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बच्चों की असफलता और बेरोज़गारी से घर में तनाव
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। बच्चों को लेकर चिंतित रहती हूँ। क्या औरत को सिर्फ़ घर में एक चूल्हे में सिमट जाना चाहिए? वो आगे बढ़ने की कोशिश करे या परिवार के दायित्व में बंध कर रह जाए? और बच्चे भी उसी में उलझ गए हैं, वो आगे बढ़ने की कोशिश बहुत करते हैं मगर उनको असफलता मिलती है। जिस से उनका भी मन भटक जाता है। 

आचार्य प्रशांत: किस चीज़ में मन भटक जाता है? 

प्र: पढ़ाई-लिखाई में मन भटक जाता है।

आचार्य जी: बच्चे कौन सी परीक्षाएँ दे रहे हैं?

प्र: बच्चा पीसीएस की तैयारी कर रहा है। और किसी विभाग की वैकेंसी के इंटरव्यू में छँट गया। 

आचार्य जी: मैं उनसे पूछूँ कि आप जो तैयारी कर रहे हो, वो क्यों कर रहे हो, यही नौकरी क्यों चाहते हो, तो वो मुझे साफ समझा पाएँगे? उनसे मैं पूछूँ कि ये जिन भी परीक्षाओं में बैठ रहे हो, जो नौकरियाँ पाना चाहते हो, इसके पीछे क्या उद्देश्य है, साफ-साफ गहराई से समझा पाएँगे?

प्र: जी नहीं।

आचार्य जी: कितने सालों से तैयारी कर रहे हैं?

प्र: तीन-चार साल हो गए, आचार्य जी।  

आचार्य जी:

जब काम का, जीवन का सच नहीं पता होता, तब जो भी कर रहे होते हो उसमें न तो कोई लयबद्धता होती है, न ऊर्जा होती है।

तुमको अगर पता ही नहीं है कि तुम कौन हो और तुम्हें जाना कहाँ है, तो किसी एक दिशा में पूरी ऊर्जा के साथ चल पाओगे क्या? या मन बहका-बहका रहेगा?

कोई सड़क पर खड़ा हो, और वो जानता ही न हो कि वो कौन है, अतः उसे क्या चाहिए, तो वो किधर को बढ़ेगा? किसी न किसी दिशा में तो बढ़ेगा ही। भाई! क्योंकि इंसान है तो गति करनी है, चलना तो है ही। पर कैसे चलेगा? (आचार्य जी उँगलियों से टेढ़े-मेढ़े पथ का संकेत देते हुए) खूब चलेगा, पर दूरी कितनी तय करेगा? बहुत कम। आपसे ही अगर कह दिया जाए कि आपको दौड़ना है—कैसे? ऐसे-ऐसे (टेढ़े-मेढ़े)। तो कितनी गति से दौड़ पाएँगे? आपको सीधे जाना है। और सीधे जाने के लिए कहा जाए: टेढ़े-मेढ़े दौड़ो, तो कितनी गति से दौड़ पाएँगे? और मेहनत कितनी लगेगी?  मेहनत तो ज़्यादा लगेगी, गति भी नहीं आएगी। दूरी भी बहुत कम तय कर पाएँगे। जिसको मैं गहराई कह रहा हूँ, उसी के लिए दूसरा शब्द होता है ‘स्पष्टता’। जब तक जीवन के बारे में स्पष्टता नहीं है, ज़िंदगी की हक़ीक़त पता नहीं है, तथ्य नहीं पता, सच्चाई नहीं पता, जब तक मन ऐसा नहीं है कि वो कई बार पूछे कि, “वास्तविकता क्या है? ये जो कुछ भी चल रहा है इसके पीछे सच्चाई क्या है?” तब तक आपके जीवन में हुड़दंग तो रहेगा, शोर-शराबा, हल्ला- गुल्ला तो रहेगा, ऊटपटांग, विक्षिप्त जैसी गति तो रहेगी—कोई सुंदर सुडौल बहाव नहीं रहेगा, लय नहीं रहेगी।

लय माने जानते हैं क्या होता है?

डूबना।

डूबने को कहते हैं लय। आमतौर पर हम लय का अर्थ बस रिदम (ताल) से कर लेते हैं। लय का असली अर्थ होता है ‘डूबना’। जब आप किसी काम में डूब जाते हो तो कहते हो लीन हो गए—वही लय है; लीन हो गए। और जब आप किसी काम में लीन हो जाते हो तो उस काम में लयात्मकता आ जाती है। उसी से मिलते-जुलते शब्द हैं ये—रिदम, हार्मोनी, केडेंस, लयात्मकता। फिर आम काम में और लीन काम में वही फर्क रहता है जो शोर और संगीत में रहता है।

संगीत में क्या होती है?

लयबद्धता होती है न?

शोर में लयबद्धता नहीं होती।

तो घर में जो उठा-पटक है, बिखराव है, और ये जो परीक्षार्थी लोग हैं, इनको जो परीक्षा में सफलता नहीं मिल रही है, उन सब के पीछे एक ही कारण है। न घर वाले जानते हैं कि वो जो चाह रहे हैं, वो ‘क्यों’ चाह रहे हैं; जो कर रहे हैं वो क्यों कर रहे हैं; न परीक्षार्थी जानते हैं कि परीक्षा देनी ही क्यों है। फलानी नौकरी चाहिए ही क्यों? और भारत में जब आप किसी प्रतिस्पर्धी परीक्षा में बैठते हैं तो मामला लंबा होता है। विदेशों में ऐसा नहीं होता। विदेशों में मान लीजिए कि अगर सौ पद खाली होंगे, तो उसके लिए आवेदन भी आएँगे तीन सौ-चार सौ। जो लोग गंभीर होंगे वही आवेदन करते हैं। उन तीन-चार सौ में से सौ का फिर चयन हो जाता है। वो जो बाकी होते हैं वो अपना कहीं और चले जाते हैं। भारत की तरह नहीं होता। रिक्त पद हैं कुल सौ, और उसके लिए आवेदन और निविदाएँ कितनी आ रही हैं? दस लाख। अब एक साल, दो साल, कई बार तो चार-चार, पाँच-पाँच साल लोग जुटे रहते हैं। बहुत श्रम की बर्बादी होती है। पढ़े-लिखे हिन्दुस्तानियों का, पढ़े-लिखे युवा वर्ग का बहुत बड़ा नुक़सान होता है इस आयु में। यही कर रहे हैं। 

जिस काम को लेकर तुम में निष्ठा और स्पष्टता हो, उस काम के लिए तुम पाँच साल नहीं, पचास साल लगाओ तो ठीक किया। ज़रूर लगाओ। जो काम तुम कर रहे हो उसको लेकर अगर बिलकुल आत्मिक स्पष्टता है कि ये काम हम क्यों कर रहे हैं, तो उसमें पाँच साल नहीं पचास साल लगाओ। भले ही सफलता मिले चाहे न मिले। लेकिन ज़्यादातर जवान लोग जो ये परीक्षाओं वगैरह में बैठते हैं, वो जानते भी नहीं हैं कि वो ‘क्यों’ बैठ रहे हैं। 

मैं नियोक्ता की तरह, इंटरव्यूअर की तरह भी काफी बैठा हूँ। परीक्षार्थियों का साक्षात्कार लिया है कि अगर वो चयनित हो जाएँ तो उनको फलानी नौकरी दे दी जाएगी। और पूछो कि, भाई, तुझे ये काम करना क्यों है? ये पद क्यों चाहिए? तो कोई रटा-रटाया जवाब होता है। और ज़रा सा खूरेंच दो, ज़रा सा मामले की गहराई में चले जाओ तो उनके पास कोई जवाब नहीं होता। किस आधार पर होगा इनका चयन? पहली बात तो 99.9% लोग साक्षात्कार की अवस्था तक ही नहीं पहुँचेंगे। और जो पहुँचेंगे, वो साक्षात्कार में गिर जाएँगे। मेरे जैसा कोई हो इंटरव्यूअर, तो वो बाल की खाल निकाले बिना आगे जाने नहीं देगा। 

जानो तो कि ज़िंदगी में क्या करने लायक है। जानो तो कि तुम्हारे लिए क्या करना आवश्यक है। ये जानना ही सफलता है। ये एक बार तुम जान गए तो अब तुम्हें सही काम मिल गया। और

सही काम की खूबी पता है क्या होती है?

उसमें फिर आप अंजाम की परवाह नहीं करते।

ग़लत काम की निशानी ये है कि अगर आपको उसमें मनचाहा अंजाम नहीं मिला तो आप उजड़ जाते हो, और रोते हो कि अरे! बर्बाद हो गए। बड़ी मेहनत की पर सफलता नहीं मिली। ग़लत काम की निशानी ही यही है कि वो अंजाम पर आश्रित रहता है।

इच्छित अंजाम मिलना चाहिए, नहीं तो हम कहेंगे कि काम हुआ नहीं। मेहनत तो करी, काम बना नहीं। और सही काम की खूबी ये रहती है कि वो परिणाम की परवाह करता ही नहीं। काम अगर आप सही कर रहे हैं तो वो चलता रहता है लगातार। उसका कोई अंतिम परिणाम होता ही नहीं। उसमें अवरोध आ सकते हैं, दिक्कतें आ सकती हैं, बड़ी रुकावटें, बड़ी चुनौतियाँ आ सकती हैं, पर वो काम कभी असफल नहीं हो सकता। क्योंकि असफलता का तो अर्थ होता है पूर्ण-विराम। है न?

जब आप कह देते हो, “मैं असफल हो गया,” इसका मतलब होता है कि अब आपने वो काम हार कर के छोड़ दिया। यही होता है न? सही काम की खूबी ये है कि वो इतना मार्मिक होता है, इतना हार्दिक होता है, इतना अपना होता है कि आप उसको कभी छोड़ ही नहीं सकते हैं। जब उसे छोड़ ही नहीं सकते तो असफल कहाँ हुए? वो छूटेगा ही नहीं। वो उम्र भर का रोग है। वो लग गया तो लग गया। अब असफल कैसे हो जाओगे?

बताओ?

वो काम अब ज़िंदगी बन गया, असफल कैसे हो जाओगे? बल्कि जिसको वो काम मिल गया (जो काम ज़िंदगी बनने लायक हो), वो सफल हो गया। अब उसे किसी परिणाम की प्रतीक्षा नहीं करनी है। वो सफल हो गया क्योंकि उसने वो काम पा लिया जो जीवन को जीने लायक बना देगा। वो काम नहीं मिला, तुम किसी अंट-शंट-ऊट-पटांग काम में लग भी जाओ, उसमें पैसा हासिल कर लो, शोहरत हासिल कर लो, तो भी ज़िंदगी तो बर्बाद ही है न? दुनिया को दिखा लोगे कि, “हाँ, ये बन गए, वो बन गए,” भीतर ही भीतर तो तड़पते ही रहोगे न? बाहर से सफल, और भीतर घोर असफल। 

मैंने जो आपके प्रश्न का उत्तर दिया इससे आपको किसी तरह की कोई संतुष्टि नहीं मिली, क्योंकि मैंने आपको कोई ऐसी गोली दी ही नहीं जो तत्काल आपके काम आ जाए। मैंने तो, जो समस्या है, उसका पूरा कारण आपके सामने खोल कर रख दिया है। निदान दिया है, समाधान नहीं। 

समाधान समय लेगा। तब तक आप यही कर सकते हैं कि अपने ऊपर खिन्नता को हावी न होने दें। घर में कलह हो तो याद रखें कि कलह बड़े गहरे कारणों से हो रही है इसीलिए जल्दी से क्षुब्ध या खिन्न नहीं हो जाना है। बच्चों को असफलता मिले तो भी धीरज रखें। घर में गहरी बात-चीत का माहौल लेकर आएँ। भाषा पर ध्यान दें। 

अभी आपने कहा, बच्चे आगे बढ़ना चाहते हैं पर आगे बढ़ नहीं पा रहे हैं, बार- बार पूछें अपने-आप से, ये आगे बढ़ने का क्या मतलब होता है? क्योंकि भाषा बड़ी ताक़तवर चीज़ है। भाषा बदलिए, ज़िंदगी में भी कुछ बदलाव आने लगता है। जब आप कहें कि, “बच्चे आगे बढ़ने के लिए परीक्षा में बैठ रहे हैं पर चयनित नहीं हो रहे,” जितनी बार वो चयनित नहीं होंगे उतनी बार आपने उन्हें एहसास दिला दिया कि, “तुम आगे नहीं बढ़ पाए,” क्योंकि आगे बढ़ने का मतलब ही था ‘चयन’। और चयन हुआ नहीं।  तो तुम तो पीछे ही रह गए—फिसड्डी। भाषा पर ध्यान दें। 

जिसको हम सामान्य भाषा बोलते हैं, वो बड़ी ज़हरीली है। जिस चीज़ को हम कहते हैं ‘अच्छी ज़िंदगी’, जिसको हम कहते हैं ‘आगे बढ़ना’, जिसको हम कहते हैं ‘लाइफ में सेटल हो जाना’—वो सब बड़ी ज़हरीली धारणाएँ हैं। लेकिन ये हमारी ज़बान पर चढ़े हुए हैं तो हम इनका खटाखट इस्तेमाल करते रहते हैं। किसी के घर गाड़ी आ जाए, आप तत्काल उसको बधाई देंगे, अच्छा जी! बढिया है। खुशी की बात है। ये ख़ुशियों की बातें, ये सब शुभ समाचार और गुड-न्यूज़—हमारी ज़िंदगी में और कहाँ से आता है ज़हर? इन्हीं से तो आता है। हमें और किसने बर्बाद किया? इन्हीं शुभ समाचारों, गुड-न्यूज़ ने ही तो बर्बाद किया है। और अपने-आप को ही परेशान मत कर लीजिए ये बोल-बोल कर कि, “बगल के घर में शुभ घटना घटी, वो लड़का सेलेक्ट हो गया। और हमारे घर में शुभ घटना नहीं घटी रही है, लड़का सेलेक्ट नहीं हो रहा है। नहीं नहीं, ये सब मत करिए।"

बातों में गहराई लाइए: हो सके तो अच्छा साहित्य साथ बैठ कर सब पढ़ें, बातचीत करें। जीवन के लिए रोटी ज़रूर चाहिए लेकिन रोटी अब इतनी भी विरल और कठिन चीज़ नहीं रही है कि आदमी रोटी की लड़ाई लड़े। रोटी मिल जाती है। रोटी के अलावा भी बहुत कुछ चाहिए और उस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा नहीं है। मज़ेदार बात ये है कि जिस चीज़ का जीवन में ज़रा कम ही महत्व है, कम से कम आज के समय में उसके लिए बड़ी प्रतिस्पर्धा है। रोटी के लिए मार-काट मची हुई है और जिस चीज़ का रोटी से थोड़ा ज़्यादा ही महत्व है वो चीज़ बड़ी आसानी से उपलब्ध है, एकदम सुलभ है, क्यों? क्योंकि वो चीज़ कोई पाना ही नहीं चाहता और वो चीज़ इतनी बड़ी है कि अगर उसको लाखों लोग पाना चाहें तो लाखों को मिल जाएगी।  नौकरियाँ तो गिनती की होती हैं न? सौ नौकरी और लाख माँगने वाले—एक अनार, सौ बीमार। सच, शांति, समझदारी और मुक्ति ऐसे नहीं होते। वो जिसको-जिसको चाहिए, सबको मिलेंगे। कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है। वहाँ मामला सीमित नहीं है कि शांति के चार दाने थे, ये इधर वाले ले गए चार दाने, अब उधर वाले बिचारे मुँह लटकाए बैठे हैं: हमारे हाथ तो कुछ आया ही नहीं शांति माँगो तो! जितने माँगेगे सबको मिलेगी। नौकरी की तरह नहीं है। पर चूँकि वो सुलभ है तो इसीलिए कोई माँगता ही नहीं उसको। 

एक और मजेदार बात बताऊँ? बात ये नहीं है कि नौकरी मत माँगो, शांति माँगो। बात ये है कि अगर शांति माँग ली, फिर नौकरी माँगी, तो नौकरी भी पाने की संभावना बढ़ जाती है। परीक्षा में सफल होने के, चयनित होने के आसार किसके ज़्यादा हैं—एक अशांत मन के या एक शांत परीक्षार्थी के? और शांति और स्पष्टता हमेशा साथ-साथ चलते हैं। 

अगर जीवन में स्पष्टता होगी, तो फिर परीक्षाओं में भी चयन होने की संभावना बढ़ जाएगी। ये लो, अध्यात्म का व्यावहारिक लाभ।  अब लोग प्रसन्न हुए, बोले, चलो, कुछ तो वसूल हुआ। इससे भी कुछ फायदा होता है, अब पता चला। नहीं तो हमें तो लगता था ऐसे ही है, हवा-हवाई, पतंगबाजी। कुछ फ़ायदा नहीं होता इससे।

होता है भई, फायदा होता है।

ऑस्ट्रेलियन-ओपन शुरू हो रहा है। टेनिस का ग्रैंड स्लैम (ऑस्ट्रेलियन-ओपन) शुरू हो रहा है बस। अभी मैं पिछले साल की हाईलाइट्स देख रहा था: जोकोविच और नडाल का मैच। फिर पता चला कि जोकोविच एक-एक घंटा बौद्ध मंदिरों में जाकर बैठता है, चुप-चाप। जाता है, चुप-चाप बैठ जाता है, कहता है, ध्यान लग जाता है, शांति हो जाती है, बैठा रहता हूँ। अध्यात्म से ग्रैंड स्लैम भी जीता जाता है!

मैं नहीं कह रहा हूँ कि तुम कोर्ट छोड़ के मंदिर में बैठ जाओगे तो टेनिस का मैच जीत लोगे। दोनों चाहिए - हाथों में ताक़त चाहिए और मन में शांति चाहिए।

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