बड़ी लड़ाई लड़ो! || आचार्य प्रशांत

Acharya Prashant

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बड़ी लड़ाई लड़ो! || आचार्य प्रशांत

आचार्य प्रशांत: इस दुनिया में मज़े मारने नहीं आते हैं आप, लुटने आते हो। ये जगत है ही इसीलिए कि हमको मूर्ख बना-बनाकर हमें लूटता जाए। एक-एक चीज़, एक-एक व्यवस्था, आप जिसमें शामिल हैं, आप अगर देख पायें तो दिखेगा कि कैसे उसमें आपका शोषण होता है। एक अस्पताल में आपका जन्म हुआ, जिनके आँख होगी उन्हें दिखेगा, पहले आप यही बोलते थे, अरे! सरकारी अस्पताल है, गंदे पड़े हैं, डॉक्टर देर से आता है, भीड़ बहुत है। आज आपके अस्पताल फॉइव स्टार होटल जैसे हो गये हैं। तो आपको ये भ्रम हो जाता है कि मामला बढ़िया है।

मामला बढ़िया है या नहीं, वो जाँचने के लिए ये देख लो न कि देश के औसत नागरिक का स्वास्थ बेहतर हुआ है या बदतर हुआ है। आबादी में रोगियों का अनुपात बढ़ा है या कम हुआ है? पहले हज़ार लोगों में कितनों को कैंसर था, आज कितनों को है? लेकिन आप ख़ुश बहुत हो, क्योंकि अब बहुत सारे अस्पताल आ गये हैं जो कहते हैं कि हम कैंसर ट्रीटमेंट में सुपरस्पैशलाइज़ करते हैं। ये आप पूछते ही नहीं कि इतने कैंसर रोगी आ कहाँ से गये, पहली बात। हमें पता ही नहीं चलता कि हमारा उपचार हो रहा है या हमें सबसे पहले बीमार बनाया जा रहा है ताकि उपचार करा जा सके।

जन्म अस्पताल में होता है, अस्पताल में शोषण। उसके बाद तुम्हें डाला है स्कूल में, अगली संस्था। तुम्हें लगता है तुम्हारी तरक़्क़ी के लिए डाला गया है। तरक़्क़ी के लिए नहीं डाला गया है, स्कूल खच्चर बनाने के लिए होता है। वहाँ पर एक बच्चे को डाला जाता है ताकि वो आगे चलकर समाज के काम आ सके, अपने नहीं। समाज को जो आवश्यकताएँ हैं, बच्चे को उसी प्रकार की शिक्षा, बल्कि प्रशिक्षण दे दिया जाता है। समझ लो, दुनिया में लोग बहुत बढ़ गये हैं, तो दुनिया को बहुत सारे जूतों की ज़रूरत आ गयी है। तो तुम्हारे स्कूलों में बचपन से ही जूता बनाना सिखाना शुरू कर देते हैं।

ये आत्म-विकास के नहीं, ग़ुलामी के अड्डे हैं। यहाँ आपको सामाजिक रूप से उपयोगी बनाया जाता है, आपको अपने लिए उपयोगी नहीं बनाया जाता। कुछ रोज़गार मिल जाए आपको, इसकी तैयारी करा दी जाती है। कुछ-कुछ मामला ऐसा है जैसे तीन साल का जो वहाँ बच्चा घुसता है, वो एक बेरोज़गार है, और उसको फिर अठारह-बीस साल की शिक्षा दी जाएगी, ताकि वो रोज़गार के क़ाबिल बन सके। लेकिन आप कहेंगे, “विद्यालय है, वहाँ गुरु लोग होते हैं, और पाँच सितंबर को शिक्षक दिवस मनाया जाएगा अभी। आपको दिखाई ही नहीं पड़ता कि वहाँ भी शोषण हो रहा है।

उसके बाद और तरह की व्यवस्थाएँ होती हैं जिनमें आप शिरकत करते हैं। आप अर्थव्यवस्था का एक उपजाऊ हिस्सा बनते हैं, कहीं नौकरी वग़ैरा करके या कोई धंधा चलाकर के। धंधा आपका नफा ले करके आए, या नुक़सान में जाए, आपका तो नुक़सान ही होता है। आप चाहे व्यापार कर रहे हों, चाहे नौकरी कर रहे हों, वो कम पैसे की हो, ज़्यादा पैसे की हो, आप घाटे में ही रहे। लेकिन ये बात दिखाई नहीं पड़ती क्योंकि सूक्ष्म है।

हाँ, आपको तनख्वाह मिली हो, मान लीजिए कैश में, और आप तनख्वाह लेकर के अपने घर आ रहे थे और किसी ने लूट लिया हो, तो शोर मच जाएगा, “एक आदमी के साथ बड़ा अन्याय हो गया, उसके पैसे लूट लिये गए”। इस पर शोर मच जाएगा। और जो उसके महीने के तीस दिन लूटे गए थे, उस पर शोर मचते कभी देखा है? कभी शोर मचा है आज तक? कि अरे-अरे देखो अंदर क्या चल रहा है! जवान लोगों की ज़िंदगियाँ ही लूटी जा रही हैं, उनकी जवानियाँ लूटी जा रही हैं। उस पर कभी शोर नहीं मचता।

आपकी तनख्वाह ऊपर-नीचे हो जाए, उस पर भी शोर नहीं मचेगा। कम्पनी कोई पॉलिसी बना दे, कुछ कर दे, उसमें आपको नहीं मिला, कम पैसा दिया, उसपर भी शोर नहीं मचेगा। लेकिन जो बिलकुल स्थूल, ग्रौस घटना है, फ़िल्मी, कि एक लुटेरा आया और आपके हाथ से ऐसे (हाथ से इंगित करते हुए) पैसे लूटकर भाग गया, उसमें लगता है कि अभी तांडव कर दें 'देखो, ग़रीब के साथ अत्याचार, ग़रीब का पैसा लूटा जा रहा है।'

तुम्हारा पैसा लुट नहीं रहा होता तो एक-से-एक बेवकूफ़ लोग दुनिया के सबसे अमीर लोगों में कैसे होते, बताओ। उनका मुँह देखो, उनकी अक्ल देखो, तुम्हें लग रहा है, पाँच सौ बिलियन डॉलर की कोई हैसियत है? वो पैसा उनके पास कहाँ से आया अगर आप नहीं लुट रहे? लेकिन तब तो कभी ख़ून नहीं खौलता कि ये आदमी इतना अमीर हो कैसे गया। खौलता है क्या? तब तो बल्कि तुम उनके फॉलोवर (अनुयायी) बन जाते हो। आप महान हैं, हम आपके अनुयायी हैं। ख़ून खौलता है क्या? तब नहीं खौलता न। तब तो कहते हो, बढ़िया आदमी है, बढ़िया आदमी है। वो विक्षिप्त है, वो पागल है, कैसी बातें कर रहा है वो?

मैं फिर पूछ रहा हूँ, एक पागल आदमी के पास करोड़ों अरब रुपये हों, ये कैसे संभव है? सिर्फ़ तभी हो सकता है न जब उसने लूटा हो। और लूटा किसको होगा? मार्स वालों को लूटा होगा? किसको लूटा होगा? आप ही को तो लूटा होगा! पर यहाँ पता ही नहीं चलता कि लुट गये, पता ही नहीं चलता।

हाँ, आप ऑटो पर आयें और अस्सी रुपये भाड़ा हुआ हो, आप उसको सौ रुपये दें, वो बीस रुपये नहीं लौटाया और वो लेकर भाग गया, तो आप दो दिन तक गाएँगे, “ज़माना बड़ा ख़राब है, सब लुटेरे ही लुटेरे हैं, बीस रुपया लेकर भाग गया ऑटो वाला।” और एक पगलन्ठ आदमी के पास बीस अरब डॉलर कहाँ से आयें, ये आपने कभी सोचने की ज़रूरत नहीं समझी। तो काम-धंधे में लुटते हो।

फिर उसके बाद एक संस्थान और होता है विवाह का। उसमें जब घुसते हो तो प्रफुल्लता का कोई ठिकाना ही नहीं। लगता है कि मज़े मारने के लिए गठबंधन हो रहा है। तब कभी क्रोध आया है, कि कहीं विवाह होता देखो और डंडा लेकर घुस जाओ और तोड़-फोड़ करो कि ये शोषण नहीं होने दूँगा मैं। कभी करा है ऐसा? असली हीरो तो वो होगा जो ये करके दिखाए। जहाँ कहीं विवाह-मंडप देखे वहाँ डंडा उठाये और लगे पीटने, कि तुम दो लोगों की ज़िंदगी क्यों तबाह कर रहे हो? ये कर क्या रहे हो तुम? और दो लोगों की ही नहीं, अभी उनके आगे और झड़ी लगेगी, वो भी। तब वहाँ समझ में नहीं आता कि भयानक बर्बरता यहाँ भी है। यहाँ ही है! तब नहीं समझ में आता। वो (माया) महाठगिनी है। वो आपको बता कर नहीं ठगेगी, वो आपको ख़ुश करके ठगती है।

महिलाएँ सजग हो रही हैं आजकल। दहेज माँग लो तो वो विरोध करती हैं। बड़ी अच्छी बात है। लेकिन आपको क्या लग रहा है, आपका शोषण बस इसी में है कि आपसे दहेज माँग लिया उसने? आपको लूटने का एक ही तरीक़ा है क्या कि आपसे दहेज ले लिया जाए? लुटती आप सौ तरह से हैं, लेकिन पता नहीं चलता। दहेज तो बहुत प्रकट, बड़ी स्थूल बात होती है, कि वो पैसा ही माँग रहा है, गड्डी लेकर के आओ, ये लेकर के आओ, मुझे बंगला दे दो। तो कहती हैं, “अरे! मैं नये ज़माने की जागरूक महिला हूँ। कॉलेज की फैमिनिज़म सैल की प्रवक्ता थी मैं। तूने मुझसे दहेज माँग लिया! अभी बताती हूँ।

वो तुमसे दहेज माँग ले रहा है, तुम्हें बहुत बुरा लग रहा है और वो तुमसे तुम्हारी ज़िंदगी माँगे ले रहा है तब बुरा नहीं लग रहा? तुम्हारी ज़िंदगी दहेज से ज़्यादा सस्ती है, कि दहेज तो नहीं दूँगी, पर ज़िंदगी तुझे दे दूँगी?

और यही बात पुरुषों पर भी लागू होती है। तुम्हारी ज़िंदगी इतनी सस्ती है कि यूँही किसी को सुपुर्द किये देते हो? शोषण बुरा लगता है, बहुत अच्छी बात है। लेकिन शोषण हो कहाँ रहा है, बेटा ये तो पहचान लो पहले। नहीं तो छोटे-छोटे पॉकेटमारों को पीटते रहोगे, और बड़े-बड़े डकैतों की पूजा करते रहोगे। ये तुम्हारी हालत है। कि पॉकेटमार है जो कभी किसी का पाँच सौ चुरा लेता है, कभी हज़ार, दो हज़ार, उसको पकड़ कर पीट दिया। और होता भी यही है, इस तरह के जब पकड़े जाते हैं, तो इतने पीटे जाते हैं। कई बार लिंचिंग हो जाती है, उनकी मौत हो जाती है। जानते हो न? कि पाँच सौ रुपया चुरा कर भाग रहा था, भीड़ ने पकड़ लिया, और इतना मारा, इतना मारा कि मर गया। ये पाँच सौ रुपये वाले, इनको लेकर के तुममें बड़ा आक्रोश उठता है और जो महाठग बैठे हैं उनके तुम फॉलोवर बन जाते हो।

कोई छोटा झूठ बोले तो बोल देते हो झूठा। कोई झूठ की पूरी व्यवस्था ही निर्मित कर दे, तो तुम कहने लग जाते हो कि ये भाग्य विधाता है, क्योंकि पूरी व्यवस्था ही इसने बनायी है।

बड़ा विद्रोह कब करोगे भाई? अध्यात्म इसलिए है कि छोटी लड़ाइयों की करो उपेक्षा, और बड़ी चुनौती को करो स्वीकार। हम छोटे-छोटे मसलों में बड़े क्रांतिकारी बन जाते हैं। और जो असली चीज़ें हैं, वहाँ चुप रह जाते हैं, लुटते जाते हैं। 'पेनी वाइज पाउन्ड फूलिश'।

बिग पिक्चर प्लेयर बनिए। छोटी चीज़ों में उलझ कर कुछ नहीं मिलता। देखिए कि वास्तव में ज़िंदगी ख़राब कहाँ हो रही है और कौन कर रहा है। और फिर हिम्मत रखिए कि वो जो सबसे बड़ा शातिर है, जो लुटेरों में बड़ा लुटेरा है, उससे भी लोहा लेंगे, ये हिम्मत रखिए।

आपको लूटने के लिए आज आपको ग़ुलाम नहीं बनाया जाता, आपको ग्राहक बनाया जाता है; ये बात आपको समझ में क्यों नहीं आ रही? ग़ुलाम क्यों बनायें किसी को? लंबी-चौड़ी और झंझट का काम है न किसी को ग़ुलाम बनाना? पहले उसको मारो, पीटो, ग़ुलाम बनाओ, फिर उसको गले में पट्टा डाल करके खूँटे से बाँध करके रखो, और फिर कुछ ऐक्टिविस्ट किस्म के लोग आ जाएँगे, वो नारेबाज़ी करेंगे, विरोध प्रदर्शन करेंगे। मोमबत्तियाँ जलाकर के रात में पदयात्राएँ निकालेंगे। तो कौन इतनी झंझट उठाये कि किसी को ग़ुलाम बनाये, सीधे उसको ग्राहक बनाओ।

और ग्राहक का मतलब समझते हो क्या होता है? ग्राहक वो जो ग्रहण करने को तैयार है। जो ग्रहण करने को तैयार हो जाता है उसे बोलते हैं ग्राहक। जो लेने को तैयार हो गया है, ग्रहण करने को, उसे ग्राहक बोलते हैं। देखो कि कौन-कौन सी चीज़ों को ग्रहण करने को तैयार हो गये हो, किस-किस चीज़ को 'हाँ' बोल दी है। ग्राहक वही नहीं होता जो कुछ ले करके उसका रुपया या दाम चुका दे। वो भी एक प्रकार का ग्राहक है। उस तरह की ग्राहकी दुकान में होती है।

लेकिन ज़िंदगी में जिस भी चीज़ को 'हाँ' बोल रहे हो, तुम उसके ग्राहक हो गये हो। देखो किस चीज़ को हाँ बोल दी है। जिस चीज़ को हाँ बोल दी है, वहीं पर लुट रहे हो। वहीं शोषण है, वहीं हिंसा है, क्योंकि व्यवस्था तो जंगल की है न, आदमी वही पुराना है। आपको ग्राहक भी अगर बना रहा है, आपसे किसी चीज़ के लिए अगर आपसे हाँ बुलवा रहा है, तो आपको लूटने के लिए ही आपसे 'हाँ' बुलवा रहा है। जो डिफॉल्ट उत्तर होना चाहिए इस संसार को वो है 'ना'। ये उपनिषदों की सीख है, 'ना' बोलना सीखो।

और संसार लगातार यही चाहेगा कि तुम 'हाँ' बोलते रहो, 'हाँ' बोलते रहो। संसार अपनी ठगी की दुकान सजाये बैठा है हर तरफ़, भीतर–बाहर, और वो चाहता है कि तुम उसके माल को बोले जाओ 'हाँ-हाँ'। ऋषि हमसे कह रहे हैं, 'ना' बोला करो, 'ना'। जिस भी चीज़ को 'हाँ' बोलते हो वहीं लुटोगे। जब हज़ार बार 'ना' बोल लो, तब संभावना बननी चाहिए एक बार 'हाँ' बोलने की।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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