प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। रुकमा जी हैं, छत्तीसगढ़ से। वो पूछ रही है कि आचार्य जी २०२४ के नोबेल पुरस्कारों की घोषणा ७ अक्टूबर से १४ अक्टूबर के बीच की गई है। जब इस पर विचार किया तो पाया कि भारत ने २०१४ से शांति के क्षेत्र में एक नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया था। फिर २०१९ में अर्थशास्त्र के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया था और वो जो व्यक्ति थे वह गैर भारतीय नागरिक थे। बस उनका जन्म भारत में हुआ था। कुल मिलाकर भारत को २०१४ के बाद से लेकर अब तक किसी भी क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार नहीं मिला है।
हम उन क्षेत्रों में शीर्ष पर हैं जिन क्षेत्रों में कोई भी देश शीर्ष पर होना नहीं चाहेगा। चाहे प्रदूषण हो, चाहे गरीबी हो, भुखमरी हो या बेईमानी हो वहाँ पर भारत सबसे ऊपर है। इन सबका सीधा संबंध क्या हमारी शिक्षा, हमारे विचार या काम के प्रति ईमानदारी से है? इस पर कृपया मार्गदर्शन दें और सूक्ष्मता से विचार करने पर सहायता करें।
आचार्य प्रशांत: देखो यह जो पूरी नोबेल कमेटी है ना, यह जलती है हमसे इसलिए यह हमको नोबेल देते नहीं हैं। नहीं तो हर साल आठ नोबेल कम से कम हमें मिलने चाहिए। आठ नोबेल, नहीं फर्क पड़ता कि आठ क्षेत्रों में तो दिए भी नहीं जाते। एक-एक क्षेत्र में दो-दो मिलने चाहिए हम ऐसे चमत्कारी लोग हैं। अनुसंधान वो करता है जिसको नहीं पता होता, हम तो विश्व गुरु हैं ना। हमें सब कुछ पहले से पता है। तो हम क्यों करें अनुसंधान?
नोबेल उनको दिया जाता है, उनके सम्मान में जिन्होंने अनुसंधान करा या शांति के लिए प्रयास करा। शांति का अलग है नोबेल प्राइज़ और बाकी सब तो रिसर्च के लिए मिलते हैं। इकोनॉमिक्स हो, चाहे विज्ञान हो, वहाँ तो तुम कुछ करोगे खोज तब जाके मिलेगा। हम काहे कि आज खोज करने निकले हैं, हम पागल हैं क्या? हमने तो सब कुछ पहले ही खोज रखा है। हम क्यों कुछ खोजने निकलें? और सब हमने पहले ही खोज रखा है इसीलिए तो ये सब के सब जलते हैं हमसे।
खोजे वो जिसने खो दिया हो और हमने कभी खोया ही नहीं। हम मालिकों के मालिक हैं। ये सब तो गरीब अनपढ़ गँवार हैं, इन्हें आज खोजना पड़ रहा है। हमारी पुरानी किताबों में सब कुछ लगभग सौ ट्रिलियन साल पहले से लिखा हुआ है। इनको कुछ पता नहीं है तो ये आज जा रहे हैं। देखें मॉलिक्यूलर बायोलॉजी में क्या नई खोज कर सकते हैं? फिज़िक्स में क्या नई खोज कर सकते हैं, इकोनॉमिक्स में क्या नई रिसर्च कर सकते हैं? ये सब आज कर रहे हैं।
हमें तो सब कुछ स्वयं साक्षात ब्रह्मा के मुख से मिला है सौ ट्रिलियन साल पहले, हम क्यों कोई खोज करें? हमें तो सब कुछ मिला हुआ है, बस कभी कभार वो थोड़ा ऊपर नीचे हो जाता है तो हम उसकी मेंटेनेंस कर देते हैं जिसका नाम है जुगाड़। तो हम कोई फंडामेंटल रिसर्च नहीं करते, हम जुगाड़ते हैं। हम खोजते नहीं है, हम जुगाड़ते हैं।
क्योंकि अब तो हम यह भी नहीं कह सकते कि मामला रुपए पैसे का है। १४० करोड़ लोगों का देश है और इसमें जो शीर्ष एक प्रतिशत है उनके पास बहुत पैसा है। वह अमेरिका वालों से ज़्यादा अमीर हैं। पूरे एशिया में सबसे ज़्यादा बिलेनियर्स भारत के मुंबई शहर में है। तो अब तो यह भी नहीं कह सकते कि भारत गरीब देश है तो कहाँ से रिसर्च करेगा? काहे की गरीबी? यहाँ ५-१० करोड़ की तो शादियाँ होती हैं। काहे की गरीबी? कौन गरीब है यहाँ?
भारत के अमीरों को ही अगर ले लिया जाए तो उनसे ही एक छोटा-मोटा देश बन जाए। भारत अब इतना अमीर हो चुका है। हाँ, ये अलग बात है कि भारत के गरीबों को ले लिया जाए तो उससे विश्व का सबसे बड़ा देश बन जाए। वो बिल्कुल अलग बात है। और भारत में दोनों चीज़ें साथ-साथ चलती हैं। अँधाधुंध अमीरी और खाली पेट सुराने वाली गरीबी। दोनों एक साथ चलते हैं हमारे यहाँ। तो अब यह भी नहीं कह सकते कि रिसर्च फैसिलिटीज की, फंडिंग की इनकी कमी है क्या कमी है? तो फिर कमी कहाँ होगी?
कमी ज़रूर हमारी सोच में और हमारी संस्कृति में है। हमें नहीं खोजना, हमारे देखे सब खोजा हुआ है पहले से।
हमारे देखे खोज के हम करेंगे भी क्या? जिन्होंने खोज भी लिया उन्हें क्या मिला? क्या उन्होंने मृत्यु पर विजय पा ली? क्या उन्हें मोक्ष मिल गया? क्या उन्होंने मदद, मोह, मात्सर्य, भय, लोभ, क्रोध को जीत लिया। हमने जीता है।
अतः हमें किसी प्रकार के रिसर्च के अनुसंधान की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि सब प्रकार की रिसर्च करने के बाद भी तुम हो तो मद, मोह, माया के फंदे में ही पड़े हुए। हमने तो सीधे मद, मोह, माया का फंदा ही काट दिया, हम मुक्त हैं। अरे जिसे साध्य ही मिल गया हो वो साधन का प्रबंध करके क्या करेगा?
ये सब तो अभी बच्चे हैं पश्चिम वाले। इनकी सभ्यता तो अभी घुटनों पर रेंग रही है। कल परसों पैदा हुई है। हम बहुत पुराने हैं। ये जिस दिशा में जा रहे हैं खोज वगैरह करने, हम उस दिशा में खोज पूरी करके कब के वापस लौट चुके हैं। तो इन बच्चों को भी खेलने दो। अभी इनके दिन हैं। हम वयस्क हैं। हम प्रौढ़ हैं। हम तो बस साक्षी भाव से बैठकर के इन बच्चों का खेलना देखेंगे। खेल रहे हैं बच्चे।
पार्टिकल एक्सीलरेटर बनाया है नया। अरे क्या पार्टिकल एक्सीलरेटर? हम तो सीधे युगों को एक्सीलरेट कर देते हैं। हमारी पुस्तकों से जाकर पूछो कि तुम क्या छोटी-मोटी चीज़ें बना रहे हो। हम सब कर चुके हैं, 'बीन देयर डन दैट।'
तुम लगे पड़े हो कि एक इतना-सा पार्टिकल लगभग मासलेस उसको एक्सीलरेट करना है। और बहुत एक्सीलरेट करके भी तुम वेलोसिटी ऑफ लाइट नहीं छू पाओगे। हमने तो पूरा का पूरा इंसान एक्सीलरेट कर दिया। सतयुग से उठाया और पलक झपकते उसको हमने कलियुग में डाल दिया। ये लो अब बताओ। तुम बना रहे हो पार्टिकल एक्सीलरेटर। हम कब का पर्सन एक्सीलरेटर बना कर बैठे हुए हैं। और स्पीड ऑफ लाइट को भी वायलेट कर चुके हैं। काहे की स्पीड ऑफ लाइट? जहाँ ना जावे रवि वहाँ जावे कवि। रवि रखे रहे अपनी लाइट। ये लगे हुए हैं 3G, 4G, 5G, 6G।
अरे पंद्रह हज़ार तो हम दस हज़ार साल पहले छोड़ आए। उन्होंने कहा, ‘रखा क्या है इसमें?’ इंटरनेट ही तो है ना। जाल सब प्रकार के जाल हमने काट दिए, अरे माया जाल होता है, हम मुक्त है हम क्या करेंगे? ये सब पागलों की तरह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, हमारे पास तो असली इंटेलिजेंस है, हमारे यहाँ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर कोई रिसर्च नहीं होगी। भले ही उस रिसर्च को ना करने की वजह से, हम पहले ही यह जो छोटे-मोटे कस्बे, जैसे छोटे-मोटे देश हैं चीन वगैरह, भले ही हम उनसे बीस साल पीछे हो चुके हों क्योंकि एआई में न रिसर्च करी ना पैसे लगाए पर हम कह रहे हैं आर्टिफिशियल ही तो है।
अरे हम खरे-खरे देश हैं, असली देश हैं। तुम कर लो जितनी रिसर्च करनी है। जब कर लोगे तो हम कहेंगे यह तो हम ५०० साल पहले ही कर चुके थे। तुम्हारा काम है रिसर्च करना। हमारा काम है ये कहना, 'यह सब तो हम ५०० साल बहुत छोटा बोल दिया, ५०० ट्रिलियन साल पहले ही कर चुके थे।'
तुम रिसर्च करके लाओ। रखो यहाँ पे ना। हमें कुछ नहीं करना। हमें बस क्या कहना है? ये सब तो हम कब का कर चुके हैं। इसमें क्या है? कुछ नहीं। और तुम्हारे पास इंटेलिजेंस है नहीं इसीलिए तो तुम्हें आर्टिफिशियली...। हमारे पास तो है। हम नैचुरली इंटेलिजेंट है। एनआई। तुम रखो अपनी एआई।
ये नोबेल होबल, ये तुम्हारे बच्चों का खेल। क्या करता था, वो नोबेल तुम्हारा? डायनामाइट ही तो बनाया था, उड़ाता रहता था इधर-उधर, तुम्हें तो पर्वत उड़ाने के लिए डायनामाइट की ज़रूरत पड़ती है। हमारे पुरखे तो ऐसे थे कि पाद मार के उड़ा देते थे पूरा पहाड़, बताओ क्या करें तुम्हारे नोबेल का?
वह जो एक वैज्ञानिक को मिलता है ना, रुकमा जी (प्रश्नकर्ता का नाम), पुरस्कार उस वैज्ञानिक को नहीं मिल रहा है। वो उसके पूरे समाज को मिल रहा है। वैज्ञानिक ऐसे ही आसमान से नहीं टपक पड़ता। वह समाज की ज़मीन से खड़ा होता है। जैसा समाज है वैसा ना हो तो फिर वह वैज्ञानिक भी वैसा नहीं हो सकता था।
जब समाज और सोच और संस्कृति ही दीमक के चाटे हुए हैं, जहाँ लोक धर्म में वास्तविक धर्म के लिए कोई जगह नहीं है, वहाँ कैसे जिज्ञासा होगी और जिज्ञासा नहीं होगी तो कैसे खोज होगी? हमारे यहाँ तो संस्कृति का मतलब होता है परंपरा और विश्वास और आस्था और मानना मान्यता। और नोबेल प्राइज़ तो मिलता है ‘ना मानने पर।’ हम मानते नहीं है। हम जानने के लिए खोजते हैं। तब मिलता है नोबेल प्राइज़। क्यों मिले?
और भारत धीरे-धीरे और ज़्यादा मान्यताओं और अंधविश्वास की जकड़ में गिरफ्तार होता जा रहा है। हमें नोबेल प्राइज़ मिलेगा? हमें चाहिए भी नहीं। खैर,बच्चों के बात, खेलने दो। क्या रखा है? और थोड़ा बहुत पैसा दे देते हो तुम। यह नोबेल प्राइज़ है। इसमें क्या रखा है? कुछ नहीं।
पैसा तो हमारे हाथ का मैल है। निकल क्यों नहीं रहा? झड़ नहीं रहा ससुरा। और जब नहीं ऐसे पैसा निकले तो कुछ नहीं। बोल दो कुछ नहीं है, पैसे में क्या रखा है? अरे, हम सीधे सागर मंथन करके कल्पवृक्ष ले आएँगे, उससे जितना पैसा मांगो दे देगा। उसका नाम ही है कल्पना का वृक्ष कल्पवृक्ष। उनके यहाँ एस्ट्रोनॉट होते हैं तो खोज करते हैं हमारे यहाँ एस्ट्रोटॉक होता है। तुम्हें बड़ी मेहनत करनी पड़ती है पूरा तुम यान बनाते हो अंतरिक्ष यान और जाते हो और खोज करते हो। हमें नहीं करना, हमारे यहाँ बाबा जी की बूटी है। हो गया एस्ट्रो, खत्म।
तुम तो फिर भी कितनी दूर तक जाओगे, हमें बाबा जी तो आँख बंद करते हैं और सीधे बताओ तुम ब्रह्मांडों के पार के ब्रह्मांड में पहुँच जाते हैं। और तुम्हारी औकात नहीं कि बाबा जी को तुम नोबेल प्राइज़ दे दो। वो अल्फ्रेड नोबेल की भी कुंडली निकाल देंगे। तुम उन्हें नोबेल प्राइज़ देने आए हो। नोबेल प्राइज़ तो फिर भी मानव श्रम, उद्यमशीलता, रचनात्मकता के कुछ गिने चुने क्षेत्रों में दिया जाता है। और भी क्षेत्र होते हैं। हम उसमें भी कहाँ है बताओ ना।
बहुत दर्द होता है यहाँ पर इसलिए व्यंग कर रहा हूँ। हम उनके वंशज हैं जिनकी जिज्ञासा की धार इतनी पैनी थी कि उससे उन्होंने अपने भीतर जो मान्यताएँ बैठी थीं उनको तक को काट डाला। र्सिफ़ यही नहीं करा कि बाहर जो भ्रम है, जाल है, अज्ञान है, उसको काटा हो।
हम जिन दार्शनिकों, चिंतकों के वंशज हैं, उनका दर्शन तो सीधे प्रश्नकर्ता की, खोजी की छाती में घुस गया। एक वो थे और एक हम हैं उनकी नालायक संतानें।
ये फिल्में बनाते हैं तो चुराकर गाने गाते हैं, तो चुराकर कपड़े पहनते हैं तो डिजाइन चोरी के। मात्र विज्ञान की बात नहीं है। कलाओं में बता दो ना, हम कौन-सा मौलिक काम कर रहे हैं? एक आध दो अपवाद आ जाए कि बोलो रविंद्रनाथ टैगोर को मिला था, गीतांजलि के लिए मिला था कि नहीं मिला था? एक्सेप्शनंस ओनली प्रूफ द रूल। एक आध दो अपवाद मत गिनाने लग जाया करो।
१४० करोड़ लोगों का देश है। पूरे यूरोप से कई गुनी ज़्यादा आबादी है हमारी। क्या कर रहे हैं हम? पहले तो कुछ करना नहीं। और दूसरे कोई कहे कि तुम कुछ कर नहीं रहे तो कहना, 'अरे! हम तो यह सब कुछ ना जाने कब के कर चुके हैं। हम तो विश्व गुरु हैं।' देखो चीन को कि वहाँ कितने पेटेंट फाइल होते हैं हर साल। और फिर भारत को देखो। क्वालिटी ऑफ रिसर्च वहाँ की देखो और यहाँ की देखो।
और अभी मुश्किल से ३०-३५ साल पहले तक चीन और भारत की आर्थिक स्थिति बिल्कुल एक बराबर थी। लगभग १९८५-९० तक चीन में भारत में कोई अंतर नहीं था। थोड़ी उनकी आबादी ज़्यादा थी, बस उसके अलावा प्रति व्यक्ति आय बिल्कुल एक जैसी थी। बल्कि कई मामलों में हम बेहतर थे। हमारे इंस्टिट्यूशन उनसे बेहतर थे।
और आज देखो वो कहाँ पर खड़े हुए हैं। उनकी यूनिवर्सिटीज को देखो और अपनी। नोबेल प्राइज़ का बड़ा संबंध तो शिक्षा से होता है। यूनिवर्सिटीज को मिलते हैं नोबेल प्राइज़। वास्तव में मेरा एक बैचमेट वो यूएस गया। वहाँ उसका मास्टर्स कम पीएचडी प्रोग्राम था। तो वहाँ से बोलता है कि जिस फ्लोर पर मेरे गाइड बैठते हैं उस फ्लोर पर चार नोबेल प्राइज़ विनर्स बैठे हुए हैं। फोर नोबेल लोरियट्स, ऑन अ सिंगल फ्लोर, इन अ सिंगल बिल्डिंग, इन अ सिंगल यूनिवर्सिटी। ऐसे ऐसे एक ये बैठे हैं, एक ये बैठे हैं, एक ये बैठे हैं, एक ये बैठे हैं।
और उस यूनिवर्सिटी में ना जाने वैसी कितनी इमारतें हैं। और उन इमारतों में उनमें से हर एक इमारत में ना जाने वैसी कितनी फ्लोर्स हैं। हर फ्लोर पे चार नहीं बैठे हैं। पर मतलब समझो कि नोबेल प्राइज़ पाना है तो सबसे पहले तो शिक्षा व्यवस्था किसी लायक होनी चाहिए। यहाँ तो शिक्षा का मतलब यह होता है कि जल्दी से ग्रेजुएशन कर ले। उसके बाद सरकारी क्लर्क भी बन जाए तो चलेगा। चल भाग जल्दी से मुखर्जी नगर। यहाँ कौन रिसर्च करने वाला है? और रिसर्च ऐसा नहीं कि भारतीय कर नहीं सकते। ऐसा थोड़ी है कि हमारे जींस में कोई समस्या आ गई है।
यही भारतीय जब बाहर जाते हैं तो कर ले जाते हैं। हरगोविंद खुराना को याद कर लो। मॉलिक्यूलर बायोलॉजी में जिनको अभी नोबेल प्राइज़ मिला है। मेरे बैग में ठीक इस वक्त भी उनकी किताब है। मैं पढ़ रहा हूँ। आज भी पढ़ रहा था। किताब का नाम है व्हाई वी डाई। वो भारतीय यही है। इस सोच से, इस समाज से, इस संस्कृति से जब भारतीय दूर हो जाता है तो हीरे की तरह चमकता है। रूढ़िवादिता, अंधविश्वास, जातिवाद, इसके अलावा क्या है? बताओ, हमारा सामाजिक जीवन? पुरानी आदतों को ढोते जाना, ढोते जाना अर्थहीन ही नहीं, लाभहीन ही नहीं, सक्रिय रूप से घातक।
नुकसानदायक रूढ़ियों को और कुप्रथाओं को हम ढो रहे हैं और शिक्षा से हम इसीलिए घबराते हैं क्योंकि शिक्षा आ गई तो यह सब चीज़ें हटेंगी। हम यूनिवर्सिटीज की बात कर रहे हैं। साउथ ईस्ट एशिया लगभग उसी समय पर आज़ाद हुआ जब भारत हुआ था। जितने सब आप देश जानते हो, कोरिया भी लगभग उसी समय पर। असल में सेकंड वर्ल्ड वॉर के बाद इंपीरियलिज्म का खात्मा हो गया क्योंकि सब आपस में ही लड़ के ढेर हो गए। तो जब कॉलोनियल मास्टर ही ढेर हो गया तो कॉलोनीज कहाँ से बचेंगी?
तो सबसे बड़ी-बड़ी तो ब्रिटेन की ही थी। तो सब आज़ाद हो गए एक झटके में। १९४५ से १९५२ के बीच में सब फुर्र हो गए। चीन को भी हम मान सकते हैं एक तरीके से कि तभी आज़ादी मिली। अब वैसे तो आप यह नहीं कहोगे कि चीन कॉलोनी था किसी का। लेकिन वह भी बहुत दमित था, शोषित था। उसमें भी भीतर बड़ा अंतर्विरोध था। और कोरिया, इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैंड, वियतनाम, कंबोडिया, सिंगापुर भी। तो सिंगापुर क्या था? एक छोटा सा पोर्ट ऑफ कॉल जहाँ कुछ विकास नहीं था।
ये सब भारत के साथ आज़ाद हुए और देखो आज वो सब कहाँ है, देखो कहाँ है, वजह बताओ? शिक्षा। सबने शिक्षा में ज़बरदस्त तरीके से निवेश किया और जब वो आज़ाद हुए थे ना तो उनकी स्थिति भारत से ज़्यादा खराब थी। यह पक्का जान लो, आंकड़े देख लेना, मुझे रटे हुए नहीं है तो मैं अभी वोट नहीं कर पाऊँगा। पर उनकी पर कैपिटा इनकम देख लेना, लिटरेसी रेट देख लेना। १९५० में भारत से तुलना करके और आज देख लो।
जापान ने तो सीधे-सीधे ना सिर्फ तबाही झेली थी बल्कि दो बम खाए थे आणविक। खैर जापान को तो लोग बोलेंगे कि पहले ही इंडस्ट्रियली डेवलप्ड था और बहुत बातें तो मैं जापान को ले भी नहीं रहा। देखो वो कहाँ पहुँच गए। क्योंकि उन्होंने यह माना कि हम अशिक्षित हैं। हमें कुछ पता नहीं। हमारे बच्चों को सबसे ज़्यादा शिक्षा की ज़रूरत है।
हमने कहा शिक्षा काहे को चाहिए? हमारी परंपरा काफी है। शिक्षा चाहिए काहे के लिए? माँ-बाप ही तो गुरु होते हैं। माँ-बाप चाहे खुद बिल्कुल काला अक्षर भैंस बराबर हो तो भी माँ-बाप गुरु होते हैं। शिक्षा की ज़रूरत क्या है? तो जीडीपी के प्रतिशत के तौर पर भारत ने शिक्षा में सबसे कम निवेश किया और जो भारत से भी ज़्यादा गरीब थे, उन्होंने शिक्षा में कहीं ज़्यादा निवेश किया। जब शिक्षा होगी बेटा, तब आएगा ना नोबेल प्राइज़।
हमारे यहाँ तो शिक्षा का यह हाल कि उत्तर प्रदेश में अभी एक-दो दशक पहले तक खुद सरकारें बोर्ड परीक्षाओं में नकल कराया करती थीं। ये हो गया, दे दो कि दसवीं पास है। काहे के लिए परेशान करते हो गरीब के लड़के को? काहे को बोला मैंने गरीब का लड़का? क्योंकि गरीब की लड़की तो दसवीं तक पहुँचती ही नहीं है। गरीब की लड़की तो प्राइमरी में ही ड्रॉप आउट कर जाती है। दसवीं तक कैसे पहुँचेगी? हमें नोबेल प्राइज़ चाहिए। हम मेरी क्युरी निकालेंगे जिनको दो-दो नोबेल प्राइज़ मिले थे।
हम कैसे निकालेंगे? हमारी लड़कियाँ तो प्राइमरी में ही निकल जाती। है शिक्षा की जगह हमारे पास? खोखला गुरूर है बहुत सारा, बड़ा गुरूर है हम में। हम यह हैं, वो हैं, विश्व गुरु हैं। विश्व गुरु होने लायक वो थे- कपिल और कणाद और पतंजलि और आर्यभट्ट। वो आकर के बोले कि हाँ हम हैं तो समझ में आता है। याज्ञवल्क्य खड़े हो जाए, अष्टावक्र खड़े हो जाए, बोले हम विश्व गुरु हैं, समझ में आता है।
हमें आज क्या हक है कि हम बोले कि हम विश्व गुरु हैं? गौतम ऋषि खड़े हो जाए कि गौतम बुद्ध खड़े हो जाए। वो बोले कि हम विश्व गुरु हैं समझ में आता है। गौतम बुद्ध का दर्शन पूरी दुनिया में फैला। वो कह सकते हो विश्व गुरु हैं। हम काहे के विश्व गुरु हैं?
शिक्षा। बेटा शिक्षा और शिक्षा से भारत के नेता बहुत घबराते रहे हैं। क्योंकि अगर जनमानस पढ़ लिख गया तो सबसे पहले तो इन नेताओं को इनकी सही जगह बैठाएगा। नेताओं के हक में है एक अशिक्षित इलेक्टोरेट। जनता जितनी अनपढ़ होगी, गँवार होगी उसको उतनी आसानी से बेवकूफ बनाया जा सकता है ना। तो बताओ नेता लोग काहे के लिए शिक्षा में निवेश करें?
प्रश्नकर्ता: सर जैसा आप कह रहे थे इंडिया, साउथ कोरिया और चाइना के बीच में कि १९५० में यदि हम देखें तो तीनों देशों का लगभग बराबर ही स्थान था। तो मैं इसी विषय में पढ़ रहा था अभी इंटरनेट पर ही। तो १९५० में इंडिया का पर कैपिटा जीडीपी ६०० से ७०० डॉलर के आसपास था। ट्रिपल पी एडजस्टेड है ये। और चाइना का ५०० डॉलर के आसपास था। इंडिया से भी कम और साउथ कोरिया का ८०० डॉलर के आसपास था। और जो शिक्षा दर है वो भी।
आचार्य प्रशांत: हाँ। और तीनों का लगभग अगल-बगल ही है। चीन का तो हमसे कम है। और आज देखोगे तो चीन का हमसे है पाँच गुना और पीपीपी एडजस्टेड भी लोगे तो तीन गुना है। और साउथ कोरिया का तो और छह गुना, आठ गुना निकलेगा। हमने कुछ तो भूल करी होगी ना। आप मानने को क्यों नहीं तैयार होते? तभी तो कह रहा हूँ खोखला अहंकार बहुत है हम में। अपनी दुर्दशा देखकर भी हमें होश नहीं आता और जो कुछ कर करके, हम इस पतन में पहुँचे हैं इस दुर्दशा में पहुँचे हैं, उसी सोच को हम और ज़्यादा कर रहे हैं।
आज भारत में अंधविश्वास को और रूढ़िवादिता को और खोखली परंपरा वगैरह को जितना बढ़ाया जा रहा है इतना तो आज से ५० साल पहले भी नहीं बढ़ाया गया।
आज़ादी के बाद से लगातार हमने गलतियाँ की और अब उन गलतियों को सुधारने की जगह हम उन्हीं गलतियों को और विस्तार दे रहे हैं।
प्रश्नकर्ता: और सर जिस तरह आपने पहले यूनिवर्सिटीज और शिक्षा की बात की थी तो मैं एक फैक्ट ये भी देख रहा था कि हारवर्ड यूनिवर्सिटी में १६० से अधिक नोबेल लौरिएट्स निकले हैं आज तक। और स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी की बात करें तो वहाँ पे ये आंकड़ा ८७ का है और यूसी बर्क में १६० से ऊपर का है।
आचार्य प्रशांत: वही तो। देखो इंस्टीट्यूशन, इंस्टिट्यूशन को मिलता है नोबेल। जिसको मिल रहा है उसको इंस्टिट्यूशन का रिप्रेजेंटेटिव मानो। प्रतिनिधि। वो स्टैनफोर्ड को मिल रहा है। वास्तव में कि उन्होंने ऐसा माहौल बनाया कि वहाँ पर लोग जाकर के बिना डरे, बिना झिझके, बिना आक्रांत हुए, नई तगड़ी मौलिक फंडामेंटल रिसर्च कर पाए। वहाँ ये थोड़ी होता है कि भारत में अगर एक विभाग है जहाँ के कर्मचारियों को माना जाता है कि यह तो मल्टीपर्पस है, कुछ भी करेंगे। तो होता है शिक्षा विभाग तो चुनाव आता है तो उनको इलेक्शन ड्यूटी पे लगा दो।
चुनाव अभी यह नहीं कि बस लोकसभा का ही। बिल्कुल एकदम सबसे निचले तल का भी चुनाव हो तो उसमें स्कूल के शिक्षक को उठा के ड्यूटी पर लगा देते हो, जैसे उसके अपने काम का कोई वज़न, कोई सम्मान ही ना हो।
विदेशों में शिक्षक वह बनता है जो बाकी सब कामों को करने की योग्यता से ज़्यादा योग्यता रखता है। भारत में हमने माहौल ऐसा बना दिया है कि शिक्षक वो बनता है जो कहीं किसी काम का नहीं होता। कुछ होते होंगे अपवाद। उनको नमस्कार है। भारत में हालत यह होती है कि अगर कोई बोल दे कि मैं टीचर हूँ तो हमारे उत्तर भारत वाले, हिंदी वाले उसके घर शादी नहीं करना चाहते। मतलब टीचर है। इसको थोड़ी लड़की देंगे। टीचर है।
यहाँ क्या हम किस मत्थे नोबेल प्राइज़ निकालेंगे भाई? और नोबेल प्राइज़ की बात नहीं है। उससे बिल्कुल उल्टे चले जाओ ना। तुम्हें गोल्डन ग्लोब कितने मिल गए? तुम्हें एकेडमी अवार्ड्स कितने मिल गए? खेलों में तुम्हारी क्या हैसियत है? यह चीज़ें दिन-रात देखता हूँ और बहुत बुरी लगती हैं। बड़ी चोट लगती है कि क्या हमारी संभावना थी और क्या हम बनकर रह गए हैं। कितने गोल्ड मेडल लाए हो इस बार ओलंपिक में। अरे बोल दो मुँह से बस गर्दन काहे हिला रहे हो?
प्रश्नकर्ता: जी शून्य।
आचार्य प्रशांत: तभी भारत ने शून्य का आविष्कार करा था। और बगल में चीन है उनके कितने?
प्रश्नकर्ता: शायद ४० से ऊपर।
आचार्य प्रशांत: ४० से ऊपर। ४० से ज़्यादा गोल्ड ओलंपिक में चाइना ले बैठा है। तुम शून्य और हमें इसी बात पर बड़ा नाज़ है कि दुनिया को शून्य भारत ने दिया। और उसी बात को हम बार-बार सिद्ध कर रहे हैं। बार-बार शून्य ला ला के। जस्ट एस अ रिमाइंडर टू द रेस्ट ऑफ द वर्ल्ड। वी गेव द जीरो टू द वर्ल्ड एंड वी विल कंटिन्यू गिविंग जीरो। नहीं लगता बुरा?
और आँकड़े हैं, जैसा तुमने अपने सवाल में ही कहा था, जिनमें हम सबसे आगे आगे चलते हैं। दुनिया की कोई भी ज़लील चीज पकड़ लो। जहाँ तुम्हारे देश का नाम ही नहीं होना चाहिए कायदे से। वहाँ तुम्हारे देश का नाम टॉप टेन में आएगा। दुनिया में सबसे ज़्यादा लड़कियाँ कहाँ मार दी जाती हैं? पैदा होने से पहले? भारत में। दुनिया भर में जितनी फीमेल फिटिसाइड, इनफेंटिसाइड होती है, उसका ८०, ९०, ९५% भारत में होता है। और बताओ हवा कैसी है? लो दो चार बार जोरों से साँस लो। ले मत लेना। गिर जाओगे बेहोश हो के कैमरे के सामने। एक्यूआई में हम सबसे आगे हैं।
मज़ाल हो किसी की हमारा आँकड़ा छू के दिखाए। पकड़ो स्विट्जरलैंड वालों को, अमेरिका, कनाडा वालों को। बोले तुम हमारा एक बटा बीस (१/२०) भी होकर दिखा दो। अभी हम ७-८०० पर बैठे हुए हैं। माँ का दूध पिया है तो हमारे यहाँ यह चलता है। माँ का दूध पिया है तो पता नहीं माँ का दूध तो सभी पीते हैं। जानवर भी पीते हैं। ये माँ के दूध में हमारे इतनी क्या खास बात है। अच्छा कोई बात नहीं चलो।
स्विट्जरलैंड वालों को बोल रहे माँ का दूध पिया है तो। हमारे एक्यूआई का १/२० भी करके दिखा दो। वो बेचारे नहीं कर पाएँगे। वो सीधे लोग हैं। वो हार जाएँगे। इनफेंट मोर्टेलिटी रेट उठा लो। स्कूलों से बच्चों का ड्रॉप आउट रेट उठा लो। नदियों के प्रदूषण की दर उठा लो और स्तर उठा लो। सरकार में भ्रष्टाचार कि रैंक उठा लो।
टॉप टेन विद ग्रेट कंसिस्टेंसी। लाज हमको ले नहीं आती। गुरूर नहीं टूटता। और मैं आपसे कह रहा हूँ जब तक हमारा यह खोखला आत्मविश्वास टूटेगा नहीं ना, जब तक राष्ट्रीय स्वाभिमान के नाम पर, हम बस अतीत की धूल फाकते रहेंगे तब तक हमारे वर्तमान में कोई प्रगति नहीं हो सकती।
दुनिया में सबसे ज़्यादा कुपोषित बच्चे कहाँ हैं? ये जो कुपोषित बच्चा है यह नोबेल प्राइज़ ले आएगा क्या? और वह कुपोषित इसलिए नहीं है कि देश में पैसा नहीं है। कुपोषित इसलिए है क्योंकि जो हमारी मध्ययुगीन सामंतवादी मानसिकता है जिसमें हम बहुत जल्दी किसी के सामने भी अंधभक्ति कर लेते हैं, उस मानसिकता ने बड़े-बड़े धन्ना सेठ खड़े कर दिए हैं।
समस्या यह नहीं है कि रिसोर्सेज नहीं है। समस्या डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ रिसोर्सेज की है। और डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ रिसोर्सेज आर्थिक इकोनॉमिक समस्या नहीं है। वह सांस्कृतिक समस्या है क्योंकि हमारे यहाँ ये चलता रहा है कि एक होता है सर्वे सर्वा और बाकी सबका काम है उसके सामने ऐसे ऐसे खड़े रहना। (नमन करते हुए)। हीरो वरशिप।
भाग्यवाद हमारे यहाँ खूब चलता है ना। अब जो होगा देखा जाएगा। ऊपर वाले की मर्जी के बिना तो पत्ता भी नहीं हिलता। तो किसी एक को बना दो अपना अधिनायक और यह मानो ही मत कि तुम्हारा जीवन तुम्हारी अपनी जिम्मेदारी है। तुम्हारे अपने पुरुषार्थ से ही तुम्हारी स्थितियाँ, तुम्हारी ज़िन्दगी बदलेगी।
जब हमारे अपने पुरुषार्थ की कोई कीमत ही नहीं, कोई सम्मान ही नहीं। तो उस पुरुषार्थ से फिर जो हासिल होता है वह भी हमें क्यों मिले?