बड़े लोगों की बातें बहुत छोटे लोगों के हाथ पड़ गईं || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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बड़े लोगों की बातें बहुत छोटे लोगों के हाथ पड़ गईं || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: प्रेम नमन। मैं एक किस्सा शेयर करना चाहूँगी। ओशो की किसी पोस्ट पर, फेसबुक पर, अभी रिसेन्ट (हाल ही का) एक ओशो फॉलोवर (अनुयायी) ने, जो अपनेआप को ओशो का बहुत बड़ा फैन बोलता है। उसने एक अर्धनग्न स्त्री के चित्र पर लिखा कि ‘ओशो का नवसन्यास सबको मुबारक़ हो। मुझे बहुत बुरा लगा ये पोस्ट देखकर। मैंने उसको देखकर शेयर किया और उस पर एक बहुत अच्छा नोट लिखा, ‘आप लोग ख़ुद को ओशो फॉलोवर जो भी कहते हों, थू है आप लोगों पर और शर्मिंदा होना चाहिए। सेक्स गुरू वो तब भी कहलाते थे जब वे शारीरिक रूप से जीवित थे और जब वे शरीर से चले गये, तो आप जैसे ओशो फॉलोवर्स, उनको बदनाम कर रहे हो इस तरह की तस्वीरें शेयर करके, आप लोगों को विरोध करना चाहिए।‘ और मुझे आश्चर्य हुआ, उस पिक (चित्र) पर हन्ड्रेड (सौ) से ज़्यादा लाईक एक घंटे में आ गयें, चार-सौ से ज़्यादा लाइक्स और हन्ड्रेड से ज़्यादा कमेन्टस् (टिप्पणियाँ)।

और उसमें जो महिला ओशो फॉलोवर्स थीं, उनका सबसे ज़्यादा विरोध मेरे प्रति था। उनका ये कहना था, ‘तुमको वो नज़र आया जो तुम्हारे अन्दर ख़ुद है, तुमको गन्दगी ही क्यों नज़र आयी? तुमने वो शब्द क्यों देखा?’ तो जवाब में मैं जितना देती गयी, वो लम्बा खिंचता गया।

मैं बहुत व्यथित हुई, मैं बहुत रोई उस दिन, मुझे अपने गुरू का ये सम्मान? मैं एक ओशो आश्रम में भी गयी थी, जहाँ जब हम रात को सोये, ओशो की फोटो लगी थी सामने, हमारे पैर उस तरफ़ थे तो मैंने उस फोटो को उठाकर साइड में रख दिया। तो मेरे साथ जो मित्र थे जो भी एक-दो, उन्होंने कहा, ‘क्या उस दीवार पर ओशो नहीं है? इस दीवार पर नहीं है? तुमको वहीं नज़र आया?’ मुझको दिख रहा है वहाँ पर, वहाँ दृश्य रूप से, हैं तो हर जगह।

तो ये सारी बातें और इस तरह का गुरू प्रेम मुझे समझ नहीं आता, गुरू तो साक्षात रूप से रूह में हमारे होता है। हम इस तरह से कैसे अपमान कर सकते हैं और उस पोस्ट में सबसे ज़्यादा महिलाएँ मेरे विपक्ष में थीं। उनका विरोध था, ‘तुम आँख़ बन्द करो, आगे निकल जाओ।’ तो ये क्या अन्धापन नहीं है समाज में? इस तरह की गन्दी चीज़ों को देखकर हम विरोध न करें?

आचार्य प्रशांत: नहीं। अन्धापन इसमें नहीं है, ये तो रंगी हुई आँख़े हैं, ये तो मायावी सूरमें हैं। अन्धा होना तो मैं फिर भी कहूँगा कि थोड़ी मासूमियत की बात होती है। ये तो जान-बूझकर के आँखों में विशिष्ट सूरमें दिये जा रहें हैं बेकार की बात करने के लिए। देखिए, बहुत ऊँचे लोगों की बातें, बहुत नीचे लोगों के हाथों में पड़ जायें, तो बड़ी गड़बड़ हो जाती है। इसी तरीक़े से बहुत ऊँचे लोगों के कर्मों का अनुसरण बहुत नीचे के लोग करने लग जायें, तो भी बड़ी गड़बड़ हो जाती है।

गुरू नानक साहब गये थे अरब, तो एक दिन वो लेट गये, क़ाबा के पत्थर की ओर उन्होंने पाँव कर लिये। तो लोगों ने टोका, बोले, ‘आप तो सन्त हैं, विद्वान हैं, ये आप क्या कर रहें हैं? आप काबे की तरफ़ पाँव करके लेट गये?’

तो कहानी ही है पर कहानी का मर्म समझिएगा। उन्होंने कहा, ‘ठीक है, जिधर को क़ाबा नहीं है मैं उधर को पाँव करे लेता हूँ।‘ तो उन्होंने अपने पाँव मोड़े और कहानी बताती है कि क़ाबा का पत्थर भी उसी के साथ-साथ मुड़ गया। ये कहानी किसके चरित्र के साथ शोभा देती है? गुरू नानक साहब के साथ। उन्हें हक़ है ये करने का कि वो कहें कि मैं किधर को भी पाँव करके सो जाऊँगा। आम आदमी को ये हक़ नहीं है कहने का कि इधर को क्यों न करें, उधर को क्यों न करें।

वहाँ ख़्याल रखना पड़ेगा न? जो ऐसा हो गया हो कि उसके लिए सगुण-निर्गुण सब एक हो गये, उसे अब सगुण में भेद और विवेक की कोई ज़रूरत नहीं। वास्तव में विवेक भी तभी तक चाहिए, जब तक आप पूरी तरह मुक्त नहीं हुए; विवेक का अर्थ होता है भेद। और जब तक आप पूरे मुक्त नहीं हुए, तब तक आपको भेद करना चाहिए। किस दीवार पर गुरू की तस्वीर नहीं है और किस दीवार पर है, इसमें आपको अन्तर करना होगा, आप गुरू नानक थोड़े ही हो भाई अभी?

ये बात किसी गुरू नानक को ही शोभा देती है कि वो क़ाबा की ओर भी पाँव करके सो जायें। उनसे नीचे के किसी आदमी ने ये हरक़त करी तो ये बदतमीज़ी है और इसकी सज़ा मिलनी चाहिए। इसी तरीक़े से, भगवान बुद्ध के जीवन के साथ जुड़ी हुई कथा है, अब दोनों कथाएँ ही बता रहा हूँ, पर मर्म समझिएगा कि एक दफ़े ध्यान में बैठे हुए थे। सब सुन ही रखी होगी, आप तो अगर ओशो को पढ़ीं हैं तो। ये उन्होंने भी कई दफ़े सुनायी होगी।

तो कुछ चोर थे वो एक औरत को ले आये थे जंगल में, जाने पैसे देकर लाये हो, जाने ज़बरदस्ती उठा लाये हो जाने, जो भी करा हो। वो किसी तरह उनसे छूट-छाटकर भागी और वो भागकर के जहाँ बुद्ध बैठे थे, ध्यान कर रहे थे, उनके सामने से निकली और वो भी फटेहाल, आधी नग्न ही। वो गुज़र गयी, अपना भाग गयी। पीछे-पीछे ये सब लोग आये।

तो कहते हैं कि इन्होंने पूछा बुद्ध से कि वो अभी यहाँ से कोई निकली है औरत। बुद्ध चुप रहे, तो उन्होंने ज़ोर मारा, धमकाया, जो भी करा। बोले, ‘दिखा कैसे नहीं तुमको? एक तो स्त्री थी, वो भी निर्वस्त्र, ऐसा कैसे हुआ कि तुमने ध्यान नहीं दिया?’ तो बुद्ध बोले कि हम अब उस दशा में आ गये हैं, जहाँ हमको स्त्री-पुरूष वगैरह बहुत समझ में आता नहीं है और ये भी हमें बहुत दिखायी नहीं देता कि कपड़े किसने कितने पहन रखे हैं।

ये बात भी शोभा देती है तो किसी बुद्ध को शोभा देती है कि नंगी औरत भी सामने है तो क्या हो गया, पदार्थ ही तो है, देह है। जो लोग नग्नता की पैरोकारी कर रहे हैं, उनसे पूछिए कि ठीक है, बिलकुल ये तुम्हारी बात सही है कि शरीर ही तो है क्या हो गया, शरीर में कौनसा ज़हर है, शरीर में कौनसा अपराध है। लेकिन क्या तुम ऐसे लोग हों जिन्हें ये कहने का हक़ है?

ये बात कोई ओशो कहे तो ठीक है, तुम क्यों कह रहे हो भाई? तुमने ओशो की ऊँचाई हासिल कर ली क्या? तुम कौन होते हो फेसबुक पर नंगी तस्वीरें चिपकाने वाले?

कोई भी काम सही या ग़लत नहीं होता, जो काम किसी बुद्ध के लिए, किसी नानक के लिए सही है वो आम आदमी के लिए ग़लत है। दोनों के लिए मापदंड एक तो नहीं हो सकते न? लेकिन हम बड़े अहंकारी लोग हैं, हम कहते हैं, ‘उन्होंने करा तो हम भी करेंगे।‘ या फिर हम कह देते हैं कि हम जैसे चलते हैं और जैसे रहते हैं और जैसे करते हैं, बुद्धों को भी वैसा ही होना चाहिए। और अगर बुद्ध वैसे नहीं हैं जैसे हम थे, तो हम बुद्ध का भी या तो अपमान कर देंगे या बुद्ध के जीवन से वो घटनाएँ ही मिटा देंगे जहाँ वो हमारे जैसे नहीं थे। ये हमारी जड़ता और हमारे अहंकार का प्रमाण है।

बात समझ में आ रहीं हैं?

बहुत बातें हैं जिन्हें कहने का हक़ अर्जित करना पड़ता है। हक़ अर्जित किये बिना अगर वो बात कह दी तो ये दुस्साहस हो गया, धृष्टता हो गयी। नहीं कहनी चाहिए वो बातें, रोक देना चाहिए। तुम मत बोलो।

मैंने कितनी दफ़े कहा है कि मत बोला करो ‘अहम् ब्रह्मास्मि’। ये बात उपनिषद् के किसी ऋषि को शोभा देती है, तुम्हें नहीं शोभा देती। तुम क्यों बोल रहे हो भाई? उन्होंने बोला, वो हक़दार थे बोलने के। तुमने कैसे बोल दिया, तुम ब्रह्म हो क्या?

वो थे ब्रह्मविद्, वो थे ब्रह्मलीन तो उन्होंने बोला दिया, ‘अहम ब्रह्मास्मि’। तुम ब्रह्मविद् हो क्या? तुम नहीं हो तो तुम क्यों इतनी आसानी से बोल देते हो?

कबीर साहब बोल गये — “माला फिरूं न जप करूं, मुँह से कहूं न राम।“ कबीर साहब बोल दें कि माला नहीं फिरता, जप नहीं करता, राम नहीं बोलता, उनका हक़ है। उन्हें शोभा देता है, तुम कौन होते हो कहने वाले कि — “सुमिरन मेरा हरि करे, मैं पाऊँ विश्राम।“

अपनी औक़ात देखो, तुम्हारा सुमिरन हरि करेंगे? कबीरों का सुमिरन हरि करा करते हैं क्योंकि वो कबीर हैं, उन्होंने अर्जित करा है वो स्थान, तुमने अर्जित करा है? तुम क्यों नक़ल करके उनकी बात बोल रहे हो? और अहंकार को बड़ा सुन्दर लगता है न, बड़ा आकर्षक लगता है —

”कबीरा मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर। पाछे पाछे हरि फिरे कहत कबीर कबीर।।“

ये तो सही है! अभी तक तो कुत्ते ही फिरते थे हमारे पीछे, वो भी बात बिलकुल मरियल, खुजली वाले, जहाँ निकले वहीं पीछे लग जाते थे और भौंकते और थे। ये तो हमारा बड़ा सम्मान हो गया, बड़ी प्रगति, बड़ी प्रोन्नति हो गयी कि जिसके पीछे कोई भिखारी भी नहीं आता था, उसके पीछे अब हरि आ रहें हैं तो हमको भी बड़ा मज़ा आता है दोहराने में कि — “पाछे पाछे हरि फिरे कहत कबीर कबीर।”

देखो, भाव कितने खा रहें हैं हम! हम मुड़कर नहीं देख रहें हैं, हम ऐसे कर रहें हैं (चेहरे पर उपेक्षा का भाव दिखाते हुए), और पीछे-पीछे हरि आ रहें हैं कि यार कबीर-कबीर! यार प्लीज़, यार एक मिनट, यार सुन ले न कबीर-कबीर।

अरे, कबीरों को ये बात शोभा देती है और कबीर साहब के पीछे निस्सन्देह हरि फिरते हैं! पर तुम्हारा नाम रामलाल है और तुम झुन्नू के पापा हो और तुम धनिया के शौहर हो, तुम्हारे पीछे थोड़े ही हरि फिरेंगे कहत झुन्नूलाल-झुन्नूलाल, रामलाल-रामलाल! तुम्हारे पीछे फिरेंगे क्या हरि? लेकिन नहीं, कुछ भी।

और ये जो कह रहे हैं कि आपको तस्वीर में नग्नता ही क्यों दिखायी दी, उनसे ये भी तो पूछ लो। बिलकुल ठीक बात, मुझे तस्वीर में नग्नता ही क्यों दिखायी दी, तुम मुझे ये बताओ, ओशो ने दुनियाभर के विषयों पर बोला, तुम्हें उनकी बातों में सिर्फ़ सेक्स को ही चुनने में क्यों रुचि है?

अष्टावक्र संहिता पर ओशो ने इतना मोटा साहित्य खड़ा कर दिया है (दोनों हाथों से मोटे का इशारा करते हुए) और श्रीमद्भगवद्गीता पर वाङमय है और पतंजलि योग सूत्र पर है, दुनिया का कोई ही उत्कृष्ट ग्रन्थ होगा जिस पर ओशो ने नहीं बोला होगा। बल्कि ऐसे-ऐसे ग्रन्थों पर बोला है जिन पर ओशो से पहले किसी ने नहीं बोला।

विज्ञान भैरव तन्त्र भी अनजाने से ही थे, ओशो ने प्रसिद्ध कर दिया बिलकुल। पूरी दुनिया में ले गये, लोग जानने लग गये, तुम्हें वो सब क्यों नहीं पता? मीराबाई पर भी बोल गये हैं ओशो। उसकी तस्वीर क्यों नहीं डालते फेसबुक पर? सहजो बाई पर बोल गये हैं, दादू दयाल पर बोल गये हैं। वो सब क्यों नहीं डालते तुम फेसबुक पर? क्यों नहीं डालते? तुम यहीं क्यों डालते हो?

क्योंकि तुम घटिया आदमी हो। तुम ओशो का नाम भी लेकर के अपनी पुरानी घटिया वासनाएँ पूरी कर रहे हो। बल्कि तुमने अपनी वासनाओं को सम्मान देने के लिए एक नाम ढूँढ लिया है, ओशो।

भाई, कोई व्यक्ति जब जीवन के हर पहलू पर बोलता है तो वो सेक्स पर भी बोलेगा न? क्योंकि उसे जीवन की समग्रता को सम्बोधित करना है ठीक? जब वो जन्म पर बोल रहा है, मृत्यु पर बोल रहा है, विक्षेप पर बोल रहा है, समाधि पर बोल रहा है, तो वो सेक्स पर भी बोलेगा क्योंकि उसने जीवन के हर मुद्दे को छुआ है, तो उसने सेक्स को भी छू दिया।

तुम मुझे ये बताओ कि उनकी सारी किताबों को हटाकर के तुमको उनके सेक्स सम्बन्धी विडियो ही क्यों दिखायी देते हैं? और जो उनके कुछ सेक्स सम्बन्धी लेख हैं और वक्तव्य हैं वही क्यों याद हैं? बाक़ी सबकी बात कौन करेगा?

मुझे बताना सहजो बाई पर जो कुछ बोला है ओशो ने वो तुमने कितना पढ़ा, बोलो? या लाओत्ज़ू पर जो बोला या चुआंग-त्ज़ु पर जो बोला है या सूफ़ियों पर जो बोला है? बताओ, उसकी तुम चर्चा क्यों नहीं करते कभी? क्योंकि नीच आदमी हो और ओशो के नाम पर जो कुछ चल रहा है अभी, वो निन्यानवे प्रतिशत नीचता ही है। प्र: मैं उस दिन के बाद किसी ओशो आश्रम में कभी नहीं गयी क्योंकि मुझे उनका फॉलोवर नहीं बनना है। मुझे उन्होंने जो कहा है, उसपर चलना है और मैं उनसे बहुत प्रेम करती हूँ।

आचार्य: हर महापुरूष का दुर्भाग्य यही होता है। वो चला जाता है, उसके पीछे उसकी बातें कैसे-कैसे लोगों के हाथ में पड़ जाती हैं। जब तक वो ज़िंन्दा था, तब तक तो फिर भी ठीक था, कम-से-कम बेवकूफ़ी के विरुद्ध कुछ बोल सकता था।

एक बार वो चला गया, फिर तो मौजा-ही-मौजा! उसका नाम लेकर के जो मक्क़ारी करनी हो, जो अय्याशी करनी हो, जो बदतमीज़ियाँ करनी हो, सब कर सकते हो। ओशो एक उदाहरण हैं, उसके अलावा भी हज़ारों लोगों के साथ यही हुआ है।

आदम ज़ात बड़ी घटिया ज़ात है, हम किसी को नहीं बख़्शते। गुरू वगैरह तो चलो फिर भी छोटी चीज़ है, हम अवतारों, पैगम्बरों को नहीं बख़्शते। हम उनको भी अपनी कठपुतली बना लेते हैं, हम कहते हैं, ‘वो भी वही बोलेंगे जो मैं चाहता हूँ।‘ तो इसीलिए भाई, इस छोटे-से आदमी का एक छोटा-सा हिसाब पक्का है, क्या? सबकुछ रिकॉर्ड कर लो। जो भी दो-चार लोग सुनते हों मुझे, मैं नहीं चाहता कि मेरे जाने के बाद वो किसी तरह के भ्रम में रहें।

टेक्नॉलोजी भाव निरपेक्ष होती है, मत निरपेक्ष होती है, टेक्नॉलोजी न्यूट्रल (निरपेक्ष) होती है। उसका किसी तरह के मत में, विश्वास में, कोई यक़ीन नहीं होता। तो मुझे जो कुछ कहना है मैं सब टेक्नॉलोजी को दिये जा रहा हूँ ताकि बाद में कोई घपला हो ही नहीं। बस हैक-वैक मत कर लेना। कई लोग शौकिया ही ये सब करने लग जाते हैं कि चलो करके देखें।

चार-चार टीबी की दस हार्ड डिस्क आज ही आयी हैं। बोध स्थल से सन्देश आया — पचास हज़ार रूपये। मैंने कहा, ‘कर क्या रहे हो उसका?’ बोले, ‘लग रहा है, दस हार्ड डिस्क आज ही आयी हैं। आप इतना बोलते क्यों हैं?’

पहले तो उसको रखो, फिर उसका बैकअप भी रखो, वो इसीलिए ज़रूरी होता है। हालाँकि इसके बाद भी किसी तरह की कोई गारंटी नहीं है कि मिलावट नहीं ही होगी।

हम और कोई हुनर जानते हों न जानते हों, एक हुनर तो हम जानते हैं, साफ़ जगह पर पीक मार देने का। दुनिया का जो सबसे छिछोरा आदमी भी होगा, बिलकुल नाक़ाबिल, वो उस तरह के लोग जो होटलों से चम्मच चुराते हैं, उस तरीक़े के लोग। वो भी एक हुनर जानता है, क्या? जहाँ सफ़ाई देखो, वहाँ गन्दा कर दो। ये हुनर सबमें होता है। कुछ कर नहीं सकते तो जहाँ कुछ हो रहा हो वहाँ मूत दो, माहिर हैं हम इसमें।

आप जिनको मानती हैं, उनकी किताबें उपलब्ध हैं, उनका जो सीधा, प्रकट, साक्षात शब्द था वो उपलब्ध है। विडियो वगैरह हैं, सीडी हैं, आपको करना क्या है उनके जाने के बाद उनके आश्रम इत्यादि में भटक करके?

उन्होंने ये थोड़ी ही कहा था कि अपने पीछे से मैं अपना आश्रम छोड़े जा रहा हूँ, और सब लोग आओ और रहो और उपद्रव देखो! उन्हें जो देना था, वो आपको अपनी किताबों के और विडियो, ऑडियो रिकॉर्डिंग्स के माध्यम से दे गये हैं। आप उसके साथ रहिए, सन्तुष्ट रहिए।

यही काम तत्कालीन अधिकांश मार्गदर्शकों ने करा है। कृष्णमूर्ति साहब भी यही कर गये, कुछ उन्होंने कहा, ‘उसकी रिकॉर्डिंग हुई, कुछ उन्होंने किताबें ख़ुद लिख दीं और वो तो साफ़ ही बोल गये कि मेरे पीछे से भाई! कोई न बन जाए मेरा उत्तराधिकारी।‘ जैसे है न कि ओशो के जाने के बाद ओशो जैसी दाढ़ी रख लो और नाम अपने नाम के साथ ओशो जोड़ दो। ये देखो, ये हैं, युवराज! कृष्णमूर्ति साफ़ बोल गये, कुछ नहीं।

रमण महर्षि भी अपने पीछे से कोई विरासत ही थोड़े ही छोड़ गये थे। हाँ, अब बहुत लोग हैं जो अपनेआप को उनका वंशज बोल रहें हैं और कहने लग गयें हैं कि हम तो उनके मत से हैं, उनकी धारा से हैं, वो अलग बात है, पर उन्होंने थोड़े ही कुछ कहा था। उनके वक्तव्य उपलब्ध हैं, उनके द्वारा रचित ग्रन्थ उपलब्ध हैं, आप उनके पास जाइए न सीधे।

पर हमें सत्य की नहीं तलाश होती, हमें सत्य के नाम पर भी समाज की ही तलाश होती है। श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता छोड़ गये हैं न अपनी। हम श्रीमद्भगवद्गीता से सन्तुष्ट ही नहीं होते, हम कहते हैं, ‘वो श्रीकृष्ण के नाम पर जो कई तरीक़े के मूवमेंट (आन्दोलन) चल रहें हैं, हमें उनका सदस्य बनना है।‘

क्यों बनना है भाई?’ क्यों बनना है? वो मूवमेंट (आँदोलन) श्रीकृष्ण ने चलायें हैं? बोलो। श्रीकृष्ण आपके लिए वो सब नमूने छोड़ गये थे जो सड़कों पर घूमते रहते हैं? रामा-रामा करते। श्रीकृष्ण छोड़ गये हैं क्या? श्रीकृष्ण आपके लिए सिर्फ़ क्या छोड़ गये हैं? श्रीमद्भगवद्गीता। पर नहीं। हमें सत्य नहीं, हमें समाज चाहिए। हमें किसी नये समाज का हिस्सा बनना है कि मैं भी इस बिरादरी का हिस्सा कहलाऊँ।

मैं फ़लाने संघ का हिस्सा हूँ, फ़लाने आश्रम का हिस्सा हूँ, फ़लाने मठ का हिस्सा हूँ, फ़लाने मिशन का हिस्सा हूँ, क्यों बनना है? जब तक राह बताने वाला ज़िन्दा है, सीधे-सीधे उसके सामने बैठ लीजिए, जब वो नहीं है तब उसकी लिखी बात उपलब्ध हो, साहित्य हो या रिकॉर्डिंग हो वो देख लीजिए, ये बाक़ी सब अंडू-पंडू के चक्कर में मत पड़िएगा।

प्र२: सर, मैं ओशो का एक बुक पढ़ रहा था, ओशो जी ने ख़ुद कहा था उसमें कि मेरे जाने के बाद कोई ज़िन्दा गुरू देख लेना, जिससे आमने-सामने बात हो सके। आग जली हो जहाँ, फिर तभी वो आनन्द बरकरार रह सकता है।

आचार्य: मैंने कहा न, हम बहुत हुनरमन्द लोग हैं! अगर वो बोल भी गये कि मेरे जाने के बाद कोई जीवित गुरू देख लेना, तो उनके अनुयायी क्या करेंगे? वो आपस में ही किसी को विभूषित कर देंगे कि तुम ही हो ज़िन्दा गुरू, लो तुम बन जाओ और उसको कुछ नाम दे देंगे।

कुछ भी। मान लो उसका नाम है झुन्नूलाल, तो उसको कर देंगे ओशो झुन्नूलाल और उस ही को पूजना शुरू कर देंगे। आसान है न, उसकी दाढ़ी बढ़ा दो, उसको ओशो जैसी टोपी पहना दो, ओशो के पास मान लो रोल्स रॉयस थी तो उसको मारूति एट हंड्रेड (कार मारुती-800) दे दो। वो भी वही चुटकुले सुनाना शुरू कर दें मु्ल्ला नसीरुद्दीन और वही सब जो कहानियाँ वो सुनाते थे उनको दोहराना शुरू कर दे, ठीक है।

और कोई पूछे कि ये क्यों कर रहे हो तुम? झुन्नूलाल को काहे को बिठा दिया कुर्सी पर? तो कहो कि ओशो ही तो बोल गये थे कि मेरे जाने के बाद कोई ज़िन्दा गुरू खोज लेना। अरे! उन्होंने कहा था ज़िन्दा ‘गुरू’ खोज लेना, उन्होंने ये थोड़े ही कहा था कि ज़िन्दा नमूना खोज लेना, ये किस नमूने को पकड़ लाये हो?

फिर कह रहा हूँ, ‘हम बड़े करामाती लोग हैं, हम कुछ भी कर सकते हैं। अब वो ज़िन्दा तो हैं नहीं कि वो आकर कहेंगे कि ये क्या कर रहे हो। तो हम फिर कुछ भी करते हैं।‘

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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