आचार्य प्रशांत: भक्ति का मतलब होता है ये अनुभव, पीड़ा, निश्चित धारणा कि जो कुछ अच्छा है, ऊँचा है, सुन्दर है, शुद्ध है, उससे दूर छिटक आये हैं — पहली बात। जो कुछ ऊँचा है, अच्छा है, सुन्दर है, शुद्ध है, उससे दूरी बन गयी है — कोई होगी वजह, कौन जाने, माया होगी या अपनी ही कोई भूल — और वो जो दूरी है वो अपने पाटे हम पाट भी नहीं पायेंगे। जो सुन्दर है, शुद्ध है, सत्य है, वही सामर्थ्यवान भी है। तो हम चूँकि उससे दूर निकल आये हैं, तो हमारे पास सामर्थ्य, बल भी नहीं बचा है कि अपने बूते उस तक पहुँच पायें।
बात समझ में आ रही है?
तो फिर भक्ति में एकमात्र विधि ये बचती है कि सिर को झुका दो, अपनेआप को पूरी तरह उसके हवाले छोड़ दो जिस तक पहुँचना चाहते हो। जो मंतव्य है, जो मंज़िल है, उसी से कह दो कि रास्ता भी तुम ही बता सकते हो। हम इतने अक्लवान होते कि रास्ता वग़ैरह ख़ुद तय कर पाते, तो हम वैसे क्यों होते जैसे हैं, वैसे क्यों जीते जैसे जी रहे हैं।
तो भक्ति के पीछे भी एक दर्शन है। भक्ति कोई अंधी भावना का प्रवाह नहीं है। आपको ऐसा भ्रम हो सकता है क्योंकि भक्ति का सामान्यतया लोक-संस्कृति में जैसा वर्णन, चित्रण रहता है वो ऐसा ही रहता है कि भक्त का क्या काम है — कि वो अपने भगवान के सामने बैठकर गा रहा है, अपने आराध्य को सिर झुका रहा है, आँसुओं से उसका चेहरा तर-बतर है।
ऐसी ही रहती है न भक्त की छवि!
और भक्त हमेशा हमें भावुक दिखाया गया है कि भक्त बहुत भावना प्रवण होता है। लेकिन उस भावना से पहले एक दर्शन है। वो दर्शन क्या है समझ गये? दर्शन ये है कि मैंने अपनी ज़िंदगी को देखा और मुझे दिखाई दिया कि बड़ी गड़बड़ कर ली है। बहुत कुछ गंदा कर लिया है। बहुत कुछ ख़राब, बर्बाद सा कर लिया है। और इतना अपनेआप को दुर्बल कर लिया है कि अब अपने बूते सुधार भी नहीं पायेंगे। बल्कि सच्चाई ये समझ में आयी कि अपने बूते पर भरोसा करने के कारण ही इतना दुर्बल हो गये हैं। तो अब और तो एकदम ही अपने पर भरोसा करना नहीं है। ये जो हममें इतने दोष और दुर्बलताएँ, सब तरह के दुर्गुण, विकार आ गये हैं उसकी वजह ही यही रही है कि अपने पर ही ख़ूब भरोसा किया, ख़ुद ही को मान बैठे, हम ही हैं तीस मार खाँ। तो भक्ति का ये दर्शन है।
'भज' शब्द का मतलब ही होता है विभाजन, दूरी, जहाँ से भक्ति आयी है। एक दीवार खड़ी कर ली है, दूरी खड़ी कर ली है। वो उधर हैं, हम इधर हैं। फिर इसीलिए भक्ति में वियोग शब्द होता है — वियोग और विभक्त। चाहे आप कह दीजिए कि वियोगी है, चाहे कह दीजिए कि विभक्त है। बहुत अलग बात नहीं है, एक ही बात है। मतलब कटा हुआ है, बँटा हुआ है। किससे कटा हुआ है? जो सुन्दर है उससे कटा हुआ है। जो श्रेष्ठ है उससे बँटा हुआ है। ये भक्ति का दर्शन है।
तो भक्त पूरी सावधानी रखता है कि वो अपने ऊपर किसी भी तरह का भरोसा न कर बैठे। वो आख़िरी काम है जो उसे करना है, क्या? ख़ुद पर भरोसा; अपनी ही ताक़त या अपने निर्णय पर भरोसा। भक्त कहता है, ‘ये नहीं करना है क्योंकि यही कर-कर के तो अपनी दुर्गति करी है।’ तो भक्त कहता है, ‘अब मेरे सारे निर्णय कौन करेगा? मेरा भगवान करेगा। रास्ता कौन बताएगा? भगवान बताएगा।’
अब भगवान नहीं आने वाले बताने। तो फिर अर्थ क्या हुआ? रास्ता भगवान नहीं बताने वाले लेकिन अगर आप बार-बार अपनेआप को ये स्मरण दिला रहे हो कि रास्ता भगवान बताएँगे, भगवान के पीछे-पीछे चलना है, तो उससे एक लाभ ज़रूर होगा, क्या? आप अपने पीछे-पीछे नहीं चलोगे, आप अपनी बुद्धि के झाँसे में नहीं आओगे। वही तो माया होती है। कोई बाहरी चीज़ थोड़े ही होती है। अपनी ही बुद्धि के झाँसे में आ जाना, यही तो माया है न।
तो भक्त का मूल सिद्धांत यही है भाई — अपनी नहीं सुननी है। लेकिन वो यही बोलता रहेगा कि अपनी नहीं सुननी है, अपनी नहीं सुननी है, तो बात बहुत रूखी हो जाएगी। मन माँगता है कुछ सरस, कुछ मीठा सा हो, रसीला सा हो। कुछ ऐसा हो कि भाई उसकी ओर आकर्षण हो थोड़ा।
तो इसीलिए भक्त अपनी भाषा थोड़ी सी बदल देता है। वो ये नहीं कहता कि अपने पीछे नहीं चलूँगा, वो कहता है भगवान के पीछे चलूँगा। वो नकार की भाषा को थोड़ा सरस, सलिल बना देता है। उसमें सकार ला देता है, क्या बोल करके? भगवान के पीछे चलना है। वो जा करके लगातार भगवत प्रतिमा के सामने सिर झुकाए रहता है।
इसका क्या मतलब है?
इसका मतलब है अपने सामने सिर नहीं झुकाना है। न तो अपने सामने झुकाना है, न कोई और जो हमारे द्वारा तय किया गया हो उसके सामने झुकाना है। मेरी दुनिया, मेरे विचार, जो कुछ भी मेरे सामने ला सकते हैं, उसको न श्रेष्ठ मानूँगा न उसके सामने सिर झुकाऊँगा। तो भगवान के सामने लगातार सिर झुका के रखूँगा ताकि कहीं और सिर न झुके।
तो महत्वपूर्ण बात फिर ये नहीं है कि भगवान के सामने सिर झुकाना है। क्या हुआ महत्वपूर्ण? कहीं और सिर नहीं झुकना चाहिए। कहीं भी और सिर नहीं झुकना चाहिए; लालच के आगे नहीं झुकना चाहिए, बीमारी के आगे नहीं झुकना चाहिए, थकान के आगे नहीं झुकना चाहिए, डर के आगे नहीं झुकना चाहिए। ज़िंदगी न जाने कितनी ऐसी चीज़ें लाती है सामने कि मन करता है कि इनके सामने सिर झुका ही दूँ।
सिर झुकाने का क्या मतलब है? उनके ग़ुलाम बन जाओ। किसी भी चीज़ का दास नहीं बनना है — ये भक्ति है।
भक्त दासों में दास होता है लेकिन भक्त परम विद्रोही भी होता है। क्योंकि उसने दासता स्वीकार तो करी है पर सिर्फ़ एक की। एक की दासता स्वीकार है, और हम नहीं सुनते किसी की। और हम सुनते ही नहीं हैं किसी की! एक के दास हो गये, बाक़ी जगह हमारी बादशाहत है। बादशाहत ऐसे नहीं है कि वहाँ पर हमारा रुतबा, फ़तवा चलता है। बादशाहत ऐसी है कि झुकेंगे नहीं। मन के हारे ही तो हार होती है न! मन के हारे हार, मन के जीते जीत।
मन और किसी के आगे नहीं हारेंगे। मन तो एक को हार दिया, दिल तो किसी एक के सामने हार बैठे हैं। अब ऊपर से तुम हमें झुका लो। भाई दुनिया की फ़ौजें हैं, बहुत बड़ी-बड़ी ताक़तें हैं, वो ऊपर से हमको झुका सकती हैं पर मन तो जो सही जगह थी वहीं हार के आये हैं। एक ही तो मन होता है, बार-बार कैसे हारेंगे! वो सही जगह दे रखा है, यहाँ नहीं देना है।
सही जगह दे रखा है — इसको विधि मानिए। यहाँ नहीं देना है — इसको असली कर्म मानिए, इसको परिणाम मानिए। यही लक्ष्य है, यहाँ सिर नहीं झुकाना है। भगवान के आगे सिर झुका दिया — इसको एक विधि की तरह मानिए। ये एक विधि है। तो भक्त जो प्रतिमा के सामने आपको सिर झुकाए नज़र आता है वो आख़िरी बात नहीं है। वो आप जो देख रहे हैं, वो सिर्फ़ क्या है एक…? विधि है। आपने विधि देखी है उसकी।
उस विधि का ध्येय क्या है? उस विधि से परिणाम क्या चाहिए उसको? उस विधि से परिणाम ये चाहिए कि सिर मेरा कहीं और नहीं झुकेगा।
हम विधि के फेर में रह जाते हैं। हमको लगता है भक्ति का यही मतलब होता है कि भगवान के सामने सिर झुका दिया। ये सब तो एक बीच की बात है, माध्यम है। भगवान के सामने सिर झुकाना माध्यम है ताकि कहीं और सिर न झुकाना पड़े। क्यों कहीं और सिर न झुकाना पड़े? क्योंकि झुका के देख चुके हैं, बड़े गड़बड़ अंजाम होते हैं, वो अंजाम अब और नहीं चाहिए।
स्पष्ट हो गयी भक्ति? दूसरा क्या पूछा था?
प्र: निर्मल मन क्या है?
आचार्य: मलिन मन क्या है? मलिन मन क्या होता है? अरे! जैसा मन हमारा रहता है उसको मलिन बोलते हैं। मलिन किस अर्थ में, मन का मैल क्या है? मैल क्यों बोलते हैं उसको? बस यही पैमाना है कि जो चीज़ आपको कष्ट में डाले उसको कह दो कभी कि मल है, तो कभी मैल है। विकार कह दो, दोष कह दो, अशुद्धि कह दो, जो कहना चाहो कह दो। नहीं तो कैसे तय करोगे कि कौनसी चीज़ मैल है, कौनसी चीज़ मैल नहीं है। कैसे तय करोगे? बात समझ में आ रही है।
ये कपड़ा पहन रखा है। इस कपड़े में यहाँ पर एक निशान है। इसको हम मैल क्यों नहीं बोल रहे? निशान तो पड़ा हुआ है, इसको मैल क्यों नहीं बोल रहे? क्यों नहीं कह रहे, ‘अरे! मैल लग गया, साफ़ करो, साफ़ करो’? जो चीज़ आप में लग करके आपको कष्ट न पहुँचाए, आपके दुख का कारण न बने, वो मल या मैल नहीं है। लेकिन जो चीज़ आपमें लग जाए और आपको फिर तकलीफ़ दे जाए, आपको भारी कर दे, उसको फिर कहते हैं मल, मैल, दोष, विकार, अशुद्धि। ये सब बोल देते हैं।
समझ में आ रही है बात?
तो जो कुछ भी मन में आ करके मन को भारी कर देता है, जीवन बोझिल कर देता है, उसको फिर मल कह दिया जाता है। ठीक है! अब बताओ क्या मन में आता है तो मन को मैल कह देते हैं? ठीक है न? तो उसको फिर मल कह दिया। और कोई, मैं कह रहा हूँ, मापदंड है ही नहीं।
कोई आपसे पूछे कि क्रोध को मल क्यों कहें, तो आप कहिए बिलकुल मत कहिए क्रोध को मल अगर क्रोध में आपको आनंद आता हो। अगर क्रोध में आनंद है तो क्रोध बिलकुल भी मल नहीं है।
तो आख़िरी पैमाना फिर क्या है? आपका आनंद, आपकी चेतना की ऊँचाई। क्रोध से आपकी चेतना को ऊँचाई मिलती हो तो ऐसा क्रोध शुभ है। मिलती है क्या? हो सकता है मिलती हो आपको भाई! अगर मिलती हो तो बिलकुल भी रोकिएगा नहीं फिर क्रोध को।
समझ में आ रही है बात?
जीवन में हर चीज़ का यही पैमाना है — अपनेआप को कभी भी उलझने मत दीजिएगा। आपके सामने जीवन का कोई प्रश्न आये, यही पूछिए, 'इससे मुझे शांति मिलेगी? चैन मिलेगा? ऊँचाई मिलेगी? सफ़ाई मिलेगी? आनंद मिलेगा? आज़ादी मिलेगी?' मिलेगी तो ठीक है, करेंगे, भले किसी को अच्छा लगता हो, बुरा लगता हो, समाज स्वीकार करता हो न करता हो, कोई बात नहीं; नहीं मिलेगा तो नहीं करेंगे। और भले समाज स्वीकार करता हो लेकिन हमें दिख रहा है कि ये करके इसमें चैन नहीं, शांति नहीं, तो नहीं करने वाले।
अध्यात्म के केंद्र पर आप बैठे हैं। अध्यात्म के केंद्र पर कोई सामाजिक व्यवस्था नहीं बैठी है। ध्यान से सुनिए! कोई दैवीय व्यवस्था भी नहीं बैठी है। अध्यात्म के केंद्र पर आदमी बैठा है, इंसान। बहुत साफ़-साफ़ समझिएगा। अध्यात्म इसलिए नहीं है कि आप किन्हीं दैवीय नियमों का पालन करें। आकाश से नियम उतरे हैं और आपको उन नियमों का पालन तो करना ही है, नहीं तो पापी कहलाओगे — ये कोई अध्यात्म नहीं होता। या समाज में पंडित लोग हैं, इन लोगों ने कोई व्यवस्था बना दी है, उसका पालन करो नहीं तो दोषी कहलाओगे — ये कोई अध्यात्म नहीं होता।
तो अध्यात्म में फिर क्या करना है, क्या नहीं करना है; हाँ या ना निर्धारित कैसे होता है, क्या मापदंड है? आपका आनंद। ख़ुशी नहीं, ख़ुशी नहीं! धोखा मत खाइएगा। आपकी ख़ुशी नहीं, आपकी मुक्ति। आनंद और ख़ुशी एक नहीं होते। सुख, आनंद एक नहीं होते।
बात समझ में आ रही है?
तो अध्यात्म इसलिए नहीं है कि आप कहें कि देखो, इसमें लिखा हुआ है, फ़लानी क़िताब है, कि ऐसा-ऐसा करो नहीं तो ठीक नहीं होता। जो ऐसा करते हैं उन्हें पुण्यात्मा बोलो, जो ऐसा नहीं करते उनको गर्हित बोलो, बोलो नरक में मरेगा। ये सब कुछ नहीं! अध्यात्म आपको बताता है कि हर चीज़ के केंद्र पर आप ही तो बैठे हैं न। सब कुछ किसलिए हो रहा है? आपकी शांति के लिए हो रहा है। आप यहाँ क्यों आये मुझसे मिलने? क्यों आये? कुछ भी क्यों करते हैं हम? या कुछ भी क्यों करना चाहिए हमें? सिर्फ़ एक ही लक्ष्य के लिए न! उसी को मानो पैमाना, वही क्राइटेरिया है; और कुछ भी नहीं। कुछ भी नहीं! ये बात आप जितना अपने भीतर उतरने देंगे, उतना एक परिवर्तन क्या क्रांति सी आएगी। समझ रहे हो?
हर सवाल के जवाब में यही पूछा करो — चैन किधर है? हल्कापन किधर है? मुक्ति किधर है? सच्चाई किधर है? और बाक़ी बातें मत सोचने लग जाओ कि बदला लेने के लिए कौनसा रास्ता सही रहेगा। या कि अरे! कहीं फ़लाना रास्ता ले लूँ तो फ़लाने को बुरा न लग जाए। या कि अब जब कह दिया है कि दायीं तरफ़ वाला रास्ता चुनना है, तो दायीं ही तरफ़ तो चलना पड़ेगा न।
कुछ भी नहीं! किसी बात का कोई महत्त्व नहीं। न किसी नियम का कोई महत्त्व है, न आपके अतीत का कोई महत्त्व है, न आपकी इच्छाओं का कोई महत्त्व है, न आपके कसमों-वादों का कोई महत्त्व है। किसी चीज़ का कोई महत्त्व नहीं है। सिर्फ़ एक चीज़ का महत्त्व है, किसका? अरे! आपका। आपके अलावा किसका महत्त्व होगा! आप परेशान हैं और आपकी शॉल चमक रही है, तो बड़ा अच्छा हुआ? बोलिए। सब कुछ किसके लिए है? आपके लिए है न!
तो जो कुछ भी है उसको किस आधार पर चुनना है फिर? कि इसका मेरे पर क्या असर पड़ेगा। कोई और आधार मान्य नहीं है। समझ में आ रही है बात ये?
तो जिस चीज़ का आप पर ग़लत असर पड़ता हो, उसी को नाम दे देना है ‘मल’। जो-जो चीज़ें ज़िंदगी को ख़राब कर रही हैं उनको हटाते जाने को ही बोलते हैं निर्मलता। निर्मल मन समझ गयीं? निर्मलता। और बहुत कुछ है जो जीवन को एकदम कचरा करे रहता है, बेकार।
जैसे सोचो वहाँ पर कचरा पड़ा हो, गंधा रहा हो, और एक ही जगह नहीं जगह-जगह पड़ा हो और तमाम तरीक़े के यहाँ पर छेद हों और स्रोत हों और खिड़कियाँ खुली हुई हैं और नीचे से नालियाँ खुली हुई हैं; कचरा मौजूद भी है और कचरा आता रहे इसके हज़ार तरह के बंदोबस्त भी मौजूद हैं — ऐसे हम हैं।
कैसे हम हैं? हमारे मन में, जीवन में, कचरा मौजूद भी है और कचरा लगातार आता रहेगा, हमने ऐसी व्यवस्था भी रची हुई है। गाहे-बगाहे हम कभी कचरा साफ़ भी कर देते हैं, तो भी हम कचरा लाने वाली नालियों को नहीं साफ़ करते। जिन खिड़कियों, रोशनदानों से धूल भीतर आती है, उनको नहीं बंद करते। तो एक-आध दो बार सफ़ाई हो भी गयी, जैसे यहाँ शिविर में आये, हो गयी सफ़ाई; अच्छा लगेगा, हो गयी सफ़ाई। फिर क्या होगा? फिर गंदे हो जाएँगे। क्यों गंदे हो जाएँगे? क्यों गंदे हो जाएँगे?
तो मन की निर्मलता ऐसे होती है — जो गंदगी पकड़ बैठे हो, वो भी हटानी है, और जहाँ-जहाँ से गंदगी आती है उन द्वारों को बंद करना है। हमें नहीं चाहिए। भले कोई हमें लुभाता हो कि तुम उसे खोल कर के रखो। गंदगी आती है लेकिन गंदगी के साथ न बीच-बीच में हीरे-मोती आते होंगे। अजी हटाओ! नहीं चाहिए हीरे-मोती। नहीं चाहिए। कौनसा हीरा-मोती है जो मल के साथ आता है! ठीक?