बंधन क्या है? मुक्ति क्या है? || सर्वसार उपनिषद् पर (2020)

Acharya Prashant

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बंधन क्या है? मुक्ति क्या है? || सर्वसार उपनिषद् पर (2020)

आचार्य प्रशांत: पूरा उपनिषद् प्रश्नोत्तर के रूप में है, एक प्रश्नोत्तरी ही है ये पूरा उपनिषद्। बड़ा विशिष्ट उपनिषद् है। और हम सब, आप भी, मैं भी, बड़े सौभाग्यशाली हैं कि इस उपनिषद् श्रृंखला का आरंभ हम सर्वसार उपनिषद् से कर रहे हैं। इससे ज़्यादा साफ़, पवित्र, सटीक, संक्षिप्त, सर्वसारीय ग्रंथ मिलना बड़ा मुश्किल होगा। और बिलकुल सही नाम है इसका, सर्वसार उपनिषद्; सब विद्या का सार इस उपनिषद् में मौजूद है। कुछ और आप ना पढ़ें बस सर्वसार उपनिषद् पढ़ लें, और पढ़ने से मेरा अर्थ यह नहीं है कि आपने अक्षरों पर दृष्टिपात कर लिया, पढ़ने से मेरा मतलब है कि आपने उपनिषद् का गहराई से सेवन कर लिया, पठन, चिंतन, मनन, निदिध्यासन, सब कर लिया आपने तो आप समाधिस्थ भी हो जाएँगे फ़िर।

तो शुरुआत ही बिलकुल सीधे होती है, कोई दाएँ-बाएँ की, व्यर्थ की बात नहीं। प्रश्न पूछा जाता है:

“बंधन क्या है? मुक्ति क्या है? विद्या और अविद्या किसको कहते हैं? जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय, ये चार अवस्थाएँ क्या हैं? अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय कोशों का परिचय क्या है? कर्ता, जीव, पंचवर्ग, क्षेत्रज्ञ, साक्षी, कूटस्थ और अन्तर्यामी क्या हैं? प्रत्यगात्मा क्या है? परमात्मा क्या है और ये माया क्या है?” —सर्वसार उपनिषद्, श्लोक १

तो इतने प्रश्न आरंभिक श्लोक में ही पूछ लिए गए हैं।

“बंधन क्या है?” क्या कहता है उपनिषद्?

उपनिषद् कहता है:

“आत्मा ही ईश्वर और जीव स्वरूप है, वही अनात्मा शरीर में अहंभाव जाग्रत कर लेता है (‘मैं शरीर हूँ', ऐसा मानने लगता है), यही बंधन है। शरीर के प्रति इस अहंभाव से मुक्त हो जाना ही मोक्ष है।” —सर्वसार उपनिषद्, श्लोक २

बंधन क्या है? देह भाव ही बंधन है।

आत्मा एकमात्र और अनादि, अनंत सत्य है। अहम् की लेकिन रुचि आत्मा में नहीं होती, अहम् की रुचि आत्मा के विविध रूपों में होती है। सब रूप आत्मा के कहलाते हैं ‘संसार’, और उस संसार का भोक्ता होने के लिए अहम् सबसे ज़्यादा रुचि दिखाता है जिस वस्तु में, जिस विषय में, उसको कहते हैं ‘देह’। तो अहम् प्रेम भले ही आत्मा से करता है, पर वो बड़ा गहरा और गुपचुप प्रेम है, रुचि तो वो देह में ही रखता है। इन दोनों बातों को समझना।

रुचि और प्रेम बहुत अलग-अलग चीज़ें हैं, इन्टरेस्ट (रुचि) और लव (प्रेम) एक नहीं होते। अहम् का प्रेम है आत्मा, लेकिन अहम् की रुचि है अनात्मा में। अखिल दृश्यमान विश्व ही अनात्मा मात्र है। इस विश्व में द्वैतात्मक प्रक्रिया से अहम् किसके साथ तादात्म्य स्थापित करता है? देह के साथ।

बात समझ रहे हो?

अहम् को चाहिए तो यह पूरा विश्व ही, पर इस विश्व में वो द्वैतात्मक खेल खेलता है, कहता है, “विश्व के साथ तो रिश्ता तो मैं रखूँगा ही, पर वो रिश्ता द्वैत का होगा।” कैसे? उस रिश्ते में एक विषय होगा और एक विषयी होगा। अहम् ख़ुद क्या बन जाता है? विषयी। अहम् देह धारण कर लेता है और संसार से वो रिश्ता रखता है संसार को विषय बना करके। तो रिश्ता उसने दोनों से रख लिया, किससे? देह से भी और संसार से भी। पर इस रिश्ते में दोनों के नाम अलग-अलग हैं, संसार का नाम है ‘विषय’ और देह का नाम है ‘विषयी’, या ‘मैं’, या ‘स्वयं’ या ‘अहम्’।

समझ में आ रही है बात?

और ये सारा खेल खेल रहा है जब अहम्, तो इस दौरान उसे वास्तव में प्रेम किससे है? प्रेम है आत्मा से। और खेल खेल रहा है वो संसार में। और संसार में जब वो खेल रहा है, वो यह भी नहीं समझ रहा कि जिस आत्मा से वो प्रेम करता है, उसी आत्मा की माया है संसार, उसी आत्मा की अभिव्यक्ति है संसार।

संसार में ही अगर तुमको रुचि हो, तो बहुत गहरी और जिज्ञासु रुचि रख लो तो भी आत्मा तक पहुँच जाओगे।

ऐसा भी नहीं करना है कि संसार को छोड़ करके अपने प्रेम माने आत्मा की ओर जाना है। तुम्हें दोतरफा़ लाभ हो सकता है, तुम्हें संसार के साथ ही आत्मा प्राप्त हो सकती है। जानने वालों ने तो यहाँ तक कहा है कि “आत्मा प्राप्त करने के लिए संसार के अलावा और कोई ज़रिया ही नहीं है, और कोई माध्यम है नहीं आत्मा तक पहुँचने का संसार के अलावा।”

और माध्यम है कौन सा? अहम् जहाँ रह रहा है, उसको क्या कहते हैं? संसार। तो अहम् के पास और कोई विकल्प है संसार के अलावा? तुमसे मैं कह दूँ कि जाओ कहीं चले जाओ ऐसी जगह जो संसार से बाहर की हो, जा सकते हो? तुम्हारे पास संसार के अतिरिक्त वैसे भी कोई विकल्प नहीं है, तुम्हें आत्मा इसी संसार में पानी है। हाँ, बस यह है कि इसी संसार में मूर्खों की तरह जिओगे तो कष्ट पाओगे, और ध्यान से जिओगे, समझदारी से जिओगे, विवेक से निर्णय किया करोगे तो आत्मा पाओगे।

बात समझ में आ रही है?

मूर्खतापूर्ण जीवन जीना ही बंधन है। और विवेकपूर्वक आत्मा का चुनाव करना, सत्य का चुनाव करना, हृदय का चुनाव करना ही मुक्ति है।

जैसे उपनिषद् ने आरंभ में ही अंतिम बात कह दी हो। जैसे पहले प्रश्न में ही सब जिज्ञासाओं का समाधान कर दिया गया हो। बंधन क्या है? मुक्ति क्या है? देह से आसक्त रहना, देह से तादात्म्य बैठाना और सम्पूर्ण जगत का भोक्ता बनना—यही है बंधन। और देह के और संसार के खेल को पूरी तरह पहचानना, इस खेल को खेल ही जानना और इस खेल में फल की किसी भी लिप्सा से मुक्त रहना—यही मोक्ष है। इसके अलावा ना कोई बंधन है और ना कोई मुक्ति है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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