बँटा मन तो बँटा जीवन || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

5 min
66 reads
बँटा मन तो बँटा जीवन || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्न : आदमी बँटा हुआ कैसे है ?

आचार्य प्रशांत : जितनी भी चीज़ें अलग-अलग दिखाई देती हैं, उनके बंटने का कारण आदमी का दिमाग ही है। फिर उसमें जात, धर्म, देश, हज़ार तरीके के बंटवारे चारों तरफ आ जाते हैं। दुनिया इसीलिए बंटी हुई है क्योंकि आदमी का मन एक नहीं है। उस पर हज़ार चीज़ों ने कब्ज़ा कर रखा है छोटा, छोटा। तो उसको उनको अलग-अलग रखना है क्योंकि वो जो चीज़ें हैं, जो कब्ज़ा करके बैठी हैं, वो अलग हैं; वो एक हो नहीं सकती हैं। तो फिर अंदर के बंटवारे के कारण आपको बाहर का बंटवारा भी करना ही करना है।

तुमने दो रिश्ते ही ऐसे बना दिए हैं, जिनकी परिभाषा ही यही है कि उनमें आपस में लड़ाई रहेगी ही रहेगी।तुमने एक माँ का बना दिया और एक बीवी का बना दिया।अब तुमको कमरे अलग करने पड़ेंगे ना? समय भी अलग करना पड़ेगा।जब माँ के साथ हो, उस समय पर बीवी आ गई, तो माँ से तुम्हारी सहज बातचीत नहीं हो सकती। जब बीवी के साथ हो, उस समय माँ आस-पास है, तो तुम सहज नहीं रह पाओगे।तो पहले तुम मन में बांटते हो, तुम वहां पर परिभाषाएं देते हो कि ये चीज़ है, वो इस दायरे की है।कोई भी चीज़ होती है, उसको एक दायरा देते हो, और फिर वो दायरा बाहर भी दिखाई देने लग जाता है।जो दायरा पहले एब्सट्रैक्ट होता है, केवल मानसिक होता है, फिर वो ज़मीन पर भी दिखाई देने लग जाता है।

तो जहाँ कहीं भी किसी चीज़ की कोई परिभाषा होगी, कोई बंटवारा शुरू हो जाना है।वहीं आदमी बंटा-बंटा रहेगा ही रहेगा।तुमने जैसे ही परिभाषित किया कि ऑफिस क्या होता है, वैसे ही तुमने ऑफिस को घर से अलग कर दिया।तो जैसे ही ऑफिस कुछ भी हुआ, वैसे ही बंटवारा शुरू हो गया।तुम्हारे मन के दो हिस्से हो गए, एक घर और दूसरा ऑफिस ।जितनी तुम्हारे मन में विविधता दिखाई देगी, तुम उतना बंटा हुआ जीवन बिताओगे क्योंकि जितनी चीज़ें दिखाई दे रहीं हैं, वो मन के हिस्से ही हैं।कोई चीज़, चीज़ होती ही नहीं है, वो मन का एक हिस्सा होती है।जिसको जितनी अलग-अलग चीज़ें दिखाई देती हैं, वो उतना बंटा बंटा रहेगा।भेद भाव खूब रहेगा ऐसे मन के पास।

श्रोता : तो अब आगे क्या करना है ?

वक्ता : कोई क्या करेगा ? जब बंटवारा होता है, तो तुम्हें कैसा लगता है ? तुम्हें अगर ये समझ में आ रहा है कि बंटवारे की शुरुआत कहाँ से होती है, तो तुम क्या करोगे?

श्रोता : खत्म करने की कोशिश।

वक्ता : जितना ज़्यादा तुम्हारे मन में परिभाषाएं रहेंगी, कि ये ये है, वो वो है, उतना ज़्यादा तुम्हें खराब लगेगा और सारा खेल यही है कि कोई नहीं चाहता कि उसको खराब लगे।खराब लगने को ही कहा जाता है : पीड़ा, कष्ट, दुःख।तो ये सारी बात इसीलिए हो रही है ताकि वो ना रहे।सारी ये जो बातें होती हैं, वो इसलिए होती हैं कि हमें जो खराब-खराब लगता रहता है हर समय, हालत खराब रहती है, मन दुखी रहता है, वो ना रहे।तो अगर बंटने से मन खराब होता है, तो फिर ध्यान दिया जाएगा ना बंटने पर? कि, ‘’मैं कहाँ कहाँ बंट जाता हूँ ?’’ किन-किन तरीकों से टुकड़े-टुकड़े रहता हूँ? जब ध्यान देगा, तब जो बंटने की प्रक्रिया है, वो कम चलेगी।

श्रोता : लेकिन फिर अनुशासन कैसे रहेगा, कि ये ऑफिस है, ये घर है . .

वक्ता : आदमी अनुशासन के लिए है या अनुशासन आदमी के लिए है? हर अनुशासन किसलिए है, आखिरकार ? तुम्हारी कोई भी हरकत किस लिए है ? तुम अनुशासन करो, या कोई व्यवस्था बनाओ, वो किसलिए है ?

श्रोता : तक़लीफ़ ना हो, बुरा न लगे, खराब न लगे ?

वक्ता : और अगर ये सब कर के भी खराब ही खराब लग रहा है तो फिर?

सारी व्यवस्था आदमी ने ही बनाई है ना ? कि ऊपर से उतरी है? एक बिल्डिंग है, वो इस तरीके से काम करेगी, ये किसने तय किया है? हमने ही तय किया है ना? हमने किसकी ख़ुशी के लिए तय किया है?

श्रोता : अपने और दूसरों के लिए।

वक्ता : और अगर ये सब तय करके हमें ख़ुशी नहीं मिल रही है, तो हमने गड़बड़ ही तय किया ना? ये सब जो चल रहा है, ये प्रकृति ने तो दिया नहीं, निकला ये आदमी के दिमाग से ही है और निकला इसलिए कि इससे हमें फ़ायदा हो।फ़ायदा होता अगर ना दिख रहा हो, तो फिर तो कुछ है नहीं ना।

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories