बन्दर और मगरमच्छ की दोस्ती || पंचतंत्र पर (2018)

Acharya Prashant

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बन्दर और मगरमच्छ की दोस्ती || पंचतंत्र पर (2018)

आचार्य प्रशांत: पंचतंत्र में एक कहानी आती है, छोटी-सी, सरल, साधारण, उसको आधार बनाकर प्रश्न पूछा है। कहानी है बंदर और मगरमच्छ की। कहानी कहती है कि एक जामुन के पेड़ पर नदी किनारे बंदर रहता था। बंदर को नाम भी दे दिया गया है, ‘रक्तमुख’। लाल-लाल मुँह था न, तो उसको क्या नाम दे दिया गया है? रक्तमुख।

नदी से निकलकर, वहाँ पेड़ के नीचे कभी-कभार एक मगरमच्छ आ जाया करे। मगरमच्छ को नाम दिया गया है, ‘करालमुख’। कराल—भयानक—विकराल होता है न? करालमुख। तो बंदर देखे, मगरमच्छ नीचे आकर बैठा हुआ है, तो उसको ऊपर से वो कुछ मीठे जामुन फेंक दिया करे। मगरमच्छ बड़ा प्रसन्न, कहे, “बढ़िया है, मीठे जामुन।” तो ऐसे दोनों की दोस्ती हो गई।

बातचीत आगे बढ़ने लगी। एक-दूसरे को अपनी बातें भी बताने लगे। तो बंदर जो फेंका करे जामुन, तो उसमें से कुछ जामुन मगरमच्छ बचा ले और वो ले जाए और वो अपनी पत्नी को दिया करे। पत्नी अपना जामुन खाए। अब पत्नी को क्या लेना-देना बंदर से, उसको तो... जामुन ही मीठे, बढ़िया जामुन।

तो एक दिन पत्नी को ख़्याल आया, बोली, "जो बंदर रोज़ इतने मीठे जामुन खाता है, उसका कलेजा कितना मीठा हो गया होगा। हम तो दो-चार ऐसे मीठे जामुन पाते हैं। वो बंदर तो रहता ही जामुन के पेड़ पर है, मीठे-मीठे जामुन खाता है। उसका कलेजा कितना मीठा हो गया होगा!" तो मगर को बोलती है, "ऐसा करो, वो बंदर ही ले आओ। उसका कलेजा खाना है, बड़ा मीठा होगा। ये जामुन क्या लेकर आते हो? बंदर का मीठा कलेजा खाना है।"

तो मगरमच्छ बोलता है, "तू पगला गई है? दोस्त है मेरा। मुझ पर विश्वास करता है। मुझे जामुन खिलाता है। तेरे लिए भी मैं ले आया। तू कहती है कि उसका कलेजा खाना है!"

पत्नी बोली, "मैं समझ गई, वो वानर है ही नहीं, कोई वानरी ही है।" और फिर बड़े विस्तार में पत्नी ने जो तर्क दिए, पंचतंत्र में उनका उल्लेख आता है। बोलती है, "मैं समझ गई कि क्यों तुम्हें आजकल रात में नींद नहीं आती, क्यों मुझमें तुम रुचि कम दिखाते हो। वो वानर है ही नहीं, वो वानरी है। तभी तुम वहाँ इतना समय बिताते हो। तभी वो तुमको इतने मीठे जामुन देती है। और तभी तुम इंकार कर रहे हो कि उसको मारोगे नहीं।"

मगर ने कहा, "तू किन कल्पनाओं में चढ़ गई? क्या बातें कर रही है?"

बोली, "कल्पना नहीं, मैं तो बिलकुल जानती हूँ, बात ही यही है। तुम्हारा उस वानरी से आजकल सम्बंध प्रसंग चल रहा है। कल तक उसका कलेजा ले करके नहीं आए तो मैं प्राण त्याग रही हूँ।"

उसने लाख समझाया, वो काहे को माने। बोली, “नहीं, अब उसका कलेजा लेकर आओ!”

मगर बड़ा परेशान, बंदर के पास गया, उदास। बंदर ने पूछा, "क्या हो गया, भाई? "

तो मगर बोला, "वो मेरी पत्नी बोल रही है कि तुमसे मिलना चाहती है।" अब पूरी बात क्या बताए!

तो बंदर बोला, “ठीक है, मिल लेते हैं।”

तो मगर बोला, "आओ, पीठ पर बैठ जाओ हमारी, एक भीतर रेत का टापू है, उसी पर हम लोग रहा करते हैं। तुम्हें ले चलता हूँ।"

तो बंदर को बिठा करके मगरमच्छ ले चला। पर अब वो उतना भी शातिर और धूर्त नहीं था, बीच में उसके मन की बात निकल गई। बोलता है, “इसलिए ले जा रहा हूँ क्योंकि मेरी बीवी तुम्हारा कलेजा खाना चाहती है।” बंदर की धुकधुकी बंद। खैर, किसी तरह से बुद्धि को संयमित रखकर युक्ति निकाली।

बंदर मगरमच्छ से बोला, "अरे, इतनी सी बात! तुम्हें कलेजा चाहिए था। पहले बताते न। कलेजा तो मैं पेड़ के कोटर में रख देता हूँ रोज़। वहाँ सुरक्षित रहता है। वहीं रखा हुआ है। वापस ले चलो, वहाँ से दे दूँगा तुमको। ले जाना, भाभी जी को खिलाना।"

तो मगर बोला, "ये बात ठीक है, चलो वापस मुड़ते हैं।"

वो उसको लेकर गया और जैसे ही तट पर पहुँचा, बंदर भागकर पेड़ पर चढ़ गया। नीचे से मगर बोलता है, "वो कलेजा तो दे देते!"

बन्दर बोलता है, "धूर्त, नीच, मक्कार, जोरू के ग़ुलाम! तू धूर्त ही नहीं है, तू मूर्ख भी है।" और ऐसा करके उसने मगर को वहाँ से भगा दिया।

कहानी आगे भी बढ़ती है। भगाया ही नहीं था, और सीख भी दी थी और कहानी भी सुनाई थी। पर अभी जो सवाल आया है, वो जितनी हमने कहानी सुनी, उसी से सीमित है।

प्रश्नकर्ता: वानर ने समझदारी दिखाकर अपनी जान तो बचा ली, पर अपना मित्र भी खो दिया। मगरमच्छ वानर को नुकसान तो नहीं पहुँचाना चाहता था, बस पत्नी की ज़िद और दबाव में आकर उसने कोशिश की थी। मगर वो दोनों तरफ से मारा गया, दोस्ती भी गई और पत्नी की नाराज़गी भी क़ायम रही।

कहानी वानर की समझदारी दर्शाती है, पर मुझे तो मगर की दयनीय स्थिति दिखाई दे रही है। समझ में नहीं आ रहा कि क्या सीखूँ, वानर की समझदारी, मगर की लाचारी या कि कोई ज़्यादा बड़ी सीख कि मित्रता सोच-समझकर करनी चाहिए। पर मित्रता तो बस हो जाती है, जैसे वानर और मगर की हुई थी।

मगर मजबूर हो गया अपनी स्त्री के आगे। और ये सब तो रोज़ ही सबके जीवन में देखने को मिलता है। कृपया प्रकाश डालें।

आचार्य: अगर रोज़ ही ये देखने को मिलता है तो इन तीनों किरदारों में जो भी हो तुम, अपने किरदार अनुसार सीख ग्रहण कर लो।

कौन है वानर? कौन है मगर? और कौन है उसकी पत्नी? निश्चित रूप से ये जंगल के पशुओं की बात तो नहीं हो रही है। ये तीनों तुम्हारे ही भीतर बैठे हुए हैं। ये तीनों आदमी के भीतर की प्राकृतिक वृत्तियों के प्रतिनिधि हैं।

पंचतंत्र पढ़ोगी तो देखोगी वहाँ तो वानर बार-बार मनुस्मृति का हवाला दे रहा है, मगर को समझाने के लिए संस्कृत में श्लोक उच्चारित कर रहा है। अब ज़ाहिर-सी बात है कि जंगल का मगर और जंगल का वानर संस्कृत तो नहीं पढ़ते।

तो कौन है ये वानर? कौन है ये मगर? ये तुम ही हो। ये हम सब हैं। हम सबके भीतर ये तीनों बैठे हुए हैं। वानर कब तुम? वानर तुम तब, जब तुम भूल जाओ कि किससे मित्रता कर रहे हो, जब तुम भूल जाओ कि आदमी का मन बड़ा खंडित होता है, बड़ा टुकड़ा-टुकड़ा होता है। सतह पर वो ज्ञान और सीख भले ग्रहण कर ले, नीचे-नीचे, भीतर-भीतर उसकी पुरानी पाशविक वृत्तियाँ क़ायम रहती हैं।

वानर के सामने मगर का एक चेहरा है और पत्नी के सामने मगर का दूसरा चेहरा, क्योंकि पत्नी से तो सम्बंध ही देह का है न। जिससे देह का सम्बंध होता है, उसके सामने आते ही देह में बसी सब पुरानी वृत्तियाँ पुनर्जागृत हो जाती हैं।

मित्र से देह का सम्बंध नहीं होता, तो मित्र के सामने हो सकता है कि तुम आत्मस्थ हो करके रहो। गुरु से देह का सम्बंध नहीं, तो गुरु के सामने भी हो सकता है कि तुम आत्मस्थ रहो, धीर रहो, संयमित रहो, जागृत रहो। लेकिन इसका ये अर्थ नहीं है कि तुम जागृत हो ही गए, इसका ये अर्थ नहीं है कि तुम अपने भीतर के सारे अंधेरे के पार हो गए; इसका अर्थ बस ये है कि तुम्हारे भवन के एक कोने में उजाला हो गया है। अंधेरा अभी क़ायम है। रोशनी से जैसे ही दूर जाओगे, अंधेरा दोबारा दिखेगा।

बंदर एक सहृदय मित्र है। वो निष्कपट भाव से बिना किसी माँग के अपने दोस्त को तोहफ़े इत्यादि देता रहता है; तोहफ़े भी देता है, सीख भी देता है। उसके सामने मगर के मन में ज़रा प्रकाश है। लेकिन उसके सामने से जैसे ही हटता है, जैसे ही अपने घर पहुँचता है, बीवी के सामने आता है, मित्र मगर मगरमच्छ हो जाता है।

अगर उसके भीतर से पाशविकता पूरी तरह से मर ही गई होती, तो वो बार-बार लौट करके अपने घर क्यों जाता? इतनी सहृदयता देखी उसने बंदर के साथ, इतनी मैत्री देखी, इतने श्लोक, इतने संस्कृत, इतना ज्ञान, पर बंदर से मुलाक़ात के हर अवसर के बाद मगर अन्ततः लौटकर कहाँ जाता था? अपनी बीवी के पास ही तो जाता था न? तो शरीर की वृति तो मरी नहीं थी। बीवी से और क्या सम्बंध है?

रिश्ता समझना मगर और वानर का। वानर के सामने है, तब तक निष्काम मैत्री का सूरज उगा हुआ है। बहुत बढ़िया बात! लेकिन मगर भी कह रहा है कि उस रोशनी में हमें सतत नहीं रहना है। कुछ समय के लिए रोशनी में नहा लेंगे, लेकिन बस कुछ ही समय के लिए, और उसके बाद वापस लौट जाएँगे अपने उन्हीं अंधेरे कीचड़ों में; वापस लौट जाएँगे अपने उसी रेतीली दलदल में।

कल आप भी वापस लौट जाएँगे। कुछ लोग तो बहुत आतुर हैं जल्दी से वापस लौटने को। फिर? फिर वहीं पहुँच जाओगे जहाँ माँग की जाएगी कि “जाओ, अपने दोस्त का कलेजा निकालकर ले आओ!”

और मगर ने ऐसा नहीं कि पत्नी को समझाया नहीं, बहुत समझाया। पर जब मादा मगर की बात हो रही है, तो किसकी बात हो रही है? प्रकृति की बात हो रही है। और प्रकृति अपने तरीक़े जानती है।

कल हम बात कर रहे थे कि प्रकृति बस इतना चाहती है कि तुम अपने शरीर को बचाओ और अपने ही जैसे नए शरीर उत्पादित करो। देखो कि मगर की पत्नी ने मगर पर दो इल्ज़ाम क्या लगाए? पहला, “ये थोड़े-बहुत मीठे जामुन क्या लाते हो? अरे, हम मगर हैं। हम माँस खाते हैं। हमारे लिए मीठा माँस लेकर आओ। छोटा जामुन नहीं, पूरा कलेजा ले करके आओ।”

हमने क्या कहा था? प्रकृति क्या चाहती है? भोजन। तो मगर की पत्नी ने क्या माँग की? कि ज़रा भोजन का और इंतज़ाम करो न। और दूसरी बात क्या करी मगर की पत्नी ने? "आजकल तुम मुझमें रुचि ज़रा कम लेते हो, रात में तुम्हें नींद नहीं आती।" ये बात समझ रहे हो न इशारा किधर है? शारीरिक सम्बंध नहीं बन पा रहे हमारे-तुम्हारे। और क्यों है शारीरिक सम्बंध की माँग? ताकि प्रकृति का दूसरा उद्देश्य पूरा हो सके।

पहला उद्देश्य क्या है? ये शरीर बचा रहे। और दूसरा उद्देश्य होता है ऐसे ही और शरीर पैदा होते रहें। और पत्नी ने दोनों ही तीर चला दिए तुरंत। “इस शरीर के लिए लाओ कलेजा, और देखो तुम हममें रुचि नहीं दिखाते हो, निश्चित रूप से कहीं और नैन-मटक्का चल रहा है तुम्हारा।”

मगर फँस गया। वो सीधा-साधा आदमी। उसने ये तो सोचा ही नहीं था कि बीवी ऐसा क़िस्सा भी चला देगी, ऐसा गुब्बारा फुला देगी। वो बोल रही है, “वो वानर है ही नहीं जहाँ तुम जाते हो, वो वानरी है। तभी तो मीठे-मीठे फलों का खेल चल रहा है। हमें शक न हो इसीलिए दो-चार जामुन तुम हमें भी ला देते हो।”

मगर ने कहा, “ऐसा तो ख़्याल ही नहीं आया था!” वो कुछ समझाए, कुछ करे, लेकिन कुछ नहीं, वो बोली, “हमारा तुम्हारा रिश्ता ही ख़त्म! कल अगर कालेज ले करके नहीं आए तो मैं प्राण त्याग रही हूँ।”

और इस मौक़े पर पंचतंत्रकार विष्णु शर्मा दिखाते हैं कि मगर भी एक संस्कृत का श्लोक मार देता है। श्लोक में वो कह रहा है कि “मूर्ख स्त्री के हठ से कोई नहीं जीत सकता, तो सिर ही झुका देना चाहिए।” मूर्ख स्त्री से आशय किसी लिंग से नहीं है, मूर्ख स्त्री से आशय है— मूर्ख प्रकृति। वो प्रकृति पुरुषों में भी पाई जाती है, स्त्रियों में भी पाई जाती है।

तो मूर्ख स्त्री के हठ से कोई नहीं जीत सकता। एक बार उसके मन में ये बात घर कर गई कि पति का इधर-उधर कुछ चक्कर चल ही रहा है, तो अब उसको समझाया नहीं जा सकता। अब तो वो जो बोल रही है, वो करना ही पड़ेगा। वो क्या बोल रही है? “कलेजा चाहिए।”

तुम्हारे भीतर भी वो स्त्री बैठी है, तो उससे सावधान रहना। तुम्हारे भीतर अगर वो मगर बैठा है, तो अपने ऊपर ज़रा दया करना। दोनों ओर से मारा गया न मगर। कहानी तो इतना ही बताती है कि बंदर ने मगर की चाल पकड़ ली और कुछ युक्ति करके अपनी जान बचा ली। कहानी ये तो बताती ही नहीं है कि जब मगर घर लोटेगा, तब क्या होगा। अभी तो जूते चलेंगे। मगर की खाल उतरेगी। उससे हैंडबैग बनेगा। ये पता है न? मगर की खाल से बढ़िया बैग बनते हैं। वो लेकर शॉपिंग (ख़रीददारी) करने जाएगी।

अगर मगर हो तुम—और हम सब हैं मगर। जिसके पास देह है, वो वानर भी है, नर मगर भी है और मादा मगर भी है। अगर नर मगर हो तुम, तो अपनी हालत पर थोड़ा रहम खाओ। क्यों जानते-बूझते ग़लत वृत्तियों के समर्थन में खड़े हो जाते हो?

मादा मगर कौन है? एक झूठी, ग़लत वृत्ति। वो वृत्ति जिसका बोध से, प्रकाश से कोई लेना-देना नहीं, जो सिर्फ़ अपने संकीर्ण स्वार्थ जानती है। तुम क्यों उसके साथ खड़े हो जाते हो? तुम क्यों उसकी माँगें पूरी करने के लिए रज़ामंद हो जाते हो? वो मचाती रहे जितना शोर, उसे मचाने दो। तुम ‘हाँ’ मत करो। वो जो भी बोलती रहे, वो बोले। “ठीक है, तू बोलती रह।” अधिक-से-अधिक क्या कहती है कि कर लेगी? कहती है, “प्राण दे दूँगी।” दे देगी क्या प्राण?

जामुन माँग रही है, कलेजा माँग रही है। क्या बचाने के लिए माँग रही है? शरीर। जिसको शरीर से इतना मोह हो, जिसको जीवन के तमाम रसों और अनुभवों से इतना मोह हो कि कह रही है कि और लाओ न खाने को! जो अपने संकीर्ण स्वार्थों में इतनी लिप्त हो, वो देह त्याग देगी क्या? कभी न त्यागे देह।

पर मगर ने इतनी बुद्धि ही नहीं लगाई। अगर मगर हो तुम, तो व्यर्थ अपनी ही वृत्तियों के शिकार मत बन जाओ। और अगर मादा मगर हो तुम, तो फिर तुम्हें क्या सलाह दी जाए! क्योंकि कोई भी सलाह सुनने को तुम तैयार ही नहीं होगे। जिस हद तक तुम बंदर हो, तुम्हारे लिए इस कहानी में सीख है और तुम्हारे लिए मेरे पास सलाह है।

अगर तुम बंदर हो तो सदा याद रखना कि तुम्हारे सामने जो मगर बैठा है, वो तुम्हारे सामने तो साफ़ है; सूरज के नीचे है और रोशन है। पर थोड़ी ही देर बाद वो वापस अपने गंदे कीचड़ में जाएगा, जहाँ उसकी आदिम वृत्तियाँ वास करती हैं। वो दोबारा अपने अंधेरे, घिनौने घर में जाएगा जहाँ उसका पुराना, बहुत-बहुत-बहुत पुराना परिवार निवास करता है। और उस पुराने परिवार के सामने, उन आदिम वृत्तियों के सामने किसी रोशनी की, किसी मित्र की, किसी गुरु की नहीं चलती।

ये सदा याद रखना होगा। झाँसे में मत आ जाना। ये झाँसा मगर नहीं दे रहा है वानर को; वास्तव में जब तक मगर वानर के सामने है, वो स्वच्छ मन का ही है। मगर जब वानर के सामने है, तब उसे वास्तव में धूर्तता का विचार नहीं आता है। ऐसा नहीं है कि बंदर के सामने बैठ करके मगरमच्छ भला आदमी होने का पाखंड करता है। जब तक वो बंदर के सामने है, मगर वाक़ई भला हो जाता है। लेकिन उसकी भलाई सिर्फ़ कब तक है? जब तक वो बंदर के सामने है। जब तक वो बंदर के सामने है, वो वाक़ई भला आदमी है।

मित्र के साथ गपशप कर रहा है, इधर-उधर की बातें कर रहा है, धूप ले रहा है। बैठे हैं अपना बढ़िया। लेकिन वो सदा तो नहीं रहेगा न बंदर के साथ। पीछे उसका कोई इंतज़ार कर रहा है। कौन इंतज़ार कर रहा है? प्रकृति इंतज़ार कर रही है। दुनिया उसका इंतज़ार कर रही है। वो पलट करके वापस अपनी पुरानी दुनिया, अपने परिवार, अपनी पत्नी, अपनी वृत्ति में जाएगा। और जब वो वहाँ जाएगा, तब वो वहीं का हो जाएगा। उसके बाद उसकी दुनिया कहेगी कि जाओ और अपने उस रोशन दोस्त का कलेजा काटकर ले आओ, तो भी उसे राज़ी होना पड़ेगा। मजबूर होकर ही सही, लेकिन राज़ी होना पड़ेगा। ये बात बंदर भूल गया था।

जिस हद तक तुम बंदर हो, ये बात याद रखना, अतिशय विश्वास मत कर लेना। सिर्फ़ इसलिए कि कोई तुम्हारे सामने भला आदमी है, ये मान ही मत लेना कि वो सदा भला है। हाँ, तुम्हारे सामने वो सुंदर है, भला है, मौन है। और वो वाक़ई सुंदर है, भला है और मौन है, जब तक तुम्हारे सामने है।

मैं तो कहा करता हूँ कि आप लोग जब मेरे सामने बैठे होते हो, काश! आप मेरी नज़रों से अपने-आपको देख पाओ। आप बहुत सुंदर दिखते हो। सब भोले होते हैं। सबके चेहरे शांत, मौन, चुप। पर मैं बंदर वाली भूल नहीं करता; मैं ये नहीं मान लेता कि आप यहाँ से हटकर भी ऐसे ही रहोगे।

(सामने बैठे श्रोता की ओर इंगित करते हुए) कल ये बंदर वाला सवाल पूछ रहा था। कह रहा था कि "मुंबई विश्रांति मिली, वहाँ वाक़ई विश्रांति मिली, बड़ी शांति! लगा कि सब जीवन में अब व्यवस्था आ जाएगी, साफ़ हो जाएगा, लेकिन ज्यों ही दिन बीते, पुरानी अराजकता वापस आ गई।" ये देख रहे हो न! ये वही ग़लती कर रहा है जो बंदर ने करी थी। बंदर सोच रहा है कि मगर उसके सामने शांत है और भला है तो मगर सदा ही भला और शांत है।

नहीं, तुम्हारे भीतर एक मगर बैठा है, वो मेरे सामने आकर शांत हो जाता है, पर वो सदा शांत नहीं रहेगा। पीछे कोई है जो इंतज़ार कर रहा है, और उसके साथ तुमने देह का बड़ा घनिष्ठ रिश्ता बना रखा है। तुम उसके सामने जब भी पड़ोगे, मजबूर हो जाओगे।

इसीलिए कल तुम्हें क्या सलाह दी थी मैंने? बहुत वक़्त लगेगा, बहुत वक़्त लगेगा। सुसंगति में आ करके भीतर सुविचार उठते हैं, इसका अर्थ ये नहीं है कि तुम सुविचारी हो गए, इसका अर्थ बस ये है कि सुसंगति में सुविचार उठते हैं। और जब वो सुसंगति नहीं रहेगी, तो तुम्हारे सुविचार भी ग़ायब हो जाएँगे।

किसी भ्रम में मत रहना। ये मत सोचना कि वो सुविचार तुम्हारे हैं। न! हैं तुम्हारे, पर अभी बड़े कमज़ोर हैं। वो तभी उठते हैं जब कोई बाहर वाला आ करके उनको सहारा देता है, अनुकूल वातावरण और पोषण देता है। तुम्हारे वो सुविचार इस सत्संग के माहौल में उठते हैं, ज्यों ही ये माहौल छूटेगा, देखना कैसे-कैसे विचार उठेंगे।

उठे थे न? उस शिविर और इस शिविर के बीच में न जाने कितने खाइयों, कितने रसातलों से गुज़रकर आए हो, जैसे दो शिखर हों और उनके बीच हो गहरी खाई। एक शिखर वो था, एक शिखर ये है, बीच में खाई, खाई की कीचड़।

बंदर वो जो न सिर्फ़ सत्य का मीठा फल पा गया है, बल्कि उस फल को बाँटने के लिए आतुर भी है, क्षमता भी रखता है। वो बंदर तुम सबके भीतर मौजूद है। हाँ, किसी का बंदर अभी ज़रा छोटा है और किसी का बंदर थोड़ा बड़ा है। कोई यहाँ ऐसा नहीं है जिसे वो मीठा जामुन मिला न हो। मीठा जामुन क्या है? वो सच का मीठा फल है। सबको ही वो फल उपलब्ध है।

कहानी तुम्हें सिखाती है कि “अरे बंदर! जब उस फल को बाँटना, तो जिसको बाँट रहे हो, उसकी ओर से इतने आश्वस्त न हो जाना कि लापरवाह ही हो जाओ।”

मुक्ति इतनी सस्ती चीज़ नहीं है कि दो-चार फल खाकर मिल जाए, तत्काल ही मिल जाए। उसके लिए तो अपना पूरा सर्वस्व अर्पित करना पड़ता है। जीवन अपना पूरा, सारे संसाधन अपने पूरे अर्पित करने पड़ते हैं। और संसाधनों में सबसे बड़ा संसाधन क्या है तुम्हारे पास? कौन-सा संसाधन है जो अभी ख़त्म हो जाए तो तुम बचोगे ही नहीं?

बाक़ी संसाधन तुम्हारे ख़त्म हो जाएँ तो फिर भी तुम रहोगे; तुम्हारा पैसा अभी सब ख़त्म हो जाए तो रोओगे बहुत, पर तुम रहोगे तो। एक चीज़ ऐसी है जो अगर तुम्हारी अभी ख़त्म हो जाए तो और नहीं रहेगी। तो तुम्हारा सबसे क़ीमती संसाधन क्या हुआ? समय। समय तुम्हारा सबसे क़ीमती संसाधन है क्योंकि बाक़ी सब संसाधन अगर ख़त्म हो गए तो दोबारा अर्जित कर लोगे, अगर समय ही तुम्हारा ख़त्म हो गया तो…? खेल ख़त्म।

तो मुक्ति सस्ती चीज़ नहीं है। वो तुम्हारा सबसे क़ीमती संसाधन माँगती है, वो तुम्हारा समय माँगती है। तो जल्दी से किसी की आध्यात्मिक उत्सुकता देख करके आश्वस्त मत हो जाना, सीधा सवाल पूछना, “ये व्यक्ति समय कितना देना चाहता है?” और जो समय नहीं दे सकता, उसे क्या ख़ाक मुक्ति चाहिए?

अध्यात्म चूँकि सबसे ऊँची चीज़ है, इसीलिए वो तुम्हारा सबसे क़ीमती संसाधन माँगती है। कौन-सा संसाधन? समय। कितना समय दे रहे हो? या तुम्हारा समय किन्हीं दूसरों की सेवा में अर्पित हो रहा है—एक घंटा बंदर के साथ और तेईस घंटा श्रीमती मगर के साथ?

तो फिर तो तुमने साफ़ दिखा दिया कि तुम किधर के हो। जिधर को समय दे रहे हो, तुम उधर के हो। तुम्हारा जीवन किधर का है, इस बारे में सोच-विचार करने की ज़रूरत ही नहीं है। बस एक चीज़ देख लो – समय किसको दे रहे हो।

दिन के चौबीस घंटे होते हैं तुम्हारे पास, वो किसको दे रहे हो? किसकी सेवा में अर्पित किए दे रहे हो? जिसको ही अपना समय दे रहे हो, तुम्हारा जीवन उसी का है।

बंदर धोखे में आ गया। बंदर को लगा कि एक घंटा जो ये मुझे देता है, वो कितनी बड़ी बात है। बंदर को समझ में ही नहीं आया कि कुल एक ही घंटा तो देता है। बाक़ी समय कहाँ जाता है?

श्रोतागण: श्रीमती मगर के साथ।

आचार्य: अगर बंदर हो, अगर मीठा फल पाया है और मीठा फल बाँट भी रहे हो, तो याद रखना हमेशा कि मीठे फल का अधिकारी वही है जो उस मीठे फल के लिए सर्वस्व अर्पित करने को तैयार हो। बंदर के बारे में हमने ये कहा।

श्रीमती मगर के बारे में हमने कहा कि उनके बारे में हम कुछ कहेंगे ही नहीं। क्यों? क्योंकि उन्हें हम कुछ भी कहेंगे, वो सुनेंगी नहीं। तो जिस हद तक तुम्हारे भीतर मादा मगर बैठी है, अच्छे से जान लो कि उसके रहते तुम्हारे पास न रोशनी आएगी, न मित्र आएगा, न गुरु आएगा, क्योंकि गुरु को भलीभाँति पता है कि बंदर को सीख दी जा सकती है, मगर को भी सीख दी जा सकती है, मादा मगर को कोई सीख नहीं दी जा सकती।

तो जिस हद तक तुम्हारे भीतर मादा मगर बिराजी हुई हैं, गुरु, ग्रंथ और बोध भी तुमसे दूर-दूर ही रहेंगे। तुम उनके पास जाओगे, वो दूर भाग जाएँगे। वो कहेंगे, “भईया, तू अकेली तो है नहीं, तेरे साथ नर मगर है। और अभी तू उसे कोने में ले जाकर बोलेगी, ‘गुरुदेव का कलेजा’। तो गुरुदेव के लिए अच्छा यही है कि वो निकल लें।”

जिस हद तक तुम मादा मगर हो, अस्तित्व तुम्हें बहुत बड़ी सज़ा देने वाला है। तुम्हें सज़ा ये देने वाला है कि तुम्हारा जीवन बस खाने और आने वाली पीढ़ियों की परवरिश करने में ही बीतेगा। और आम आदमी की ज़िंदगी देख लो, क्या यही नहीं होती?

दिन-रात नौकरी कर रहा है। नौकरी से वो क्या पाता है? एक तो ख़ुद खाता है, दूसरे अपने बच्चों को खिलाता है। यही तो मादा मगर है। मादा मगर के दो ही काम, इसकी (शरीर) सुरक्षा करो और आने वाली पीढ़ियों को मस्त ताक़तवर रखो। प्रकृति यही चाहती है – तुम्हारा डीएनए फैलता रहे। और आम आदमी की ज़िन्दगी किसलिए है? ख़ुद खाओ, बच्चों को खिलाओ।

तो अगर मादा मगर इतनी प्रबल है तुम्हारे भीतर तो फिर मैंने कहा, कोई रोशनी, कोई मित्र, कोई गुरु तुम्हारे लिए नहीं है। तुम्हारे पास तो जो भी आएगा तुम्हें समझाने, तुम उसी का कलेजा खा जाओगे। बंदर पूरे मगर परिवार का सच्चा मित्र हो सकता था न? पर देखो, बंदर क़रीब आया मगर के, मगरी ने तुरंत कहा, “इसका कलेजा निकाल।”

बंदर की बात हो गई, श्रीमती मगर की बात हो गई और श्री मगर के बारे में हमने कहा है कि अपने ऊपर थोड़ा रहम कर लो। देखो कि तुमने क्या दुर्गति कर ली अपनी।

वास्तव में मादा मगर को तो कोई दु:ख भी नहीं है, क्योंकि दु:ख अनुभव करने के लिए भी भीतर थोड़ा बोध चाहिए, थोड़ी संवेदना चाहिए। जो बिलकुल ही जड़ पदार्थ हो गया हो, जिसके लिए दुनिया अब सिर्फ़ भोजन हो, माँस हो, शरीर हो, बच्चेदानी हो, उसको दु:ख इत्यादि अनुभव नहीं होते। उसको दु:ख अगर अनुभव होते भी हैं तो बस भोजन इत्यादि के तल के, उदाहरण के लिए, खाना नहीं मिला, बड़ा दु:ख है; ठंड लग गई, बड़ा दु:ख है; गर्मी लग गई, बड़ा दु:ख है। ये सारे दु:ख किस तल के हैं? शरीर के तल के हैं।

तो मादा मगर को बहुत-बहुत बड़े दु:ख होंगे तो भी इतने ही बड़े दु:ख होंगे। क्या? ये पानी तो बहुत है नदी में, शैम्पू नहीं मिल रहा। अब ये उसके दु:ख हैं। दुखी वो घूमेगी, पर उसके दुखों में भी गहराई नहीं होगी। वो दु:ख के नाम पर भी यही दु:ख बता पाएगी, क्या दु:ख? कि कलेजा तो ले आए बंदर का, मस्टर्ड सॉस तो लाए ही नहीं। बड़ा दु:ख है! अब वो रो पड़ी, "ख़ाली कलेजा मिला है; चटनी तो नहीं मिली, खाएँ कैसे?" अब ये दु:ख है।

ग़ौर से देखो, ज़्यादातर लोगों के जीवन में भी इसी कोटि के और इतने ही उथले दु:ख होते हैं। “बड़ा दु:ख है, बड़ा दु:ख है।”

“क्या दु:ख है?”

“ठंडी लगती है।”

ये वो दु:ख हैं जो किसी पशु को सताते हैं।

“बड़ा दु:ख है, बड़ा दु:ख है।”

“क्या दु:ख है?”

“हमारे पास जो क्षेत्रफल है, वो बड़ा कम है।” जैसे कुत्तों को देखते हो न, वो लगातार कोशिश में रहते हैं कि अपना क्षेत्रफल बढ़ा लें जिसमें उसका वर्चस्व है।

तो जो शरीर के तल पर जी रहा है, जो मादा मगर के तल पर जी रहा है, उसको सारे दु:ख बस शरीर से ही सम्बंधित होंगे। उसके दुखों में भी, मैंने कहा, गहराई नहीं होगी।

हाँ, अगर तुम नर मगर हो तो तुम्हें अब गहरी सज़ा मिलने वाली है। तुम्हें गहरे दु:ख मिलेंगे। क्यों? क्योंकि तुम जगने लगे थे, तुम जानने लगे थे। जो जगने लगे, जो जानने लगे, और फिर भी एक जगा हुआ जीवन न जी पाए, उसे बहुत सज़ा मिलती है।

अंतर समझना, जो जगा ही नहीं, जो मादा मगर जैसा है, वो अगर एक अंधेरा जीवन जिए तो उसे बहुत दु:ख नहीं मिलता, लेकिन जो जगने लगा हो, जो जानने लगा हो, वो जानने के बावजूद एक अंधेरा जीवन जिए, तो उसे बहुत गहरा दु:ख मिलता है। इस पूरी कहानी में जो सबसे दयनीय किरदार है, जो सबसे करुण है, वो नर मगर है।

वो नर मगर हम सबमें मौजूद है, ख़ूब मौजूद है। नर मगर जानते हो कौन? वो जो जानता है कि सही क्या है, लेकिन उसमें हिम्मत नहीं है कि वो कर जाए जो सही है। जो सही जानते हुए भी ग़लत काम करे, वो है नर मगरमच्छ। ऐसे हम सभी हैं।

पता हमें होता है कि सही क्या है, ज़िन्दगी जीते हैं ग़लत। ऐसों को ज़िन्दगी बहुत-बहुत यातना देती है। ऐसा होने से अच्छा है कि तुम मादा मगर हो जाओ। वो पूरी ही तरीक़े से अंधेरे में है। उसे इतना दु:ख नहीं मिलेगा जितना नर मगर को।

जो बेहोश पड़ा है, उसे कोई दु:ख सताता है? सताता है क्या? और जो पूरी तरह जागृत हो गया, उसे भी कोई दु:ख नहीं सताता। दु:ख तो उसके लिए है जो ऊँघ रहा है बैठकर; जो न सोया है, न जगा है, या ये कह लो कि जो जग तो चुका है, पर शरीर में तमसा इतनी भरी है कि जगने के बाद भी सोने की कोशिश कर रहा है। अनुभव किया है न? होता है न? कि जग तो गए हैं और कोशिश कर रहे हैं कि सोएँ। वो क्षण सुख के नहीं होते।

अभी मैंने ख़बर पढ़ी थी— मानसून के दिन गाँव की बारात। पूरी बारात खाना खा चुकी है। जो आख़िरी दो-चार लोग बचे थे खाने को, उनको परोसा गया। तो उन्होंने पाया कि आलू-बैंगन की सब्ज़ी में छिपकली पड़ी है। सब्ज़ी तैयार हो चुकी थी, लोग खा भी चुके थे, खा-पीकर मस्त अपने घर भी जा चुके थे।

ये आख़िरी दो-चार लोग बचे थे। ये पेंदे में छिपकली निकल पड़ी। ये भी क़रीब-क़रीब भोजन पूरा कर चुके थे। आख़िर में चिपकी हुई थी छिपकली, ये उनके सामने आई। ये लगे उलटने, लगे उलटने, तबीयत ख़राब हो गई; मुश्किल से जान बची।

सबसे अच्छा तो ये है कि तुम छिपकली खाओ ही मत, पर अगर छिपकली खा ही रहे हो तो दुर्दशा उसकी होती है जो आँखों देखी छिपकली खा रहा है। जिसे पता ही नहीं है कि वो छिपकली खा रहा है, उसे कोई तकलीफ़ नहीं होती। वो खा-पीकर घर चला जाता है आराम से। पूरी बारात खा-पी करके आराम से निकल गई। ये आख़िर के दो-चार लोग थे, इन्हें पता चल गया।

पूरी सब्ज़ी में तो छिपकली थी। इनके ज़हर फैल गया। ज़हर मुँह से अंदर नहीं गया था, आँखों से अंदर गया था। आँखों ने देखा कि छिपकली है, आँखों में ज़हर फैल गया। अगर सब्ज़ी में ज़हर होता तो इतने लोग जो खा-पीकर निकल गए थे, वो भी बीमार पड़े होते। कोई बीमार नहीं हुआ।

तो ज्ञान बड़ी ख़तरनाक चीज़ है। कई मामलों में ज्ञानी से अज्ञानी भला, कि तुम्हें पता ही नहीं है कि तुम एक बेवक़ूफ़ी भरा जीवन जी रहे हो। जिए जाओ, तुम्हें बहुत कम तकलीफ़ होगी। देखते नहीं हो, सड़कों पर लोग घूम रहे हैं, लगता है कि उनको मार्मिक वेदना है? लगता है उन्हें कि घोर अस्तित्वगत दु:ख फाड़े डाल रहा है भीतर से? ऐसा लगता है क्या?

वो खुश हैं, दीवाली मना रहे हैं। "हैप्पी दीवाली जी! ये लीजिए जी!" लो, खा लो, मिठाई की दुकान खुली हुई है। कोई तकलीफ़ किसी को? "गुड न्यूज़ , जी!" ठीक है। मस्त, कोई तकलीफ़ नहीं। दनादन छिपकली जा रही है, पर पता ही नहीं है कि छिपकली भीतर जा रही है; ज्ञान ही नहीं है कि छिपकली भीतर जा रही है।

अज्ञान बहुत बड़ी सुविधा है – *इग्नोरेंस इज़ ब्लिस*। पता ही नहीं है कि घटिया जीवन जी रहे हो, तो कोई तकलीफ़ ही नहीं होती; बड़ी सुविधा है, ठीक है। मारा वो जाएगा जिसको पता है कि सामने छिपकली है और फिर भी खा रहा है।

तुम्हारा गुनहगार तो मैं हूँ। मैं रोज़ ‘छिपकली-छिपकली’ दिखाता हूँ। ये देखो, ये है, ये है और ये है। ये सब तुम्हारे खाने में पड़ी हुई हैं। अब खाओगे कैसे? खाओगे तो नर मगर जैसी दुर्गति पाओगे, क्योंकि अब तो मामला आँखों देखा हो गया, अब कुछ छुपा हुआ नहीं है। अब तुम ये दावा ही नहीं कर सकते कि तुम्हें पता नहीं है। अब तो ज्ञान हो गया। ज्ञान ख़तरनाक बात।

तो जिसको ज्ञान हो जाए, उसके पास फिर एक ही विकल्प बचता है, कि रोशनी दिख गई है तो अब पूरे ही रोशन हो जाओ; अंधेरा अब कोई विकल्प बचा ही नहीं। जो रोशनी देखने के बाद भी अपना आधे से ज़्यादा समय अंधेरे को देगा, वो गहरी पीड़ा पाएगा। इससे भला तो ये था कि तुम्हें रोशनी की पहली किरण भी उपलब्ध न होती। पर अब तो हो गई, अब क्या करोगे?

अब क्या करोगे? अब तो तुम फँस गए। कुछ बातें ऐसी हैं जो अब तुम्हें पता चल गईं, दिख गईं, उनको अनदेखा कैसे करोगे? जो पढ़ लिया, उसको कैसे मिटाओगे अपने चित्त से? जो सुन लिया अभी-अभी, अब उसको अनसुना कैसे करोगे? छिपकली तो दिख गई, अब कैसे खाओगे?

गुरु वो जो तुम्हारे लिए बड़ी झंझट खड़ी कर दे। खाना-पीना मुश्किल हो जाए। फँसा दिया। पहले बढ़िया था, किसी का भी कलेजा काट लाते थे। अब बड़ा मुश्किल है। भूलना भी चाहें तो भूलने नहीं देते। कभी फ़ोन आ रहा, कहीं वाट्सऐप आ रहा है, फेसबुक खोलो, वहाँ बैठे हुए हैं। “दूर हटो तुम सामने से। जहाँ देखो वहीं पर छिपकली लटकाए हुए हैं। याद दिला रहे हैं कि देखो, ये रही छिपकली।”

मगर हो तुम। प्रकृति तो तुम्हारी भी यही है कि तुम कलेजा ही खाओ। अगर जीवन में कोई आने लगा हो ऐसा बंदर जो तुम्हें मीठे जामुन खिलाने लगा हो, तो उसी वृक्ष के होकर रह जाना। पुरानी दुनिया में वापस लौटोगे तो वहाँ कलेजाफाड़ कार्यक्रम ही चलेगा। कलेजों में सबसे मीठा कलेजा बंदर का ही। अब चाहते हो कि तुम्हें भी इसी धर्मसंकट का सामना करना पड़े, तो करो।

शैतान को सीधे-सीधे भगवान का कलेजा चाहिए, इससे नीचे पर वो राज़ी नहीं होता। तुम अगर एक संतुलन बनाना चाहते हो कि थोड़ा-थोड़ा भगवान के और थोड़ा-थोड़ा शैतान के, तो वो हो नहीं पाएगा। जहाँ तुम शैतान के पास जाओगे, वो सीधे कहेगा, “कलेजा लाए? कहाँ है कलेजा? कलेजा नहीं देते हो तो मैं प्राण त्याग रही हूँ, प्रिये!”

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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