भक्ति, विपस्सना या कर्मयोग || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

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भक्ति, विपस्सना या कर्मयोग || आचार्य प्रशांत (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं कैसे जानूँ कि मेरे लिए भक्ति मार्ग सही है या विपस्सना/विपासना या कर्मयोग?

आचार्य प्रशांत: तुम्हारे लिए तुम्हारा ही मार्ग सही है। सोचो तो सही कि सबके मार्ग अलग-अलग क्यों थे। सबके मार्ग अलग-अलग क्यों थे? क्योंकि सब अलग-अलग थे। बुद्ध का मार्ग सही होता तो मीराबाई ने भी बुद्ध का मार्ग ले लिया होता। मीरा के लिए कौनसा मार्ग उचित है? मीरा का।

तुम्हें मेरे पास आना है और इन्हें भी मेरे पास आना है; तुम कौनसा मार्ग लोगे? बताओ मार्ग कौनसा लोगे?

प्र: जो मेरे को आसान हो।

आचार्य: सीधे मेरी तरफ़ आओगे न — दफ़्तर में काम कम, रिपोर्ट ज़्यादा चलती है! बोलना है, कर के नहीं दिखाना है — और ये कौनसा मार्ग लेंगे? मेरी ही तरफ़। जो जहाँ पर है उसे अपने अनुसार मार्ग तय करना है, भले ही मंज़िल एक हो। तुम जो मार्ग लोगे, वो मार्ग ये ले लेंगे तो कहाँ पहुँच जाएँगे? ये वहाँ (कहीं और) पहुँच जाएँगे। सोचो, तुमने जो मार्ग लिया, वो मार्ग इन्होंने ले लिया, तो ये कहाँ पहुँच जाएँगे? ये वहाँ (कहीं और) पहुँच जाएँगे।

तुम बुद्ध हो अगर, तो ले लो बुद्ध का मार्ग। पिता तुम्हारे राजा हों, सुन्दर पत्नी हो, नवजात छौना हो, पिता ने जीवनभर तुम्हें राज्य की सुन्दरतम स्त्रियों के संसर्ग में रखा हो, सिद्धार्थ गौतम सा अतीत हो तुम्हारा, तो बुद्ध का मार्ग अपना लो। अपना मार्ग ख़ुद देखो और अपना मार्ग ख़ुद देखने के लिए आवश्यकता है कि पहले समझो भाई तुम बैठे कहाँ पर हो। तुम्हें यही नहीं पता तुम हो कहाँ, अवस्थित कहाँ हो, तुम मार्ग पूछ रहे हो!

जीपीएस से भी मार्ग पूछते हो तो तो वो पहले पूछता है, ‘कहाँ से कहाँ तक का?’ ऊपर लिखकर आता है, योर लोकेशन (आपकी जगह), फिर वो मार्ग बताता है। तुम उससे कहो, ‘नहीं, ये तो हम नहीं बताएँगे। ये तो बात गुप्त रहेगी। हमें तो मार्ग बताओ मार्ग।’

तुम्हें पता है तुम कौन हो और कहाँ पर हो? पहले ये पता करो। मार्ग पहले पूछ रहे हैं! और ये पता करने के लिए अपने दैनिक जीवन का साक्षात्कार करना पड़ता है। मेरी ज़िन्दगी कैसी बीत रही है? मेरे मन की हालत क्या है? मेरी संगत किन लोगों की है? क्या खा रहा हूँ? क्या पी रहा हूँ? क्या जी रहा हूँ? क्या देख रहा हूँ? कहाँ मनोरंजन ढूँढ रहा हूँ? क्या ख़रीद रहा हूँ? इस सब पर ग़ौर करो, तब तुम्हें पता चलेगा कि तुम कहाँ पर हो। और जब तुम जान जाओगे कि कहाँ पर हो, तो जिसने तुम्हें ये जनवाया वही मार्ग भी बता देगा।

ये जानना कोई साधारण बात नहीं है। अपनी गर्हित हालत को जानना भी बड़ी स्वर्गीय बात है। अपनी नारकीय हालत को जानना भी स्वर्ग तुल्य बात है। तो जिसने तुम्हें ये जतलाया, बताया कि अभी तुम्हारी हालत क्या है, वही तुम्हें ये भी बता देगा कि उस तक आने का रास्ता क्या है क्योंकि जो तुम्हें ये सब बता रहा है, तुम्हें उसी तक तो जाना है।

अपने से ही शुरूआत करो। देखो, सोचो, ग़ौर करो, निरपेक्ष-निष्पक्ष भाव से मन का अवलोकन करो। क्या करते हो सुबह-सुबह? किस पर चिढ़ छूटती है? टीवी में क्या देखते हो? फ़ोन पर अधिकांश समय क्या कर रहे हो? किन वेबसाइट्स के साथ चिपके हुए हो? किससे डरते हो? रात में सपने कैसे आ रहे हैं? कहाँ को जाना है? किससे बचना है? आशाएँ क्या हैं, खौफ़ क्या हैं? इसी पर ग़ौर करना है। और इतना काफ़ी है, बात खुल जाएगी।

एक ग़लत जीवन की कभी भी सही परिणति थोड़े ही हो सकती है। कि हो सकती है? सही जीवन जियो, सही फल, सही मुकाम मिलेगा। यही तो पूछना है कि सही जीवन जी रहा हूँ कि नहीं। और जीवन कब जिया जा रहा है? प्रतिपल। यही पूछो कि सुबह से अभी तक जो किया, क्या वही उचित और श्रेष्ठ था? जैसे-जैसे देखते चलोगे कि फिसलते हो, चूकते हो, वैसे-वैसे फिसलना, चूकना तुम्हारी आदतों से हटता जाएगा।

प्र: आचार्य जी, जीवन तो बताता है कि कहाँ जाना है और क्या करना है, पर ख़ुद पर विश्वास नहीं होता फ़ैसला लेने का।

आचार्य: तो बिना कॉन्फिडेंस के ही जियो। आवश्यक कुछ भी नहीं है जीने के लिए सिवाय उसके (ऊपर की ओर इशारा करते हुए)। तुम्हारे पास विश्वास नहीं है तो बिना विश्वास के जियो। विश्वास के बिना जिया जा सकता है, उसके (ऊपर की ओर इशारा करते हुए) बिना नहीं जिया जा सकता।

कोई आता है, कहता है, ‘भय बहुत है।’ ये कोई सार्थक प्रश्न ही नहीं है। प्रश्न ये है कि परमात्मा है कि नहीं। परमात्मा है यदि तो तुम भय के साथ जियो, देखते हैं भय कितनी देर टिकता है। और अगर तुम ये प्रतीक्षा करते रहोगे कि पहले भय हटेगा फिर परमात्मा को जगह देंगे, तो भय हटेगा कैसे! क्योंकि भय को तो हटानेवाला वही है।

तुम जैसे हो वैसे उसकी ओर बढ़ो। उसकी ओर बढ़ोगे तभी तो तुम जैसे हो वो हटेगा, कटेगा, मिटेगा। बैठे-बैठे यकायक तुममें विश्वास, श्रद्धा थोड़े ही जागृत हो जाएँगे! तुम्हारे पास अभी संशय है, डर है, ख़ौफ़ है। तुम अपने सन्देह और डर लेकर ही बढ़ो आगे। जैसे हो वैसे आगे बढ़ो। प्रतीक्षा मत करो कि पहले सन्देह का निवारण हो, तब आगे बढ़ेंगे। तुम बढ़ो। बढ़ने से सन्देह दूर हो जाएगा। और बढ़ने से सन्देह न दूर होता हो तो समझ लेना कि ग़लत बढ़े।

प्र: आचार्य जी, सन्त कहते हैं कि बन्धन का कोई अस्तित्व नहीं है, पर हमारे जीवन में तो बन्धन से ही सारे कर्म उद्घाटित होते हैं। कृपया प्रकाश डालें।

आचार्य: ऐसा तुम अभी बोल रहे हो न कि बन्धन से सारे कर्म निकल रहे हैं, जब उन कर्मों को करते हो तब ये थोड़ी कहते हो कि ये मैं बन्धक होकर कर रहा हूँ। तब तो कहते हो कि ये मेरी आज़ादी की अभिव्यक्ति है। कर्म में उतरते वक़्त अगर तुम्हें ये याद ही आ जाए, तो तुम तर गये न! जब तुम उस कर्म में होते हो तो क्या ये कहते हो कि ये तो मेरे भीतर जो शोषक बैठा है, जो प्रताड़क बैठा है वो मुझसे करवा रहा है? उस समय, उस क्षण तो तुम क्या कह रहे होते हो? कि ये सब मैं अपनी मर्ज़ी से कर रहा हूँ, ये कर्म मेरी मुक्ति की अभिव्यक्ति है। तब तो यही कहते हो न? तब तुम कहाँ कहते हो कि मैं बन्धक हूँ?

अगर उस वक़्त, ठीक उस वक़्त तुम चेत जाओ और ये कह दो कि ये कर्म मैं कर नहीं रहा, मुझसे मेरी आंतरिक दासता, पुराने संस्कार, ढर्रे करवा रहे हैं, तो स्वत: ही उस कर्म से मुक्त हो जाओगे। अभी तो तुम बस सिद्धान्त की तरह कह रहे हो कि मैं बन्धक हूँ। भीतर-ही-भीतर तुम अपनेआप को आज़ाद पंछी मानते हो — ‘कभी यहाँ बैठूँगा, कभी वहाँ बैठूँगा; चार दिन को आऊँगा, फिर उड़ जाऊँगा।’

जो अपनेआप को बन्धक मानेगा, वो ऐसे स्वच्छंदता से, उदंडता से उड़ जाएगा? जो अपनेआप को बन्धक मानेगा, वो इतनी उदंडता दिखाएगा क्या? दिल टटोलो, ज़रा कुछ हाल लो। बन्धन-वन्धन सब तुम ऊपर से स्वीकार कर रहे हो, अन्दर-अन्दर तुम बन्धनों को ही आज़ादी का नाम दिये हुए हो।

ख़ुद तय करते हो — देखो न, अपने जीवन में — कितने निर्णय तो ख़ुद ही ले लेते हो। सोच भी लेते हो, गणित बैठा लेते हो, फिर निष्कर्ष भी निकाल लेते हो। ये सब क्या उसकी निशानी है जो अपनेआप को दास मानता हो?

ये सब उसकी निशानी है जो अपनेआप को बड़ा मालिक मानता है कि मैं तो बादशाह हूँ, मुझे सब समझ में आ रहा है और मैं अपने अनुसार देख लूँगा, समझ लूँगा, चल लूँगा। कहाँ मानते हो तुम अपनेआप को बन्धक? इतनी विनम्रता कहाँ! इतनी सच्चाई कहाँ!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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