भारत ज़्यादातर क्षेत्रों में इतना पीछे क्यों? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2023)

Acharya Prashant

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भारत ज़्यादातर क्षेत्रों में इतना पीछे क्यों? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2023)

प्रश्नकर्ता: नमस्कार, सर। मैं एक प्रशिक्षित आर्किटेक्ट (वास्तुकार) हूँ। मैंने क़रीब चार-पाँच साल तक प्रैक्टिस (अभ्यास) की है। जब से मैंने आपको सुनना शुरू किया, तो कुछ समय के बाद सस्टेनेबल आर्किटेक्चर (टिकाऊ वास्तुकला) में मैंने काम करना शुरू किया। जब मैंने ये काम किया तो लगने लगा कि कुछ चीज़ें हैं जिनमें कमी आ रही है।

उदाहरण के लिए, ख़ुद में एक्सिलेंस (उत्कृष्टता) की तरफ़ पुलक नज़र नहीं आ रही थी। मैंने थोड़ा अवलोकन किया और पाया कि मूलतः ये कमी सिर्फ़ मुझमें नहीं है। मैंने देखा आजू-बाजू, समाज में बचपन से ही ये सिखाया नहीं गया था और साथ में स्कूल-कॉलेज में भी इतना इस चीज़ पर ध्यान नहीं दिया गया था कि इसकी ओर जाना चाहिए।

फिर आगे देखा तो अपने साथी, दोस्त, सर्कल (मंडली) में भी ये (उत्कृष्टता) काफ़ी कम ही देख पाया। तुलना करने पर दिखता है कि इसका इंडिया में ही काफ़ी अभाव है। जो विकसित राष्ट्र हैं या कई और समाज हैं वहाँ पर काफ़ी हद तक देखा जाता है कि कोई भी क्षेत्र हो —साइंस हो, आर्ट्स हो — उसमें एक्सिलेन्स की ओर काफ़ी रुझान होता है।

तो ये समझ में नहीं आता है कि इतना क्यों वेरिएशन (अन्तर) है और एक्सिलेन्स की तरफ़ एक जो पुलक होनी चाहिए उसका हमारे समाज में अभाव क्यों है?

आचार्य प्रशांत: वर्ल्डली (सांसारिक) एक्सिलेन्स कह रहे हो न?

प्र: जी।

आचार्य: दुनिया के कामों में?

प्र: जी।

आचार्य: आर्किटेक्चर में नहीं दिखायी देती?

प्र: जी, सामान्य रूप से हर क्षेत्र में देखा गया है। मेरे दोस्त भी कुछ-न-कुछ करते ही हैं, पर वो (उत्कृष्टता) है ही नहीं। उनका भी ऐसा है कि काम चलाने के लिए इतना करना है, तो हो गया। इतना ख़र्चा चल रहा है, बस मौज की लाइफ़। तो उससे ज़्यादा कुछ दिख नहीं रहा है।

आचार्य: तो इसी बात को मैं और विस्तृत करके सोचूँ तो हमारी फ़िल्में बनती हैं वो कथानक के तल पर, टेक्नोलॉजी (तकनीकी) के तल पर, संगीत के तल पर, मौलिकता के तल पर विदेशी फ़िल्मों से पीछे ही रहती हैं, ज़्यादातर। हमारी टेक्नोलॉजी विदेशी टेक्नोलॉजी की टक्कर में नहीं खड़ी होती, हमारे बिज़नेस (व्यवसाय) विदेशी बिज़नेस से कम्पीट (स्पर्धा) नहीं कर पाते। कोई प्रतिस्पर्धा में कहीं टिकते नहीं हैं।

ओलंपिक्स में हम जाते हैं — हम एक-सौ-बयालीस-करोड़ का देश हैं — और हमें एक-आध मेडल (पदक) मिल जाए तो ऐसा लगता है बड़ी बात हो गयी। उनके शहरों की अपेक्षा हमारे शहर गंदे हैं, प्रदूषित हैं, बिलकुल अनियोजित हैं, बिखरे हुए हैं; तो एक्सिलेन्स , उत्कृष्टता कहीं दिखायी नहीं देती है।

यहाँ तक कि रक्षा के क्षेत्र में भी हमारा दो-तिहाई, जाने तीन-चौथाई, जो रक्षा सामग्री है, हमें उसको आयात करना पड़ता है। भारतीय सेना के पास आयुध हैं, उपकरण हैं उसमें से बहुत बड़ा प्रतिशत है ऐसी सामग्री का जो ऑउटडेटेड (पुराने ढंग का) है। क्योंकि हम अपना कुछ तैयार नहीं कर पा रहे हैं उस गति से जिस गति की आवश्यकता है।

बाज़ार में कोई भी सेगमेंट (खंड) हो, उसमें जो सबसे बड़े ब्रांड होंगे, सम्भावना यही है कि या तो वो विदेशी हैं या अगर देशी भी हैं तो उन्होंने विदेशी कोलैबोरेशन (सहयोग) करके बाहर से टेक्नोलॉजी ली है। सड़कों पर भी देखो तो एक-दो ब्रांड्स को छोड़कर सब आपको विदेशी ही नज़र आते हैं। ख़ासतौर पर जितनी आप उत्कृष्ट गाड़ी चाहो वो तो विदेशी ब्रांड ही मिलेगा। साधारण गाड़ी तो फिर भी हो सकता है आपको भारतीय मिल जाएगी।

तो ये क्यों है? क्यों है ऐसा? अब क्या बहाना दें, संसाधन की कमी का दें? ये बोलें कि अंग्रेज़ों ने ऐसा कर दिया। अब तो आज़ाद हुए भी बहुत-बहुत समय बीत गया। नहीं? क्या बात है? दुनिया में तब तरक़्क़ी करोगे न, दुनिया में प्रवीणता तब हासिल करोगे न जब पहले दुनिया को महत्त्व दो।

देखो, क्या होता है? एक होता है साधारण आदमी — जैसे पश्चिम का मन है। उसको वेदान्त वगैरह कभी मिला नहीं, तो उसने वही देखा जो उसको दिखायी दिया। उसको ये दिखायी दिया कि दुनिया सच है। तो उसने कहा फिर ठीक है, ‘दुनिया में ही बेहतरी करते हैं, दुनिया में ही तरक़्क़ी करते हैं अच्छे शहर, अच्छी सड़कें, अच्छे अस्पताल, अच्छी कम्पनियाँ, अच्छी टेक्नोलॉजी — ये सब बनाते हैं।’ ये एकदम उन्होंने एक साधारण मन से करा और इसमें उनको सफ़लता भी मिल गयी।

भारत के साथ एक दुर्घटना हो गयी। दुर्घटना ये हो गयी कि यहाँ कुछ असाधारण लोग हो गये और उन असाधारण लोगों ने ये जान लिया कि ये जिसको तुम दुनिया कहते हो, ये वो चीज़ नहीं है जो तुम्हें लग रही है। तो इस बात को उन्होंने कुछ सूत्रों में पिरो करके बड़े संक्षिप्त रूप में हमारे सामने रख दिया कि जगत मिथ्या और ये तन-मन वगैरह सत्य (आख़िरी) नहीं है — उन्होंने ये बात बता दी।

अब ये बात उनके ज्ञान से उपजी और उनके प्रेम के कारण फैल गयी। उनमें बड़ी करुणा थी तो उन्होंने ये बात सबको बता दी। उन्होंने कहा, ‘बिलकुल एकदम हीरे जैसी बात पता लग गयी है, तो अपने तक क्यों रखें?’ तो उन्होंने जनमानस में ये बात फैला दी। पर जनमानस बड़ा नाक़ाबिल उत्तराधिकारी निकला उनकी बात का।

उन्होंने तो ये बात हमें इसलिए बतायी थी, ताकि हम दुनिया में बँध कर न रह जाएँ, ताकि हम दुनिया को ही अपना आख़िरी लक्ष्य न बना लें। उन्होंने बताया था कि ये जो जगत है ये मिथ्या है और तन-मन की ही सेवा करने के लिए नहीं पैदा हुए हो तुम। मैं हमारे दार्शनिकों, ऋषियों, मनीषियों की बात कर रहा हूँ। उनको कह रहा हूँ, ‘वो असाधारण लोग थे, जिन्हें कुछ बहुत असाधारण बात पता चली — जो पश्चिम को कभी पता नहीं लगने पायी — तो उन्होंने प्रेमवश हमें ये बात बता दी।

उन्होंने ये कहकर बतायी कि दुनिया की ही चीज़ें हासिल करने को ज़िंदगी का लक्ष्य मत बना लेना। हाँ, दुनिया का उपयोग करो संसाधन की तरह, ताकि दुनिया से मुक्त हो जाओ। तो उन्होंने ये दोनों बातें इकट्ठे बोली थीं; एक ही वाक्य में। ‘दुनिया को लक्ष्य नहीं बनाना है, लेकिन दुनिया का भरपूर उपयोग करना है संसाधन की तरह। जगत से भागना नहीं है, जगत में ही संघर्ष करना है, जगत से ही मुक्त होने के लिए।'

ठीक है?

हमने उनकी बात का पहला हिस्सा पकड़ लिया। हम कह रहे हैं न, हम बड़े नाक़ाबिल उत्तराधिकारी निकलें उनके, हमने उनकी बात का पहला हिस्सा पकड़ लिया। पहला हिस्सा क्या है? कि ये जगत तो मिथ्या है। और उनकी बात का जो दूसरा हिस्सा था कि जगत का तुम भरपूर इस्तेमाल करो मुक्ति के लिए, जगत से ही आगे निकलने के लिए, उस बात को हमने बड़ी सुविधा से आया-गया कर दिया, किनारे रख दिया।

तो भारत में बच्चा-बच्चा कहीं-न-कहीं ये बात मन में रखे हुए है कि अरे! ये दुनिया में रखा क्या है? जगत तो मिथ्या है, दुनिया फानी है। पानी का बुलबुला है, अभी फट जाएगा, इसमें क्या रखा है? और ये बात उत्कृष्टता की धुर विरोधी होती है।

'करना क्या है सड़क को साफ़ रख करके? अरे! एक दिन तो तुम्हारी चिता को भी बस धूल बनकर रह जाना है, तो सड़क पर धूल पड़ी हुई है तो क्या हो गया?' यहाँ हर आदमी दार्शनिक हो गया है; एकदम अन्तिम सत्य की बात करता है। तो सड़क गन्दी पड़ी हुई है।

आप किसी को डाँटिए — ‘तेरा कमरा इतना गन्दा है, क्या है ये ऐसे सब?’ बोलता है, 'अरे! एक दिन तू भी ख़ाक में पड़ा होगा बन्दे, क्यों इतरा रहा है?' और एकदम आप निस्तब्ध रह जाएँगे। कहेंगे, ‘ये क्या बात कर रहा है? मैं कह रहा हूँ, तेरा कमरा ऐसा पड़ा हुआ है, इसमें प्लेग फैल जाएगा और ये मुझे बोल रहा है, 'बन्दे! तू भी ख़ाक हो जाएगा, क्यों इतना इतरा रहा है?'

तो भारत में हर आदमी फिलोसोफर (दार्शनिक) हो गया और इसी तरह का ज्ञान बाँटने लग गया चौराहे पर। किसी को बोलो कि भाई! थोड़ा दौड़ लिया कर, क्या तूने ये अपनी सेहत बना रखी है? हाथ-टाँग तेरे इतने पतले-पतले और तोंद इतनी बड़ी तेरी निकली हुई है, कुछ कर ले। वो बोलेगा, “नाहं देहास्मि।” ‘मैं देह हूँ ही नहीं, तो मुझे फिर देह को अच्छा रखना क्यों है?' देह को अच्छा रखने का काम सब पश्चिम वालों का है।

तो भारत में आप आइए तो यहाँ सब बिलकुल जितने गम्भीर लोग हैं और सम्माननीय लोग हैं, सारे अंकल जी ऐसे घूम रहे होते हैं (ऊपर, शून्य में देखने का अभिनय करते हुए) — 'फ़र्क क्या पड़ता है? देह क्या है? देह तो मिथ्या है, तो देह को अच्छा क्यों रखना है? और ये जगत भी तो देह जैसा है, क्योंकि भौतिक है, तो जगत में भी कुछ हासिल क्या करना है?

‘अरे! क्या करोगे बहुत अच्छी कार बना करके? काम तो मारुति एट हंड्रेड में भी चल ही रहा है न! एक जगह से दूसरी जगह ही तो जाना है, शमशान तेरा आख़िरी ठिकाना है, शमशान तक तो मारुति एट हंड्रेड भी पहुँचा ही देगी — अक्सर वहाँ पहुँचाती है।'

तो करना क्या है कि एकदम स्टेट ऑफ़ द आर्ट (नवीनतम तकनीकी से पूर्ण) कार बनायी जाए, क्यों बनाएँ? वो सब जर्मनों के लिए छोड़ दो न — मर्सिडीज़, बीएमडब्लू — ये सब वो देख लेंगे। भारत के लिए तो इतना काफ़ी है कि चार पहिये, कई बार तीन पहिये भी चलते हैं।

'देखो, हम तो कम में गुज़ारा करते हैं। भारतीय हैं, मितव्ययी हैं, शिकायत वगैरह बहुत नहीं करते हम, क्योंकि शमशान तेरा आख़िरी ठिकाना है। वहाँ जाकर बोलेगा क्या? चार पहियों की नहीं, तू तो चार कंधों की सुध कर बन्दे, अन्त में वही काम आएँगे। पहियों पर चढ़ के नहीं जाएगा तू कंधों पर चढ़ के जाएगा।'

क्या बात है! बढ़िया दर्शन सुना दिया।

बिलकुल कोई असफल है, ख़त्म, कुछ नहीं करना आता, कहीं मेहनत करी नहीं, कुछ सीखा नहीं, उससे आप बहुत बात करो, वो कहेगा, ‘इस दुनिया में सफलता का मतलब क्या है? यहाँ कौन सफल हो सका है? सिकंदर बहुत सफल हुआ था? मरा था तो मुट्ठी खुली हुई थी, ऐसे, तब भी भिखारी था। हमने कुछ नहीं कमाया तो क्या हुआ? सिकंदर भी हमसे बेहतर नहीं था।’

समझ में आ रही है बात?

गीता को भी बना लिया कि ये तो उनका ग्रन्थ है जिनके बारे में सबसे महत्वपूर्ण चीज़ है ‘नाचना-गाना'। और ये बड़े-से-बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण काम हुआ है भारत के साथ। नहीं तो गीता पर्याप्त होती।

गीता ऐसी आग है कि एक बार आपको पकड़ ले, आप बच नहीं सकते राख होने से — सारी आपकी कमज़ोरियाँ, आपके बहाने, ये जो मजबूरियाँ गिनाते हैं, सब जला देती है गीता। श्रीकृष्ण एक बात बोल रहे हैं बार-बार, “अर्जुन, खड़ा हो जा, धनुष उठा। कोई बहाना नहीं चलेगा, लड़!” गीता पर्याप्त हो जाती।

लेकिन जितने कृष्णपंथी हैं वो आपको नाचते-गाते मिलते हैं। मुझे समझ में नहीं आता है, मैं बार-बार पूछता हूँ, ‘अर्जुन को नचा रहे थे वो? अर्जुन को बोला था छोड़ ये सबकुछ, तू बाल मुंडा ले, चुनई धारण कर ले और नाचना शुरू कर दे — ये बोला अर्जुन को?’

मैंने कहा कि तुम अगर कृष्ण को मानते हो तो तुम्हें तो बड़े सक्रिय, घोर संघर्ष में नज़र आना चाहिए। उसकी जगह तुम बस एक काम करते हो, नाचते हो। ये तुम कौन-से कृष्ण को मानते हो भाई? कृष्ण का सन्देश तो घोर संघर्ष का है। और आज के युग में तो संघर्ष बहुत-बहुत ज़रूरी है — इतनी सारी राक्षसी ताक़तें खड़ी हुई हैं, इनसे तो लड़ जाना है, भिड़ मरना है इनसे तो। इनसे भिड़ने की जगह तुम बैठे हुए हो और गाने गा रहे हो, ये कर क्या रहे हो तुम? कृष्ण ने अर्जुन को बोला था ये? ज़रूरत क्या थी फिर?

अर्जुन यही तो चाहते थे कि कुछ गाने-नाचने को बोल दीजिए, वो हम कर लेंगे, पर हम लड़ेंगे नहीं, मारेंगे नहीं किसी को। अर्जुन तो बहुत ख़ुश हो जाते अगर कृष्ण बोलते कि तू बाज़ार में निकल जा और नाच। वहाँ क्या बोल रहे हैं —

‘मोह हटा, भय हटा, भ्रम हटा, किसी की मत सोच, बस मेरा मुँह देख और भिड़ जा!’

भारत ने गीता को भी अपने लिए अनुपयोगी बना लिया। संघर्ष भारत करता ही नहीं, बस घुटने टेक देता है आसानी से।

स्पोर्ट्स (खेल) तक में ये देखने को मिलता था। हॉकी में बहुत होता था — मैं हॉकी ख़ूब देखता था — आख़िरी पाँच मिनट में भारतीय टीम गोल न खाये ऐसा हो नहीं सकता — जीते हुए मैच हारते थे। अभी वर्ल्ड कप से बाहर हुए न्यूज़ीलैंड से हार के। ये भी जीता हुआ मैच था। कौन-कौन हॉकी देखता है? वो मैच जीते हुए थे कि नहीं? पूरा जीता हुआ मैच था और उससे पहले भारत एक भी मैच हारा भी नहीं था, एक ड्रा हुआ था बस इंग्लैंड से। स्पेन को जो कि अच्छी टीम है उसको हराया था और न्यूज़ीलैंड नीचे की टीम है काफ़ी, उससे हार गये।

अब भारतीय टीम इस वक़्त अभी अच्छी है, रैंकिंग भी चौथी या पाँचवीं है, ओलंपिक में मैडल लेकर आये हैं अभी; हार गये, बाहर हो गये। ये भारतीय हॉकी के साथ लगातार चल रहा है। संघर्ष! कभी कई-कई बार तो आख़िरी मिनट में गोल खाकर हारे हैं कि जीत रहे थे, जीत रहे थे, आख़िर मिनट में गोल खाकर हार गये।

'क्या बहुत भिड़ना! जगत क्या है!' वो जो होता है न जानवर की तरह जूझ जाना, वो हम भूल गये, एकदम भूल गये। ख़याल ही मत करो कि शरीर बचेगा कि नहीं बचेगा। प्राण एक तरफ़ रखो और पकड़ लो गला सामने वाले का भले ही तुमसे तीन गुना क्यों न हो। हम बिलकुल भूल गये। हम नचैये-गवैयों का देश बन गये। वो भी अच्छा नाचते-गाते भी नहीं। उनको अभी नाचने-गाने की प्रतिस्पर्धा में भेज दो, वहाँ भी हार जाएँगे।

आप ग़ौर से देखिएगा तो पाकिस्तान भारत से आठ गुना छोटा देश है। जनसंख्या में कुल उत्तर प्रदेश बराबर जनसंख्या है उसकी और भारतीयों के लिए बड़े-से-बड़ा जलवा पाकिस्तान बना रहा। ये अपनेआप में शर्म की बात होनी चाहिए न? तुम किसको अपना बहुत बड़ा शत्रु मान रहे हो? जो जनसंख्या में तुमसे एक-बटा-आठ है। जितना बड़ा उत्तर प्रदेश है जनसंख्या में उतना ही बड़ा पाकिस्तान है, बस! कुल इतना बड़ा पाकिस्तान है और भारतीयों के लिए सबसे बड़ा हौवा पाकिस्तान। 'पाकिस्तान से मैच है!' (चौंकने का अभिनय करते हुए)

'पाकिस्तान ने ये कर दिया, पाकिस्तान को ऐसा कर देंगे, पाकिस्तान को…’ — तो वो कर भी दोगे तो कौनसा गौरव मिल गया? इतना सा तो है, पिद्दी वो, कौनसे गौरव की बात हो जाएगी पाकिस्तान को हरा भी दोगे तो? चीन, जो तुम्हारे बराबर का है बिलकुल। चीन की एक सौ बयालीस करोड़, तुम एक-सौ-बयालीस-करोड़, चीन, उसके सामने अपनी हालत देखो; वहाँ डरे-सहमे बैठे हो। बासठ में वो ले गया ज़मीन और अब पिछले एक-दो सालों में रोज़ ज़मीन लेकर जा रहा है चीन। और भारतीयों की हिम्मत नहीं कि चूँ कर दें।

सेना कहती है कि उसको आदेश है कि देखो, चीनियों को बुरा न लगने पाये। एक के बाद एक अपना पेट्रोलिंग पॉइंट (गश्त बिन्दु) खाली करते चलना, चीनी अन्दर घुसते आयें तो तुम पीछे हटते रहना। तब वहाँ पर हमारे नेताओं के मुँह से चीन का नाम नहीं निकल रहा — ये भारत है। संघर्ष भारत में बिलकुल ही नहीं दिखता। हाँ, कोई छोटा मिल जाए, कोई कमज़ोर मिल जाए, कोई दब्बू मिल जाए उसपर चढ़ बैठो! उसपर चढ़ बैठो।

और धर्म का अर्थ होता है उससे भिड़ना जो तुमसे कहीं-कहीं बहुत-बहुत ज़्यादा बड़ा है। जीवन मात्र से भिड़ जाना ये होता है ‘धर्म’। धार्मिक आदमी अपने चुने हुए क्षेत्र में कभी फिसड्डी नहीं रह सकता; कभी नहीं। वो खेल में होगा तो उसकी हार में भी आप एक बड़ा गहरा संघर्ष देखेंगे। वो विज्ञान में होगा वो नयी-नयी उपलब्धियाँ लेकर आएगा।

वो युद्ध में होगा, मर सकता है; हार नहीं सकता। धार्मिक सेना हार जाए, सम्भव नहीं है। हाँ, मिट सकती है कि सब मारे गये, एक भी नहीं बचा, सब मारे गये; लेकिन हार के पीछे नहीं आएँगे, ऐसे नहीं होता।

भारत को हम हर क्षेत्र में पाते हैं कि पीछे-ही-पीछे, पीछे-ही-पीछे, क्या वजह है? यही वजह है न — सिद्धान्त उठा लिये, मर्म से चूक गये।

पश्चिम का सौभाग्य था उसको सिद्धान्त भी नहीं मिले, तो उसने कहा, ‘मटेरियललिज़्म (भौतिकवाद) है। द वर्ल्ड इज़ रियल, द वर्ल्ड इज़ द ओनली प्लेस (दुनिया असली है, संसार ही एकमात्र स्थान है) और इसी दुनिया में जीना है, यहीं खाना है, यहीं पीना है’ — उन्होंने अपनी दुनिया बेहतर बना ली।

भारत एकदम त्रिशंकु की तरह बीच में अटक कर रह गया। इस भौतिक दुनिया को कह दिया, ‘ये तो मिथ्या है।’ और जो मुक्ति की दुनिया है उस तक पहुँचने का न साहस दिखाया, न श्रम, न संघर्ष। न इस दुनिया के रहे, न मुक्ति के हो पाये। कहीं के नहीं रहे, “माया मिली न राम”। राम के प्रति निष्ठा नहीं दिखा पाये और माया ऐसों को मिलती नहीं जो संघर्ष न करे; दुनिया में भी जीतने के लिए मेहनत तो करनी पड़ती है भाई!

नतीजा देख लीजिए न। हम कहते हैं — उदाहरण के लिए — कि भारत का आर्य रक्त वही है जो मध्य एशिया का है, यूरोप का है, ईरान का है। यही कहते हैं न? अब भारतीयों की आप औसत ऊँचाई देखिए और ईरानियों की देखिए, या भारतीयों की देखिए और अफ़गानियों की देखिए; जबकि जेनेटिक पूल (आनुवांशिक एकत्रित नमूना) एक ही है। भारतीयों का औसत वज़न देखिए और रूसियों का देखिए या जर्मनों का देखिए या उतनी दूर नहीं जाना तो अफ़गानियों, ईरानियों का देखिए।

ये हमने क्या किया अपने साथ? “नाहं देहास्मि। मैं देह नहीं हूँ।” जब देह नहीं हो, तो क्या देह को ठीक करना? क्या खाना-पीना? क्या व्यायाम करना? हिन्दुस्तान में जितनी महिलाएँ एनीमिक (रक्ताल्पता) हैं; दुनिया में कहीं नहीं, लेकिन 'आइ एम् नॉट द बॉडी — मैं देह हूँ ही नहीं।'

कुछ दशकों पहले तक औसत चीनी का क़द औसत भारतीय से कम हुआ करता था; अब चीनियों का क़द भी भारतीयों से ऊपर निकलने लग गया है। देह का अपमान। देह माने दुनिया, देह माने भौतिक पदार्थ, उसका अपमान। 'क्या है? क्या फ़र्क पड़ता है? ठीक है।'

और उसी को हमारी भाषा में फिर कह देते हैं ‘जुगाड़’। जुगाड़ क्या है? जुगाड़ एक तमाचा है उत्कृष्टता के मुँह पर — एक्सिलेन्स नहीं, जुगाड़। वही जुगाड़ हर जगह है। जुगाड़ करके हाई स्कूल पास कर लिया, जुगाड़ करके कॉलेज की भी डिग्री मिल गयी। जुगाड़ करके, सिफ़ारिश वगैरह करके नौकरी भी मिल गयी। प्रेम की पात्रता नहीं किसी जवान आदमी में, तो अरेंज मैरिज (सुसंगत विवाह) के जुगाड़ से फिर भी उसको पत्नी मिल गयी — माने सेक्स मिल गया।

विवेकानंद उनकी पूरी बात में कहा करते थे — मैस्कुलिनिट (पौरुष) एक बड़ा केंद्रीय शब्द था — कहते थे, ‘इस देश को पौरुष की ज़रूरत है, पौरुष की, ये देश लगभग नपुंसक हो चला है, इसमें पौरुष जगाने की ज़रूरत है।’ ये ऐसा हो गया है बिलकुल। (सहमने का अभिनय करते हुए) घुग्घू बन गया है। साहस, श्रम, संघर्ष इसने भुला दिये हैं।

और बहाना बार-बार क्या दे देता है? ‘जगत मिथ्या।’ “नाहं देहास्मि।” ‘मैं देह नहीं हूँ, जगत मिथ्या है। आत्मा मात्र सत्य है।' और आत्मा कैसे होती है? 'आत्मा तो वो जब मर जाते हैं, फुर्र से उड़ जाती है, चिरैया, उसे आत्मा बोलते हैं। तो जब आत्मा सत्य है तो चलो जल्दी से मर ही जाते हैं।'

तो उन्नीस-सौ-सैंतालीस में, अभी बात कर रहे थे न कल ही कि कितनी होती थी औसत उम्र भारतीयों की? सत्ताईस साल। मर भी रहे थे फटाफट, जल्दी-जल्दी। काहे कि जगत तो नश्वर है, करना क्या है? छोड़ ही दो इस जगत को जल्दी से। कपड़े क्यों अच्छे होने चाहिए? अरे! आख़िरी वस्त्र तो शरीर है। जब शरीर का ही ख़याल नहीं रखना है, तो कपड़ों का क्यों ख़याल रखना? तो फटे, सड़े-गले, मैले कुछ भी पहन के घूमो, क्या रखा है?

पश्चिम एक अति पर चला गया ‘मटेरिअलिस्म’ और भारत ने बराबर की ग़लती करी, बल्कि ज़्यादा बड़ी ग़लती करी, वो बिलकुल दूसरी अति पर चला गया जहाँ मटेरियल का अपमान ही कर डाला बिना उसे समझे। जगत क्या है, ये जाने बिना, जगत का अपमान!

जिन्होंने आपको बताया कि सत्य क्या है? जगत क्या है? उन्होंने ये नहीं कहा कि जगत को छोड़ ही दो — दोहरा रहे हैं हम — उन्होंने जगत के बारे में क्या बोला? जगत का भरपूर उपयोग करो, जगत तुम्हारा रणक्षेत्र है, यहाँ पाना भले ही तुम्हें कुछ नहीं है, लेकिन लड़ना ज़रूर है — इसी को निष्काम कर्म कहते हैं। पाना कुछ नहीं है, लेकिन लड़ना ज़रूर है।

भारत ने लड़ने में भी इनकार कर दिया, घुटने ही टेक दिये। हमारी यूनिवर्सिटीज़ को देखो और बाहर की यूनिवर्सिटीज़ को देखो। टॉप (शीर्ष) दो-सौ यूनिवर्सिटीज़ दुनिया की, उसमें भारत की कोई यूनिवर्सिटीज़ नहीं। हमसे पीछे जो देश आज़ाद हुए और बहुत छोटे-छोटे देश जो आज़ादी के वक़्त हमसे भी ज़्यादा ग़रीब थे, उनकी यूनिवर्सिटीज़ आ गयी हैं टॉप दो-सौ में; हमारी नहीं हैं।

क्यों नहीं हैं? 'करना क्या है ओरिजिनल रिसर्च (मूल अनुसंधान) करके? ये पेटेंट (एकस्व) वगैरह चीज़ क्या है? कुछ नहीं। रिसर्च से क्या होता है? कोई और कर रहा है न, हम उससे ले लेंगे।'

हिन्दी फ़िल्मों में गाने कैसे बनते थे, अभी बस दस-बीस साल पहले तक? क्योंकि तब इंटरनेट तो था नहीं, तो देशी लोगों को पता ही नहीं चलता था कि ये विदेशी गाना है। तो वहाँ जो भी गाना चल गया उसको उठा के यहाँ खट से गाना तैयार हो जाता था। कोई यहाँ का हिट (खूब प्रचलित) गाना पकड़ लो, वहाँ के किसी गाने की नक़ल होता था।

कहते हैं, 'देखो, माल न तेरा है, न मेरा है, जगत रैन बसेरा है — ये हमारे सन्तों की सीख है। तो तू क्यों इस माल पर अपनी आइपी, इंटेलेक्चुअल कॉपीराइट (बौद्धिक प्रतिलिप्याधिकार) वगैरह बता रहा है। कुछ नहीं है, तेरा भी नहीं है। ला मुझे उठा लेने दे। करा होगा तूने कुछ, मैं उसकी नक़ल कर लूँगा।'

समझ में आ रही है बात?

दुनिया के प्रति कामना नहीं रखनी है। लेकिन याद रखना है कि दुनिया में हो तो तुम बंधक के ही तौर पर, तो अपनी मुक्ति के लिए भरपूर संघर्ष करना है। दुनिया में निठल्ला और काहिल होकर नहीं बैठ जाना है। सही काम उठाना है और उसको पूरी उत्कृष्टता से कर के दिखाना है। सही लड़ाई चुननी है और जूझ के लड़नी है — ये होता है आध्यात्मिक मन।

आ रही है बात समझ में?

आप ये नहीं कह सकते — जैसे जो पारम्परिक धार्मिकता होती है कि मैं धार्मिक आदमी हूँ, कुछ नहीं करता, इतनी सी मेरी दुकान है, जिसका माल बिकता भी नहीं है, जिसको आगे बढ़ाने के लिए मैं कुछ करता भी नहीं, करता भी हूँ तो मुझे करना आता नहीं, दिन के चार घंटे दुकान खोलता हूँ, बाक़ी घर में आकर के बैठ जाता हूँ, खाता हूँ, पीता हूँ, दो रोटी रूखी-सूखी और ध्यान करता हूँ।

ये झूठा है तुम्हारा ध्यान और झूठा है तुम्हारा धर्म। जो कर रहे हो अगर उसमें नम्बर एक नहीं हो तो बहुत झूठा है धर्म भी, ध्यान भी तुम्हारा। और अगर वो काम इस लायक़ नहीं है कि उसमें नम्बर एक हुआ जाए, तो धर्म कहता है कि वो काम करो ही मत; छोड़ दो। जो सही काम है, वो करो न फिर। सही काम को ही स्वधर्म कहते हैं — “स्वधर्मे निधनं श्रेयः”।

सही काम चुनो, भले ही उसमें मर जाओ, पर सही काम करो। और सही काम जब चुनोगे तो उससे ऐसा प्रेम रहेगा कि उसमें नम्बर एक बनकर दिखाओगे।

ज़िन्दा क्यों हो?

ज़िन्दा भी हो, काम भी कर रहे हो और उसमें कुछ करके भी नहीं दिखा रहे हो, तो जी क्यों रहे हो?

श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘प्रकृति का अर्थ ही है गति, यहाँ जो भी है वो गतिशील है, माने कर्म कर रहा है। और कर्म जब कर ही रहे हो, अर्जुन, तो ज़रा धाकड़ कर्म करो न। कर्म को त्याग तो तुम वैसे भी नहीं सकते जब तक ज़िन्दा हो। प्रकृति का अर्थ ही क्या है? गति। त्याग तो कर्म को सकते ही नहीं; जब कर्म करना ही है तो ज़रा झंडा गाड़ के करो, ज़रा चिंघाड़ कर करो।’

भारत का सौभाग्य कि उसको गीता मिली और भारत का दुर्भाग्य कि उसने कभी गीता गुनी नहीं, समझी नहीं। और भारतीयों में भी जिन्हें वेदान्त समझ में आया, जिनमें उत्कृष्टता के प्रति प्रेम जगा, वो शिखर पर पहुँचे। शिखर से मुझे याद आता है, देखिए, क्या बोलते हैं श्रीकृष्ण? क्या बोलते हैं? बोलते हैं — ‘जिस क्षेत्र में जो भी सर्वोच्च है, सर्वश्रेष्ठ है, वो मैं हूँ, अर्जुन। शस्त्रधारियों में कौन हूँ मैं, अर्जुन? राम हूँ।‘

मतलब क्या कहना चाहते हैं श्रीकृष्ण? नम्बर एक। और अगर तुम नम्बर एक नहीं हो सकते तो मेरा नाम मत लेना, अर्जुन। इसीलिए गीता भी उन्होंने दी है तो सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर को दी है, किसी छोटे-मोटे बन्दे को नहीं दी है। जो नम्बर एक था उसको ही कहा, ‘तू ही है गीता के लायक़।’

इसका मतलब ये नहीं है कि मात्र सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने से गीता की आपमें पात्रता आ जाती है। और भी पात्रताएँ चाहिए, पर जितनी भी पात्रताएँ चाहिए, अर्जुन में सब पर्याप्त मात्रा में थीं, इसलिए गीता उन्हें मिली। वो पात्रताएँ हम नहीं दिखातें न। और पात्रता का मतलब ही है ‘उत्कृष्टता’। वो उत्कृष्टता हम दिखाते कहाँ हैं?

आप बोलें, 'मैं हर काम में फिसड्डी हूँ, लेकिन श्रीकृष्ण मेरे आदर्श हैं', तो अधिकार नहीं है आपका कि आप श्रीकृष्ण का नाम अपनी ज़ुबान पर लायें।

पर्वतों में कौन हूँ मैं?

नदियों में कौन हूँ मैं?

मतलब क्या है इस बात का?

देखो, जो सबसे ऊँचा है उससे नीचे की बात मेरे साथ नहीं चलेगी। जो सबसे बड़ी, सबसे पवित्र है उससे नीचे की बात मेरे साथ नहीं चलेगी। तुम छोटा-मोटा टीला ले आओ और बोलो कि श्रीकृष्ण। हटो! छोटा-मोटा तुम कोई ताल, कोई तलैया उठा लाओ और तुम बोलो ‘श्रीकृष्ण।’ हटो! गंगा सी विशालता चाहिए।

अध्यात्म हारे हुए लोगों के लिए नहीं है। भारत में अध्यात्म हारे हुए लोगों का अड्डा बन गया; हारे-कमज़ोर लोगों का। हम बोलते भी हैं न — 'हारे को हरि नाम।' श्रीराम को बोलते हैं 'पतित पावन' — जो पतित है, गिरा हुआ है।

तो हुआ कि जब हारे को ही हरि नाम है, तो हरि नाम पाना है तो हारना पड़ेगा, तो सब हारने ही लग गये। भारत हारता ही गया, हारता ही गया, हारता ही गया, क्योंकि 'हारे को हरि नाम'। और उसका अर्थ बिलकुल दूसरा था। 'हारे को हरि नाम' जब बोला गया है तो वो बात बिलकुल अलग थी। लेकिन हमने, हमारे अहंकार ने उसका बड़ा विकृत अर्थ किया। हारना भारत में अपमान की बात ही नहीं रह गयी, बल्कि बड़प्पन की बात हो गयी — जो हारे वो बड़ा आदमी।

अरे भाई! हारना बड़प्पन की बात है तब, जब तुममें जीतने की क्षमता हो। “क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो” — तुम्हारे पास गरल ही नहीं है, तुम क्षमा करने क्या निकल पड़े? जिसके पास बल हो, वो क्षमा का अधिकारी होता है। अब ढाई-हड्डी के फंटूस , वो पिट रहे हैं और बोल रहे हैं, ‘जा माफ़ किया।’ तू कर क्या लेता? तू क्या माफ़ करेगा?

अध्यात्म का तो अर्थ ही है बल की साधना — “नायम आत्मा बलहीनेन लभ्यो”।

भारत ने बल को त्याग दिया। अहंकार ने कहा, करना क्या है बल का? तो कुछ नहीं, बेकार! ये है बात और अगर कोई ये सब कहे न कि भारत में एक्सिलेन्स इसलिए नहीं आ पायी क्योंकि रिसोर्सेज़ (संसाधन) की कमी थी या कि ये तो इकनोमिक सरकमस्टान्सेस (आर्थिक परिस्थितियाँ) से हुआ है, तो ये सब बेकार की बात है।

सबसे बड़ा प्रमाण है दक्षिण-पूर्व एशिया। तुम दक्षिण कोरिया को देख लो, तुम सिंगापुर को देखो। कंबोडिया, वियतनाम, मलेशिया, इंडोनेशिया इनको देखो। सब हमारे साथ के हैं, आज़ाद देश, एकदम ऐसे छोटे-छोटे से। देखो कहाँ पहुँच गये। ताइवान, इतना-सा ताइवान और चीन के सामने ऐसे (सीना तानकर) खड़ा हुआ है — 'हाँ भाई!'

समझ रहे हो बात को?

क्या है? कुल एक द्वीप, एक छोटा सा द्वीप है वो, दिल्ली जितनी आबादी नहीं उसकी। ताइवान की दिल्ली जितनी भी नहीं है आबादी। और उसको सहारा देने के लिए कोई आस-पास उसके देश भी नहीं हैं। जापान, दक्षिण कोरिया ये सब भी काफ़ी दूर हैं उससे एकदम। उसके पास सिर्फ़ एक ही है, चीन। और चीन जब चाहे उस पर चढ़ सकता है। और वो, 'हाँ भाई!'

और हम दुनिया की सबसे बड़ी आबादी रखते हैं — इतना सारा क्षेत्र पाकिस्तान ले गया, इतना सारा चीन ले गया और चीन अभी भी ले जा रहा है — और हम कुछ नहीं बोल सकते, कुछ नहीं कर सकते।

देखो, ज़मीन पर बड़ा विस्तार हो जाए, अध्यात्म ये नहीं सिखाता। पर भूलना नहीं कि श्रीकृष्ण भी अर्जुन को राज्य के लिए ही लड़ने को कह रहे हैं। इसका अर्थ ये नहीं होता कि अध्यात्म माने राज्य के लिए लड़ना। लेकिन ये भी तो पूछना पड़ेगा न कि तुम ज़मीन छोड़ क्यों रहे हो? अर्जुन ज़मीन किसलिए छोड़ रहे थे — डर के मारे, मोह के मारे, भ्रम के मारे? तुम्हें कोई वैराग्य थोड़े ही हुआ है; वैराग्य तो आत्मज्ञान से होता है। आत्मज्ञानी को मोह तो होता नहीं, तुम्हें तो मोह है, मतलब वैराग्य नहीं हुआ है तुम्हें। तुम जो दर्शा रहे हो, वो तो कायरता है।

भारत में जब तक लड़ने, जूझने और संघर्ष को धर्म नहीं जाना जाएगा तब तक भारत जग नहीं पाएगा। और मैं वो गली-मोहल्ले वाली लड़ाई की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं कुरुक्षेत्र वाली लड़ाई की बात कर रहा हूँ — महायुद्ध, धर्मयुद्ध, अपने ही विरुद्ध युद्ध — किसी पराये को नहीं मारना है; अपनेआप को मारना है।

भारत में भी महानता आ सके, उत्कृष्टता आ सके, जिसकी आप बात कर रहे हैं वो एक्सिलेन्स आ सके, उसके लिए भारत की रगों में संघर्ष को बहना होगा।

'युध्यस्व’!

हर जवान लड़के-लड़की की आँखों में एक तेज होना चाहिए — ‘हल्का मत समझ लेना हमको, छोटी बात पर हम ध्यान देते नहीं, छोटे मुद्दों में हम उलझते नहीं और सही लड़ाई से हम पीछे हट नहीं सकते।'

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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