Acharya Prashant is dedicated to building a brighter future for you
Articles

भक्ति और ज्ञान, दोनों की मंज़िल एक है || आचार्य प्रशांत, बाबा बुल्लेशाह और आदि शंकराचार्य पर (2019)

Author Acharya Prashant

Acharya Prashant

11 min
433 reads
भक्ति और ज्ञान, दोनों की मंज़िल एक है || आचार्य प्रशांत, बाबा बुल्लेशाह और आदि शंकराचार्य पर (2019)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, "इक अलफ़ पढ़ो छुटकारा ए।"

बाबा बुल्लेशाह जी कहते हैं कि बस अल्लाह का नाम लो, उसी में मुक्ति है। जबकि आदि शंकर जी कहते हैं कि दुख का मूल कारण ही अज्ञान है और अज्ञान नेति-नेति से ख़त्म होता है। और बाबा बुल्लेशाह जी कह रहे हैं कि तुमने क़ुरान कंठस्थ कर ली और अपनी ज़बान को भी रवा कर लिया है, फिर भी तुम्हें ज्ञान नहीं हुआ है। तो बुल्लेशाह जी केवल अल्लाह का नाम लेने और परमात्मा को याद करने पर ज़्यादा ज़ोर दे रहे हैं जबकि आदि शंकर अपने अज्ञान को देखने पर ज़ोर दे रहे हैं। और बिना अज्ञान को देखे अगर हम अल्लाह या परमात्मा का नाम भी लेंगे तो वो भी झूठ ही होगा। कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: कपिल, एक ही चीज़ है, देखने के दो अलग-अलग छोर हैं। जहाॅं से देख रहे हैं बुल्लेशाह, वहाॅं संसार दिखाई ही नहीं देता। उनको तो बस वही दिखाई देता है जिसको वो कभी अपना मुर्शिद कहते हैं, कभी रब कहते हैं, कभी अल्लाह कहते हैं, कभी मुक्ति कहते हैं।

भक्त की दृष्टि है वो! बाबा बुल्लेशाह की दृष्टि भक्त की दृष्टि है। भक्त की दृष्टि कहती है अलिफ़ पढ़ लो। अलिफ़ माने 'अ', अल्लाह। उसको चाहे तो ऐसे कह दीजिए 'अ' से अल्लाह या ये कह दीजिए अलिफ़ माने पहला। पहला, अव्वल‌; और अव्वल माने अल्लाह।

तो भक्त की दृष्टि कहती है कि तुम इधर-उधर की बातें छोड़ो, तुम इस उस एक को याद करो तो ये बाक़ी सब अपनेआप ख़त्म हो जाएँगे। ख़त्म करने की बात भक्त भी करता है पर ख़त्म करना उसके लिए प्राथमिक नहीं है, उसके लिए प्रेम प्राथमिक है। वो कहता है कि ख़त्म करने में समय कौन ख़राब करे। दुनिया के जंजाल को काटने में समय कौन ख़राब करे, मैं तो सीधे उसकी बात करूँगा और उस तक पहुँचूँगा जहाँ तक पहुँचना है।

तो वो कहते हैं एक अलफ़ पढ़ो। पहले क्या करो? —पहले अलफ़ पढ़ो। पहले वो आता है वो आ गया तो छुटकारा मिल जाएगा; छुटकारा माने मुक्ति। पहले उसका नाम लो, उसके होने से, उसकी बरकत से यहाॅं से तो मुक्ति मिल ही जाएगी।

आदि शंकराचार्य का मार्ग ज्ञान का मार्ग है। वो मन दूसरा है। वो दूसरे छोर से देखता है। वो मन कह रहा है कि अरे! जब तक यहाँ से छूटे नहीं तब तक उसको जानोगे कैसे? उसका बुलावा आ भी गया तो पढ़ोगे कैसे? उसने आवाज़ देकर बुला भी लिया तो सुनोगे कैसे? तो पहले तो तुम दुनिया का जंजाल काटो। तो पहले नेति-नेति करो, फिर वो मिलेगा।

भक्त क्या कह रहा है? पहले वो मिलेगा, वो मिल गया तो छुटकारा अपनेआप मिल जाएगा यहाँ से। ज्ञानी क्या कह रहा है? ज्ञानी कह रहा है, न, पहले यहाॅं के बंधन काटो फिर वो मिलेगा। बात दोनों की ठीक है, निर्भर इस पर करता है कि आपका चित्त किसका है — भक्त का या ज्ञानी का।

भक्त का चित्त है आपका तो आप बाबा बुल्लेशाह जैसी बात करोगे। ज्ञानी का चित्त है आपका तो आप आदि शंकराचार्य जैसी बात करोगे। और वास्तव में दोनों की बातें अलग-अलग नहीं हैं, कहने का अंदाज़ अलग है। क्योंकि हक़ीक़त ये है कि दोनों प्रक्रियाएँ साथ-साथ ही चलती हैं। जितना तुम उधर को बढ़ते हो, उतना यहाँ से छुटकारा मिलता है और जितना यहाँ से छुटकारा मिलता है, उतना तुम ऊपर को बढ़ते हो।

ये ऐसा ही है जैसे पक्षी के दो पंख हों। दोनों पंख चलते हैं तो पक्षी ऊपर को उठता है। एक पंख जैसे कह रहा हो मुझे आसमान से प्रेम है और दूसरा पंख जैसे कह रहा हो कि मुझे धरती को नीचे छोड़ देना है। एक पंख कह रहा है, 'मुझे आसमान से प्रेम है, आकाश की ओर जाना है' और दूसरा पंख कह रहा है, 'धरती को नीचे छोड़ देना है, बंधन को, गुरुत्वाकर्षण को नीचे छोड़ देना है, मुझे तो ऊपर जाना है।' पर जब दोनों पंख साथ चलते हैं तभी पक्षी ऊपर उठता है।

या कि जैसे कोई व्यक्ति यात्रा कर रहा हो, दोनों पाँव चलते हैं न, कभी एक आगे कभी दूसरा आगे, पर चलेंगे दोनों ही, कभी लगेगा कि एक आगे है कभी लगेगा दूसरा आगे है पर जब दोनों चलते हैं तभी यात्रा होती है। वैसा ही रिश्ता है संसार से मुक्ति पाने में और प्रभु की प्राप्ति में। संसार से जितनी मुक्ति मिलती जाएगी प्रभु को उतना पाते जाओगे और जितना उनको पाते जाओगे उतनी मुक्ति मिलती जाएगी। तो दोनों में कोई विरोध नहीं है, बताने के तरीक़े हैं।

ये दो चित्त होते हैं; दो अलग-अलग तरह के व्यक्तित्व होते हैं — एक प्रेमी का है, एक ज्ञानी का है। एक होता है भाव प्रवण और एक होता है खोजी। एक कहता है, 'पता करूँ ये बंधन चीज़ क्या है? किसने बाँध रखा है मुझे?' दूसरा कहता है, 'किसी ने भी बाँध रखा हो, बाँध तो रखा ही है, मुझे मुक्ति दे दो बस! मुक्ति से प्रेम है मुझे, किसने बाँध रखा है, कैसे बाँध रखा है, हमें जानने में कोई उत्सुकता नहीं।' ये प्रेमी का चित्त है।

प्रेमी का चित्त संसार की परवाह ही नहीं करता, वो देखना ही नहीं चाहता, वो बस इतना ही कह देता है छुटकारा दिलाओ न! वो ये नहीं कहेगा कि मुझे पता करना है कि संसार क्या है। ज्ञानी का चित्त दूसरा होता है। वो कहता है अगर फँसा हूँ संसार में तो पता करने दो संसार क्या है? संसार की खोजबीन करूँगा और एक-एक बंधन काटूँगा, सब की नेति-नेति करूँगा। तभी तो मुक्ति मिलेगी।

तो ये आप पर निर्भर करता है आपका चित्त कैसा है। आप उस तरीक़े की भाषा बोलें लेकिन भाषा आप कोई भी बोलें, मुक्ति तो मुक्ति है।

एक आपके प्रश्न में कपिल थोड़ी-सी अशुद्धि है। आप कह रहे हैं, 'बाबा बुल्लेशाह जी बोल रहे हैं कि तुमने कुरान कंठस्थ कर ली, ज़बान को रवा कर लिया।' इसके आगे भी कुछ बोल रहे हैं। वो कह रहे हैं, 'क्यों पढ़ना ए गड किताबां दी, सिर चाना ए पंड अज़ाबां दी, हुण होइ शकल जलादां दी, अगे पैंडा मुश्किल मारा ए।'

वो ये नहीं कह रहे हैं कि ये सब करो, वो कह रहे हैं कि ये सब कर-कर के भी शक्ल देखो न अपनी, जल्लादों जैसी शक्ल है तुम्हारी; दुनिया भर की ज्ञान की सारी क़िताबें पढ़ लीं। ये भक्तों ने कटाक्ष किया है ज्ञानियों के ऊपर। ये भक्त ने ज्ञानियों पर ताना मारा है कि पढ़ते तो इतना रहते हो और शक्ल अभी भी कैसी है, जल्लाद जैसी है। तो ये पढ़ के क्या मिलेगा? इतना मत पढ़ो, एक अलफ़ पढ़ो बस। इतना पढ़ के कुछ नहीं मिलना था अगर तुमने वो एक अलिफ़ भी सही से पढ़ लिया होता।

इतना पढ़ने से अच्छा था कि जो मूल शब्द है — उसको अलिफ़ बोल लो चाहे ओंकार बोल लो, वो सब मूल है, मूल — उस मूल को पढ़ लिया होता तो सब पढ़ लेते। और तुमने यहाँ एक के बाद एक पुस्तकालय चाट लिए बिलकुल, मन में जमा कर लिए। और शक्ल कैसी हो गई है इतने ज्ञान के साथ! जल्लाद-सी। सर पर बोझ बढ़ गया है बस। ये कहा है बुल्लेशाह साहब ने।

प्र: मन भी जैसे पूरे दिन में कभी भक्त के ख़्याल से सोचता है और कभी ज्ञानी के ख़्याल से सोचता है। कभी-कभी मन सिर्फ़ परमात्मा को याद करना चाहता है और कभी-कभी मन तथ्यों को खोजना चाहता है।

आचार्य: उसका सूत्र समझ लीजिए। जब दुनिया बहुत आकर्षित करे तो उस पल में ज्ञानी का मार्ग उचित है। जब दुनिया बहुत आकर्षित करने लगे तो ज्ञानमार्गी हो जाइए। माने क्या? जो चीज़ आकर्षित कर रही हो, उसकी खोजबीन में लग जाइए और उसकी नेति-नेति करिए। तो ज्ञानमार्गी किस पल हो जाना है? जब दुनिया लुभाए। या लुभाए चाहे डराए, हावी हो जाए, किसी भी तरीक़े से दुनिया हावी होने लगे तो ज्ञानमार्गी हो जाइए।

और जब दुनिया का न ओर दिखाई दे न छोर, जब लगे कि कितनी भी कोशिश कर लेंगे, ये समंदर तो पार होने से रहा तो कहिए समंदर पार करना किसको है! हम कौन होते हैं समंदर पार करने वाले? तू आ के हमें उठा ले जा। तैर के नहीं पार होने वाले हम, तू आ के हमें उठा ले जा।

मतलब समझे आप?

जब तक आपके अधिकार में हो तब तक ज्ञानमार्गी रहिए। जब दिखाई दे कि अपने बूते का नहीं रहा तब भक्त हो जाइए। लेकिन जब तक आप के बूते में है, तब तक अपनी ताकत भर ज़रूर लड़िए, यथाशक्ति संघर्ष ज़रूर करिए। क्योंकि ऊपर से भी मदद का हाथ उसी को आता है जो पहले अपनी जान बराबर लड़ जाता है।

"हिम्मते मर्दां मददे खुदा।"

अपनी ओर से पहले पूरी कोशिश कर लो — इसको भी काटूँगा, इसको भी समझूँगा, इससे भी हटूँगा; यहाँ भी संघर्ष करूँगा, ये भी तोड़ूॅंगा। अपनी जान पूरी लगा लो। तुम्हारी जान कभी पूरी पड़नी नहीं है, पर लगा पूरी दो। और ये बड़ा जादू होता है कि जो अपनी पूरी जान लगा देता है उसको फिर मदद कहीं ओर से मिलने लग जाती है। तुम्हें अगर मदद अभी नहीं मिल रही है ऊपर से तो ये समझ लो कि अभी तुमने जान पूरी लगाई नहीं है। पूरी जान लगा दो।

तो कभी तुम्हें भक्त होना होगा और कभी ज्ञानी होना होगा। लगातार ज्ञानी बने रहोगे, कहाँ से इस अथाह संसार की नेति-नेति कर पाओगे! बड़ा मुश्किल है! कैसे हर चीज़ को काट लोगे उसकी सहायता के बिना? कैसे? मुश्किल है न!

जैसे कोई बहुत बड़ी चट्टान है और एक छोटे से बच्चे को हिलानी है और बाप बैठा हुआ है पीछे। और बच्चा भी आलसी हो, सोया पड़ा है। बाप भी बैठा देख रहा है, कह रहा है, 'ठीक है!' बाप साक्षी है। ठीक है। बच्चा सोया पड़ा है आलस में और चट्टान खड़ी हुई है। फिर बच्चा कहता है, 'नहीं, मुझे इस चट्टान को हिलाना है।' और बच्चा अपनी जान लगाने लगता है। बाप देख रहा है।

बाप को ख़ुद कोई रुचि नहीं है चट्टान को हिलाने इत्यादि में। बाप तो साक्षी मात्र है। उसकी कोई रुचि नहीं है कि ये चट्टान हिले कि ऐसा हो कि वैसा हो। कुछ होता रहे बाप को कोई फ़र्क नहीं पड़ता। पर अगर बच्चा पूरी जान लगा के चट्टान हिलाने में रत हो गया तो एक क्षण ऐसा आता है कि बाप कहता है कि अब एक हाथ हम भी लगा ही देते हैं।

बात समझ में आ रही है?

तुम चट्टान को खुद हिलाने में जुट गए — ये हुआ ज्ञान मार्ग। और चट्टान को हिलाते, हिलाते, हिलाते एक क्षण को तुम्हारी चीख निकल गई और तुमने कहा, 'मदद, पिताश्री मदद' और ये हाथ आया और तुम्हारे दोनों हाथों के साथ एक तीसरा हाथ। ये नहीं कि तुम्हारे तो दो हाथ लगे ही नहीं है और तीसरा ही भर लगा हुआ है। पहले तुम्हारे दो लगे होने चाहिए पूरी ताकत से, इतनी ताकत से लगे होने चाहिए हों कि लहूलुहान हो गए तुम्हारे हाथ और तुम हिला नहीं पा रहे। तब वो तीसरा हाथ आता है बाप का, और पत्थर फिर हिलता है। — ये भक्ति है।

भक्ति का मतलब ये नहीं है कि पड़े-पड़े बस भजन गा रहे हैं कि हम तो अपने दो हाथ हिलगाएँगे नहीं, तू ऊपर से अपना हाथ भेज दे। भक्ति के साथ ये भी बड़ी त्रासदी हुई है। लोगों ने भक्ति का अर्थ लगा लिया है अकर्मण्यता; कि हमें तो कुछ करना ही नहीं है। 'भक्त क्या करेगा, जो करेगा भगवान करेगा।' न,न,न, जो भक्त कह दे कि सब भगवान को ही करना है, भगवान उसके लिए कुछ नहीं करता।

इसी तरह से जो ज्ञानी कह दे कि सब कुछ मैं ही कर डालूंँगा, उसके करे कुछ होता नहीं। वो कोशिश तो बहुत करता है करने की पर उसका करना हमेशा अपर्याप्त रहता है।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=HbcQIXfsEQc

GET UPDATES
Receive handpicked articles, quotes and videos of Acharya Prashant regularly.
OR
Subscribe
View All Articles