प्रश्नकर्ता: आजकल नेपोटिज्म (भाई-भतीजावाद) इतना फैल क्यों गया है?
आचार्य प्रशांत: हाल ही में ये मुद्दा काफी सुर्खियों में आया है। लोग इसकी बात कर रहे हैं। सवाल उठाए जा रहे हैं। अच्छा है कि आप इसका कारण, इसका मूल कारण जानना चाहती हैं।
क्या है नेपोटिज्म ? या कुनबा-परस्ती या कुल-पक्षपात या परिवारवाद, यारवाद? जो अपने से जुड़े हुए लोग हैं, रक्त-संबंधों से, सामाजिक-तौर पर, उनके पक्ष में पूर्वाग्रहग्रस्त रहना। अपने पैसे का, अपनी ताक़त का उपयोग करके अपने परिवार के लोगों को आगे बढ़ाने की कोशिश करना, यही है न नेपोटिज्म ?
कहाँ से शुरू होता है? दो बाते हैं इससे संबंधित — कहाँ से शुरू होता है? और कैसे फैल जाता है?
शुरू होता है मूल अहंकार से। जो कि कहता है कि, "मैं एक शरीर हूँ, एक व्यक्ति हूँ।" और जब आप एक शरीर होते हो, एक व्यक्ति होते हो तो साथ-ही-साथ आपकी मूल भावना ये भी होती है कि कुछ व्यक्तियों से ही आपकी उत्पत्ति हुई है और कुछ व्यक्ति हैं जो आपके अपने हैं और बाकी फिर पराए हैं। क्योंकि सब तो अपने हो नहीं सकते। ठीक वैसे जैसे सब आपके माता-पिता नहीं हो सकते, सब आपके बेटे-बेटी नहीं हो सकते, सब आपके पति-पत्नी नहीं हो सकते। तो जहाँ अह्म आता है, जहाँ शरीर भाव आता है वहाँ तुरंत अपनों और परायों के बीच में एक सीमा रेखा खिंच जाती है।
अब अह्म का तो काम ही होता है ये कहना कि, "कुछ है जिससे मैं संबंधित हूँ, कुछ है जिससे मैं असंबंधित हूँ।" बड़ा अकेला सा होता है न अह्म। उसे जुड़ने के लिए, संबंधित होने के लिए लगातार कोई चाहिए। नहीं तो उसकी पहचान ही पूरी नहीं पड़ती। तो अह्म ने कहा — मैं देह हूँ, और मुझे संबंधित होना है किसी से। जिससे अह्म संबंधित हो जाता है वो उसके लिए बड़ा आवश्यक हो जाता है। जैसे कि अह्म ने कह दिया कि, "मैं पिता हूँ", तो अब एक दूसरा व्यक्ति बहुत आवश्यक हो गया इस पिता के अस्तित्व के लिए ही। कौन? बेटा।
अब बेटे का होना इस पिता के अस्तित्व के लिए एक अनिवार्यता हो गई है। क्योंकि बेटा अगर नहीं है तो पिता भी नहीं हो सकता। क्या कोई पिता ऐसा हो सकता है जिसके बेटा ना हो? नहीं हो सकता।
तो ये व्यक्ति अब ये कह रहा है — मैं पिता हूँ, मैं शरीर हूँ, और ठीक वैसे जैसे इस शरीर का जन्म किन्ही दो शरीरों से हुआ था वैसे ही मैंने भी एक शरीर को जन्म दिया है, वो मेरा बेटा है, मैं पिता हूँ। अब पिता की इसकी पहचान है। पिता की इसकी पहचान पूरी तरह आश्रित है इसके बेटे पर या बेटी पर। तो वो जो बेटा है या बेटी है उसका दमदार होना, उसका फलना-फूलना इस पिता के लिए बहुत ज़रूरी हो जाता है। इसलिए नहीं कि उसे बेटे या बेटी से प्रेम है बल्कि इसलिए क्योंकि उस बेटे से ही तो इस पिता की पहचान है, इस पिता की अस्मिता है, इस पिता का अस्तित्व है। बात समझ रहे हैं?
और ऐसा नहीं कि एक व्यक्ति सिर्फ पिता होता है। वो और भी बहुत कुछ हो सकता है। वो पति हो सकता है, वो मित्र हो सकता है किसी का। किसी का चाचा हो सकता है। बहुत कुछ हो सकता है। लेकिन वो जो कुछ भी है कुछ ही लोगों से संबंधित है न? सबसे नहीं।
हमने कहा कि अह्म का काम ही होता है अपने और पराए के बीच एक सीमा खींच देना। तो ये जो व्यक्ति है ये कुछ लोगों से ही संबंधित है। और जिन लोगों से ये संबंधित है वो लोग इस व्यक्ति के अस्तित्व के लिए बड़े ज़रूरी हैं। वो लोग अगर गिर गए या उन लोगों के साथ कुछ बुरा हो गया तो ये जो व्यक्ति है जो उन लोगों से अपनी पहचान जोड़कर के बैठा है, ये भी गिर जाएगा। तो अब मजबूरी बन जाती है इस व्यक्ति की कि जो दूसरा आदमी है, जिससे पहचान जोड़ी है, उसको भी उठा करके रखे।
आप कहेंगे, "इसमें बुराई क्या है कि अगर एक आदमी दूसरे आदमी को उठा करके रखना चाहता है?" बुराई ये है कि ये जो दूसरे को उठाने का काम हो रहा है ये प्रेम के नाते नहीं, मजबूरी के नाते किया जा रहा है। आपने कह दिया है — मैं कौन हूँ? मैं पिता हूँ। इस पिता पर कलंक लगेगा, तोहमत लगेगी, इस पिता की हस्ती ही भीतर से चूर-चूर हो जाएगी अगर बेटा नालायक निकल गया। तो अब ये पिता सब तरह के दंद-फंद लगा करके येन-केन-प्रकारेण अपने बेटे को चमकाने की कोशिश करेगा।
कैसे करेगा? बेटा नालायक निकल गया है, वो किसी भी तरह की प्रवेश परीक्षा, एंट्रेंस पास नहीं कर पा रहा है तो वो उसको कहेगा, “ठीक है मैं तेरे ऊपर दो-तीन करोड़ खर्च कर रहा हूँ। जा तू अमेरिका से एम.बी.ए कर ले।” ये प्रेमवश नहीं करा है। ये जो पैसा खर्च करा है, इसके पीछे प्रेम नहीं है। इसके पीछे बात ये है कि अगर, "मेरा बेटा आगे नहीं बढ़ा तो मेरा क्या होगा?"
मैं कौन हूँ? मैं पिता हूँ। पिता की पहचान किस पर आश्रित है? बेटे पर आश्रित है। तो बेटे को कोई भी जोड़-तोड़ करके खड़ा करना ही करना है। बात समझ में आ रही है?
अब पिता एक व्यापारी हो सकता है, बड़ा व्यापार। उसको दिख रहा है कि बेटा इस लायक नहीं है कि उसके व्यापार का उत्तराधिकारी हो सके लेकिन फिर भी वो कुछ कोशिश करके, कुछ जुगाड करके अपने बेटे को किसी तरीके से अपनी गद्दी सौंपना चाहेगा, अपना वारिस बनाना चाहेगा। इसमें गलत बस ये है कि ये जो कुछ हो रहा है ये प्रेम के नाते नहीं हो रहा है। चूँकि ये प्रेम के नाते नहीं हो रहा है इसलिए इसमें उस बेटे की भी कोई वास्तविक तरक्की या भलाई निहित नहीं है। ये बाप उस बेटे के लिए जो कुछ कर रहा है, वो ऊपर-ऊपर से तो लग सकता है कि बेटे के लिए अच्छा है लेकिन उसके लिए भी अच्छा नहीं है। किसी के लिए अच्छा नहीं है। समझ में आ रही है बात?
तो ये तो पहली बात हुई कि जो हमारा शरीर भाव है, तो उस शरीर भाव के कारण जो भी लोग हमसे रक्त संबंध रखते हैं, जो भी लोग हमसे जुड़े होते हैं परिवार के सूत्रों से उनके साथ हमारी पहचान जुड़ जाती है, हमारी हस्ती ही जुड़ जाती है। वो डूबे तो हमें लगता है, हम ही डूब गए। और ये अपने-आपमें बिलकुल भी बुरी भावना नहीं है कि कोई दूसरा डूब रहा है और आपको लगे कि आप डूब गए। ये भावना तो संतों में पाई जाती है कि, "दूसरे को कष्ट हुआ तो हमें भी कष्ट हुआ।" लेकिन जब बात एक आम परिवारी की आती है तो उसे सिर्फ-और-सिर्फ अपने परिवार के लोगों के डूबने से ही कष्ट होता है। और इसलिए नहीं कष्ट होता कि उसमे प्रेम या करुणा है, इसलिए कष्ट होता है क्योंकि उसमें अपनी पहचान को बचाने का स्वार्थ है। बात समझ में आ रही है?
एक तो बात ये है कि कोई व्यक्ति जिससे तुम्हारे स्वार्थ का कोई सूत्र नहीं उसको भी दुःख हो रहा है तो तुम करुणावश उसकी मदद करने चले गए। एक बात ये है। और उससे बिलकुल अलग, बिलकुल विपरीत एक दूसरी बात ये है कि कोई व्यक्ति है जिससे तुम्हारी पहचान या नाते या स्वार्थ जुड़े हुए हैं, उसको बचाने या उठाने के लिए तुम ज़ोर लगा रहे हो, पैसा खर्च कर रहे हो, वगैरह वगैरह। ये दोनों बहुत अलग-अलग बाते हैं। पहली चीज़ में प्रेम है और दूसरे में सिर्फ क्षुद्र देहभाव और स्वार्थ। तो ये तो मूल कारण हुआ नेपोटिज्म या परिवारवाद का।
जो दूसरा कारण क्या है उसको समझिएगा। दूसरा कारण सामाजिक है। अब जब हम पाते हैं कि बहुत सारे प्रतिभाशाली लोग हैं जो जीवन में आगे नहीं बढ़ पाते, जिनको उनकी प्रतिभा के अनुरूप मौके नहीं मिलते, जो पक्षपातों का और पूर्वाग्रहों का शिकार होकर बड़ा कष्ट झेलते हैं तो तुम्हें बड़ा बुरा लगता है। पूरा समाज ही फिर विरोध करता है, चीखने लगता है कि “ये तो बहुत ग़लत हो रहा है, बहुत ग़लत हो रहा है! जो प्रतिभाशाली है उसको ही आगे बढ़ना चाहिए। किसी भी व्यक्ति को वही सम्मान, वही श्रेष्ठता, वही आसन, वही पदवी मिलनी चाहिए जिसका वो व्यक्तिगत रूप से हक़दार है।”
है न? हम ऐसा कहने लग जाते हैं। हम ऐसा कह तो ज़रूर रहे हैं लेकिन हमारी जो पूरी सामाजिक व्यवस्था है वो ऐसी है ही नहीं। हम आज ऐसा कह रहे हैं क्योंकि हमारे सामने कुछ ऐसे मामले आ गए कि किसी प्रतिभाशाली अभिनेता ने इसी तरह के नेपोटिज्म के चलते दुखी होकर, परेशान होकर अपना जीवन समाप्त कर लिया। या हमें पता चला कि कोई खिलाड़ी है या हमने राजनीति के क्षेत्र में देखा और हर तरफ हमको दिखाई दिया यही भाई-भतीजावाद, वंशवाद वगैरह। तो फिर हमने बहुत ज़ोर से विरोध किया। बल्कि हो सकता है कि कहीं जा करके नारे वगैरह भी लगा दिए कि, "ये खत्म करो वंशवाद! खत्म करो कुल-पक्षपात! खत्म करो नेपोटिज्म !" ये सब हमने कर दिया। लेकिन जो हमारी साधारण-सामान्य सामाजिक व्यवस्था है उसको तो देखो।
मैं छोटा था। टीवी पर गणतंत्र दिवस का दिल्ली से सीधा प्रसारण आ रहा था। तो विदेश से कोई राष्ट्रपति आए हुए थे। और वो सलामी ले रहे थे। ठीक है? परेड निकल रही है और राष्ट्रपति महोदय खड़े हो करके उसका निरीक्षण कर रहे हैं। कौन सा देश था अभी याद नहीं। तो राष्ट्रपति महोदय खड़े हुए थे। अब मैं बच्चा था पर ये बात मेरे लिए काफी रोचक थी, तो मैंने पूछा, मैंने पूछा कि “ये बाहर के किसी देश के हैं, और आए हैं यहाँ पर, तो हमारे देश की सेना के जवान इन्हें सलामी क्यों दे रहे हैं?”
तो मुझे बताया गया इसलिए क्योंकि वो एक महत्वपूर्ण देश के और मित्र देश के राष्ट्रपति हैं। तो हमने उनको आमंत्रित किया है कि आप आइए और आप ये जो हमारा गणतंत्र दिवस का समारोह है इसके इस बार के मुख्य अतिथि हैं। तो वो खड़े हुए हैं और सेना के लोग निकल रहे हैं। और वो सलामी ले रहे हैं। मैने कहा, “अच्छी बात है।”
मैंने कहा, “उनके बगल में कौन खड़ी हैं? इनको क्यों सलामी दे रही है हमारी सेना?" वो जो सज्जन खड़े हैं, मुझे बताया कि वो एक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। वो एक मित्र देश के राष्ट्रपति हैं, तो उनको तो मैं समझता हूँ कि अधिकार मिल गया है ऊँचे मंच पर खड़ा हो करके सलामी लेने का। पर उनके बगल में ये जो स्त्री खड़ी हैं ये कौन हैं? इसे अधिकार कैसे मिल गया? और वो उसी मंच पर खड़ी हैं, जिसपर सिर्फ वो विदेशी राष्ट्रपति ही नहीं, मेरे देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी खड़े हुए हैं। तो इस महिला की क्या योग्यता है? ये कैसे उसी मंच पर है?
वही बच्चे के सवाल। आठ-दस साल का रहा होऊँगा। तो मुझे बताया गया कि उसकी अपनी कोई योग्यता नहीं है। उसकी योग्यता यही है कि उसने किसी राष्ट्रपति से शादी करी है। ये बात मेरे कुछ गले उतरी नहीं। मैने कहा, “ये योग्यता कैसे हो सकती है किसी स्त्री की कि उसने किसी से शादी करी? इस नाते वो उसके बगल में खड़ी हो जाएगी और भारत की सेनाओं की सलामी लेगी, वो भी मंच पर खड़े हो करके? ये उसको अधिकार कैसे मिल गया?”
पर जब ऐसी कोई घटना घटती है, तब हम सवाल नहीं उठाते। ये तो सामाजिक रूप से मान्य परिवारवाद हुआ, कि नहीं हुआ? तब हम मान्यता दे देते हैं। इतना ही नहीं, तब हम कह देते हैं, “फर्स्ट लेडी * ।” कैसे कह दिया आपने? क्या * नेपोटिज्म की शुरुआत यहीं नहीं हो गई है? कहिए।
या कि अगर कोई मान लीजिए महिला है जो प्रेसिडेंट है। तो उसके पति को भी आपने कैसे बहुत ऊँचा दर्ज़ा दे दिया, बताइए? ये नेपोटिज्म नहीं है क्या? बोलिए।
आपके चाहे पीएम हों, चाहे सीएम हों चाहे जिले के डीएम हों, इन्हें कहीं भी बुलाया जाता है, साथ में इनके जीवनसाथी माने इनके पति या पत्नी ज़रूर साथ में चलते हैं और उनको भी तरह तरह के फिर सम्मान मिलते हैं। बल्कि हो सकता है कि डीएम महोदय के सम्मान में कुछ कमी रह गई हो, तो कुछ ना हो लेकिन उनके साथ जो चल रही हैं अगर उनके सम्मान में थोड़ी कमी रह गई तो पूरा जिला हिल जाएगा। तब आप आपत्ति क्यों नहीं करते? बताइए न।
सामाजिक रूप से भी तो हमने ज़बरदस्त तरीके से ये परिवारवाद न सिर्फ चला रखा है, बल्कि तरह-तरह से बढ़ा रखा है।
आज हमें बहुत बुरा लग रहा है, लगना चाहिए। क्योंकि इस नेपोटिज्म के बहुत सारे विषैले नतीजे हमारे सामने आ रहे हैं। पर ये हम कहाँ देखते हैं कि अपने रोज़मर्रा के व्यवहार में हम इसी चीज़ को खुद ही कितना प्रोत्साहित कर रहे होते हैं?
आप व्यापार में किसी से संबंधित हैं, डीलिंग करते हैं। उनके साथ आपके कुछ समझौते वगैरह हैं और उन्होंने अपने बाद अपनी गद्दी अपने बेटे को सौंप दी है। और चूँकि आप उनकी कंपनी से पिछले दस-बीस सालों से जुड़े हुए हैं, जानते हैं उनको, तो आपको पता है कि उन्होंने ये ठीक नहीं करा है, उनका बेटा इस लायक ही नहीं है। क्या आप अपनी आपत्ति दर्ज़ कराते हैं तब? कहिए।
तब तो आप शायद ये कह देते हैं कि, "भाई ये उनका अपना निजी मामला है।" या ये भी कह देते होंगे कि “अच्छा ही करा है उन्होंने। भई, बाप की गद्दी बेटा नहीं संभालेगा तो कौन संभालेगा?” और तरह-तरह के तो हमने मुहावरे गढ़ रखे हैं कि मछली के बच्चे को तैरना नहीं सीखाना पड़ता। तो लाला जी का बेटा है, वो लालागिरी ज़्यादा बेहतर तरीके से कर सकता है। बाहर वाले आदमी को लाओगे उसे पता कहाँ चलेगा। और ये लाले का खून है तो ये खून और मछली और गिद्ध और सियार तमाम तरीके के तो हम चित्र रच लेते हैं। बात समझ में आ रही है?
वास्तव में जो आदमी आध्यात्मिक नहीं है, वो नेपोटिज्म फैलाएगा-ही-फैलाएगा। उसके पास और चारा क्या है? अपने घर के, अपने कुनबे के, अपने से संबंधित लोगों को ही वो बार-बार आगे बढ़ाता रहेगा। क्यों बढ़ाता रहेगा? क्योंकि उसकी दृष्टि में वही उसके अपने हैं। क्यों उसकी दृष्टि में वही उसके अपने हैं? क्योंकि वो जानता ही नहीं है कि वो कौन है। जब आप नहीं जानते कि आप कौन हो, तो आपको फिर एक बना बनाया डिफॉल्ट , प्राकृतिक उत्तर मिल जाता है कि आप कौन हो।
ऐसा थोड़े ही होता है कि आपको नहीं पता आप कौन हो तो आप इस प्रश्न को लेकर झूझते रहोगे। या आपके पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं होगा, ना! अगर आपको नहीं पता कि आप कौन हो, तो आपके पास इस प्रश्न का उत्तर ज़रूर होगा कि आप कौन हो, बस आपके पास एक झूठा और प्राकृतिक उत्तर होगा। और वो उत्तर क्या होगा? "मैं एक देह हूँ, मैं एक शरीर हूँ।" और मैं अगर एक शरीर हूँ तो मेरे अपने कौन हुए? वही जिनके शरीर से मेरा नाता है। मेरे पति के शरीर से मेरा नाता है, तो वो मेरा अपना हुआ; मेरी पत्नी के शरीर से मेरा नाता है, मेरी अपनी हुई; मेरे माँ-बाप मेरे अपने हुए, मेरे भाई-बहन मेरे अपने हुए, मेरे बच्चे मेरे अपने हुए। मेरा भतीजा, मेरा भांजा, मेरी बुआ, मेरी मौसी ये मेरे अपने हुए।
हम उनको अपना मान ही इसीलिए रहे हैं क्योंकि सर्वप्रथम हम अपना किसको मान रहे हैं? शरीर को अपना मान रहे हैं। जब तुम अपनी पहली पहचान ये रख रहे हो कि, "मैं हूँ शरीर" तो बाकी सब लोग जिनसे तुम्हारे देह के रिश्ते हैं वही तुम्हारे अपने होंगे। अब तुम उनको आगे नहीं बढ़ाओगे तो किसको आगे बढ़ाओगे?
और तुमसे कह दिया जाए कि “नहीं, नहीं, नहीं, तुम इनका पक्ष मत लो।” तो बड़ी दिक्कत हो जाएगी। तुम कहोगे, “इनका पक्ष नहीं लूँ तो किसका पक्ष लूँ? यही तो मेरे अपने हैं। इन्हीं की खातिर तो जी रहा हूँ। ये मेरा नहीं है तो फिर कौन है मेरा?” बड़ी हैरत आ जाएगी। परेशान हो जाओगे कि “इनका पक्ष नहीं लेना है तो क्या करना है? एक ओर तो मुझसे कहा जा रहा है कि ये जो फलानी स्त्री है ये तुम्हारे लिए खास है, क्योंकि यही तुम्हारी पत्नी है; एक ओर तो मुझे ये बताया जा रहा है। और दूसरी ओर मुझे कहा जा रहा है ‘नहीं, नहीं, पक्षपात मत करना।’ अरे भई पक्षपात तो उसी दिन शुरू हो गया था जिस दिन मैं उसे ब्याह कर अपने घर ले आया था। क्या मैं सबको ब्याह कर अपने घर लेकर आया? तो मैं उसको अपने घर लेकर आया और सारी सुख-सुविधाएँ तो मैंने उसको दीं। तो ये पक्षपात हुआ या नहीं हुआ? दुनिया में इतने लोग हैं, क्या मैं सबको सुख-सुविधाएँ दे रहा हूँ? नहीं, मैं सुख-सुविधाएँ किसको दे रहा हूँ? अपने परिवार को दे रह हूँ, अपने कुटुंब को दे रहा हूँ। तो पक्षपात तो यहीं से शुरू हो गया न। कि नहीं है ये पक्षपात?” पर तब हमको नहीं समझ में आता कि, "ये लो, ये नेपोटिज्म ही तो चल रहा है और क्या चल रहा है"
आपका एक घर है। उस घर के अंदर जितने लोग हैं उनको आप सब सुख-सुविधाएँ दे रहे हो। दे रहे हो या नहीं दे रहे हो? और आपके घर के बाहर जो लोग हैं, वो गरीब हों, भूखे हों परेशान हों आप उन पर कितना ध्यान देते हो? आप होंगे बहुत अच्छे आदमी, आप तो भी अपने घर के बाहर के लोगों पर बहुत ध्यान नहीं दे सकते। बल्कि मैं आपको और बताता हूँ एक बात। अगर आप इतने अच्छे आदमी हो गए कि जितना ध्यान आप अपने घर के लोगों पर देते हो, उतना ही ध्यान आपने अपने घर के बाहर के लोगों पर देना शुरू कर दिया तो समाज कहेगा कि, "ये चरित्रहीन है!" लांछन और लग जाएगा आपके ऊपर।
सामाजिक रूप से सम्मानीय होने के लिए ज़रूरी है कि आप पाँच-प्रतिशत सेवा करें समाज की, अपने घर से बाहर के लोगों की। लेकिन पिच्चानवें प्रतिशत सेवा करें अपने घर के भीतर के ही लोगों की। अगर अपने घर के बाहर के पाँच प्रतिशत लोगों की आप सेवा नहीं करेंगे तो बुरे-से-बुरा ये होगा कि आप समाज सेवक नहीं कहलाएँगे। आपकी ये प्रतिष्ठा नहीं फैलेगी कि “साहब इनका दिल बहुत बड़ा है या दानवीर हैं या बड़ी दरियादिली है कि देखो सबके काम आते हैं।” लोग ऐसा नहीं कहेंगे क्योंकि आप वो पाँच-प्रतिशत जो सेवा बाहर के लोगों की करनी चाहिए वो नहीं कर रहे हैं। लेकिन नुकसान थोड़ा सा ही हुआ। इतना ही नुकसान हुआ कि आप क्या नहीं कहलाए? आप समाज-सेवी वगैरह नहीं कहलाए। लेकिन अगर आपने वो पिचानवे-प्रतिशत ध्यान अपने घर के लोगों पर नहीं दिया, तो फिर तो आप पर बड़ी बड़ी तोहमतें लगेंगी। बड़ा अपमान होगा आपका।
जब समाज ने ही ये तय कर रखा है कि आपकी प्राथमिक ज़िम्मेदारी आपके ही घर के पाँच-दस लोगों के प्रति है, तो फिर तो समाज ने ही नेपोटिज्म फैला रखा है न? कहिए है कि नहीं?
कोई आपसे ये पूछता है क्या कि आपके मोहल्ले के लड़के क्यों बिगड़ रहे हैं? आपसे क्या पूछा जाता है? "आपके घर का लड़का क्यों बिगड़ रहा है?" तो जब समाज ही आपसे ये पूछ रहा है कि घर का लड़का क्यों बिगड़ रहा है तो आप भी समझ गए कि, "भई मुझे किसको संभालना है? मुझे अपने घर के लड़के को संभालना है।"
ये होता है अध्यात्म के अभाव में। ये होता है जब आप अपने-आपको शरीर भर मानते हैं। सामान्यतया इसके जो दुष्परिणाम होते हैं वो छुपे-छुपे रहते हैं। बीच-बीच में विस्फोट हो जाता है। जब विस्फोट होता है तब दुनिया वाले फिर कराह उठते है, और नारे लगाते हैं कि “अरे, नेपोटिज्म बहुत फैला है!”
अरे, तुम दो चार लोगों पर क्या इल्ज़ाम लगा रहे हो कि वो भाई-भतीजावाद फैलाते हैं। अपने घर में देखो न। हर आदमी नेपोटिस्ट है या नहीं है? अपने घर में भी तो देखो। जब तक व्यक्ति के भीतर ये भावना रहेगी कि कुछ ही लोग उसके अपने हैं, उस भावना का सीधा परिणाम होगा *नेपोटिज्म*। ये बात समझ में आ रही है? जब तक आपके भीतर ये भावना है कि, "कुछ मेरे अपने हैं और बाकी सब पराए हैं।" तो उसका सीधा परिणाम है *नेपोटिज्म*। और वो भावना और ज़्यादा घातक तब हो जाती है जब आप कुछ लोगों को अपना सिर्फ इस आधार पर मानते हो कि उनसे आपका शरीर का रिश्ता है। अब तो पूछो मत।
मुझे मालूम है मेरी बात सुनकर बहुत लोग तकलीफ में पड़ गए होंगे और कुछ लोगों को अचंभा हो रहा होगा। कह रहे होंगे कि “अगर ये नहीं मेरे अपने तो कौन मेरा अपना?” साहब उसका जवाब मैं आपको पाँच-दस मिनट के इस सत्र में तो नहीं दे सकता हूँ। इसके लिए आपको फिर थोड़ी साधना करनी पड़ेगी, थोड़ा अध्यात्म की ओर आना पड़ेगा, थोड़ा वेदांत पढ़ना पड़ेगा। तो पता चलेगा कि अगर ये पाँच-दस लोग नहीं हैं आपके अपने तो फिर कौन वाकई आपका अपना। कौन आपका अपना, ये जानने के लिए पहले आपको पता करना पड़ेगा कि आप कौन। आपका तो कोई बाद में होगा, पहले कुछ इसकी तो खबर हो जाए कि आप कौन हैं।
तो बहुत ज़्यादा शोर मचाने से या छाती पीटने से कोई लाभ नहीं होगा। कि “नेपोटिज्म बंद करो, नेपोटिज्म बंद करो।” नेपोटिज्म हमारी सबकी रग-रग में बह रहा है। और इसलिए बह रहा है क्योंकि हम शरीर भर हैं, पहली बात, और दूसरी बात मैंने कही — सामाजिक रूप से हमने ख़ुद ही परिवारवाद को ज़बरदस्त मान्यता दे रखी है। बात समझ में आ रही है?
तो ये दो बाते हैं। पहली शारीरिक और दूसरी सामाजिक। इन दो के कारण नेपोटिज्म फैला हुआ है। और उसकी जो काट है सिर्फ एक है जिसका नाम है अध्यात्म। जब तक उसको हम आगे नहीं बढ़ाएँगे तब तक कुछ नहीं होगा।