? समझ में आ रही है बात?

ये भी झूठ की बहुत बड़ी साजिश है कि एकदम किसी गिरे-पड़े, दब्बू, मुर्ख, कमज़ोर आदमी को खड़ा कर दो ऐसे। वो खड़ा भी नहीं हो पा रहा, उसको ऐसे टांग के खड़ा करना पड़ता है, उसको छोड़ दो तो वो बिखर जाएगा। तो ऐसे उसको खड़ा कर दो और बोलो, “ये देखो ये बहुत सच्चा आदमी है।” और वो जो सच्चा आदमी है, जैसे ही उसको तुमने टांग रखा है उसने दो चार श्लोक बोल दिए और कुछ भली-भली नैतिकता की बात बोल दी। भाई साहब, धर्म का, सच का कोई संबंध सामान्यतया प्रचलित नैतिकता से नहीं है। सामान्यतया प्रचलित जो नैतिकता होती है वो तो हमारे मन के सामाजिक संस्कार होते हैं और धर्म का वास्तविक अर्थ है — मन पर संस्कारों की जितनी परतें चढ़ी हो उन सब को धो देना, मिटा देना। धर्म आपको सब तरह की नैतिकता से आज़ाद कर देता है, धर्म आपको आत्मिकता दे देता है और वो आत्मिकता ही सच्ची नैतिकता होती है।

तो आप दुश्मन का सामना ना कर पाए या आवश्यकता पड़ने पर भी दुश्मन को मृत्यु-दंड ना दे पाएँ ये कह कर के कि “मैं तो भला आदमी हूँ, मैं तो नैतिक आदमी हूँ।” तो आप धार्मिक नहीं हैं आप सिर्फ बेवकूफ हैं। कृष्ण अर्जुन से मृत्यु-दंड नहीं दिलवा रहे हैं क्या पूरी एक सेना को ही? और भीम कमज़ोर पड़ रहे थे थोड़ा, उनसे मृत्यु-दंड दिया नहीं जा रहा था तो कृष्ण ने मामला ही अपने हाथ में ले लिया। बोले ये नहीं मार पा रहा है तो मैं ही बताए देता हूँ, “अरे, नीचे मार नीचे,” भले ही वो युद्ध के नियमों के खिलाफ हो, भले ही उससे नैतिकता टूटती हो। “ये खड़े हैं बगल में बलराम, ये नाराज़ होंगे, कोई बात नहीं, देखा जाएगा, तू तोड़ दे। सच से बड़ी कोई नैतिकता नहीं होती, तोड़ दे दुर्योधन की जांघ अभी।” ये कृष्ण कह रहे हैं।

अगर भारत नैतिकता के पचड़ों में इतना फँस गया कि नैतिकता के कारण हारने लग गया तो वो नैतिकता झूठी है, उसका धर्म से क्या लेना-देना। और अपनी ही उनकी शपथ थी, दुर्योधन को वचन दिया था युद्ध में शस्त्र नहीं उठाऊँगा और देख रहे हैं कि वो पीछे खड़ा हुआ है अर्जुन और वो भावनाओं के वशीभूत होकर के अपने पितामह पर बाण ही नहीं चला पा रहा या इधर-उधर हल्का-फुल्का कुछ चला रहा है तो बोले, “वचन गया भाड़ में। कोई वचन सच से बड़ा नहीं होता। दिया होगा मैंने दुर्योधन को वचन कि युद्ध में शस्त्र नहीं उठाऊँगा। मैंने ही वचन दिया था ना, मेरा वचन मुझसे बड़ा नहीं हो गया अभी तोड़ रहा हूँ अपना वचन। मैं ही इनको मारे देता हूँ, अर्जुन तो कुछ कर नहीं पाएगा ये तो बिल्कुल कापुरुष हुआ पड़ा है।” फिर अर्जुन घबराया, कुछ चेतना जगी। पीछे से आकर पकड़ा, “अरे, नहीं, नहीं, नहीं आप ये ना करे, मैं ही लड़ लूँगा।” तुम्हें क्या लगता है कि वो इस योजना से आगे बढ़े थे कि अर्जुन पीछे से आ ही जाएगा, अर्जुन नहीं आता पीछे से तो उन्होंने खुद ही काम तमाम कर दिया होता। चक्र चलाने का तो उनका वैसा भी बड़ा अभ्यास था। वो तो छोटा चक्र था सुदर्शन, बड़ा वाला चक्र लिए हुए थे, दे के मारते वो। सब वही काम हो जाता।

तो अगर आप झूठे नैतिकता के पचड़ों में फँसते रहे हैं, आप तथाकथित भले आदमी हैं और इस भलाई के कारण आपको ज़िंदगी में असफलता दर असफलता मिली है तो कृपा करके ये ना बोले कि आपको असफलता आपके सच के कारण मिली है। आपको आपकी असफलता आपके संस्कारों के कारण मिली है। सच में और संस्कारों में अंतर होता है।

मेरे उत्तर के पहले हिस्से में मैंने बताया कि कैसे भारत कम से कम पाकिस्तान की अपेक्षा सफल है और अब मैं चर्चा कर रहा हूँ कि अगर भारत असफल रहा है एक बड़ी सीमा तक तो उसकी क्या वजह रही है। उसकी वजह ये रही है क्योंकि यहाँ बहुत सारे लोग हैं जो भले बन के घूम रहे हैं और उनको ये नहीं समझ में आ रही बात कि उनकी भलाई धार्मिक नहीं है, मात्र संस्कार जनित है। वो अपने संस्कारों को ही सोच रहे हैं कि यही तो धर्म है, यही तो सच्चाई है, ऐसे ही तो चलना है। तो एक तो इस तरह के लोग हैं।

हिन्दुस्तान में दो तरह के लोग प्रमुखता से हैं — एक वो जिन्होंने कह रखा है हमे धर्म से कुछ लेना ही देना नहीं। इनकी तो दुर्गति ज़िन्दगी कर ही रही है और इनका होना देश के लिए भी अभिशाप जैसा है। दूसरे वो लोग हैं जो बहुत बड़ी तादात में हैं, जो कह रहे हैं, “हम धार्मिक हैं।” ये वास्तव में धार्मिक नहीं हैं, मैं कह रहा हूँ — ये सिर्फ संस्कारित हैं और नैतिक हैं। इनका वास्तविक अध्यात्म से कोई लेना-देना नहीं। इनका अध्यात्म वही वाला है कि कमरे के किसी कोने में बैठ जाओ, आँखे बंद करलो और ध्यान लगाओ और बाहर सड़क पर क्या चल रहा है उससे कोई सरोकार नहीं। जब युद्ध का समय आए और दुश्मन ललकारे तो ही-ही ही-ही करके बत्तीसी दिखा कर के कही कोने में घुस जाओ। तब ना बुद्धिबल है ना बाहुबल है ना आत्मबल है। ये कौनसा भगोड़ा और दुर्बल अध्यात्म है भाई? कम से कम ये गीता का अध्यात्म तो नहीं है, ये उपनिषदों का अध्यात्म तो नहीं है। समझ में आ रही है बात?

तो भारत के लिए आगे का रास्ता ये नहीं है कि भारत सच को और अध्यात्म को और धर्म को छोड़ता चले। वो तो बड़ा अनिष्ट हो जाएगा। आगे का रास्ता ये है कि समझो कि वास्तविक सफलता और विजय मात्र उसे मिलती है जो सत्य के साथ होता है, इसलिए तो ‘सत्यमेव जयते’। ये नहीं है कि ‘सत्यं जयते’। बीच में क्या लगा हुआ है? एव, एव माने? ही, ही माने? सिर्फ। ये संभावना भी नहीं है कि सच जीतेगा और अर्धसत्य भी जीत जाएगा या मिश्रित सत्य भी जीत जाएगा, जो शत-प्रतिशत खरा है सिर्फ वही जीतेगा। हाँ, अगर लड़ाई हो रही है अंधेलाल और काणेलाल में तो वो काणेलाल जीत सकते हैं। दो ऐसे लोग अगर भीड़ गए जिसमे से एक सत्य के साथ बिल्कुल नहीं है और दूसरा सत्य के साथ आधा-अधूरा है तो इसमें कोई भी जीत सकता है। फिर अब जो जीत रहा है या जो हार रहा है उसकी जीत में या उसकी हार में सत्य का कोई संबंध है ही नहीं क्योंकि ये दोनों ही जो आपस में भीड़ रहे थे ये दोनों ही अधार्मिक किस्म के लोग थे, इसमें से कौन जीता कौन हारा अब ये संयोग की बात है, हमे क्या लेना-देना।

लेकिन एक बात पक्की है कि अगर दो ऐसे पक्षों में मुक़ाबला होता है या तुलना होती है जिनमे से एक वास्तविक रूप से धार्मिक है और दूसरा नहीं है तो मैंने कहा कि जो वास्तविक रूप से धार्मिक है उसको हराया नहीं जा सकता। आप अधिक से अधिक ये कर सकते हैं कि उसको मार दे, हारेगा वो तब भी नहीं। आप उसे मार भी देंगे तो भी हारे आप ही। बात समझ में आ रही है?

अपनी असफलाओं का ठीकरा धर्म के सिर मत फोड़े। हमारी हालत ऐसी है जैसे कोई घटिया छात्र, जिसने सालभर अपनी किताब खोली नहीं या खोली भी तो आधी ही, थोड़ा बहुत पढ़ा थोड़ा नहीं पढ़ा, ऐसा ही किताब के साथ रुखा-सौतेला व्यवहार करा और फिर वो जाता है परीक्षा लिख के आता है, परिणाम आता है। परिणाम क्या आता है? असफल। तो वो आकर के ऐसे दिखाता है जैसे उसके साथ बड़ा अत्याचार हुआ है, बड़ा गलत हो गया है और अपनी किताब में आग लगा देता है, कहता है, “इस किताब की वजह से ही तो आज मैं अनुत्तीर्ण हुआ हूँ। ये घटिया किताब, मैं इसका पालन करता रहा, मैं इसी को पढ़ता रहा और आज देखो क्या हुआ मेरे साथ, मैं अनुत्तीर्ण हो गया।” तू अनुत्तीर्ण इसलिए हुआ है क्योंकि तू उस किताब का पालन कर रहा था या इसलिए हुआ है क्योंकि तूने उस किताब का पालन किया ही नहीं। आज यही चलन चल रहा है।

लोगो को वेदांत नहीं पढ़ना, गीता नहीं पढ़नी, उपनिषद नहीं पढ़ना और तर्क क्या देना है? तर्क यही कि “देखो ना, पश्चिम वाले कितने आगे हैं, उन्होंने तो कभी गीता नहीं पढ़ी।” एक आए थे सज्जन, बोल रहे है, “आइंस्टीन ने कोई गीता नहीं पढ़ी थी, इतनी उसकी प्रखर बुद्धि थी।” मैंने कहा तुम बैठो, उनको फिर बात समझाई। जब बात समझाई तो पहले तो अड़े, फिर पसीना-पसीना हो गए बिल्कुल। एक आए, बोले, “देखिए, अमेरिका तो कोई अहिंसा का पालन नहीं करता और चीन को देखिए, सबसे ज्यादा वहाँ हिंसा है, अत्याचार है, जानवरों का माँस भी सबसे ज्यादा वही खा रहे हैं और सबसे आगे हैं।" मैंने कहा, "बैठो, बात समझाते हैं।"

बात बस इतनी सी है कि आप ये साबित करके कि चीनियों से ज्यादा माँस कोई खाता नहीं, खुद आप माँस खाना चाहते हैं। आप कह रहे हैं कि "देखिए, चीनी चढ़े जा रहे हैं हिंदुस्तान पे और चीनी तो टनों के भाव से माँस खाते हैं। तो इससे ये साबित होता है कि जो माँस खाने वाले लोग हैं वही सफल हैं।" ये तर्क आप दे क्यों रहे हो आपको पता है ना, क्यों दे रहे हो? ताकि आप भी माँस खा सको। जो असली बात है वो आप छुपा रहे हो। अपनी हार की असली वजह आप छुपा रहे हो। वजह आपने क्या ज़बरदस्त ढूंढ़ के निकाली है कि "देखिए, वो गीता नहीं पढ़ते और वो सब जानवर मार-मार के खाते हैं इसीलिए तो वो आगे हैं।" तो यानी कि अगर मुझे आगे बढ़ना है ज़िंदगी में तो मुझे दो काम करने हैं। पहला — गीता नहीं पढ़नी और दूसरा — मैं भी जानवर काट-काट के खाऊँगा तो मैं आगे बढ़ जाऊँगा ज़िंदगी में। क्या ज़बरदस्त तर्क है साहब? बचिएगा ऐसे तर्कों से।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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