प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर। सर, एक टॉपिक है — टॉक्सिक मैस्कुलिनिटी या अल्फा मेल कॉन्सेप्ट, या जो आज के दौर पर ज़्यादा फेमस है सिग्मा मेल कॉन्सेप्ट। तो पुरुषों की जो पितृसत्तात्मक संस्कार हैं, इनको आगे बढ़ाने वाले जो इन्फ्लुएंसर्स (प्रभावक) हैं, वो पुरुषों को सुझाव देते हैं कि मर्द बनो, शौर्य दिखाओ, अपनी जैविकता से संबद्ध रहो। दयालु लिंगभेदी बनो, आत्मविश्वासी बनो, एक संरक्षक और प्रदाता बनो, क्योंकि ये तुम्हारी पूरी ज़िम्मेदारी है कि तुम परिवार का खयाल रखो। एक पुरुष के रूप में अपनी श्रेष्ठता को साबित करो, अधिक-से-अधिक प्रतिष्ठा और पैसे प्राप्त करो ताकि तुम हर जगह नियंत्रण और प्रभुत्व स्थापित कर सको और कोई भी लड़की तुमसे आकर्षित हो जाए।
तो एक तरीके से महिलाओं को एक ट्रॉफ़ी की तरह भी देखा जा रहा है जिसको हासिल करना चाह रहे हैं और साथ-ही-साथ ये भी बताया जाता है कि एक महिला में आपको क्या देखना चाहिए। जैसे बोला जाएगा कि उसे कुँवारी होना चाहिए, वो ज़्यादा पुरुषों से संबंध बनाने वाली नहीं होना चाहिए, उसका कोई भी पुरुष मित्र नहीं होना चाहिए सिवाय उसके प्रेमी या पति के, और उसे परिवार की देखभाल करनी चाहिए, उसे आत्मसमर्पण करने वाली होना चाहिए।
एक गैंगस्टर जैसा मानसिक दृष्टिकोण को और एक मटीरियलिस्टिक माइंडसेट (भौतिकवादी मानसिकता) को यहाँ पर प्रमोट किया जाता है। जैसे कि हम सेंट्रल यूपी और पूर्वांचल साइड की बात करें, तो कोई अगर गुंडा है, वो विधायक का पास लगाकर गुंडागर्दी कर रहा है रोड के ऊपर, तो बहुत से लोग उसको कहते हैं कि अरे! भैया जी का भौकाल है। उसको ग्लोरिफाइ (महिमा मंडित) किया जाता है एक तरह से और उसको एक सिंबल ऑफ़ मैस्कुलिनिटी एंड पॉवर (पुरुषत्व और शक्ति का प्रतीक) की तरह देखा जाता है।
और हम एनिमल जैसी पिक्चरों में भी देख पाते हैं कि किस तरीके से उनका जो हीरो होता है उसको कितना ज़्यादा आइडलाइज़ (आदर्श बनाना) किया जाता है। जिससे दिखता है कि मानो ये मैन की वाइल्डेस्ट फैंटेसी (जंगली कल्पना) है जो पावर न होने की वजह से और कानून के डर से शायद पूरी नहीं हो पा रही।
तो मेरा प्रश्न ये है कि अगर मैस्कुलिनिटी (पुरुषत्व) के बारे में कोई ऐसी दार्शनिकता है, तो जो उच्चतम दार्शनिकता होनी चाहिए वो कैसी होनी चाहिए? मैं आपसे इस विषय पर एक विस्तृत दृष्टिकोण की सराहना करूँगा।
आचार्य प्रशांत: ये यही तो बोल रहे हैं कि अपना बायोलॉजिकल रोल फॉलो करो? हाँ, तो हर रोल के लिए एक सही स्टेज (अवस्था) होता है न? हर रोल के लिए सही स्टेज होता है, बायोलॉजिकल रोल के लिए तो फिर बायोलॉजिकल स्टेज ही चाहिए, जंगल। ये जो बोल रहे हैं कि तुम्हें ऐसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए, बायोलॉजी ने जैसा बनाया है बिल्कुल वैसा होना चाहिए। जंगल चले जाओ, फिर जंगल में रहना भी पड़ेगा! सौ बात की एक बात, बात खत्म!
आप जिस दिन जंगल से बाहर निकले थे उस दिन आपने फ़ैसला किया था, देयर इज़ समथिंग बियोंड बायोलॉजी (यहाँ जैविकता से परे कुछ है)। क्योंकि आपकी बायोलॉजी को जंगल में थोड़े ही कोई समस्या थी, आपकी चेतना को समस्या थी, आपकी कॉन्शियसनेस को समस्या थी। बायोलॉजी तो जंगल में भी चल ही रही थी — चल क्या रही थी जंगल में, आप अगर ऐसे लोग हैं न कि एक साल हुआ है जीवन की पूरी विकास यात्रा को इस पृथ्वी पर, पहली कोशिका से आज तक अगर एक साल मानोगे, तो जैसे हम इंसान हैं, हमको अभी घंटा भर भी नहीं हुआ आए।
अगर पृथ्वी की पूरी यात्रा एक साल की रही है — पृथ्वी माने पृथ्वी पर जीवन की यात्रा एक साल की रही है — तो मनुष्य को आए अभी घंटा भर भी नहीं बीता है। तो तीन-सौ-चौंसठ दिन और तेईस घंटे तक तो सब बायोलॉजिकल चल ही रहा था, मज़े में चल रहा था; बायोलॉजिकल में कोई समस्या है? पर फिर वो कहाँ चलेगा? वो जंगल में चलेगा। तुमको ये सब करना है तो जंगल में जाओ, वहाँ पर अपने बायोलॉजिकल रोल्स को फॉलो करो, बात खत्म। तब तो तुमको मॉडर्न टेक्नोलॉजी (आधुनिक तकनीक) चाहिए। वो जो तुम्हें मॉडर्न टेक्नोलॉजी चाहिए न, उसमें बहुत सारी महिलाओं की भागीदारी है, तब वो बनी है। और महिलाएँ अगर नहीं भी हैं, तो जिन पुरुषों ने वो टेक्नोलॉजी बनाई है, वो तुम्हारे जैसे विचार नहीं रखते। अगर वो भी बायोलॉजिकल ही होते तो वो टेक्नोलॉजी कभी नहीं बना पाते।
बायोलॉजिकल माने क्या? जानवर, और क्या! जानवर थोड़े ही कटिंग एज टेक्नोलॉजी (अग्रणी तकनीक) बनाएगा। तो तुम जो बात कर रहे हो वो बेमेल है और उस बात में बड़ा पाखंड है, हिपोक्रेसी है। आप एक बायोलॉजिकल जीवन जीना चाहते हैं, मैन ईज़ द प्रोवाइडर एंड द वुमन ईज़ द प्रोक्रिएटर (पुरुष भरण-पोषणकर्ता के रूप में और महिला संतान उत्पन्न करनेवाली के रूप में), मैन द डोमिनेंट फोर्स एंड वुमन द सबमिसिव वन (पुरुष प्रभुत्वशाली शक्ति है, स्त्री अधीनस्थ) — ये जंगल में चलता है और जितने जंगली लोग होंगे उनमें चलेगा। चला लो, कोई नहीं मना कर रहा, तुम्हारी मर्ज़ी है, पर सभ्य, सुसंस्कृत लोगों के बीच में मत चलाओ ये सब।
संस्कार का अर्थ ही होता है अपने जंगलीपने को जलाना, उसको ही कहते हैं संस्कारित होना। जब मेटल्स होते हैं न, धातुएँ, उनको कई तरीके की प्रक्रियाओं से गुज़ारा जाता है। शुरुआत तो उनकी मिनरल , खनिज फ़ॉर्म (रूप) में होती है, फिर उनको कई तरह की प्रक्रियाओं से गुज़ारा जाता है, उसको बोलते हैं रसायन की भाषा में संस्कार। कि उसको कई तरीके के रसायनों से गुज़ारा जा रहा है, बहुत सारे ताप से, हीट से गुज़ारा जा रहा है ताकि उसकी गंदगी हट जाए, उसको बोलते हैं संस्कार। तो इसको आप बोलते हो संस्कृति।
संस्कृति का अर्थ ही होता है कि तुम्हारे भीतर जो कुछ जंगली है उसको जला दिया जाए। हमें बाहर जंगल नहीं जलाने हैं, भीतर जो जंगल है उसको जलाना बहुत ज़रूरी है। लेकिन अभी बहुत सारे ऐसे लोग बैठे हुए हैं जो जंगल से बाहर आ गए पर उनके भीतर से जंगल नहीं हट रहा है। वही इस तरह की बातें करते हैं कि मैन एज़ द अल्फा…। वैसे अल्फा और सिग्मा में क्या अंतर होता है?
प्रश्नकर्ता: एक ही चीज़ होती है, बस उसको नया नाम दे दिया, सिनोनिम (पर्याय) दे दिया बस।
आचार्य प्रशांत: ज़बरदस्ती! माने जितने भी ग्रीक — अल्फा, बीटा, सिग्मा, डेल्टा, थीटा, रो, चाइ, फाइ — सब पकड़कर उनको कुछ-न-कुछ बना दो!
प्रश्नकर्ता: बीटा मेल भी होता है। सर, जो उनके हिसाब से बीटा मेल वो होता है जो बहुत वीक (कमज़ोर) है, जिसको ये कहते हैं, ‘लो टेस्टोस्टेरोन,’ जो इनकी तरह हूलिगन (बदमाश) नहीं है, वो बीटा मेल है।
आचार्य प्रशांत: और डेल्टा?
प्रश्नकर्ता: नहीं-नहीं, वो नहीं आया अभी सर, अभी बीटा तक है!
आचार्य प्रशांत: अभी बीटा तक है! ये जो भी अल्फा-बीटा करना है जंगल में करो न, यहाँ (क्यों कर रहे हो भाई!) संस्कृति का वास्तविक मतलब समझ लो अच्छे से — भीतर के जंगल को?
श्रोतागण: जलाना।
आचार्य प्रशांत: संस्कृति सूक्ष्म चीज़ होती है; और सभ्यता क्या होती है? सभ्यता स्थूल चीज़ होती है। तो भीतर के जंगल को जलाने के लिए आप बाहर जो कुछ करते हो, वो सभ्यता कहलाता है। उदाहरण के लिए, आप घर ऐसे बनाओगे जिनमें कि एक वाचनालय भी हो, एक पुस्तकालय हो, एक आपने जगह बना रखी है खेलने-कूदने की, ये सब सभ्यता में आता है। आप चौड़ी सड़कें बनाओगे ताकि आराम से उस पर आवागमन हो सके, ये सभ्यता में आता है। सभ्यता इसलिए होती है ताकि संस्कृति आगे बढ़ सके। और संस्कृति का अर्थ ही होता है जंगल से बाहर आना।
ये लोग जो बात कर रहे हैं, ये बातें बिल्कुल कर सकते हैं, इनका हक है, पर इन बातों की सही जगह जंगल में है। तो हमें इनकी बातों का सम्मान करते हुए इस तरह के सारे लोगों को पकड़कर जंगल में छोड़ देना चाहिए, खत्म, और कुछ नहीं है। वहाँ जाकर अल्फा, बीटा, डेल्टा करो। और इस तरह की जो महिलाएँ भी हों जो सबमिसिव ही रहना चाहती हैं कि नहीं, हम तो घर पर रहेंगे, हम छुई-मुई हैं — “धूप में निकला न करो रूप की रानी, गोरा रंग काला न पड़ जाए” — इनको सबको बिल्कुल इक्विटोरियल फ़ॉरेस्ट्स (भूमध्यरेखीय वन) में छोड़ो। वहाँ जो कैनोपी (छत्र आवरण) होती है, इतनी घनी होती है कि सनलाइट (सूर्य का प्रकाश) ज़मीन तक नहीं पहुँचती, तो गोरा रंग काला नहीं पड़ेगा और कोई बात नहीं है।
अगर आपको अपना बायोलॉजिकल फ़ंक्शन ही करना है तो कपड़े क्यों पहन रखे हैं? कपड़े का क्या काम है बायोलॉजी में, बताओ? यहाँ हम जो कुछ कर रहे हैं, उसका कोई बायोलॉजिकल डायमेंशन (जैविक आयाम) है क्या? हम लोग यहाँ बैठे हैं, बात कर रहे हैं, क्या बायोलॉजिकल! आप मुझसे सवाल पूछ रहे हो इससे आपकी बायोलॉजी में क्या मदद मिलेगी, खाना पच जाएगा? मैं हींग बेच रहा हूँ? अमरूद खाने आए हो यहाँ पर?
बायोलॉजी में तो यही होता है — कुछ खाने को मिल जाए, पेड़ पर चढ़ने को मिल जाए, किसी का केला छिन लो, कहीं नर-मादा लगे हुए हैं और तुम्हारे पास ज़्यादा ताकत है, तो उसके नर को लात मार दी, मादा को लेकर भग गए, यही चलता था। वहाँ कोई प्रेम-वेम थोड़े ही चलता है, वहाँ तो यही होता था कि मादा भी ये देखती थी कि इनमें सबसे ज़बरदस्त कौन है। ये बायोलॉजिकल होता है। वहाँ मादा ये थोड़े ही देखती थी कि इसमें कवि कौन है, इसमें चित्रकार कौन है, इसमें लेखक कौन है, इसमें वैज्ञानिक कौन है, इसमें दार्शनिक कौन है। जंगल में मादा ये नहीं देखती। जंगल में मादा देखती है कि किसका यौनांग सबसे प्रबल लग रहा है और किसके बाजू ऐसे हैं कि सबको तोड़-ताड़ देंगे।
आज भी जो हमारे सब भाई लोग हैं, चिंपैजी-औरंगुटान, उसमें मादाएँ ऐसे ही चलती हैं। बहुत सारे जब सामने नर होंगे, तो मादा देखती है कि इसमें सबसे ज़बरदस्त कौन है। और मादा उसके जेनाइटल्स (यौनागों) को भी ऐसे ही दूर से ही परख लेती है, फिर मादा उसको इशारे करती है। मादा जब इशारे करती है, तो जो बाकी जितने होते हैं उनमें ईर्ष्या चढ़ आती है, ये सब होता है बायोलॉजिकल। जब ईर्ष्या चढ़ जाती है तो छः चिंपैजी आपस में एक-दूसरे का मुँह तोड़ते हैं, फिर उसमें से एक निकलता है जो बाकी पाँच को मार-पीटकर भगा देता है। ये जो एक बचता है ये थोड़ा सा जेनेटिकली सुपीरियर (आनुवंशिक रूप से श्रेष्ठ) है, या हो सकता है कि अभी ये जवान हो, बाकी थोड़े बुढ़ा गए हैं तो भग गए। और फिर ये जो एक होता है ये जाकर मादा को इंप्रेग्नेट (गर्भवती) करता है।
अब मादा ने बच्चे दे दिए, इतने समय में ये वाला जो चिंपैंजी था ये भी बुढ़ा गया। तो जंगल में कोई वफ़ा-मफ़ा थोड़े ही चलती है, अगली बार एक आएगा और नया जवान। ऐसा थोड़े ही है कि अब मामला जोकोविच का है तो वही चलेगा, आ गया कार्लोस। अब वो बाईस साल का हो गया, वो सैंतीस साल का हो गया, अब होगे कभी तुम बड़े-बड़े से चैंपियन, पर वो बाईस साल वाला अब तुमको अच्छे से रगड़ रहा है। तो अगली बार मादा वो बाईस साल वाले को इशारा करेगी, ‘ये बुड्ढे को निकाल ज़रा।’ और वो बुड्ढा निकाल दिया। ये होता है बायोलॉजिकल, कर लो, बायोलॉजी का ये मतलब होता है।
और बायोलॉजी का ये मतलब होता है कि कितने ही जानवर हैं, वो बच्चों को अपने जन्म देते हैं और खाने को न मिले तो अपने ही बच्चों को खाते हैं — ये है बायोलॉजी, कर लो! इसी से आगे निकलने के लिए हम सुसंस्कृत हुए, इसी से आगे निकलने के लिए पहले हम गाँव में आए, खेती शुरू की, फिर हमने शहर बसाए। हमने सभ्यता के ये ऊँचे महल और संस्कृति की अट्टालिकाएँ खड़ी कीं और तुम अब वापस जंगल में जाना चाहते हो तो यही सब मिलेगा जंगल में।
कोई जानवर देखा है जो टट्टी करके साफ़ करता हो? ऐसे ही घूमते हैं। सबसे पहले तो जो लोग बोल रहे हैं इनके फ्लश करने पर पाबंदी हो, इनको टॉयलेट पेपर नहीं मिलना चाहिए, इनको तो जंगल जैसा चलेगा! और जानवर तो जाता भी नहीं कमोड तलाशने, जहाँ खड़े हो वहीं हग दो। जंगल में तो यही होता है, यही करो। और जंगल में वैक्सीन नहीं लगती हैं। ये सारी बातें जो आप बोल रहे हैं, ये वेस्टर्न (पश्चिमी) लोगों से आ रही हैं। वो तो दिन-रात वैक्सीन ठुकवाते हैं, इनको कोई वैक्सीनेशन नहीं होना चाहिए, जंगल में कोई वैक्सीनेशन नहीं होता। वहाँ एक ही वैक्सीनेशन होता है कि बीमारी लग जाएगी तो इम्युनिटी डेवलप (रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित) हो गई तो हो गया वैक्सीनेशन; और इम्युनिटी नहीं डेवलप हुई, मर गए, तो मर गए फिर।
भेजो इन्हें जंगल में वापस! इनका टूथब्रश भी छिन लो और इनको मनाही होनी चाहिए किसी भी इंसानी भाषा में बात करने की, क्योंकि जंगल में तो कोई इंसानी भाषा होती नहीं। ये कैसे बात करेंगे? ‘ऐं, ओं, अल्फा!’ इन्हें अलाउड (अनुमत) ही नहीं होना चाहिए किसी भाषा में बात करना, जंगल में कोई भाषा होती है? (मुँह से जंगली जैसी आवाज़ निकालते हुए) करो, ऐसे बात करो।
एक सज्जन हैं एंड्रयू टेट, इनकी वजह से यूके में स्कूलों में नया नियम लाना पड़ गया है सरकार को कि मिसोजेनी (स्त्री जाति से द्वेष) अब बच्चों द्वारा भी की जाएगी तो कल्पेबल होगी, माने पनिशेबल (सज़ा देने लायक) होगी। इनको देख-देखकर छ:-छ:, आठ-आठ साल के बच्चे अपनी क्लास की लड़कियों के साथ बदतमीज़ियाँ कर रहे हैं। और यूके में ये विचार हो रहा है कि इसको हम टेररिज़्म (आतंकवाद) ही क्यों न घोषित करें; और ऐसा टेररिज़्म जिसके लिए छोटे बच्चे भी गुनहगार माने जाएँगे।
ये चीज़ बिल्कुल महामारी की तरह फैल गई है कि मुझे सिग्मा, अल्फा, डेल्टा, बीटा, अल्टा जो भी है सब बनना है, रो, फाइ, चाइ सब बनना है। और सब जगह जो बात, जो तर्क दिया जा रहा है वो यही है कि हाउ इज़ मैन, मैन इज़ मस्कुलरली सुपीरियर (आदमी कैसा है, आदमी माँसपेशियों से श्रेष्ठ है)। हमारी सारी सुपीरियोरिटी (श्रेष्ठता) कहाँ है? हमारी मसल्स में है। और तुम अपने आप को देखो, तुम्हारा शरीर कमज़ोर है तो तुम घर पर बैठो और तुम हमारे बच्चे पैदा करो।
एक सज्जन हैं इलॉन मस्क, इन्होंने बदतमीज़ी की हद पार कर रखी है कि खुलेआम महिलाओं से पूछते हैं, ‘तुम मेरे बच्चे पैदा करोगी?’ बारह पैदा कर रखे हैं इन्होंने, पचास पार कर चुके हैं, पर जो मिलती है उससे ये सवाल करते हैं, ‘तुम मेरे बच्चे पैदा करोगी?’ इन्हें काफ़ी भरोसा है कि इनका जो डीएनए है वो इतना ज़बरदस्त है कि उसे पृथ्वी पर फैलना-ही-फैलना चाहिए।
एक सज्जन हैं टेलीग्राम वाले, जो टेलीग्राम के मालिक हैं। उन्होंने सौ से ज़्यादा बच्चे पैदा कर रखे हैं। जो टेलीग्राम एप है आपकी; भरोसा पूरा है कि मैं हूँ ही इसीलिए कि मेरा तो काम क्या है? ‘मैं तो अल्फा बंदा हूँ, मेरा काम है सबको इंप्रेग्नेट करना। ये सारी महिलाएँ इसीलिए हैं कि ये मेरा जो सीमेन (वीर्य) है, मेरा जो डीएनए है उसको प्रोलिफ़रेट करें, फैलाएँ।’ खुलेआम पूछते हैं, ‘विल यू बियर माइ चाइल्ड (क्या तुम मेरे बच्चे को जन्म दोगी)?’ ये सब होता है, लेकिन कहाँ? जंगल में। तो ऐसों से हमें कोई समस्या नहीं, बस इनको पैक करो और तुरंत जंगल भेजो।
सारा जो विकास हुआ है मनुष्य का, वो इसी बिनाह पर हुआ है कि हम जंगली नहीं हैं और हम शरीर नहीं हैं, “नाहं देहास्मि।” और ये देह को ही आधार बना रहे हैं हमारी हस्ती का। ये कह रहे हैं, ‘यू आर बायोलॉजिकल (तुम जैविक हो)।’ जिन्होंने ज़िंदगी को जाना, उन्होंने बार-बार कहा, ‘यू आर नॉट बायोलॉजिकल, यू आर बियोंड योर बायोलॉजी (तुम जैविक नहीं हो, तुम अपनी जैविकता के आगे के हो)।’ और ये तुम्हें बार-बार बोल रहे हैं, ‘यू आर योर बायोलॉजी।’ ‘तो ठीक है, येस, आइ एम माइ बायोलॉजी, बट देन आल बायोलॉजी बिलोंग्स टू दैट सेंस पूल यू शुड बी ड्रेंचड् इन दैट एंड ड्राउंड इन दैट (हाँ, मैं जैविक हूँ, लेकिन फिर सारी जैविकता उस गंदे पानी के तालाब से संबंधित है जिसमें तुम्हें पूरी तरह से डूब जाना चाहिए और उसमें लथपथ हो जाना चाहिए)।’
और ये अकेले नहीं हैं, देखो, कोई भी घटना न आइसोलेशन (एकांत) में नहीं होती है, एक बहुत उर्वर, फर्टाइल ज़मीन तैयार थी जिस पर इस तरह के लोग खड़े होते हैं। और वो ज़मीन ऐसे तैयार थी कि पुरुष तो पुरुष, इसमें हम ऐसे कर रहे हैं जैसे पुरुष दोषी हों, सबसे ज़्यादा अपने आप को बायोलॉजिकल रखने में स्वार्थ पकड़ रखा है महिलाओं ने। क्योंकि अगर महिलाएँ अपने आप को बायोलॉजिकल रखने को राज़ी नहीं होतीं तो ऐसे पुरुषों की फिर बोलने की हिम्मत भी नहीं होती। इनको पता है कि अगर ये बोलेंगे तो इन्हें पुरुषों से ही नहीं, महिलाओं से भी समर्थन मिलेगा, ये इसलिए बोलते हैं।
जब ये बोलते हैं न कि महिलाओं का काम है घर पर रहें और वी आर द प्रोवाइडर , हम तुम्हें लाकर देंगे, तुम घर में रहो न, तुम हमारे घर की मल्लिका हो; बहुत सारी महिलाएँ हैं जो यही चाहती हैं। वो चाहती भी यही हैं, ‘हाँ, हमें घर की मल्लिका बना दो, हम घर पर पड़े हैं, बच्चे पैदा करेंगे, खाना-पीना बना देंगे और सज-बजकर रहेंगे, सेक्स करना हमारे साथ।’ तो चूँकि ऐसी ज़मीन तैयार है इसलिए ये लोग इस तरीके के ये अनर्गल वक्तव्य दे पाते हैं, नहीं तो नहीं दे सकते थे।
महिलाओं के लिबरेशन (मुक्ति) के लिए भी जो काम हुआ है वो आधे से ज़्यादा तो पुरुषों ने किया है। मैं उन सब महिला उद्यमियों का और आंदोलनकारियों का सम्मान करता हूँ जिन्होंने महिलाओं के इमेनसिपेशन (मुक्ति) में ज़बरदस्त भूमिका निभाई है। लेकिन फिर भी अगर आप पूरी दुनिया में देखेंगे कि महिलाओं को उठाने के लिए काम किसने ज़्यादा किया, तो उसमें आप महिलाओं से ज़्यादा पुरुषों के नाम पाएँगे, क्योंकि बहुत सारी महिलाओं ने खुद ही इस बात में अपना स्वार्थ देख रखा है।
ये झूठा स्वार्थ है, काल्पनिक स्वार्थ है, लेकिन फिर भी उन्होंने देख रखा है कि हाँ, हमारे लिए घर ही ठीक हैं। ’बढ़िया है न, हम घर में पड़े हैं, कोई और जाकर खा-कमा रहा है, हमें क्या करना है। हम घर में हैं, रोटी-वोटी बना देंगे, बाकी तुम जो बोलोगे कर देंगे, बस अपनी आज़ादी ही तो बेचनी है, बेच देंगे। रोज़ अपना रेप ही तो करवाना है, करवा लेंगे।’
ऐसों को भी सबको बस वही करना चाहिए, ‘जाओ, मादा गोरिल्ला जा।’ एक बहुत बड़ा जंगल ऐसों के लिए आरक्षित होना चाहिए। अमेज़न वगैरह में कोई दो-चार लाख स्क्वेयर किलोमीटर (वर्ग किलोमीटर) का जैसे होता है न एनिमल सैंक्चुअरी (पशु अभ्यारण), वैसे ही इनके लिए बायोलॉजिकल सैंक्चुअरी (जैविक अभ्यारण) होनी चाहिए। जहाँ न भाषा चलेगी, न कपड़े चलेंगे, न गैजेट्स चलेंगे, (जानवर जैसी आवाज़ निकालते हुए) यही चलेगा और एक-दूसरे को मारना भी है तो पत्थरों से मारो।
जंगल में ऐसा थोड़े ही होता था कि मारने में भी कोई गरिमा, कोई डिग्निटी होती थी। आपकी तो संस्कृति आज ऐसी है कि आप किसी को सज़ा-ए-मौत भी देते हो तो भी खयाल करते हो कि ज़रा मानवीय तरीके से इसको मारा जाए। जंगल में जब मारा जाता था न, तो गिराकर एक पत्थर लेकर उसका सिर फोड़ा जाता था। और जंगल में औसत आयु बहुत कम होती थी, क्योंकि आपको बूढ़ा होने ही नहीं दिया जाता था।
सिर्फ़ उसी को ज़िंदा रहने का हक था जो लड़कर अपने लिए खाना जुगाड़ सकता है। जैसे ही आप थोड़े बूढ़े होने लगते थे आपको मार दिया जाता था। आपको रिसोर्सेस (संसाधन) क्यों मिलें खाने के लिए भई, आप ज़बरदस्ती (ही टाँग अड़ा रहे हैं), वो रिसोर्सेस जवान आदमी को मिलेंगे न। वो जवान आदमी अभी फर्टाइल (उर्वर) है, वो कौम को, कबीले को आगे बढ़ाएगा, ये बुड्ढे को कौन लेकर चलेगा!
और बुड्ढे वैसे ही मर जाते थे जब जंगली जानवर ने हमला किया। चालीस लोगों का कबीला है और सब भगे, सबसे पीछे कौन रह जाएगा? बुढ़ऊ, और बुढ़ऊ मरेगा। वहाँ ऐसा थोड़े ही है कि अस्सी साल के हो गए हो तो भी किसी तरह से ज़िंदा रखा हुआ है। वहाँ तो जो ज़रा सा बुड्ढा हुआ, तुरंत मरता था। एक जो आज मार रहा है, वो कल किसी और से मारा जाएगा, जाओ, जंगल में रहो। मैस्कुलिनिटी की बात कर रहे हो न, तो मैस्कुलिनिटी से संबंधित ये व्यवस्था चलती है। और फिर जहाँ तुम ये कह रहे हो कि मैं मैस्कुलिन हूँ तो मैं चार-पाँच औरतें लेकर चलूँगा, तो ये भी याद रखना कि जंगल में फिर कोई औरत ऐसी नहीं होती थी जो चार-पाँच के साथ संबंध न बनाती हो।
बिल्कुल ऐसा नहीं होता था कि किसी औरत ने पाँच बच्चे पैदा किए तो वो एक ही पुरुष से हैं; पाँच बच्चे हैं तो पाँच पुरुषों से होंगे। और वहाँ पर कोई लीगल राइट्स (कानूनी अधिकार) और फ़ंडामेंटल राइट्स (मौलिक अधिकार) और कॉन्स्टिट्यूशनल फ़्रीडम्स (संवैधानिक स्वतंत्रता) नहीं होती हैं जंगल में। जंगल माने जंगल राज, माइट इज़ राइट (ताकत ही सही है), यही है राइट्स।
कोई वजह थी कि हमने जंगल छोड़ा है, तुम फिर जंगली होना चाह रहे हो। मनुष्य जितना विकसित होता जाता है, उसकी हस्ती में उसकी सेक्शुअलिटी (कामवासना) उतना ज़्यादा मार्जिनलाइज़ (उपेक्षित) होती जाती है। समझ में आ रही है बात?
ये नहीं कि वो सेक्शुअल (कामुक) रह नहीं जाता, उसका सेंटर (केंद्र) सेक्शुअल नहीं रह जाता। ये बात अच्छे से समझना, मनुष्य अपनी बायोलॉजी को मार नहीं देता है, ऐसा नहीं कि वो सेक्शुअल नहीं रह जाएगा, पर उसकी सेक्शुअलिटी अब उसके सेंटर पर नहीं चढ़ी हुई है।
कल किसी ने मेरा ही एक बहुत पुराना कथन डाला, मैंने कहा, ‘बहुत खूबसूरत बात है।’ उसमें मैंने कहा था, ‘फ़्री फ़्रॉम लस्ट यू बिकम फ़्री एंड ब्यूटीफुल (वासना से मुक्त होकर आप स्वतंत्र और सुंदर बन जाते हैं)।’ फिर आगे लिखा मैंने, ‘फ़्री फ़्रॉम यू, लस्ट ऑल्सो बिकम फ़्री एंड ब्यूटीफुल (तुमसे मुक्त होकर वासना भी मुक्त और सुंदर हो जाती है)।’ तो ऐसा नहीं है कि सेक्शुअलिटी मर जाती है, सेक्शुअलिटी रहती है पर सेंटर पर नहीं रहती। ये लोग सेक्शुअलिटी को सेंटर पर लाना चाह रहे हैं पागल!
जब सेक्शुअलिटी जीवन के सेंटर पर आ जाएगी न, तो जीवन और सेक्शुअलिटी दोनों अगली , कुरूप, बेरंग, भद्दे, बेडौल हो जाते हैं। और जब सेंटर पर कॉन्शियसनेस रहती है और पेरिफेरी (परिधि) पर सेक्शुअलिटी रहती है, तो कॉन्शियसनेस भी खूबसूरत है और सेक्शुअलिटी भी खूबसूरत है। ये बात ये नहीं हो रही है कि वो लोग सेक्स के फेवर (पक्ष) में बात कर रहे हैं और मैं कॉन्शियसनेस के फेवर में बात कर रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ, ‘वो जो काम कर रहे हैं, उसमें कॉन्शियसनेस और सेक्स दोनों बर्बाद हो जाएँगे। और जब कॉन्शियसनेस परवान चढ़ती है तो सेक्स भी सुंदर हो जाता है। वो सेक्स को भी खराब करने का काम कर रहे हैं।’
दो जंगली जानवरों के सेक्स में कौन-सी खूबसूरती है! ऋषि भर्तृहरि ने बोला तो था, वो कुत्ता याद है उनका? बोले, ‘काना, खाज वाला कुत्ता, उसके खून-मवाद बह रहा है। वो लंगड़ा रहा है, वो मरने को हो रहा है, दुर्गंध उठ रही है उससे हर तरीके से और फिर भी वो कुतिया के पीछे-पीछे सूँघता चला जा रहा है।’ इस सेक्स में कौन-सी खूबसूरती है? लेकिन जब एक ऊँची चेतना का व्यक्ति सेक्स करता है तो सेक्स भी खूबसूरत हो जाता है। ये सेक्स को भी बर्बाद कर देना चाहते हैं कि जैसे नाली में दो सुअर लोट रहे हों और सेक्स कर रहे हों और कह रहे हों, ‘यही तो है मेरी मैस्कुलिनिटी!'
और आपने बहुत लंबा पत्र सुनाया था, क्या और बातें थी, मैं भूल ही गया? हाँ, कुछ आप वहाँ का बता रहे थे पूर्वी उत्तर प्रदेश, भोजपुर, बिहार का सब…। हाँ, वो वही है सब! देखिए, जहाँ पर इन बातों को, जो पाशविक वृत्तियाँ हैं इंसान की, जहाँ इन बातों को सम्मान मिलता है, फिर वो लोग भी पाशविक ही हैं। एक मनुष्य अपनी जीवन यात्रा पर होता है, लेकिन मनुष्यता अपनी समग्रता में एक चेतना यात्रा पर है; बहुत अंतर है। हम यूँही नहीं पैदा हो रहे मर रहे, मनुष्यता अकेली है जो चेतना की यात्रा पर है, बाकी जितनी प्रजातियाँ हैं कोई चेतना की यात्रा पर नहीं है। हम अकेले हैं जो इसलिए पैदा हुए हैं ताकि और ज़्यादा चैतन्य हो सकें। बाकी हैं वो इसलिए पैदा हुए हैं कि बस जिएँ, खाएँ-पिएँ, मर जाएँ; बाकी जो प्रजातियाँ हैं, स्पीशीज़ हैं। समझ में आ रही है बात?
तो जो लोग अपने आप को और चैतन्य और बेहतर नहीं बनाना चाहते भीतर से, वो जानवर हैं। उनको जानवर की ही ज़िंदगी जीनी है। किसी को धमकी दे देना, किसी पर गुंडई चला देना — नेताजी बन गए हैं, फ़ॉर्चूनर ले ली है — जाकर पान वाले को पेल दिया, उसका खोखा गिरा दिया, क्योंकि वहाँ और तो कोई बड़ी दुकानें होती नहीं। जिस तरह का ये माहौल है, वहाँ पर कोई औद्योगिक विकास तो होगा नहीं, वहाँ पर कोई मेगा मॉल तो स्थापित होगी नहीं; छोटी-मोटी दुकानें होती हैं, उन्हीं पर जाकर अत्याचार कर लो, उनको मारो। वो जो कस्बे के गरीब हैं उनको अच्छे से पीटो-पाटो, उन पर धौंस चलाओ, ये सब जंगल की निशानियाँ हैं।
इस जंगल से वैसे ही बाहर आ जाना चाहिए जैसे हमारे पूर्वज वो हरे-हरे जंगल से बाहर आए थे। जो भी गाँव, कस्बे, अविकसित जगहों के हैं, जहाँ अभी एनिमल इंस्टिंक्ट्स (पशु प्रवृत्ति) ही रूल कर रही है, उनको गाँव या कस्बा नहीं, उनको जंगल ही मानो। और उनसे वैसे ही भागो जैसे तुम भागोगे अगर तुम किसी जंगल में फँस गए हो। दुर्भाग्य ये है और दुख मुझे बहुत है कि मेरा जो पूरा देश है न, वही गँवार लोगों की गिरफ़्त में आता जा रहा है। गरीबी, अशिक्षा, गँवरई छाते जा रहे हैं और पूरी दुनिया भारत को ऐसे ही देखने लगी है, थ्री जी — गंदगी, गरीबी, गँवरई। भारत वो है जो चेतना का पालना रहा है; और उसकी जगह क्या बन रहा है भारत? यही यूपी, बिहार के देसी एंड्रयू टेट।
प्रश्नकर्ता: सर, ये जो सेंटीमेंट (भाव) है कि हम अपने ऑप्रेसर्स (उत्पीड़कों) को एज़ अ सिंबल ऑफ़ पॉवर या मैस्कुलिनिटी देखते हैं। कोई अराजकता फैला रहा है तो हम उसको ये नहीं कहेंगे कि ये क्रिमिनल (अपराधी) है या ये गँवार है। उसको बोल देंगे इन एरियाज़ (क्षेत्रों) में, जैसे कि अरे, भैया जी का भौकाल है! तो इसको मतलब ग्लोरिफाइ (भी करा जाता है)।
आचार्य प्रशांत: जंगल में ऐसे ही चलता है न। अब जा रहा है बाघ, उसके पीछे-पीछे बहुत सारे गीदड़ चलेंगे और वो सब आपस में क्या बोल रहे होते हैं? ‘भैया जी का भौकाल है!’ और वो जाकर बाघ शिकार करेगा भैंसे का और उसके बाद बाघ को उसमें जो कुछ खाना है बढ़िया, भेजा फ्राई, वो खाकर निकल लेगा बढ़िया चीज़ें और बाकी जो झूठन बचा है वो सब गीदड़ चाटते हैं। और चाटते हुए एक-दूसरे से यही बोलते हैं, ‘भैया जी! भैया जी का भौकाल है! भैया जी बस एक बार चुनाव जीत जाएँ।’ यहाँ चुनाव जीतने का अर्थ है भैंसा मार देना। उसके बाद देखो, फिर कैसी-कैसी रेवड़ियाँ बँटती हैं, फ्रीबीज़ (मुफ़्त उपहार)!
जैसे भैया जी जब विधायक बन जाते हैं तो उनके जितने चापलूस होते हैं, उनमें किसी को कुछ मिल जाता है, किसी को कुछ मिल जाता है, किसी को कुछ मिल जाता है। वैसे ही जब बाघ जी भैया जी हैं, जब बाघ जी शिकार कर लेते हैं तो सब गीदड़ों को कुछ-न-कुछ मिल जाता है। ये जंगल का खेल है बहुत पुराना। और ये कितनी विचित्र बात है, फिर कह रहा हूँ, कि भारत जहाँ पर चेतना ने सर्वप्रथम आँखें खोलीं, हम चेतना की यात्रा में शेष विश्व से भी पिछड़ते ही जा रहे हैं। क्या विडंबना है ये! जब पूरी दुनिया ठीक से बोलना भी नहीं जानती थी तब भारत ने कहा, “अहं ब्रह्मास्मि।” जब पूरी दुनिया ठीक से अहम् बोलना नहीं जानती थी तब भारत ने कहा, “अहं ब्रह्मास्मि।” और इस भारत में आज ‘भैया जी का भौकाल’ चल रहा है छोटे गाँव-कस्बों में और मेट्रो सिटीज़ में एंड्रयू भाई का भौकाल चल रहा है।
प्रश्नकर्ता: सर, इवन (यहाँ तक कि) ये चीज़ मैं लखनऊ जैसे शहर में भी देखता हूँ।
आचार्य प्रशांत: वो सब वही है, वो वही है।
प्रश्नकर्ता: मतलब यहाँ कि जो इंफ्रास्ट्रक्चरली डेवलप्ड (अवसंरचनात्मक रूप से विकसित) इलाके हैं उसमें भी वही सबकुछ चल रहा है। और जैसे यहाँ पर इस चीज़ में जो एक प्राइड ली जाती है कि नवाबों का शहर है। वो तो ओप्रेसर्स ही थे हमारे, हम उसमें प्राइड क्यों ले रहे हैं समझ नहीं आती ये बात! इन्वेडर्स (आक्रमणकारियों) को लेकर हम कह रहे हैं कि....।
आचार्य प्रशांत: देखो, इन्वेडर हो या लोकल हो; ओप्रेसर है तो हमारे लिए बहुत बढ़िया है। हमको, देखते नहीं हो हर समय लगता रहता है, ‘वी नीड अ स्ट्रौंग गवर्नमेंट, वी नीड अ स्ट्रौंग लीडर (हमें एक मज़बूत सरकार चाहिए, हमें एक मज़बूत नेता चाहिए)।’ ये स्ट्रौंग माने क्या होता है? फिर वही जंगल की बात कर दी न कि आगे-आगे बाघ चलेगा, पीछे-पीछे सब गीदड़ चलेंगे और कहेंगे, ‘वी हैव अ स्ट्रौंग लीडर।’ क्यों चाहिए तुम्हें स्ट्रौंग लीडर ? ताकि तुम दब्बू बने रहो? क्योंकि तुम्हारी कोई औकात नहीं है इसलिए तुम्हें स्ट्रौंग लीडर चाहिए?
तुम्हें दिख भी नहीं रहा तुम जंगल की और गीदड़ की बात कर रहे हो। ‘नहीं, वी नीड अ स्ट्रौंग पर्सनैलिटी (हमें एक मज़बूत व्यक्तित्व चाहिए)।’ ये स्ट्रौंग पर्सनैलिटी क्या होती है? या तो कॉन्शियस पर्सनैलिटी होती है या अनकॉन्शियस होती है, ये स्ट्रौंग माने क्या? स्ट्रौंग माने वही भैया जी का भौकाल! जो अपना दबदबा चला सकें, दूसरों पर चढ़ सकें, सिग्मा मेल टाइप हों। जंगल की बात! बाहर ही नहीं आ पा रहे जंगल से।
जो जगहें जितनी विकसित होती जाती हैं न, वहाँ ये गुंडागर्दी, ये छोटे शहर जैसी बातें, ये कर दिया वो कर दिया, उतनी कम होती जाती हैं। हमारे मन में पता नहीं पश्चिम की क्या छवि है, पर आप पश्चिम जाओगे न, तो वो लोग सभ्य भी ज़्यादा हैं। ये बोलते हुए मुझे अच्छा नहीं लग रहा है, पर बात यही है। आप रेल्वे प्लेटफ़ॉर्म पर अपनी कोई चीज़ छोड़ दो भारत में और यूरोप में, बहुत-बहुत ज़्यादा संभावना है कि यूरोप में वो चीज़ आपको वापस मिल जाएगी।
और ऐसा नहीं कि वहाँ गरीब लोग नहीं हैं, गरीब वहाँ भी हैं। हो सकता है आप कोई कीमती चीज़ छोड़ो जो उनके लिए भी कीमती हो, फिर भी उस चीज़ को वापस पाने की संभावना यूरोप में कहीं ज़्यादा है। रात में महिलाएँ निकल सकती हैं, वहाँ जंगल नहीं है कि रात में महिला निकली और उस पर भेड़िए ने हमला कर दिया। यहाँ भारत में निकल सकती है महिला?
और ये कितने दुर्भाग्य की, फिर वही कह रहा हूँ, घोर विडंबना है न, हमने पहली बार शरीर की नहीं, चेतना की आँखें खोलीं और हम ही सबसे पिछड़ गए। किस चीज़ में हम आगे हैं? बस वही गँवरई और गंदगी। और गँवरई बढ़ती ही जा रही है; और गँवरई के साथ एक स्वैग जुड़ता जा रहा है वही जो तुम बोल रहे हो, ‘भौकाल’, ‘गँवरई करेंगे और छाती तानकर करेंगे।’ पहले कोई गँवार होता था उसे थोड़ी लाज आती थी कि मैं गँवार हूँ, अब जो गँवार है उसकी गँवरई उसका हथियार है। वो अपनी गँवरई को इस्तेमाल ही ऐसे करता है, ‘मुझसे डरकर रहना, मैं गँवार हूँ, ऐं... तने पेल दूँगा।’
प्रश्नकर्ता: सर, जैसे आपने कहा कि औद्योगिक विकास जहाँ ज़्यादा है वहाँ पर ये सब चीज़ें कम हैं, लेकिन मैं देखता हूँ कि दिल्ली एनसीआर, नोएडा, ग्रेटर नोएडा, गाज़ियाबाद वहाँ भी (ये सब चलता है)।
आचार्य प्रशांत: औद्योगिक विकास नहीं कहा मैंने, चेतना का विकास। यूरोप में चेतना का विकास आया पहले और उस चेतना से फिर उद्योग का विकास हुआ। भारत में उद्योग आ गया थोड़ा-बहुत, चेतना थोड़े ही उठी है। हमारे यहाँ तो उद्योग सब उधारी का आया है। वहाँ पहले रेनेसाँ (पुनर्जागरण) हुआ, पहले वैचारिक क्रांति हुई। वहाँ पहले वैचारिक क्रांति हुई, पहले वहाँ पर इक्वैलिटी, लिबर्टी, फ़्रेटरनिटी (समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व) ये आया, उसके बाद साइंस एज़ अ फ़िलॉसफ़ी (एक दर्शन के रूप में विज्ञान) आगे बढ़ा। भारत में कभी वो वैचारिक क्रांति नहीं हुई; हुई है पर बहुत हल्की-फुल्की।
सन् १८२० के आस-पास से लेकर आज तक भारत में भी वैचारिक तल पर सुधार का कुछ कार्यक्रम चलता रहा है। हमारे यहाँ भी समाज सुधारक हुए हैं, पर जिस प्रकार की वैचारिक क्रांति चाहिए और आमूलचूल परिवर्तन चाहिए, वो भारत में हो नहीं पाया। तो हमारे पास मोबाइल फ़ोन तो आ गया है तो सूचना प्रौद्योगिकी में क्रांति हो गई है, आइटी रिवोल्यूशन हो गया है; इंटरनल रिवोल्यूशन (आंतरिक क्रांति) थोड़े ही हुआ है भारत में। और बिना इंटरनल रिवोल्यूशन के जब आइटी रिवोल्यूशन होता है, तो उससे फिर यही होता है कि भैया जी का भौकाल।
उनकी जो पूरी चीज़ है वो ऑर्गेनिक है, हमारी इनऑर्गेनिक है। समझ रहे हो न? वहाँ पर जो साइंस की ग्रोथ हुई उससे पहले फ़िलॉसफ़ी की ग्रोथ हुई है। और वो जो फ़िलॉसफ़ी है वो फ़्रीडम की फ़िलॉसफ़ी है, बहुत ताज़ी-ताज़ी है, नई-नई है। हमारे पास उस फ़्रीडम की और बेहतर फ़िलॉसफ़ी है और ज़्यादा पुरानी फ़िलॉसफ़ी है। आप हमारे दर्शनों में जाएँगे, सांख्य, वेदांत, हमारी एक-एक फ़िलॉसफ़ी कहती है कि मेरा एंड रिज़ल्ट, मेरा उद्देश्य, मेरा अंत है मुक्ति, माने फ़्रीडम। हमारे पास फ़्रीडम की बहुत ऊँची फ़िलॉसफ़ीज हैं। षड्-दर्शन में छ:-के-छ: बोलते हैं मुक्ति। यहाँ तक कि जो नास्तिक दर्शन हैं, बौद्ध, जैन, वो भी कहते हैं मुक्ति। तो हमारे लिए फ़्रीडम बहुत ऊँची बात रही है, लेकिन फिर भी हम पीछे रह गए।
उन्होंने फ़्रीडम अभी सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी में पकड़नी शुरू की और इतना महत्व दिया फ़्रीडम। उसी फ़्रीडम से उनकी साइंस, टेक्नोलॉजी (तकनीक), इनोवेशन (नवाचार), इन्वेंशन (आविष्कार), पॉलिटिकल सिस्टम (राजनैतिक व्यवस्था), सोशल सिस्टम (सामाजिक व्यवस्था), कल्चर (संस्कृति) सब निकले हैं, तो मामला ऑर्गेनिक है वहाँ पर। पहले वैचारिक क्रांति और फिर वैज्ञानिक क्रांति। भारत में क्या हुआ?
वैचारिक क्रांति तो हुई नहीं है, पर भैया जी के हाथ में मोबाइल आ गया है। और भैया जी के विचार अभी आदिमानव जैसे ही हैं, तो भैया जी मोबाइल पर भी क्या कर रहे हैं? पीक मार रहे हैं और क्या कर रहे हैं! क्या किया? ‘कुछ नहीं, एप्पल पर थूक दिया। सेब है, सेब पर तो थूका जा सकता है।’ और आस-पास के गीदड़ सब बोले, क्या? तुरंत एकमत, एक स्वर, संवेग स्वर में क्या बोले? ‘भैया जी का भौकाल!’ हो गया।
ये सब जंगल की निशानियाँ हैं कि भैया जी चल रहे हैं और भैया जी के पीछे दस चापलूस लाइन लगाकर चल रहे हों हर समय। कोई भैया जी का रजनीगंधा लेकर चल रहा है, कोई भैया जी के जूते लेकर चल रहा है, कोई कुछ लेकर चल रहा है। ये सब मतलब अभी जो यहाँ (बुद्धि) से अविकसित जगहें हैं, वहीं ये सबकुछ मिलेगा। भैया जी बैठ गए हैं, तो भैया जी बैठते भी ऐसे हैं कि सामने कुर्सी रखी जाती है, उस पर अपनी दोनों टाँगें रख देते हैं। एक लगा हुआ है, जैसे ही उसने मौका देखा, आकर भैया जी के जूते उतार रहा है।
ये सब जंगल में चलता है, सब चलता है जंगल में। ये जितनी बातें हैं न, इनके पैरेलल्स तुमको जंगल में मिलेंगे, एकदम मिलेंगे। पक्षी मिलेंगे जो कि जो माँसाहारी जानवर होते हैं उनके पास आते हैं और उनके लिए टूथ क्लीनिंग (दाँत साफ़ करने) का काम करते हैं। तो जानवर जब खा-पी लेगा, वो अपना ऐसे बैठ जाएगा ऐसे मुँह खोलकर के। उसके बाद एक पक्षी आएगा और जितना यहाँ माँस फँस गया होगा, वो सारा माँस खाएगा। पक्षी को माँस मिल गया, इनकी दाँतों की सफ़ाई हो गई। और पक्षी लगा रहता है, वो ऊपर से ऐसे घूम-घूमकर इसी जुगाड़ में रहता है कि भैया जी शिकार कब करें। जब भैया जी शिकार करेंगे तो भैया जी के दाँतों में जो जूठन फँसा होगा वो जाकर ये पक्षी खा लेगा।
इस कल्चर में एक जवान आदमी के लिए क्या है, बताओ? ओप्रेशन के अलावा उसे क्या मिलेगा, बोलो? वो क्यों रुके अपने गाँव, कस्बे या शहर में भी, क्या है उसके लिए? उसको तो कहा जा रहा है, ‘तू भी चापलूस बन जा। तू भी किसी की सिफ़ारिश से कोई नौकरी पा ले, या तू भी किसी बेईमानी के धंधे में शामिल हो जा।’ और ये तो जवान आदमी कहा, बताओ जवान औरत के लिए क्या है? क्या है जवान औरत के लिए?
उसके लिए तो बस यही है कि जाकर कहीं बिछ जा और किसी ऐसे को पकड़ जो सत्ताधारी हो, क्योंकि बिछना तो तुझे है ही। बिछना तो तुझे है ही, तो कम-से-कम किसी ऐसे के सामने बिछ जो तुझे बढ़िया खाना-पीना, कपड़ा, गहना देकर रखेगा।’ यही है जवान औरत के लिए; ऐसों को मेरी सलाह है — जंगल से बाहर आओ। ये सब बहुत छोटी बातें होती हैं कि मेरा यहाँ जन्म हुआ, मैं यहाँ का हूँ, यहाँ का हूँ, कुछ नहीं! तुम इंसान हो, तुम्हारी पहली निष्ठा अपनी चेतना के उत्थान के प्रति होनी चाहिए, जन्मस्थान के प्रति नहीं। और जन्मस्थान का भी भला तभी कर पाओगे जब पहले अपना भला करोगे। तुम्हीं सशक्त नहीं हो तो तुम्हारी जन्मस्थली को कौन उबारेगा?
भारत का स्वतंत्रता आंदोलन भी देखोगे, तो उसमें जिन लोगों ने महत्त्वपूर्ण काम किए, उसमें से अधिकांश वो थे जो बाहर पढ़कर या रहकर आए थे। उन्होंने पहले देश छोड़ा, क्योंकि देश में वो अपना बल अर्जित ही नहीं कर पाते, न उन्हें शिक्षा मिल पाती, न उन्हें एक्सपोज़र, अनुभव मिल पाता, न वो देख पाते कि स्वतंत्रता, आज़ादी चीज़ क्या होती है, न वो ये देख पाते कि ऊँची सभ्यताएँ और संस्कृतियाँ कैसी होती हैं।
वो पहले गए, उन्होंने बहुत-बहुत साल बाहर गुज़ारे, वहाँ पढ़ाई की, लोगों से मिले, देखा-परखा, अनुभव ग्रहण किए। उसके बाद वो बाहर से आकर भारत के लिए कोई काम कर पाए। तुम अपने ही छोटे से डब्बे में कैद रह जाओगे तो वहाँ बस भैया जी मिलेंगे और भैया जी की लात। और फिर कह रहा हूँ, ‘ये बात पुरुषों पर जितनी लागू होती है उससे दस गुना ज़्यादा महिलाओं पर लागू होती है। भाग सके तो भाग, जाग सके तो जाग; नहीं तो वहाँ पड़ी रह और सड़ी रह।’
प्रश्नकर्ता: सर, मेरा नेक्स्ट (अगला) जो फॉलो-अप (प्रतिप्रश्न) था वो यही था एक्चुअली कि जो टॉक्सिक मैस्कुलिनिटी और जो रेप कल्चर से बहुत संबंधित है। इसमें कुछ ऐसे टेनेट्स (सिद्धांत) हैं, जैसे कि असर्शन ऑफ़ डोमिनेंस (प्रधानता का दावा), यानि एक आदमी स्टेटस (रुतबा) और पॉवर (ताकत) का भूखा है और वो कमा भी रहा है पैसे इसीलिए। और चूँकि वो वुमन को पेडेस्टलाइज़ (पदस्थ) कर रहा है, तो वो एक हाइएस्ट बिड (सबसे उच्च बोली) लगा पाएगा। तो ऐसा लगता है कि वुमन पूरे सपोर्ट में हैं इस टॉक्सिक मैस्कुलिनिटी के।
आचार्यः अरे! तो मनुष्य को ही अधिकार है क्या बेहोश होने का, माने पुरुष को ही? जितना हक पुरुष को है बेहोश होने का, उतना ही हक महिला को भी है बेहोश होने का। तो जैसे सब नर बेहोश पड़े हैं, वैसे ही नारियाँ भी बेहोश पड़ी हैं। वो भी इसी चक्कर में हैं कि जल्दी से कोई मिल जाए भैया जी मोटे पैसे वाला, हम उसकी बहन जी बन जाएँ। बेहोशी कोई लिंग देखकर थोड़े ही आती हैं, औरतें कोई कम बेहोश हैं! और बेहोशी से जब छोटे, क्षुद्र और तत्कालीन स्वार्थों की पूर्ति हो रही हो तो बेहोशी तोड़ना भी कौन चाहता है।
प्रश्नकर्ता: सबसे सैडेस्ट पार्ट मुझे यही लगता है कि वुमन खुद रेप कल्चर को ही एक तरीके से प्रमोट कर रही हैं, क्योंकि वो टॉक्सिक मैस्कुलिनिटी को प्रमोट कर रही हैं। और टॉक्सिक मैस्कुलिनिटी आ गया तो रेप कल्चर आ गया। तो वो एक चक्र चलता रहता है वो बहुत सैड लगता है और वुमन की कंसेंट (सहमति) के साथ चल रहा है कि वो खुद सपोर्ट कर रही हैं इस टॉक्सिक मैस्कुलिनिटी को।
आचार्य प्रशांत आदमी हो, औरत हो, अगर उसको सही शिक्षा, सही परवरिश, सही रोशनी नहीं मिली है तो वो जंगली ही रहेगा। भारत में बहुत अफ़सोस की बात है कि उस रोशनी का बड़ा अभाव हो गया है; कोशिश कर रहे हैं, देखो, कितनी ला पाते हैं। जानते हो क्या कहा जाता है? दुनिया का सबसे पुराना धंधा क्या है, व्यवसाय, प्रोफ़ेशन? वेश्यावृत्ति।
ये होता है जंगल में, बेहोशी में, ये सदा से चला है। जंगल में पहला प्रोफ़ेशन इंसान का था वेश्यावृत्ति, पहला एसेट (संपत्ति) था जिसको बेचा जा सकता था वो था शरीर। और उसके बदले में जो चीज़ खरीदी जा सकती थी, वो थी प्रोटेक्शन (सुरक्षा)। आप अगर उन्हीं सिद्धांतों पर आज भी चल रहे हो तो आप आज भी जंगल में ही हो; दुख पाओगे।
आयन रैंड का थोड़ा छोटा उपन्यास है ’वी द लिविंग।’ तीस साल पहले का हो गया तो मुझे पात्रों के नाम वगैरह अब नहीं याद हैं, पर उसकी जो नायिका है — उनके जो बाकी उपन्यास हैं उनमें जो चरित्र हैं केंद्रीय, वो पुरुष हैं, पर वी द लिविंग में जो केंद्रीय चरित्र है वो स्त्री है — तो वो एक ऑटोक्रेटिक सिस्टम (तानाशाही व्यवस्था) से बाहर भाग रही है जान लगाकर। वो कह रही है, ‘कुछ भी हो जाए इसमें नहीं रुकूँगी।’ वो ऑटोक्रेटिक सिस्टम उस उपन्यास में रशिया है।
वो बाहर भाग रही है और जब वो सीमा पर पहुँचती है, वहाँ पर बर्फ़ की मोटी चादरें हैं — और बड़ा मार्मिक उन्होंने चित्रण किया है। शब्द याद नहीं, कुछ याद नहीं, पर ये याद है कि जब उसको पढ़ा था तो जैसे कुछ दिल को बींध गया था — तो वो भाग रही है। और वो उस देश से भाग रही है जिस देश में उसको दबाकर ही रखा जाता, जिस देश में वो स्वतंत्रता से जी नहीं सकती थी, तो वो भाग रही है। वो भाग रही है, तो बिल्कुल जब बाउंड्री , सीमा पार ही करने वाली है तो कुछ गार्डस् हैं। उन्होंने उसको देख लिया, वो बोलते हैं, ‘रुक।’ वो बोलती है, ‘रुकने की तो कोई बात ही नहीं।’ वो बढ़ती जाती है, भागती जाती है। ये उसको पीछे से गोली मारते हैं और है कि बर्फ़ पर एक लाल लकीर खिंचती जा रही है।
एक गोली लगती है वो रुकती नहीं, दूसरी गोली लगती है वो रुकती नहीं, तीसरी गोली लगती है वो रुकती नहीं। और फिर वो जहाँ जाकर गिरती है वो बिल्कुल सीमा है; और वो गिरते-गिरते भी अपना हाथ सीमा के उस पार रख देती है। बर्फ़ पूरी लाल हो जाती है, पर वो कहती है, ‘रुकूँगी तो नहीं। गोली भी तुमने मार दी तो भी इस मिट्टी पर नहीं मरी मैं।’
“इस देश को बहुत ज़्यादा जज़्बे से चाहा है मैंने; और जितनी इस देश ने अपनी दुर्गति कर ली वो देखी नहीं जाती।”