बंदर, केला, बंदरिया || आचार्य प्रशांत, बातचीत (2020)

Acharya Prashant

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बंदर, केला, बंदरिया || आचार्य प्रशांत, बातचीत (2020)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मोह, वासना, किसी दूसरे के प्रति आकर्षण, बच्चों को जन्म देना इन विषयों पर जब आपको सुनते हैं न तो ऐसा लगता है कि जैसे आप वो हर चीज़ जो प्राकृतिक है उसका विरोध कर रहे हैं। मेरे शरीर में जो वासना उठी, आप उसका विरोध कर रहे हैं, ऐसा क्यों लगता है?

आचार्य प्रशांत: मैं तुम्हारी जो प्राकृतिक वृत्तियाँ हैं उनका विरोध नहीं कर रहा हूँ। उनका एक तरीक़े से मैं सहयोग कर रहा हूँ, ताकि वो उस चीज़ को पा सकें जो वो ख़ुद ही चाहती हैं। समझो थोड़ा, बताता हूँ। प्रकृति का विरोध करना एक बात है और प्रकृति से थोड़ा आगे निकलना एक बात है।

अगर तुम पूरे तरीक़े से प्राकृतिक ही जीना चाहते तो तुम जंगल से बाहर आये ही क्यों? तुम मुझे कह रहे हो कि मैं बोल रहा हूँ प्रकृति के विरुद्ध, चलो मैं हट गया, मैं नहीं बोलता। तुम मुझे बताओ तुम जंगल से बाहर निकलकर क्यों आये, ये तुमने शहर क्यों बसाया? भाई, अगर प्रकृति इतनी ही प्यारी है तो जंगल में ही क्यों नहीं रहे आये, ये कपड़े क्यों पहनते हो। जंगल में तो कोई भी जानवर कपड़े नहीं पहनता, तुम ये कपड़े क्यों पहनते हो। तुमने भाषा का विकास क्यों किया।

ये सब बातें क्या तुमको बता नहीं रही हैं कि जिसको तुम साधारणतया प्रकृति बोलते हो उसमें जितने तत्व मौजूद हैं — जंगल, पेड़, पहाड़, आदमी, औरत — इनसे तुम्हारा जी नहीं भरता, तुम उससे आगे का कुछ तलाश रहे थे न, तभी तो तुम जंगल को छोड़कर के शहर में आये न!

तुम कहते हो कि आचार्य जी, आप क्यों शारीरिक आकर्षण पर सतर्क रहने को कहते हैं। भाई, तुमको अगर किसी दूसरे इंसान का शरीर ही चाहिए था, वो तो तुमको जंगल में भी मिल रहा था। अगर तुम्हें यही बहुत बड़ी बात है, तो वो तो तुमको जंगल में ही मिल रहा था न। पर तुमने बहुत ख़तरे उठाये और तुम जंगल से बाहर आये। है न? जबकि जंगल से बाहर जब तुम आये तो तुम्हें मेहनत बढ़ गयी। भाई, तुम्हें खेती करनी पड़ी, हल चलाना पड़ा और उसके बाद ये इतना कुछ करा है इंसान ने, बड़ी मेहनत से शहर बसाये हैं, विज्ञान को आगे बढ़ाया है, हर क्षेत्र में चीज़ों को समझा है, जाना है और नए निर्माण, नए सृजन करे हैं।

ये सब क्यों करे हैं! अगर आदमी को प्रकृति में ही सन्तुष्टि मिल गयी होती तो ज़रूरत क्या है फिर कविताओं की, उपन्यासों की। ये जो तुम अंतरिक्ष का अनुसन्धान करने के लिए रॉकेट भेज रहे हो, इनकी। ये जो तुम सागरों की तलहटी जाँचने के लिए उपकरण भेज रहे हो नीचे, इनकी।

जंगल में तो जो आम इंसान रहा करता था पहले, उसकी औसत उम्र भी ज़्यादा नहीं थी। बीमारियाँ लग जाती थीं, मर जाते थे। जंगली जानवरों ने शिकार कर लिया, मर गये। तुमने क्यों जंगल से बाहर आकर के इतनी दवाइयाँ इज़ाद करी, तुमने क्यों मेडिकल साइंस इतनी आगे बढ़ायी, क्या वजह है। भाई, जंगल के जानवरों के पास तो कोई दवाई नहीं होती न और उनकी आयु भी बहुत ज़्यादा नहीं होती है।

खरगोशों को ले लो। जंगल में जो खरगोश होते हैं, उनकी औसत आयु होती है एक साल से दो साल और वही जो जंगल के खरगोश होते हैं, अगर उनको ठीक से पाला जाए, अच्छी जगह दी जाए, अच्छी ख़ुराक दी जाए तो वो सात-आठ साल चल जाते हैं, कई बार तो दस-दस साल तक चल जाते हैं।

जंगल में ख़तरा रहता है, तुमने जंगल क्यों छोड़ा, सबसे पहले ये पूछने की बात है। तो जो लोग कह रहे हैं कि प्रकृति जैसा चलाती है वैसा चलो। मैं उनसे पूछ रहा हूँ, ‘तुमने जंगल ही क्यों छोड़ा फिर? प्रकृति तो सबसे पहले तुम्हें जंगल में चला रही थी।’

प्र: टू लिव विद द फ्लो एज़ इट कम्स। (प्रवाह के साथ जीना जैसा कि ये आता है)

आचार्य: हाँ! अगर तुमको प्राकृतिक बहाव में ही रहना है, तो पेड़ के ऊपर रहते न बन्दर की तरह, ये घर क्यों बनाया। कोई वजह है कि आदमी प्रकृति में ही रहकर कभी सन्तुष्ट नहीं हो पाता। उसे प्रकृति से आगे जाना है। अब प्रकृति के विरोध में और प्रकृति के आगे जाने में अन्तर है। प्रकृति का विरोध मैं समझता हूँ वो चीज़ हुई कि जब तुम प्रकृति का नाश करना शुरू कर दो। वो प्रकृति का विरोध है।

बात समझ में आ रही है?

प्रकृति का नाश तुम कब करते हो, जब तुम प्रकृति से बहुत उम्मीदें करते हो कि इससे मुझे ये मिल जाए, वो मिल जाए। तुम्हें प्रकृति का बहुत भोग करना है। अब जिस चीज़ का तुम्हें भोग करना हो, उसका तुम नाश कर डालते हो। जंगलों का तुम्हें भोग करना है, तुम जंगल काट डालते हो। वो चीज़ है प्रकृति का विरोध। मैं थोड़ी ही प्रकृति का विरोध कर रहा हूँ।

मैं तो कह रहा हूँ कि तुम क्यों प्राकृतिक चीज़ों के साथ इतनी उम्मीद बैठा रहे हो। उनसे उम्मीद बैठाओगे तो तुम उनका नाश भी कर डालोगे, जैसे आदमी आज कर रहा है। तुम वो देखो कि तुम्हें क्या चाहिए और तुम्हें जो चाहिए वो न तुम्हें जंगल से मिलना है, न जंगली फल से मिलना है, न जंगल में घूमते जानवरों से मिलना है, न आदमी-औरत से मिलना है।

प्रकृति में जो कुछ भी यूँहीं सहज है, सुलभ है, वो वो चीज़ नहीं है जो तुम चाह रहे हो। हाँ, अगर प्रकृति में जो कुछ सहज-सुलभ है उसको तुमने जान लिया, समझ लिया, तो ज़रूर तुमको वो मिल सकता है जो तुम चाहते हो।

प्र: उसका सदुपयोग कर लिया।

आचार्य: प्रकृति में — हाँ — जो कुछ है उपलब्ध, उसका सदुपयोग कर लिया, तब तो तुम्हें वो मिल सकता है, जो तुम चाहते हो लेकिन अगर प्राकृतिक चीज़ों में ही तुमको आख़िरी सन्तुष्टि मिलनी होती तो तुम्हें आख़िरी सन्तुष्टि जंगल में ही मिल गयी होती।

ये सभ्यता और संस्कृति और भाषा इनकी आवश्यकता नहीं पड़ती न। हमें इनकी आवश्यकता है, हमें सोचना पड़ेगा क्यों इनकी ज़रूरत है। हमें क्यों बातें करनी होती हैं, हमें क्यों विचार करना होता है। विचार भी हम भाषा में करते हैं, शब्दों में करते हैं।

आदमी को विचारशील होना क्यों ज़रूरी है, क्योंकि आदमी में और सब जानवर वगैरह में और पेड़ में, प्रकृति में जो कुछ भी जड़-चेतन और दूसरी चीज़ें पायी जाती हैं, उनमें अन्तर होता है।

आदमी किसी ख़ास चीज़ की तलाश में है जो उसे जंगल में नहीं मिल रही थी इसलिए वो जंगल से बाहर आया। ये अलग बात है कि वो जंगल से बाहर आया है तो उसे वो चीज़ शहर में भी नहीं मिल रही है। ठीक है।

मेरा कहने का अर्थ ये इसलिए नहीं है कि जंगल से बाहर शहर में मिल जाएगी या शहर में नहीं मिली तो तुम मंगल ग्रह पर चले जाओगे तो वहाँ मिल जाएगी। नहीं, क्योंकि शहर भी क्या है, शहर भी प्रकृति ही है। मंगल ग्रह क्या है, मंगल ग्रह भी प्रकृति ही है।

तो एक तरह की प्रकृति को छोड़कर दूसरे तरह की प्रकृति में तुम्हें चैन नहीं मिल जाएगा। तुम्हें कुछ और चाहिए बहुत आगे का, ठीक है। और जो तुम्हें चाहिए वो तुम्हें कैसे पता चलेगा, वो तुम्हें पता चलता है प्रकृति के अवलोकन से। अवलोकन माने देखो कि चल क्या रहा है।

नदी के बहाव को देखो, पक्षियों की उड़ान को देखो। अभी साँझ हो रही है, अस्त होते सूरज को देखो, पुरूषों को देखो, महिलाओं को देखो, बच्चों को देखो, उनकी आकुलताओं को देखो, उनकी इच्छाओं को देखो, उनके दुखों को देखो, उनके जीवन को समझो।

ये सब तुम अगर देख-समझ गये तो सम्भावना है कि तुम्हें वो मिल जाए जो तुम चाहते हो। ये सब बात करना बड़े बचपने की बात है कि फ़लानी चीज़ तो प्राकृतिक है तो हम भी करेंगे। तुम्हें प्राकृतिक चीज़ ही करनी है तो तुम जंगल जाओ, वहाँ सब प्राकृतिक है। वहाँ से तुम्हें कभी बाहर आना ही नहीं चाहिए था। गोरिल्ला ही बने रहते, बाहर काहे को आये।

प्र: प्रकृति के अवलोकन करने में और प्रकृति से आगे जाने में, ये हो पाये, कभी-कभी दमन-शमन भी तो ज़रूरी होता है। ये भी तो सुना है आपसे, दमन साधक को करना पड़ता है।

आचार्य: हाँ, एक माध्यम की तरह।

प्र: वो भी तो विरोध ही हुआ न?

आचार्य: हाँ, एक माध्यम की तरह।

प्र: विरोध करने से नहीं मिलेगा पर विरोध माध्यम हो सकता है।.

आचार्य: माध्यम हो सकता है। देखो, प्रकृति से हमने कोई दुश्मनी थोड़े ही पाल ली है, ठीक है। बीच-बीच में जंगल भी जाते रहना चाहिए, बहुत अच्छी बात है! बीच-बीच में कुछ समय, काफी समय नदी किनारे बिताते रहना चाहिए। ये अच्छी बात है। जंगल जाने से निश्चित लाभ होगा, ठीक है। लेकिन अगर तुम वही बन जाओ जो कभी जंगल में बसा करता था तो उससे तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा। ठीक है?

प्र: इस सवाल के पीछे आचार्य जी भाव ये नहीं है कि प्रश्नकर्ता सोच रहा है कि आप उसे नेचुरल प्लेसेज़ (प्राकृतिक स्थानों) विज़िट (घूमने) करने से मना कर रहे हैं, उसमें उसको कोई इश्यू (मुद्दा) नहीं है, वो कभी न जाए नदी किनारे। वो जो उसके अन्दर नेचुरल टेंडेंसी (प्राकृतिक प्रवृत्ति) है, जो बाडी (शरीर) से आती है, जब उसका विरोध करने के लिए आप गुरु द्वारा बोला जाता है तो वो बड़ा चोट की तरह लगता है कि क्यों मना कर रहे हैं।

आचार्य: जैसे कि मैं माँस खाने के विरोध में बोलता हूँ तो लोग कहते हैं कि जंगल में तो इतने जानवर माँस खाते हैं तो हम भी अगर माँस खा रहे हैं तो इसमें क्या बुराई है। माँस खाना तो प्राकृतिक बात हो गयी। भाई, जो माँस खा रहे हैं, वो फिर जानवर ही तो रह जा रहे हैं न।

बार-बार बोलते हो शेर माँस खाता है, शेर माँस खाता है तो शेर फिर शेर ही रह गया। शेर थोड़ी ही फिर यूट्यूब देख पा रहा है। शेर तुम्हारी नज़र में प्रतीक होगा किसी बड़ी और दबदबे वाली सत्ता का लेकिन ज़रा होश से देखो, तो शेर है क्या। शेर वो है जिसको तुम पिंजड़े में डाल देते हो कभी भी। शेर वो है जिसको न बोलना आता, न समझना आता। भाई, दहाड़ सकता है वो लेकिन किसी भाषा के दो शब्द तो नहीं बोल सकता न, न विचार कर सकता है, तो शेर तो वो चीज़ है।

तो अपनी वासनाओं को, अपनी कामनाओं को पूरा करने के लिए ये तर्क देना कि फ़लाने काम तो प्रकृति में ही होते हैं तो हम भी करेंगे। ये बहुत मूर्खता की बात है।

प्र: या ये तो नेचुरल (प्राकृतिक) है, लाइक सेक्स इज़ नेचुरल , अट्रैक्शन टूवर्डस अदर्स इस नेचुरल (जैसे यौन क्रिया प्राकृतिक है, दूसरों के प्रति आकर्षण प्राकृतिक है )।

आचार्य: नहीं-नहीं, नहीं। एक तो ये समझना पड़ेगा। आपके लिए प्रकृति नेचुरल नहीं है, ठीक है। शेर के लिए प्रकृति नेचुरल (प्राकृतिक) है। मैंने कई दफे समझाया है कि शेर का नेचर (स्वभाव) प्रकृति है, तुम्हारा नेचर आत्मा है।

तो शेर अगर इधर-उधर नंगा फिरे, जो ही पाये उसको मारकर खा जाए, तो ये ठीक है क्योंकि वो नेचुरल काम कर रहा है। ठीक है। शेर का केंद्र प्रकृति है। केंद्र को नेचर बोलते हैं कि तुम कहाँ से चल रहे हो, व्यवस्थित हो रहे हो, ऑपरेट (संचालित) कर रहे हो।

प्र: स्वभाव जिसको हम कहते हैं।

आचार्य: हाँ, स्वभाव। तो शेर का स्वभाव प्रकृति है, आदमी का स्वभाव आत्मा है। शेर को सब कुछ वही करना है जो प्रकृति उसे सिखा रही है लेकिन तुम अगर वही सब करने लग गये जो प्रकृति तुम्हें सिखा रही है, तो तुम कहीं के नहीं रहोगे। फिर तुम्हें दाँत भी माँजने की क्या ज़रुरत है। प्रकृति में तो कोई दाँत नहीं माँजता। ठीक है।

प्र: शेर सिर्फ़ प्रकृति है, हम प्रकृति प्लस बहुत कुछ हैं।

आचार्य: हाँ, तुम प्रकृति प्लस बहुत कुछ हो और जो बहुत कुछ है वही तुमको चाहिए। उसको तुम इतना ज़्यादा प्यार करते हो कि उसको पाने के लिए तुम प्रकृति को छोड़ने तक को तैयार हो, तो इसीलिए तुम्हारा जो केंद्र है — सही-सही कहा जाए तो — प्रकृति से ऊपर उठकर आत्मा है।

आदमी में और शेर में ये अन्तर है, या आदमी और किसी भी जानवर में, पेड़ में, किसी भी चीज़ में, ये अन्तर है, ठीक है। तो नेचुरल वगैरह कहने का जो तर्क है, वो कोई बढ़िया तर्क नहीं है कि फ़लानी चीज़ तो नेचुरल है जी, ये तो सभी करते हैं।

हाँ, नेचुरल तो फिर ये भी नहीं है कि तुम मल त्याग करने के बाद पानी लेकर के शौच करो। तुमने किसी जानवर को ऐसा करते देखा। जानवर तो मल त्याग करते हैं, आगे बढ़ जाते हैं। तुम क्यों पानी माँगते हो और टॉयलेट पेपर माँगते हो।

तो नेचुरल-नेचुरल की जो बात है वो व्यर्थ है। आप समझ ही नहीं रहे कि इंसान माने क्या, इंसान को प्रकृति भर से सन्तुष्टि नहीं मिलेगी। न प्रकृति को बहुत भोगकर उससे कुछ मिलना है और न प्रकृति का बहुत विरोध करके उसे कुछ मिलना है। प्रकृति उसके लिए बहुत ज़्यादा प्रासंगिक है ही नहीं। उसे कुछ और चाहिए। लेकिन प्रकृति उसके लिए उपयोगी हो सकती है, अगर वो (उसका सदुपयोग करे)।

प्र: उसका वो सदुपयोग करे।

आचार्य: अगर वो सदुपयोग करे।

प्र: आचार्य जी आख़िरी जिज्ञासा।

आचार्य: सदुपयोग क्या है प्रकृति का?

प्र: कि इसका अवलोकन करें।

आचार्य: देखो प्रकृति को। ऑब्जर्व इट, वॉच इट (इसका निरीक्षण करो, इसका अवलोकन करो)। विटनेस (साक्षी) करो प्रकृति को।

हमारा और प्रकृति का जो सही रिश्ता है वो यही है कि देखो। प्रकृति का पूरा खेल है, बहाव है, एक नाच है, एक प्रवाह है जैसे यहाँ गंगा का प्रवाह है। उसे दूषित मत करो, उसके दृष्टा बनो।

प्र: जी। जो एक एकदम ढीठ तर्क आता है, वो ये आता है मन में कि आर वी ओबलाइज्ड टू गो आफ्टर देट (क्या हम उसके पीछे जाने के लिए बाध्य हैं)? अगर मैं शेर ही बनकर जीना और मरना चाहूँ तो...

आचार्य: तो कर लो तुम्हें कौन रोक रहा है, तुम्हारी मर्जी।

प्र: लोगों को बहुत बुरा लगता है जब उन्हें स्प्रिचुअल (आध्यात्मिक) प्रिन्सिपल्स (सिद्धान्त) थोपे जाते हैं। वो बोलते हैं हम खुश हैं जी।

आचार्य: आप खुश हैं अगर बिलकुल जानवरों जैसी ज़िन्दगी जीने में, बिलकुल कोई ओब्लीगेशन (बाध्यता) नहीं है। कोई आपको मज़बूर नहीं कर सकता ऊपर उठने के लिए। उल्टा है बल्कि, आप चीख रहे हों, चिल्ला रहे हों, भीख माँग रहे हों कि आपको ऊपर उठना है, तब भी वो जो ऊपर है, वो आपको मिल जाए इसकी कोई गारंटी नहीं। ये तो बात ही उल्टी है।

ये नीचे वाले बोल रहे हैं कि नहीं-नहीं हम ऊपर नहीं जाना चाहते और ऊपर जो बैठा हुआ है एंट्रेंस टेस्ट (प्रवेश परीक्षा) लेने वाला, वो कह रहा है, ‘तुम ऊपर आना भी चाहो तो तुम्हें आने कौन देगा?’

ऊपर तो जो बहुत ज़्यादा इच्छुक लोग होते हैं, जो क़ीमत चुकाने को तैयार होते हैं, मेहनत करने को तैयार होते हैं, जिनमें ईमानदारी होती है और एक जलती हुई इच्छा होती है बिलकुल, कि मुझे वहीं ऊपर पहुँचना है सिर्फ़ वो पहुँच पाते हैं। ऐसा थोड़े ही है कि ज़बरदस्ती किसी को ऊपर खींच लिया जाएगा।

ये ऐसे समझ लो कि जैसे कोई एंट्रेंस एग्जाम (प्रवेश परीक्षा) ही ले लो तुम — अब हम हिंदुस्तान में हैं — तो आईआईटी, जेईई की बात कर लो या यूपीएससी, सिविल सर्विसेज की बात कर लो। अभी ऐसा सा है कि जैसा कोई बोले कि मुझे ज़बरदस्ती आइएस क्यों बनाया जा रहा है, या अब मुझे ज़बरदस्ती आईआईटी में एडमिशन (प्रवेश) क्यों दिया जा रहा है।

अरे! ज़बरदस्ती कौन दे रहा है। तुम लेना भी चाहो तो भी बहुत कम सम्भावना है कि तुम्हें मिलेगा एडमिशन। लेकिन इन साहब का क्या कहना है कि कोई ज़बरदस्ती है क्या कि आइएस बनो। अरे! मैं नहीं। अरे! तो मत बनो, तुम कुछ मत बनो। तुम बिलकुल दुनिया की धूल बनकर इधर-उधर घूमते रहो, तुम्हें कौन रोक रहा है। ठीक है।

कोई ज़बरदस्ती नहीं है। बिलकुल ज़बरदस्ती नहीं है। अब ये तो अपने अक़्ल की बात है कि आपको पता हो कि आपको क्या पाना है। ये उदाहरण ग़लत न समझा जाए। मैं बिलकुल नहीं कह रहा हूँ कि हर आदमी के लिए ज़रूरी है सिविल सर्विसेज पार करना या आईआईटी में प्रवेश करना। सिर्फ़ उदाहरण के लिए बताया है।

भाई, जो घुसना भी चाहते हैं उनको भी घुसने को नहीं मिल रहा और यहाँ एक आदमी चिल्ला रहा है कि मैं नहीं घुसना चाहता मुझे ज़बरदस्ती क्यों घुसेड़ा जा रहा है।

प्र: जी, इसमें एक भाव ये भी है कि जिस दिन मैं घुसना चाहूँगा घुस जाऊँगा।

आचार्य: हाँ, जिस दिन तुम घुसना चाहोगे उस दिन तुम्हें पता चलेगा कि घुसना कितना मुश्किल है। ये तो अभी तुम बाहर अपना लफ्फ़ाज़ी उड़ा रहे हो, मज़े ले रहे हो तो तुमको लग रहा है कि (सब आसान है)।

प्र: आचार्य जी, हम सबने अधिकतर जो प्राकृतिक सुख है उन्हें ही भोगा है, उन्हीं का रस लिया है और उनके उस सुख के अलावा कुछ पता नहीं है।

आचार्य: नहीं, ये तो झूठ बोल रहे हो न, यहाँ मेरे सामने खड़े हो तुम्हें कौन सा प्राकृतिक सुख मिल रहा है। प्राकृतिक सुख क्या होते हैं? खाना मिल गया, सो गये, सेक्स (सम्भोग) कर लिया। ठीक है।

किसी को दबा दिया, अपने कबीले पर अपनी सत्ता जमा ली। जानवरों को देख लो, समझ जाओगे कि प्राकृतिक सुख क्या होते हैं। तुम अभी मुझसे बात कर रहे हो, मुझे नहीं लगता कि दुख पाने के लिए मुझसे बात कर रहे हो। कुछ तुम्हें रस मिल रहा होगा तभी बात कर रहे हो।

ये जो चीज़ है न, ये प्राकृतिक नहीं है। यही तुमको इशारा दे देगी कि आदमी को वास्तव में क्या चाहिए। अगर तुम्हें वही सब कुछ चाहिए होता, जो प्रकृति तुम्हें देती है तो तुम बार-बार मुझसे बात करने के लिए क्यों आते। यहाँ जो तुम्हें मिल रहा है, वो प्रकृति से थोड़ा आगे का है। प्रकृति के विपरीत नहीं, विरोध में नहीं, प्रकृति से थोड़ा आगे का है। यही हम सबको चाहिए किसी-न-किसी तरीक़े से।

प्र: मेटा प्रकृति।

आचार्य: मेटा प्रकृति, प्रकृति से परे।

प्र: मैं आचार्य जी इसलिए पूछ रहा था वो प्रश्न, क्योंकि अगर आप उधर क्या सुख है, क्या आनन्द है, उस पर थोड़ा बोल देते तो लोगों को आकर्षण होता।

आचार्य: जो सुन रहे होंगे, उनको मिल गया वो आनन्द। मैं उस पर बोल क्या दूँ। मैं आनन्द पर बोलूँ क्या, वो आनन्द मैंने दे दिया। जो ध्यान से सुन रहे हैं उनको वो आनन्द मिल गया। वो समझ गये कि ये वो चीज़ है जो प्रकृति नहीं दे सकती।

अब देखो, हम तुम बात कर रहे हैं, वहाँ वो बानर भाई, बैठे हुए खुजा रहे हैं पीठ को, वो देखो (बन्दर की ओर इशारा करते हुए)। वो अपना सुख ले रहा है। अब ये तुम्हें तय करना है कि मैं यहाँ खड़ा हूँ तो तुम उस बन्दर की तरह मेरी तरफ़ पीठ करके बैठना चाहते हो या मुझसे बात करना चाहते हो।

समझ में आ रही है बात?

वो प्रकृति है। उसको इसी में मज़ा आ रहा है कि मैं इधर नीचे देख रहा हूँ, नीचे क्या देख रहा है, कि कहीं कोई केला पड़ा हो या कहीं कोई बन्दरिया दिख जाए। तो तुम्हें अगर बन्दर बनकर ही जीना हो तो तुम वहाँ बैठो मुझसे दूर। लेकिन वहाँ दूर बैठोगे तो तुम्हें ये फ़ायदा ज़रूर होगा कि कहीं तुम्हें केला मिल जाएगा और कहीं तुम्हें बन्दरिया मिल जाएगी।

दिख रहा है वो बन्दर, वो देखो भाग भी गया। लेकिन उस बन्दर की कोई रुचि नहीं है इस बातचीत में। वो बन्दर मुझसे आकर बात करना ही नहीं चाहता। जितने भी बन्दर होंगे दुनिया में, उनकी इस बातचीत में कोई रुचि नहीं होगी। वो भागेंगे छोड़-छोड़कर, भागेंगे। देखो, भाग गया।

प्र: गुरु से दूर जब भी भागते हैं तो प्रकृति (में लिप्त होते हैं)

आचार्य: या तो केला या बन्दरिया। और अगर बन्दरिया है तो, या तो केला या फिर बन्दर। (मुस्कुराते हुए)

कोट्स अगर तुम्हें वही सब कुछ चाहिए होता, जो प्रकृति तुम्हें देती है तो तुम बार-बार मुझसे बात करने के लिए क्यों आते यहाँ। जो तुम्हें मिल रहा है वो प्रकृति से थोड़ा आगे का है।

आप खुश हैं अगर बिलकुल जानवरों जैसी ज़िन्दगी जीने में, बिलकुल कोई ओब्लीगेशन (बाध्यता) नहीं है। कोई आपको मज़बूर नहीं कर सकता ऊपर उठने के लिए

प्रकृति में जो कुछ भी यूँहीं सहज है, सुलभ है, वो वो चीज़ नहीं है जो तुम चाह रहे हो।

अगर प्रकृति में जो कुछ सहज-सुलभ है उसको तुमने जान लिया, समझ लिया, तो ज़रूर तुमको वो मिल सकता है जो तुम चाहते हो

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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