बस खाली बैठे हो? || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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बस खाली बैठे हो? || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: मुझे बिलकुल नहीं समझ आता कि छब्बीस, अट्ठाईस, तीस साल का कोई जवान लड़का या लड़की घर पर बैठकर कैसे खा सकता है, मेरे लिए ये एक भयानक बात है। मैं तो भगत सिंह को जानता हूँ, मैं राजगुरु को जानता हूँ, जो बाईस की उम्र में ही न जाने कहाँ पहुँच गये थे; तुम छब्बीस, अट्ठाईस, तीस के हो जाते हो और कहते हो कि अभी हमें कुछ समझ में नहीं आ रहा।

घर में माँ तो है ही, वो बढ़िया, समय पर नाश्ता ले आती है, खाना ले आती है, बाप की उम्रभर की अर्जित संपत्ति भी घर पर है; अब कौन इस सुख को छोड़कर के जाए मेहनत करने कहीं पर!

कुछ तो करो! भले उससे आमदनी न हो, तब भी करो, जवान हो इसलिए करो। और कुछ नहीं सूझ रहा करने को, तो देशाटन कर आओ, भारत-भ्रमण करो, देश ही देख लो पूरा, पर घर पर तो मत बैठे रहो। कोई कला सीख लो, कोई खेल सीख लो, किसी कोर्स (पाठ्यक्रम) में नाम लिखा लो, कुछ ज्ञान अर्जित कर लो। ये चल क्या रहा है, कि छ: साल से सरकारी नौकरी की कोशिश कर रहा है लड़का!

आंतरिक पतन होने लगता है जब तुम अपनेआप को बेरोज़गार कहना शुरू कर देते हो। और वैसा ही पतन होता है उन गृहणियों का जिनके ऊपर अब गृहस्थी की कोई ख़ास ज़िम्मेदारी नहीं है, फिर भी वो घर पर ही बैठी हैं।

मैं समझ सकता हूँ, आप काम कर रही थीं, आप गर्भवती हो गईं, दो साल-- चार साल के लिए संभव नहीं रहा आपके लिए काम करना; वो बात ठीक है, उतना समझा जा सकता है। पर आप चालीस वर्ष की हो चुकी हैं, बच्चे बड़े हो चुके हैं, वो अपनी-अपनी ज़िन्दगी देख रहे हैं। घर में ठीक-ठाक रुपया-पैसा है, आप मध्यम वर्ग से हैं या उच्च-मध्यम वर्ग से हैं, घर में नौकर-चाकर भी लगे हुए हैं, और सुबह नौ बजे से लेकर शाम के आठ बजे तक वास्तव में आपके पास कोई काम नहीं है। आपका बड़ा पतन होगा, ये खाली समय आपको लील जाएगा।

रिटायर्ड (सेवानिवृत्त) हुए लोगों से भी कह रहा हूँ, अठ्ठावन-साठ की कोई बूढ़ी उम्र नहीं होती, और सरकारी नौकरी से निवृत्त होकर के तुम साठ की उम्र में घर पर बैठ जाते हो, कभी अठ्ठावन में घर पर बैठ जाते हो। जियोगे अभी पच्चीस साल और, ये कर क्या रहे हो? ये भी मनोरोगी हो जाएँगे, इनका भी आंतरिक पतन होगा।

और ये तीनों ही वर्ग टी.वी. भरपूर देखते हैं - रिटायर हुए लोग, घर बैठी गृहणियाँ, और तथाकथित बेरोज़गार युवा; सब टी.आर.पी. चल ही इनके दम पर रही है।

जो मेहनतकश लोग हैं उनके पास कहाँ वक्त है, क्या बता रही थीं, ‘कुमकुम और भाग्य’, ये सब देखने का? पर चल तो खूब रही हैं न इस तरह की बीमारियाँ, ‘कुमकुम भाग्य’ (एक धारावाहिक), जो भी है ये। कौन चला रहा है इनको? टी.आर.पी. देने वाले तो आप ही लोग हैं। न फ़ैक्ट्री (कारखाना) में काम करता श्रमिक ‘कुमकुम’ देख रहा है, न सीमा पर लड़ता सैनिक ‘कुमकुम’ देख रहा है, न खेत का किसान ‘कुमकुम’ देख रहा है, न किसी संस्था का व्यवसायी ‘कुमकुम’ देख रहा है; कौन देख रहा है ये सब?

ये बहुत बड़ा क्षरण है युवा-शक्ति का, नारी-शक्ति का, मानव-शक्ति का, और अगर आप राष्ट्रवादी हैं, तो कहूँगा राष्ट्र-शक्ति का। जनसंख्या का इतना बड़ा तबका बस खाली बैठा है, और कुछ-न-कुछ उसने बहाना खड़ा कर रखा है खाली बैठने का।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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