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बाबाजी बोले: अरे, साइंस तो छोटी चीज़ है || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2023)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: नमस्ते सर, ऐकडेमिक्ली (शैक्षणिक दृष्टि से) मैं एक साइंस बैकग्राउंड (विज्ञान प्रष्ठभूमि) से हूँ लेकिन मैं एक चीज़ नोटिस (ध्यान देना) करती हूँ कि आज आम आदमी के मन में विज्ञान के प्रति बहुत अनादर है। और यह सिर्फ़ भारत में ही नहीं है, भारत के बाहर भी अन्य देशो में भी कि आम आदमी का मन विज्ञान के प्रति बहुत अनादर से भरा हुआ है। तो ऐसा क्यों है?

आचार्य प्रशांत: विज्ञान के प्रति हमारा क्या रवैया है? यह समझने के लिए यह समझना पड़ेगा न कि हम कौन हैं? हम वो हैं, जिसे अपनी पीड़ा से मुक्ति तो चाहिए है, लेकिन जो अपनी पीड़ा को ही अपनी पहचान भी बना चुका है। तो हमें यह तो इच्छा रहती है कि किसी तरीक़े से बातें समझ में आ जाएँ, अज्ञान हमारा मिटे, लेकिन साथ ही साथ जब अज्ञान मिट रहा होता है, तो हमको ऐसा लगता है जैसे हम ही मिट रहे हो।

और जब आपको ऐसा लगता है कि आप मिट रहे हैं तो आपमें सिर्फ़ अनादर ही नहीं आता, आप में सिर्फ़ अनादर ही नहीं आता, आपमें घृणा उठती है, आपमें आपको मिटाने वाले के प्रति हिंसा उठती है। तो वही होता है हमारे साथ, भीतर का झूठ बचा रहे, इसके लिए बाहर जो कुछ है, उसके बारे में झूठी कल्पना में जीना बहुत ज़रूरी हो जाता है। मूल जो हमारी नीयत है, वो तो यही है कि भीतर का झूठ बचा रहे किसी तरीक़े से;क्योंकि उसी भीतर के झूठ को हम कहते हैं 'मैं' या अहम्।

अहम् की यही परिभाषा है;भीतर के झूठ का नाम होता है—अहम्, मैं। लेकिन भीतर का झूठ बचाना थोड़ी टेढ़ी खीर होती है। बाहर तथ्य होते है। और तथ्य और कल्पना साथ-साथ नहीं चलते न, झूठ माने कल्पना। अब अपने बारे में आपने एक झूठ गढ़ रखा है, माने कल्पना कर रखी है, वो कल्पना जब बाहर के तथ्यों से टकराती है तो उसका एक ही अंजाम होता है, तथ्य और कल्पना, सच और झूठ, कभी भी टकराएँगे तो उसमें एक ही है जो टूटेगा हमेशा। कौन? कल्पना टूटेगी।

और विज्ञान क्या करता है? विज्ञान यह जो बाहरी दुनिया है, ये जो जगत है, विश्व है, संसार है, इसके तथ्य उघेड़ करके हमारे सामने रख देता है। जो सामने जगत हमको दिखता है, भौतिक जगत, मटीरिअल यूनिवर्स; इसके तथ्यों का अन्वेषण करना ही विज्ञान का काम है। यही विज्ञान की परिभाषा है। साथ ही साथ हम कह रहे हैं कि भीतर का झूठ हमको बचाकर रखना है, वही जीव की पहली वृत्ति होती है;अपने बारे में। झूठ में जीना और भीतर का झूठ अगर बचाना है तो हमने कहा, ‘बाहर एक झूठ निर्मित करना या कल्पित करना बहुत ज़रूरी हो जाता है।‘ आप समझ रहे हो बात को?

उदाहरण के लिए, मैं भीतर चूँकि अज्ञानी हूँ;इसीलिए बहुत डरपोक हूँ और कायर हूँ। ठीक? लेकिन यह थोड़ी मैं मानना चाहूँगा या कहना चाहूँगा कि मैं भीतर से अज्ञानी हूँ और कायर हूँ। तो मैं कहना चाहूँगा कि अरे! मैं रात में बाहर निकला था और चिल्ला के, घिघिया के, रो पड़ा, गिर पड़ा, उलटे पाँव भागकर वापस आया;क्योंकि बाहर भूत घूम रहे थे। ठीक? मैं हूँ तो बहादुर आदमी लेकिन मैं करूँ क्या भूतों पर थोड़ी किसी का बस चलता है। मैं बहादुर आदमी हूँ, लेकिन बाहर भूत घूम रहे हैं इस कारण मैं चिल्ला करके, रोता कलपता वापस घर में भागकर आया। रात में बाहर निकला था। रात में बाहर निकला, भूत दिखाई दिए और मारी चीख और पलटकर घर की तरफ़ भागे, गिरते पड़ते। उसकी वजह दो थीं। मैं हूँ तो बहादुर, अभी आपने पहली बात बोली, "मैं हूँ तो बहादुर, लेकिन बाहर भूत है और इस कारण ऐसा हुआ कि मैं चिल्ला पड़ा और गिर पड़ा।" इसमें आपने कितने झूठ बोले हैं? मैं बहादुर हूँ लेकिन बाहर भूत हैं, इसमें कितने झूठ है?

प्रतिभागी: दो।

आचार्य: अब समझ में आ रहा है कि झूठ भी हमेशा जोड़ों में चलेंगे। झूठों को भी जोड़ा बनाना पड़ता है। आपने एक भीतरी झूठ बोला, भीतरी झूठ क्या बोला है आपने? ‘मैं बहादुर हूँ।‘ तथ्य यह है कि बल तो आत्मज्ञान से ही आता है न और उसी को आत्मबल बोलते है। आत्मबल माने क्या? वो बल जो आत्मज्ञान से आए, उसको कहते हैं आत्मबल।

अज्ञान है तो कोई बल होगा नहीं। आप कैसे बहादुर हो सकते हो भीतरी तौर पर, जब आपको आत्मज्ञान ही नहीं है। जिसको भी आत्मज्ञान नहीं होगा, वो अन्दर कमज़ोर ही होगा और कायर होगा। तो पहला झूठ आपने ये बोला, मैं बहादुर हूँ। लेकिन इस अंदरूनी झूठ को बचाने के लिए और जायज़ ठहराने के लिए आपको एक झूठ और बोलना पड़ा। क्या? बाहर भूत है।

लेकिन जैसे ही दो झूठ हो गए, दोनो झूठों ने एक दूसरे को संभाल लिया। अब दोनो झूठ बखूबी सकुशल क़ायम रह सकते हैं। आप बात समझ रहे हो? मैं बहादुर हूँ लेकिन बाहर भूत है तो क्या करूँ? मैं तो बेबस हूँ। अब इन दोनो झूठों ने एक-दूसरे को सहारा दे दिया। लेकिन न जाने कहाँ से विज्ञान आ गया? विज्ञान कहीं से टपक पड़ा और विज्ञान ने साबित कर दिया की बाहर भूत?

प्रतिभागी: नहीं हैं।

आचार्य: और दो झूठों में से अगर एक टूटा तो दूसरे को भी टूटना पड़ेगा। आपकी समस्या यह नहीं है कि विज्ञान ने यह साबित कर दिया कि बाहर भूत नहीं है। आपकी समस्या यह है कि विज्ञान ने साबित कर दिया कि आप निहायत ही कमज़ोर और कायर आदमी हो, क्योंकि अगर बाहर भूत था तो आपकी कमज़ोरी किसी तरीक़े से वैध साबित हो जाती थी। विज्ञान आपके बारे में तो कुछ बोलता नहीं। ‘मैं’ के या ‘अहम्’ के बारे में बोलना, विज्ञान के दायरे में आता ही नहीं है। विज्ञान उस पर मौन हो जाता है बिलकुल।

आप विज्ञान से पूछेंगे—‘अहमवृति’, विज्ञान कहेगा—इसके बारे में हम कुछ नहीं बोलते। हमारी परिभाषा यह है कि हम बात करते हैं सिर्फ़ भौतिक जगत की। ठीक? लेकिन विज्ञान बेचारा न चाहते हुए भी आपको भीतरी चोट दे जाता है। बात तो वो बाहरी जगत की करता है लेकिन चोट भीतरी मार देता है। इसमें जो पूरी तर्क की कड़ी है, उसके साथ आप चल रहे हैं? हाँ? द सीक्वेंस ऑफ लॉजिक (क्रमवार तर्क)। विज्ञान ने बात कहाँ की करी है?

प्रतिभागी: बाहर की (समवेत स्वर में)।

आचार्य: लेकिन चोट आपको कहाँ लगी है?

प्रतिभागी: भीतर (समवेत स्वर में)।

आचार्य: क्यों लगी है अन्दर चोट? क्योंकि बाहर का झूठ अगर तोड़ दिया विज्ञान ने, तो भीतर के झूठ का पर्दाफ़ाश हो जाता है। विज्ञान ने बाहर का झूठ तोड़ दिया और भीतर का झूठ अपने कुरूप, अपने विभत्स चेहरे के साथ फिर उद्घाटित हो जाता है, सामने आ जाता। अब आप क्या करोगे? तो विज्ञान का तो कोई इरादा भी नहीं है कि वो आपको चोट पहुँचाए। लेकिन चोट लग जाती है और जब चोट लग जाती है तो हम विज्ञान के प्रति सिर्फ़ अनादर से नहीं बल्कि हम हिंसा से भर जाते हैं। विज्ञान से घृणा है लोगों को, गालियाँ देते हैं। जा साइंस अपनी जेब में रख। बड़ा आया साइंस बताने वाला। और शब्दों का प्रयोग ऐसा होता है कि अभी यहाँ मंच पर बैठकर के मैं उसको कह नहीं सकता!

और आपको ताज्जुब होगा कि अरे! विज्ञान क्या है? विज्ञान तो एक क्षेत्र है बस। मानव उत्सुकता का, मानव आग्रह का, मानव जिज्ञासा का एक क्षेत्र भर है न विज्ञान। लोगों को विज्ञान से इतनी क्या नफ़रत है? यह नफ़रत है। विज्ञान प्रकट कर देता है कि आप भीतर से कितने झूठे आदमी हो? यह समस्या है सारी।

अंदरूनी झूठ बचा रहे, फिर से दोहरा रहा हूँ इसको, अंदरूनी झूठ बचा रहे, इसके लिए बाहर हमको एक काल्पनिक जगत निर्मित करना पड़ता है। और जब वो काल्पनिक जगत टूटता है तो भीतर बहुत कुछ टूट जाता है। आप किसी पुस्तक में बहुत आस्था रखते हैं। अब जो मैं बात बोलने जा रहा हूँ, वो ऐसी पुस्तकों में आस्था रखने वालों को फिर चोट दे देगी। अब मैंने उनको तो चोट देनी चाही नही है, पर उनको लगेगा मैं उनको चोट दे रहा हूँ। ठीक? लगे तो लगे।

आप किसी पुस्तक में बहुत आस्था रखते हैं (अब जो मैं बात बोलने जा रहा हूँ, वो ऐसी पुस्तकों में आस्था रखने वालों को फिर चोट देगी) और पुस्तक में लिखा हुआ है कि ‘पृथ्वी चपटी है, सपाट है।‘ अब विज्ञान बेचारे ने आकर बस इतना बता दिया कि ‘पृथ्वी तो है गोल।‘ अब विज्ञान ने तो बात बोली पृथ्वी के बारे में, लेकिन चोट लगी आपकी आस्था पर। क्योंकि अगर यह सिद्ध हो गया कि आपकी पुस्तक में लिखी एक चीज़ झूठी है तो अब तो संभावना खड़ी हो गई न, क्या पता सारी चीज़ें झूठी हों। आप न जाने कहाँ से कोई देववाणी लेकर के आए हो, जिस देव को ये भी नहीं पता की ‘पृथ्वी गोल है कि सपाट है।‘ और जिस देव को ये नहीं पता उस देव की बाक़ी बातों का फिर क्या भरोसा? अगर देव की बातों का भरोसा नहीं तो आपने इतना लम्बा-चौड़ा फिर जो धार्मिक कार्यक्रम चला रखा है और जो पूरी ज़िंदगी आप उस पुस्तक के इशारों पर जिए जा रहे हो, वो तो पूरी ज़िंदगी ही खोखली साबित हो गई न?

विज्ञान ने बस इतना प्रकट करा कि पृथ्वी गोल है। और विज्ञान ने जैसे आपकी पूरी ज़िंदगी के मुँह पर तमाचा मार दिया; क्योंकि आपने ज़िंदगी चलाई थी अपनी उस पुस्तक के इशारों पर। विज्ञान ने उस पुस्तक को झूठा साबित कर दिया। आपकी आस्था टूट गयी, आपके सम्बन्ध टूट गए, आपके जीवन का आधार ही दरक गया। इसलिए लोगों को विज्ञान से इतनी नफ़रत होती है और इसलिए वैज्ञानिकों का इतिहास में हम पाते हैं कि बड़ा उत्पीड़न भी हुआ है। तब उत्पीड़न हुआ है, आज अनादर होता है। आज भी उनको वो श्रेय थोड़े ही मिलता है जो उन्हें मिलना चाहिए।

जबकि वैज्ञानिक आमतौर पर थोड़ा अपना दामन बचाकर ही चलते हैं। उनको पता है कि बाहर की दुनिया में प्रयोग करते रहो। पदार्थ को चोट नहीं लगती, पदार्थ उठकर विद्रोह करने नहीं आएगा, पदार्थ नहीं कहेगा कि अरे! तुमने हमारी भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर लिया है। तो वो अपनेआप को भौतिक, पार्थिव क्षेत्र तक ही सीमित रखते हैं, उनको बेचारों को लेकिन समझ में ही नहीं आता कि उन्होंने जो बात कही, उसपर इतना हो-हल्ला क्यों हो गया?

वो हो-हल्ला इसलिए हो गया क्योंकि तुम बाहर का झूठ जब तोड़ते हो तो भीतर का झूठ भी टूट जाता है और भीतर के झूठ को हमने नाम दे रखा है अपनी ज़िंदगी का, अपने अस्तित्व का, अपने अहम् का। वो जब टूटता है तो फिर हम बिलबिलाते हैं बिल्कुल। समझ में आ रही ये बात? या हम एक काम और करने लगे हैं, आजकल नया-नया चला है। विज्ञान ने कोई बाहर बात बोली हो, जो आपकी धारणाओं के विपरीत जाती हो तो आप कहना शुरू कर देते हैं कि अरे! विज्ञान तो अभी बच्चा है और ये बात आप गुरु वगैरह के मुँह से सुनेंगे। कहेंगे, "योर साइंस इज़ स्टिल इनफेंसी (आपका विज्ञान अभी शैशवास्था में है), योर साइंस। ये योर साइंस, माइ साइंस क्या होता है? विज्ञान तो विज्ञान होता है उसमें तेरा-मेरा क्या है? या फिर कहेंगे, नहीं, ‘यह तो वेस्टर्न (पाश्चात्य) साइंस है।‘ इंडियन साइंस दूसरी है। ये वेस्टर्न और इंडियन साइंस क्या होती है?

अभी विज्ञान दिवस आ रहा है। वो तो एक भारतीय साइंटिस्ट को ही समर्पित है न। किसको? सीवी रमन का नाम सुना है न? अब सीवी रमन की बात को आप भारतीय विज्ञान बोलेंगे और पाश्चात्य विज्ञान बोलेंगे? पर यह इसी तरह की बातें करेंगे। कहेंगे नहीं, ‘विज्ञान अभी बच्चा है’ और हम जो बताते हैं कि दुनिया ऐसी है, ऐसा चल रहा है, ये है, वो है, फ़लानी जगह बड़ी पराभौतिक किरणें निकल रही हैं, फ़लाने पर्वत पर अदृश्य शक्तियों का वास है, फ़लाने कुएँ में फ़लानी सिद्धियाँ तैर रही हैं। हम यह जो बातें बताते हैं अगर विज्ञान इनको नकार रहा है तो इसका कारण ये है कि विज्ञान अभी बच्चा है!

देखो, उनके तर्क ऐसे होते हैं। कहेंगे देखो, विज्ञान भी अपनी बातों पर टिकता तो है नहीं। जो बात न्यूटन ने बोली थी वो बात आइंस्टीन ने ग़लत साबित कर दी। यह अलग बात है कि ग़लत नहीं साबित करी है। आइंस्टीन की बात उसके आगे की है, न्यूटन की बात आज भी अपनी जगह बिलकुल ठीक है। जब लार्ज पार्टिकल डायनामिक्स (कण गतिकी) की बात आती है तो न्यूटोनियन मैकेनिक्स (न्यूटोनियन तंत्र) अपनी जगह बिलकुल ठीक है। लेकिन जब बात आती है सबएटॉमिक पार्टिकल्स (अवपरमाणुक कण) की, तो वहाँ पर फिर और आगे खोज हुई, वहाँ और आगे की बात कही गयी। लेकिन उन्होंने इतनी फिज़िक्स कभी पढ़ी नहीं है, तो कहते हैं देखो! ‘न्यूटन की बात को आइंस्टीन ने ग़लत ठहरा दिया।‘

तो इससे क्या पता चलता है? इससे यह पता चलता है कि विज्ञान आज जो बोल रहा है वो बात कल ग़लत हो जाएगी और कल किसकी सही मानी जाएगी बात? कल जो बाबा जी कह रहे हैं, वो बात सही मानी जाएगी। कह रहे, ‘विज्ञान अभी बच्चा है! छोटू है!’ विज्ञान जब बड़ा होगा तो अंततः बाबा जी के आकर के चरण पकड लेगा। यह तो अभी विज्ञान ऐसे ही घूम रहा है, किशोर है, मसखरी कर रहा है विज्ञान अभी।

होता क्या है न देखिए, जो चीज़ बहुत आसानी से मिल जाए, हम उसकी क़ीमत जान नहीं पाते। है न, दुनिया में छोटी से छोटी चीज़ भी श्रम से मिलती है, जितना उसका मूल्य होता भी नहीं, उससे कुछ ज़्यादा ही क़ीमत पर मिलती है। ऐसा ही होता है न, लेकिन ये बिजली है (हाथ से संकेत करते हैं), इलेक्ट्रिसिटी। यह हमें कितनी क़ीमत पर मिल रही है? सोचकर देखिए, आपके लिए इसका मूल्य क्या है? और आप इसकी क़ीमत कितनी चुकाते हो? और अभी आप यहाँ सब बैठे हुए हैं, आप मेरी और देख रहे हैं, आपके मन में कोई भाव भी है यदि, तो शायद इस सत्र के लिए होगा। अभी हम गीता की बात करेंगे, गीता के लिए होगा, कुछ मेरे लिए भाव हो सकता है। लेकिन क्या किसी के भी मन में यह जो इलेक्ट्रिसिटी है, इसके लिए कृतज्ञता का भाव आया है पिछले घंटे भर में? घंटे भर से आप यहाँ पर होंगे। घंटे भर में किसी के लिए भी, इसके लिए कृतज्ञता का भाव आया है क्या? नहीं आया न?

क्योंकि बहुत आसानी से मिल रही है और बहुत सस्ती मिल रही है। और यह न हो अगर इलेक्ट्रिसिटी तो हममें से कोई भी यहाँ बैठा नहीं होगा। इसलिए नहीं कि यहाँ अंधेरा होगा, इसलिए क्योंकि हम सब मुर्दा होंगे या हम पैदा ही न हुए होते। बिजली न होती, इलेक्ट्रिक पॉवर न होता तो हममें से ज़्यादातर लोग पैदा ही न हुए होते। काफ़ी सारे होते जो पैदा होने के कुछ वर्षों में मर गए होते। कुछ बचे होते, वो अपना इधर-उधर भटक रहे होते पागलों की तरह, अज्ञान में। और हम बहुत इधर-उधर धन्यवाद प्रेषित करते रहते हैं, शुक्रियादा करते रहते हैं। बिजली का किसने शुक्रियादा करा आज तक? और मैं विज्ञान की सिर्फ़ एक भेंट की बात कर रहा हूँ अभी, इलेक्ट्रिसिटी।

आपमें से कितने लोगों को ‘मैं देख रहा हूँ कि चश्में लगा रखे हैं?’ बिना विज्ञान के आप समझते ही नहीं हो कि कान्क्लेव, कॉन्वेक्स, बाइफोकल यह सब शब्द हैं क्या? आप देख भी पाते? आप पढ़ पाते? लेकिन कभी भी हमने ऐसे सामने अपने ऐनक को रखकर के नमस्कार तो नहीं किया होगा! (दोनों हाथों से ऐनक पकड़ने का संकेत करते हैं) अब मैं बोल रहा हूँ आपको हँसी छूट जाएगी, कहेंगे, “अजीब लग रहा है यार! चश्मे को सामने रखकर नमस्कार करेंगे क्या!” मैं पूछ रहा हूँ क्यों नहीं? बोलिये न। आपको यदि गीता का भी पाठ करना है, आपअपने चश्मे के बिना तो कर नहीं सकते न।

तो बड़े स्थूल अर्थ में बताइएगा कि चश्मा कौन हुआ? जो आपको सत्य से मिला दे उसको क्या बोलते हैं? क्या बोलते हैं? उसको तो गुरु ही बोलते है। अब अगर उसको आप सूक्ष्म गुरु नहीं भी मान सकते चश्मे को, बात मुस्कराने भर की नहीं है मज़ाक भर की नहीं है, आगे की है। उसको आप सूक्ष्म गुरु नहीं भी मान सकते तो कम से कम स्थूल गुरु तो मानिए। उसके बिना आप गीता से भी कैसे मिल पाते? लेकिन कभी यह भाव नहीं आता मन में!

कितने यहाँ पर बैठे होंगे जो दवाइयों पर आश्रित होंगे? हैं दवाइयों पर आश्रित कि नहीं? कुछ लोग होंगे जो इन्सुलिन लेते होंगे रोज, कुछ लोग होंगे जो कोई और दवाई लेते होंगे ब्लड प्रेशर (रक्तचाप) की, किसी और चीज़ की। उसके बिना हम यहाँ बैठे नहीं होते। और वो सब सस्ती होती हैं। बहुत सस्ती होती है। जान की क्या क़ीमत है? और जान की क़ीमत की तुलना में आप जो दवाइयाँ लेते हैं, क्या बहुत महँगी आती हैं बाज़ार में? कुछ नहीं। लेकिन कभी मन से धन्यवाद नहीं निकलता है। हाँ, मौका मिलते ही हम यह बोलना ज़रूर शुरू कर देते हैं, अरे! यह सब बेकार हैं, बहुत साइड इफ़ेक्ट्स होते हैं। और कोई न कोई आपको मिल जाएगा अनपढ़ आदमी जो आकर कहेगा, अरे! इन सबमें कुछ नहीं रखा है।

हमारे गाँव में आओ, वहाँ पे फ़लानी तरह की घास होती है, उसको फ़लाने तरह के गोबर में लपेटकर के दिन में दो बार खाओ! फिर देखो, कैंसर, एड्स सब ठीक हो जाता है। हमारे गाँव में सबको एड्स है! क्योंकि कोई डरते ही नहीं। हमें पता है, ठीक हो जाएगा और ठीक भी हो जाता है, मानसून में होता है हर साल। फिर ठीक कर लेते है, फिर हो जाता है, फिर ठीक कर लेते हैं। यह सुनते हो कि नहीं सुनते हो? गालियाँ ही पड़ती हैं।

ये जो लोग विज्ञान को गालियाँ दिया करते हैं, विज्ञान के प्रति असम्मान से भरे हुए हैं। सबसे पहले तो इनसे इनके मोबाइल फोन वापस लेने चाहिए। फिर इनके कपड़े उतरवाने चाहिए;क्योंकि यह सब विज्ञान की देन है। आप जो आज कपड़े भी पहन रहे हो, यह कंप्यूटर साइंस के बिना सम्भव नहीं है। आपको क्या लग रहा है कि जुलाहे बैठकर के इन कपड़ो को बुन रहे हैं? नहीं। बहुत हाईटेक मशीन्स हैं, जिनपर इन कपड़ों को बुना जा रहा है, फिर रंगा जा रहा है, फिर उनकी प्रोसेसिंग होती है। तब वो आपके पास पहुँचते हैं। नहीं तो ये कपड़े सम्भव नहीं होते। और इनसे कहना चाहिए की गाड़ी में घुस मत जाना तुम तो चलो अपनी अतिन्द्रिय शक्तियों के यान पर;क्योंकि विज्ञान तो बहुत छोटी चीज़ है पप्पू! तुम यही बताते रहते हो हमेशा। तुम कहते हो, ‘अरे! यह आज का विज्ञान क्या है, लोग तो पहले के होते थे, आँख बंद करते थे, उड़ जाते थे!‘ तुम भी अब आँख बंद करके उड़ा करो! ये गाड़ी की चाबी अब यहाँ रख दो, छूना नहीं गाड़ी कभी दोबारा।

और ये जो सब कुछ हो रहा है, इसके मूल में है आध्यात्मिक नासमझी और कितनी ज़्यादा यह विद्रुप बात है कि यह सब कांड कर वही लोग रहे हैं ज़्यादा, जो अपनेआप को आध्यात्मिक बोलते हैं। ठीक? जो आदमी अपनेआपको आध्यात्मिक बोलता है, वही आपको निन्यानवे प्रतिशत मिलेगा विज्ञान के ख़िलाफ अपमान से भरा हुआ। बड़ा असम्भव है ऐसा आदमी खोज पाना, जो आध्यात्मिक भी हो और वैज्ञानिक भी। नहीं मिलते। कोई मिले तो बिरला होगा। आमतौर पर जो आपको अध्यात्मिक मिलेगा वो विज्ञान को खरी-खोटी ही सुना रहा होगा या खरी-खोटी नहीं सुना रहा होगा तो वही रवैया, “अरे! यह तो छोटे बच्चों की चीज़ है।“

आध्यात्मिक आदमी है जो विज्ञान को खरी-खोटी सुना रहा है। और जो विज्ञान को खरी-खोटी सुनाए वो आध्यात्मिक हो नहीं सकता। माने अध्यात्म से सबसे ज़्यादा दूर वही है जो अपनेआप को आध्यात्मिक बोलते हैं। धर्म से सबसे ज़्यादा दूर वही हैं;जो अपनेआप को धार्मिक बोलते है। और गीता से सबसे ज़्यादा दूर वही हैं जो दिन-रात, गीता, गीता, कृष्ण, कृष्ण करते हों। यह अजीब विडम्बना है! पर ऐसा ही है। क्या करोगे आप इसका।

आपके प्रश्न से संबंधित यह मैं पा रहा हूँ, मेरी मेज पर (विवरण लिखे कागजों को मेज से उठाते हैं)। विज्ञान ने आपको जो दिया है, सिर्फ़ आपको एक बार याद दिलाने के लिए (पढ़कर बताते हैं): “प्रिंटिंग प्रेस जिसके बिना ज्ञान दूर-दूर तक नहीं फैल सकता था। हस्तलिखित पांडूलिपि कितनी दूर तक जाती भाई, हाथ से लिख-लिखकर के फैलाओगे। और आज जो आपकी दुनिया में रोशनी है वो किताबों के कारण है। वो प्रिंटिंग प्रेस किसने दी, इलेक्ट्रिसिटी, अभी मैंने बोला ही था। पेनीसिलिन, यह जो हम इतना जी रहे हैं, वो ऐन्टिबाइआटिक के कारण है। ये हमारे ख़्याल में भी दिनभर में कभी यह बातें आती नहीं हैं। सेमीकंडक्टर, ऑप्टिकल लेंसेज़, पेपर, अभी मैंने गाड़ी बोला, इंटरनल कम्बस्चन इंजन, वैक्सनैशन, इंटरनेट, स्टीम इंजन, नाइट्रोजन फिक्सेशन और नाइट्रोजन फिक्सेशन नहीं होता।“

तो ये जो आठ सौ करोड़ की हमने आबादी कर ली है, यह चल नहीं पाती। जो उर्वरक बनते हैं न सब, ये कहाँ से बन जाते?रेफ्रिजरेशन (प्रशीतन), फ्रिज खुलता है,फ्रिज में से ठंडा पानी निकाला जाता है, पी लेते हैं। और ऐसा लगता है कि ये फ्रिज तो क्या? यह तो खेत पर उगा है, पेड़ से गिरा है। और जो व्यक्ति गालियाँ दे रहा है विज्ञान को, मैं उससे कह रहा हूँ, मैं तुझे तीन सौ साल दे देता हूँ;तू एक मोबाइल फोन बनाकर दिखा दे, एक फ्रिज का निर्माण करके दिखा दो। तुम निर्माण मत करो, तुम्हें हम बताएँगे नहीं, बस तुम्हें एक फ्रिज के पास छोड़ देंगे। तुम बस समझकर दिखा दो कि यह कैसे काम करता है? इसके भीतर कौन सा सिद्धान्त है? और वो कैसे काम कर रहा है? बस यह समझकर बता दो।

हमारे पास मोबाइल फोन होता है, हमें उसके बारे में क्या पता होता है? हमें कुछ भी नहीं पता न कि उसके भीतर क्या है? उसके भीतर एक समूचा कम्प्यूटर है। पर हम सोचते हैं वो उतना ही है जितना हमें दिख रहा है। कि स्क्रीन है और स्क्रीन पर तमाम तरह की अभद्रताएँ चल रही हैं। अंधविश्वास चल रहे हैं। मजेदार बात ये है कि अंधविश्वास भी फैल रहे हैं विज्ञान का सहारा लेकर। अंधविश्वास भी नहीं फैल सकते अगर विचारों को विज्ञान की मदद न मिले तो। वो भी अपनी रिकॉर्डिंग ही करवाते है और रिकॉर्डिंग करवा-करवा के आगे बढ़वाते हैं। और न होता विज्ञान तो कहाँ से अपनी रिकॉर्डिंग कराते? और कहाँ से अपनी उन चमत्कार वाली क्लिपों को वायरल कराते? लेकिन ये बिलकुल ख़्याल में नहीं आता। तब हम ऐसे देखते हैं (बाएँ हाथ की हथेली आँखों के समक्ष करके देखते हैं) कहते हैं, वाह! वाह! वाह! क्या फूँक मारी है! भाई वाह! बोलो लेकिन जो चीज़ हाथ में है, उसको लेकर वाह! बोलो न। नहीं समझ में आ रही बात?

आपको स्क्रीन में जो दिख रहा है आप उसको वाह! वाह! कर रहे हैं, यही कर रहे हैं न? जो स्क्रीन में दिख रहा है और स्क्रीन संचालित कैसे हो रही है, इसको लेकर के कभी वाह-वाही नहीं आती। एक क्षण को रुक जाइए और सोचिए कि कितना अद्भुत! यह चमत्कार है। चमत्कारों में ही तो बड़ी आस्था आजकल हमारी बढ़ रही है। कितना अद्भुत! यह चमत्कार है। एक स्क्रीन है और उसमें न जाने कहाँ से डेटा आ रहा है, वो डेटा आपके फोन में तो स्टोर्ड (जमा) नहीं है न, फोन सर्वर तो नहीं है। न जाने कहाँ डेटा है और आपकी स्क्रीन पर दिखाई दे रहा है। पहले जब रेडियो आया था तो बेचारे गाँव, गाँव वाले डर जाते थे;क्योंकि पहले का जो रेडियो माने ट्रांजिस्टर होते थे, बड़े-बड़े, इतने बड़े और बड़े। उन्हें लगता था इसके भीतर बैठा है। क्योंकि तब परिचय नया-नया था और देखिए ऐसी ही होती है हमारी बुद्धी कि सुन तो कान उसी को सकते हैं जो सामने से बोल रहा हो लेकिन विज्ञान ने यह कर दिया जो सामने नहीं भी है, आप उसको सुन रहे हो और बेहतर सुन पा रहे हो।

लोग स्टेडियम जाते हैं क्रिकेट मैच देखने के लिए और पीछे की उनको मिली है सीट। आगे के टिकट बहुत महँगे होते हैं। वहाँ पर बैठ करके कैसे देख रहे होते हैं मैच को? स्क्रीन पर देख रहे होते हैं। लेकिन हमारे पास कभी दो शब्द नहीं हुए धन्यवाद के, विज्ञान को दे देने को। जो सचमुच हमारी ज़िंदगी को बेहतर बना रहा है। उसको लेकर हमारे पास बस अनादर है। जो ऊँची से ऊँची चीज़ हमारे पास सस्ते से सस्ते दामों पर उपलब्ध करा रहा है, कोई कृतज्ञ नहीं, कृतज्ञता नहीं हम उसको ज्ञापित कर पाते। हर कोई इस्तेमाल कर रहा है न विज्ञान के उत्पाद।

तो मास प्रोडक्शन (बड़े पैमाने पर उत्पादन) के कारण इकोनॉमिक्स ऑफ स्केल (उत्पादन बढ़ाकर लागत कम करना) आ जाती है, वो चीज़ें सस्ती हो जाती हैं। एक सेमीकंडक्टर चिप है, उसमें बुद्धि की ज़बरदस्त सूक्ष्मता लगी हुई है। ए प्रोडक्ट ऑफ द एक्स्ट्रीम्स सफिस्टकेशन। बिना बहुत-बहुत गहन विचार और शोध के, वो चिप बन नहीं सकती। पर आपको ताज्जुब होगा कि एक जो चिप होती है, वो कितनी सस्ती होती है? बहुत सस्ती हो गई है। आपका जूता जितने में आता है, उससे कम में चिप आ जाती है, एक हैंडबैग जितने में आता है, उतने में बहुत सारी चिप्स आ जाती हैं। पटेटो चिप्स की बात नहीं कर रहे है! हम, सेमीकंडक्टर चिप्स की बात कर रहे हैं। एकदम सस्ते में सब मिल रहा है।

कोई आपसे नहीं कहता, विज्ञान आपसे नहीं कहता कि आकर के पहले नमस्कार करो! कृतज्ञता बताओ! चरणस्पर्श करो! तब तुमको देंगे। ऐसे ही बैठे-बैठे मिल जाता है। तो फिर हममें उसको लेकर के कोई भाव नहीं है। (पेपर में लिखे हुए विवरण को पढ़ते हैं): द एयरप्लेन, गन पाउडर, द पर्सनल कम्प्यूटर, द ऑटोमोबिल, इन्डस्ट्रीअल स्टील मेकिंग, न्यूक्लियर फिशन, द ग्रीन रेवलूशन, द टेलीफोन, द टेलीग्राफ, द मैकेनाइज्ड क्लॉक, रेडियो, फोटोग्राफी, द कॉटन जिन, पाश्चराइजेशन, आयल रिफाइनिंग, स्टीम टर्बाइन, सीमेंट, आयल ड्रिलिंग, सेल बोर्ड, रॉकेटरी, पेपर मनी, एयर कंडीशंनिंग, टेलिविजन, एनेस्थीसिया, आल एडवांसेज़ इन मेडिकल इक्विपमेंट्स, द नेल, द असेंबली लाइन, द कम्बाइन हार्वेस्टर (पेपर को समेट कर टेबल में एक तरफ़ रखते हैं)।

कभी किसी व्यक्ति को देखा है जो बहुत बीमार हो? अस्पताल में भरती है। वो आपका बहुत निकट हो, सगा हो और आप उसको देख रहे हैं कि वो बिलकुल असहाय अवस्था में है, साँस भी नहीं ले सकता ठीक से। क्या उस क्षण भी आप नहीं चेतते कि इसको मशीनों ने तो ज़िंदा रखा हुआ है या जादू-टोना;उसको ज़िंदा रख रहा है? या बाबाजी का आशीर्वाद उसको ज़िंदा रख रहा है। बाबाजी को स्वयं जाकर के अस्पताल में शरण लेनी पड़ती है। मैं पढ़ रहा था कि बहुत सारे ये लोग जिन्होंने कैरियर ही बनाया होता है, विज्ञान को ख़ासकर मेडिकल साइन्स को डिस्क्रेडिट (श्रय छीनना) करने पर, डिस्क्रेडिट समझते हैं? उसका श्रेय छीनने पर।

जब ये बीमार पड़ते हैं और इनको दवाइयों की, आधुनिक दवाइयों की और आधुनिक इक्विपमेंट की शरण में जाना पड़ता है। तो यह बात बिलकुल छुपा के रखते हैं। ख़ासकर मीडिया के सामने कभी नहीं आने देते। बहुत सारे लोग जो यही बोलते रहे कि “अरे! साइंस में क्या रखा है? ये है, वो है, फ़लाना।“ इनको भी कोविड लगा था और ये बात इन्होंने कभी प्रेस में नहीं आने दी कि इन्हें कोविड भी लगा है। और इनको ऑक्सीजन की भी ज़रूरत पड़ी है और इनको स्टेरॉयड्स की भी ज़रूरत पड़ी है और इनकी जान बचाई मॉडर्न मेडिकल साइंस ने ही है। इन्होंने यह बात सामने ही नहीं आने दी। और आप अगर पब्लिक लाइफ में हैं तो कोविड तो लगता ही है। और आप उम्रदराज़ हैं, उम्र भी आपकी पचास-साठ पार कर गई है; तो कोविड और ख़तरनाक हो जाता है। उसके बाद सहारा विज्ञान का ही लिया, जान विज्ञान ने ही बचाई। लेकिन कृतघ्नता इतनी की वो बात कभी ज़ाहिर नहीं होने दी कि मीडिया में नहीं आनी चाहिए, लोगों को नहीं पता लगनी चाहिए। क्योंकि हमारा तो कैरियर ही बना हैं साइंस को गालियाँ ही देने पर!

जबतक हमें एक ईमानदार जिज्ञासा नहीं होगी, जीवन को सचमुच दुख से मुक्त करने की। मुक्ति के लिए जब तक हममें एक बेशर्त प्रेम नहीं होगा, तबतक हम झूठों से काम चलाते ही रहेंगे। आज के समय में एक आध्यात्मिक आदमी की अनिवार्य पहचान यह होगी कि वो विज्ञान को पूरा-पूरा श्रेय और आदर देगा;क्योंकि उसको पता है कि भीतरी मुक्ति तब तक नहीं मिल सकती जब तक बाहर की दुनिया में अज्ञान घना है। भई, थोड़ा शास्त्रीय भाषा में इसको समझिए तो? भीतर जो बैठा है, उसको ही कहते हैं न अहम् या पुरुष और बाहर जिसका विस्तार है उसको क्या बोलते हैं? प्रकृति। पुरुष प्रकृति में लिप्त क्यों हो जाता है? जल्दी बोलिए। क्योंकि वो।

प्रतिभागी: अज्ञान के कारण।

आचार्य: हाँ, अज्ञान के कारण। किसका अज्ञान?

प्रतिभागी: आत्मा के प्रति अज्ञान।

आचार्य: आत्मा के प्रति अज्ञान। आत्मा को नहीं जानता वो, इसलिए प्रकृति में लिप्त हो जाता है क्या? प्रकृति के ही प्रति अज्ञान भई। आत्मज्ञान में किसको जाना जाता है? मन को ही तो जाना जाता है न। और मन क्या है? मन भी तो प्रकृति ही है। और मन भरा किससे रहता है? प्रकृति के ही तो विषयों से भरा रहता है। तो आत्मज्ञान का मतलब क्या हुआ? प्रकृति को जानना। और प्रकृति इधर भी है और उधर भी। (इधर, स्वंय में उधर बाह्य की ओर, हाथ से संकेत करते हैं)। भीतरी प्रकृति को क्या बोलते हैं—मन। बाहरी प्रकृति को क्या बोलते हैं—जगत। और यह जो भीतरी और बाहरी हैं, इनको मिला दो तो हम कहते हैं— जीवन। कुल मिलाकर के आत्मज्ञान में किसको जाना जाएगा? प्रकृति को ही तो जाना जाएगा न। तो ये जो पुरुष है भीतर, यह प्रकृति से लिप्त हो जाता है;क्योंकि इसे प्रकृति का ही ज्ञान नहीं है और जैसे ही ज्ञान मिलता है, पुरुष मुक्त होने लगता है।

माने प्रकृति का ज्ञान ही मुक्ति की ओर ले जाता है और प्रकृति के ही ज्ञान का क्या नाम है आज की भाषा में—विज्ञान। माने आध्यात्मिक मुक्ति भी चाहिए तो आपमें एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण होना चाहिए, जगत को समझने की उत्कंठा होनी चाहिए। नहीं तो आप लिप्त होते रहेंगे। अज्ञान लिप्तता का कारण बनता है और ज्ञान आते ही लिप्तता हटने लग जाती है। उदाहरण देता हूँ, आपको, ‘आप डायबिटिक हैं। ठीक? और आपके सामने कोई चीज़ लाकर रखी गई है, वो मीठी नहीं है तो आपको लगा मैं इसे खा सकता हूँ और आप ज़रा घोर किस्म के डायबिटिक है।

आपकी फास्टिंग चलती है तीन सौ। आप वो वाले डायबिटिक है। आपके सामने कोई चीज़ लाकर रखी गई है इतना तो आपको पता था पहले से कि मीठा नहीं खाना है। पर जो चीज़ लाकर सामने रखी गई वो मीठी नहीं है वो मीठी नहीं है लेकिन फिर भी उसमें स्टार्च इत्यादी बहुत है। यह बात आपको ज्ञात नहीं थी।‘

माने आपको क्या नहीं था? ज्ञान नहीं था। ‘वो चीज़ आपके सामने रखी गयी, वो चीज़ स्वादिष्ट आपको लग रही है।‘ आप तुरंत उस वस्तु के साथ लिप्त हो गए कि नहीं हो गए? पुरुष प्रकृति के साथ लिप्त हो गया न;क्योंकि उसे प्रकृति का ज्ञान नहीं था। कभी कोई आता है और आपको थोड़ा ज्ञान बता देता है, वो कहता है, वो तुम्हारे लिए शक्कर ही जैसा है बस मीठा नहीं है, अन्यथा उसमें शक्कर के सारे गुण हैं। तत्काल आप उस विषय से निर्लिप्त यानी मुक्त हो जाओगे कि नहीं हो जाओगे—जिसको जान गए—उससे मुक्त हो जाते हो।

अगर कहीं पर आशक्त हो, लिप्त हो, तो मतलब जिससे लिप्त हो उस विषय को, उस वस्तु को अभी जानते नहीं हो। विज्ञान इस तरह से पूरी तरह आध्यात्मिक है। वो आपको बता देता है कि सामने जो चीज़ है, वो क्या है? और जब आप उसको जान जाते हो तो मुक्ति संभव हो जाती है। क्या कहते हैं उपनिषद? उपनिषद कहते हैं, “विद्या मात्र से मुक्ति नहीं मिलने वाली। विद्या मात्र से मुक्ति नहीं मिलने वाली। विद्या माने? मन का ज्ञान, अहम् का ज्ञान।“ और उपनिषद बहुत कठोर होकर के ज़ोर से बोलते हैं इस बात को, इतनी ज़ोर से बोलते हैं कि अभी बताऊँगा आगे।

वो कहते हैं, “अविद्या भी चाहिए और अविद्या भी चाहिए माने अविद्या वैकल्पिक नहीं है या कि अविद्या कम महत्वपूर्ण नहीं है।“ अब सुनिए और ये सुनकर के थोड़ी चोट सी लग सकती है। उपनिषद कहते हैं, “विद्या और अविद्या में, अविद्या ज़्यादा महत्वपूर्ण है। अविद्या माने प्रकृति का ज्ञान, यह बाहर जो कुछ फैला हुआ है उसका ज्ञान। विषयों का ज्ञान, भौतिक पदार्थ का ज्ञान, जगत को जानना, यह कहलाता है—अविद्या और भीतरी जगत को जानना यह कहलाता है?

प्रतिभागी: विद्या।

आचार्य: उपनिषद कहते हैं, दोनों आवश्यक हैं लेकिन दोनों में ज़्यादा महत्वपूर्ण कौन है? यह उपनिषदों के ऋषियों से ही सुन लीजिये। वो कहते हैं, “अगर विद्या नहीं है, मतलब स्वयं को नहीं जानते, बस बाहर की दुनिया को जानते हो अगर विद्या नहीं है, मात्र अविद्या है तो जाकर गिरोगे?” पूरा करो; किसी गहरे कुएँ में। अगर भीतरी जगत को नहीं जानते, बस बाहरी जगत को जानते हो। माने विज्ञान है तुम्हारे पास;पर अध्यात्म नहीं है, अध्यात्म माने मन है जो भीतर वाला है, वो नहीं है। विज्ञान है, अध्यात्म नहीं है। तो ऋषि चेतावनी देते हैं, कहते हैं, “किसी गहरे कुँए में जाकर के गिरोगे।“ और यह बात तथाकथित धार्मिक लोगों को बहुत सुहाएगी। बस लेकिन यहीं तक सुहाएगी। आगे का सुनोगे तो होश उड़ जाएँगे।

आगे वो कहते हैं, “लेकिन अगर तुम्हारे पास यह भीतर वाला ज्ञान है और बाहर वाला नहीं है तो और ज़्यादा गहरे कुएँ में जाकर गिरोगे।“ जो लोग बस, भौतिक ज्ञान रखते हैं, वो तो जाकर गिरते हैं किसी अंधे गहरे कुँए में। लेकिन जो लोग भौतिक ज्ञान नहीं रखते और सिर्फ़ तथाकथित आध्यात्मिक ज्ञान रखते है, वो और ज़्यादा किसी अंधे गहरे कुएँ में जाकर के गिरते हैं।

फिर आगे ऋषि कहते हैं, “और जो दोनों को समझते हैं, भीतर को भी और बाहर को भी; वो मृत्यु से पार हो जाते हैं। वो सीधे-सीधे आत्मा को पाकर अमर हो जाते हैं।“

तो यह मैं कोई नई बात नहीं बोल रहा हूँ। हमारे ऋषि, विचारक, मनीषी ये बात बहुत पहले से बोल गए हैं कि इस चक्कर में नहीं रह जाना कि दुनिया का कुछ पता नहीं होगा और आध्यात्मिक मुक्ति मिल जाएगी। आध्यात्मिक मुक्ति पाने के लिए बहुत ज़रूरी है कि तुमको जगत की, भौतिक विषयों की, विज्ञान की गहरी समझ हो। नहीं तो तुम्हें बस लगता रहेगा कि ‘मुझे कुछ पता है, पता कुछ नहीं होगा।‘ गहरे अंधविश्वास में फँस जाओगे। और यह होता है ज़्यादातर धार्मिक लोगों के साथ की नहीं?

अगर कोई कहे कि ‘वो नास्तिक है;तो संभावना यह है कि अंधविश्वासी भी नहीं होगा।‘ ज़्यादा सम्भावना यही है न। अगर कोई कहे कि वो नास्तिक है तो आमतौर पर आप उसमें अंधविश्वास नहीं पाएँगे। लेकिन अगर कोई कहे कि ‘वो आस्तिक है, धार्मिक है’ तो सम्भावना यही है कि आप उसे अंधविश्वासी भी पाएँगे। उसकी वजह क्या है? उसकी वजह यही है, ‘हमने धार्मिकता का अर्थ लगा लिया है कि भीतरी जगत में हम कुछ गोते मारते रहेंगे और बाहरी दुनिया से अनभिज्ञ रहेंगे। और बाहरी दुनिया से अनभिज्ञ होने पर जो पनपता है उसे अंधविश्वास कहते हैं।‘ क्योंकि जब आपको बाहर का कुछ पता नहीं है;तो आप बाहर के बारे में कल्पना करेंगे। कुछ तो करना पड़ेगा न। तथ्य से अवगत नहीं, तो कल्पना में जीना पड़ेगा, मजबूरी बन जाएगी। उन्हीं कल्पनाओं को अंधविश्वास कहते हैं। समझ रहे हो बात को?

प्रकृति क्या है? कैसे काम करती है? अगर आपको पता नहीं होगा तो प्रकृति ही आपके लिए बहुत बड़ा अजूबा रहेगी। आप उसी में फँसे रहेंगे और उसको लेकर चूँकि आपके पास भ्रांतियाँ होंगी तो आप अपने बारे में भी भ्रांत रहेंगे। सोचिए न मनुष्य की उस दशा के बारे में जब वो ये ही नहीं जान पाता था कि यह सब जो ऊपर तारे टिमटिमा रहे हैं, ये क्या हैं? जब वो ये ही नही जान पाता था कि सागर में लहरें क्यों उठती हैं? हवा क्यों बहती है? मौसम क्यों बदलते हैं? दिन रात में क्यों परिवर्तित हो जाता है? पेड़ों से पत्ते क्यों झड़ते है? पत्तियों का रंग हरा क्यों होता है? कोई बीमार क्यों हो जाता है? यह बुखार क्यों आ जाता है? यह ज़रा-ज़रा सी बातें जब नहीं पता होती थीं, तो उसको अंधविश्वासी होना पड़ेगा न और जो अंधविश्वास में है उसे कौन सी आध्यात्मिक मुक्ति मिलेगी? जिसे अभी दुनिया का ही कुछ पता नहीं, वो तो दुनिया की गिरफ़्त में रह जाएगा। उसको छोटी से छोटी बात बड़ा अजूबा लगेगी। कहेगी, ‘यह क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है? कैसे हो गया?’

पानी का रंग वहाँ देखा तो नीला था, उधर देखा तो हरा है। ज़रूर इसमें कोई दैवीय चाल है! वो इसी में फँसा रह जाएगा। उसको कहाँ से मुक्ति मिलेगी? उसको अभी यह नहीं समझ में आ रहा उधर नीला है, उधर हरा क्यों है? यह इन्द्रधनुष छा गया, ज़रूर ये किसी बाहरी शक्ति का रथ है और जितने रंग हैं ये सब अलग-अलग रंगों के घोड़ो को इंगित करते हैं। और ऐसे ही तो तमाम कल्पनाएँ हैं पुरानी। कारण यही है विज्ञान का अभाव। आप भीतर की दिशा में जाओगे कैसे, जब आप बाहर को नहीं समझते?

आँखे किधर को देख रही हैं? बाहर को देख रही हैं। सब इंद्रियाँ सबसे पहले किधर को भागती है? बाहर को भागती हैं। और बाहर ही वो जाकर के फँस गईं, क्योंकि बाहर का कुछ पता नहीं। जहाँ पता नहीं; वहाँ फँसोगे, जैसे—चूहा चूहेदानी में फँसता है। उसे चूहेदानी का कुछ पता नहीं तो फँस जाता है। जब बाहर का कुछ पता नहीं तो बाहर ही फँस जाओगे। इंद्रियाँ भीतर अपनेआप को लौटेंगी कैसे? मुश्किल हो जाएगा न? अच्छा अभी यहाँ पर रोशनी ज़रा कम हो तो आपका ध्यान मुझे सुनने में लगेगा या इधर-उधर होने में कि किसी तरीक़े से वक्ता की शक्ल दिखाई दे जाए। बोलिए? तो आप कैसे ध्यानस्थ हो पाएँगे? अगर बाहर का ही माहौल आपके अनुकूल नहीं है। हो सकते है फिर भी, लेकिन मुश्किल हो जाएगा।

विज्ञान के अभाव में अध्यात्म मुश्किल हो जाता है। अविद्या के अभाव में विद्या मुश्किल हो जाती है और साथ ही साथ इस पर तो मैं बहुत बार कह ही चुका हूँ कि विद्या के अभाव में अविद्या घातक हो जाती है।

जो स्वयं को नहीं जानता, अगर उसे विज्ञान की शक्ति मिल जाती है तो वो व्यक्ति उस शक्ति का घोर दुरुपयोग करता है, विध्वंसक कामों के लिए। पर वो अलग मुद्दा है उस पर हम सौ बार बात कर चुके हैं। आज जो प्रश्न पूछा है वो दूसरी दिशा का है। यह समझ में आ रही है बात? आपको कोई मिले अगर, जिसकी नीयत बहुत साफ़ हो। जो कहता हो नहीं, मुझे स्वयं को जानना है, मुझे जीवन के बंधनों से मुक्त होना है, तो एक यह सलाह उसको ज़रूर दे दीजिएगा। कहिएगा अगर जीवन को जानना है तो जगत को जानो। जबतक तुम्हें यह नहीं पता कि जगत क्या चीज़ है, तबतक जीवन को नहीं समझ पाओगे और जीवन को समझोगे नहीं तो जीवन मुक्त कैसे हो जाओगे? हाँ, हो सकता है कोई बहुत विलक्षण प्रतिभा का धनी जो उस समय भी जीवनमुक्त हो गया हो जब वैज्ञानिक सोच बहुत गहरी नहीं थी, ऐसा सम्भव है। पर वो होगा कोई करोड़ों में एक। क्या आप हैं करोड़ो में एक?

कोई आकर कह सकता है पर ऋषियों के समय तो विज्ञान ने बहुत उन्नति करी नहीं थी तो वो कैसे जीवनमुक्त हो गए? भाई वो हो गए होंगे। वो तमाम अड़चनों के बावजूद हो गए होंगे। उनमें था इतना आत्मबल कि उनके सर पर बहुत बड़ा पत्थर रख दिया गया, वैज्ञानिक अंधकार का तब भी वो खड़े हो पाए। क्या तुममें उतना आत्मबल है कि तुम्हारे सर पर उतना बड़ा पत्थर रख दिया जाए, तुम तब भी खड़े हो जाओ और अगर खड़े होना ही लक्ष्य है तो सर पर पत्थर रखना ज़रूरी क्यों है?

अगर मेरा लक्ष्य खड़ा होना ही है तो मैं तो यही कहूँगा न कि जहाँ तक संभव है मैं इस पत्थर को हटा ही दूँ या मैं यह कहूँ कि फ़लाना व्यक्ति किसी समय पर, किसी शताब्दी में, पत्थर रखकर भी खड़ा हो गया था तो मैं जानबूझ के अपने ऊपर पत्थर रखूँगा। यह कौन सी समझदारी है? समझ में आ रही हैं यह बात कुछ? और किसी तथाकथित धार्मिक आदमी को आप अवैज्ञानिक बातें करते देखिए या विज्ञान को दुत्कारते देखिए तो यह तो स्पष्ट है ही कि वो विज्ञान का दुश्मन है। आपको तत्काल यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिए कि वो अध्यात्म का भी दुश्मन है। जो व्यक्ति विज्ञान का तिरस्कार कर रहा हो, वो अध्यात्म का प्रेमी नहीं हो सकता। (इस पर ही कुछ आगे पहले बात करते हैं फिर आगे किसी और प्रश्न पर जाएँगे। बिलकुल इसी से सम्बन्धित फॉलोअप पूछिए।)

प्र१: नमस्कार आचार्य जी, मुझे ऐसा लगता है जब हम जो नए गुरु आज के ज़माने में आएँ हैं। उनका बड़े स्ट्रेंथ होती है कि आयुर्वेद, योग, मेडिटेशन और जो हमारी आज की ज़िंदगी चल रही थी उसमें कुछ-कुछ लाभ इन चीज़ों से असल में होता दिखता भी है। ऐन्टिबाइआटिक ज़्यादा मतलब साइंस के भरोसे चलते थे, तो ऐन्टिबाइआटिक बहुत ले ली। यह ज़िंदगी इतनी भागती थी कि मेडिटेशन (ध्यान) से थोड़ा फ़ायदा हो गया या योगा को अपनी ज़िंदगी में लाए, तो लाइफस्टाइल डिजी (जीवनशैली के रोग) से फ़ायदा हो गया। तो कहीं न कहीं इन वजहों से इन गुरुओं पर विश्वास थोड़ा सा आता था कुछ समय के लिए। ज़िंदगी नहीं बदलती पर कुछ आराम मिलता है, कुछ-कुछ रिलीफ़ (राहत) होता है।

तो इस वजह से बहुत दुनिया, अभी भी बहुत लोगों से बात कर रही थी। सबका पाथ (रास्ता) वही रहा। सबका पाथ ऐसे ही रहा;क्योंकि कुछ-कुछ आराम ज़रूर मिला हर एक को कहीं न कहीं। पर ज़िंदगी में थोड़ा सा लगा कि हाँ यह जो भागती-दौड़ती ज़िंदगी है इसमें कुछ आराम मिल गया शायद। कोई आयुर्वेदिक दवाई से या कभी योग से, कभी इनसब चीजों से। पर ऐसी जो आपने बात बोली वो कभी सुनी नहीं, कभी देखी ही नहीं। वो मुझे लगता है कि जो हम इस तरफ़ क्यों भाग जाते हैं जिसमें बड़ा टेम्परेरी रिलीफ़ (अस्थाई राहत) मिलता है? बहुत टेम्परेरी रिलीफ़ मिलता है हमें, पर अट्रैक्शन (आकर्षण), मुझे लगता है इन तीनों चीज़ों की बहुत ज़्यादा है। मेडिटेशन, योग एंड आयुर्वेद। हम सब उससे अट्रैक्ट हो जाते हैं। मुझे लगता है हम, मैं भी वही हूँ। प्रश्न नहीं है, पर मेरी ऑब्जर्वेशन (अवलोकन) है।

आचार्य: देखिए, यह तो पुरानी मानवीय वृत्ति है। हम आज जो कुछ भी बने हैं। ठीक है? आप यहाँ सब बैठे हैं। आप समाज के एक अच्छे तबके से आते हैं। आप सब पढ़े-लिखे लोग हैं। आपके जीवन में आपकी शिक्षा का बड़ा महत्व रहा है। रहा है न? पर आपने खुशियाँ तभी मनाईं जिस दिन ज़्यादा बारिश होने से स्कूल कैंसिल हुआ। ठीक। कितना आनंद आता था, जिस दिन पता चलता था कि ‘आज मैम बीमार हैं, क्लास में नहीं आएँगी।‘ और उन्होंने ही आपको जो कुछ दिया है, वही आपको ज़िंदगी में किसी क़ाबिल बना पाया।

लेकिन हम लोग ऐसे हैं कि हमने खुशियाँ तभी मनाईं, जब पता चला कि ‘आज मैम की तबियत ख़राब है। आज तबियत ख़राब है तो स्कूल नहीं आई हैं, फ्री पीरियड है।‘ आज आपसे कोई बात करता है तो आप अपनी शैक्षणिक योग्यता बताते हैं। है न और जिन्होंने पढ़ाई-लिखाई अच्छी कर ली है, जिनके अंक अच्छे आये थे। श्रेणियाँ उत्तम थीं। उनको बड़ा गर्व रहता है अपनी उपलब्धियाँ गिनाने में। लेकिन ‘स्कूल, कॉलेज में टीचर हमें वही पसंद आते थे जो कुछ नहीं पढ़ाते थे और क्लास में आकर के क्या करते थे? कुछ राहत दे जाते थे। और राहत क्या दे जाते थे? उसके पहले के जो दो पीरियड थे, उसमें कड़ी पढ़ाई हो गयी।

जब कड़ी पढ़ाई हो गई तो तिलमिला रहे हैं बिलकुल। और फिर वहाँ पर एक गुरु जी प्रवेश करते हैं जो ख़ुद ही नहीं जानते कि वो क्या पढ़ाने के लिए आएँ हैं, पर एक घंटा तो उनको काटना है तो एक घंटा आपको सिर्फ़ फ़ँसाते हैं।‘ और वो गुरूजी पूरे कॉलेज में चमकते सितारे बन जाते हैं कि नहीं? जल्दी बोलिए।

प्रतिभागी: बन जाते हैं।

आचार्य: गुरूजी को छोड़िए। स्कूल-कॉलेज में जिनको हम बोलते हैं न कि ‘भाई यह बन्दा क्लास की जान है।‘ यह कौन से बंदे होते थे? ये कौन से होते थे? छंटे हुए! वही हमें पसंद आते हैं। जो क्लास का सबसे मेधावी छात्र होगा, जो चुपचाप अपना पढ़ता रहता होगा। और बल्कि जिसके पास आप जाएँ तो वो आपको भी कुछ दो-चार सवाल बता दें, आपकी मदद कर दें। उसको आप कभी नहीं कहेंगे कि ‘ये तो क्लास की जान है।‘ कभी नहीं कहेंगे, उसको आप बोल देंगे, ‘बुकवोर्म’ (किताबी कीड़ा) है। किताबों से बाहर क्या जानता है? अजी! ज़िंदगी किताबों से नहीं चलती।

और जो एकदम लुच्चा होगा क्लास का, वो सबकी आँख का तारा रहता है। रहता है न? तो बस ऐसे ही हैं हम! और वो जो लुच्चा है, वो राहत तो थोड़ी दे ही जाता है, मज़ा तो आ ही जाता है उसके साथ। क्या बोलूँ मैं उसमें और? बाक़ी यह जो मेरी टिप्पणी है, यह आयुर्वेद के प्रति नहीं है। आयुर्वेद से मैंने भी लाभ उठाया है। आयुर्वेद के प्रति मुझमें पूरा सम्मान है और ख़ूब लाभ लिया है मैंने आयुर्वेद से। तो ये व्यावहारिक रूप से सम्भव ही नहीं है कि मैं कह दूँ कि ‘आयुर्वेद बेकार की चीज़ है।‘ नहीं। ये मेरी टिप्पणी, वो जो क्लास की जान है, उसके लिए है!

बच्चों को कितना ज़्यादा पसंद आते हैं, नाना-नानी, दादा-दादी, ख़ासतौर पर जब उनसे मिलना हो वेकेशंस में और फिर उनको आप बोलिए कि चलो अब छुट्टी ख़त्म हुई, घर चलो। तो कितना उपद्रव करते हैं। करते हैं कि नहीं? आजकल पता नहीं होता है कि नहीं तब होता था। जो कुछ ऐसा है जो सच में आपके काम आता है वो कभी नहीं हमें सुहाता है। और जो कुछ हमारी उद्दंड और पाश्विक वृत्तियों को प्रोत्साहन देता है, हमें वही तो पसंद आता है। जीवन का कोई भी क्षेत्र ले लीजिए। आप युवा होने लगते हैं, आप तत्काल किसके प्यार में पड़ते हैं? जो बहुत धीर, गंभीर, समझदार, सयाना होता है, बहुत मेधावी होता है।

जो आपके कॉलेज का सबसे सिनसीयर (निष्ठावान) लड़का या लड़की था, वो आपको सबसे ज़्यादा भाता था। नहीं? वो जो ज़ुल्फें ऐसे लटका करके बाइक पर, पसंद तो वही आता था, भले उसके साथ जाने पर ज़िंदगी बर्बाद होनी हो, लेकिन पसंद तो वही आता है! और जो वो पढ़-लिख रहा है, जान रहा है, समझ रहा है, वो ‘किताबी कीड़ा’ कहलाता है। इसमें इसके कुछ नहीं है। तो बस यही है। इसमें और क्या बताऊँ।

देखिए, जो एक मॉडर्न हॉस्पिटल (आधुनिक चिकित्सालय) होता है न, ये थोड़े दुर्भाग्य की बात है, लेकिन उसका जो चरित्र है वो थोड़ा अमानवीय होता है इन्ह्यूमन होता है। और इसमें विज्ञान की ग़लती नहीं है, इसमें मैनेजमेंट की, प्रबंधन, व्यवस्था की ग़लती है। आप वहाँ जाते हो, आपको तत्काल डायग्नोसिस (रोग की पहचान) करके यहाँ भेज दिया जाता है,वहाँ भेज दिया जाता है;क्योंकि विज्ञान तो वस्तुओं से डील करता है न, विज्ञान का काम मनुष्यों से डील करना नहीं है। विज्ञान का विषय, विज्ञान का पूरा वास्ता जिससे पड़ता है वो कौन हैं? वस्तुएँ, व्यक्ति नहीं। आप जब एक अस्पताल जाते हो तो थोड़ा बहुत यह निश्चित रूप से होता है कि आपके साथ वैसा ही व्यवहार किया जाता है जो वस्तुओं के साथ किया जाता है। यह विज्ञान की मजबूरी है। और कुछ हद तक यह उस अस्पताल के प्रबंधन की विवशता है। और कुछ हद तक यह उनकी नाकाबिलियत है।

आपके साथ थोड़ा तो व्यवहार ऐसा ही किया जायेगा जैसे आप एक वस्तु हो। तो हमको ऐसा लगता है कि जैसे हम डिह्यूमनाइज़्ड (अमानुषिक) हो रहे हों। हमारे साथ एक अमानवीय कृत व्यवहार किया जा रहा हो। बुरा सा लगता है। क्योंकि उनको तो आपकी बीमारी से मतलब है, आपकी बातों से नहीं मतलब है। आपने देखा है, ‘कई बार आप जाते हैं डॉक्टर के पास और आप अपनी राम कहानी उसको बता ही रहे होते हैं तो इतने में वो आपका पर्चा लिखना शुरू कर देता है, आपकी बात ही नहीं सुन रहा है।‘ और आप कहते हो मेरे इमोशंस (भावनाओं) की कोई वैल्यू (मूल्य) ही नहीं। भाई, वो आपके इमोशंस को डील करने के लिए नहीं बैठा है न, वहाँ पर। उसने आपकी रिपोर्ट देखी है, उसने आपकी पल्स देखी है और उसने आपको यहाँ पर सुन लिया (हाथ से सीने की ओर संकेत करते हुए), क्या चल रहा? उसको पता चल गया आप क्या हो, आप बता रहे हो, ‘नहीं मैं सोती हूँ, फिर मैं जगती हूँ, फिर मुझे न सपने आते हैं।‘ और वो सुनने को राज़ी नहीं है;क्योंकि बाहर दस मरीज़ और खड़े हुए हैं।

तो हमें लगता है हमारे साथ इन्ह्यूमन व्यवहार हो रहा है। फिर अब जाते हो बाबाजी के पास। बाबा जी के पास वैसे ही कोई विज्ञान नहीं है कुछ जानने को। उनको वैसे ही अक़्ल नहीं है कि वो रिपोर्ट पढ़ी कैसे जाएगी? तो उनके पास पूरा-पूरा समय है, आपकी कहानी सुनने के लिए। और आप बैठो बाबा जी से गौसिप (गप्पबाजी) करो, कर भी लेंगे। आपको लगता है, ‘ये आदमी है जो मेरे दिल की समझता है।‘ और ये निजी ज़िंदगी में भी होता है कि नहीं होता है? कोई आपकी स्कूल की फ़ीस दे रहा हो, कोई आपके सारे खर्चे उठा रहा हो, वो हमें कहाँ बहुत पसंद आता है? हमें पसंद वो आता है जो हमारे साथ गौसिप लड़ाता है। हाँ या न? माँ-बाप के लिए दोस्तों से कम झूठ बोला होगा आपने। लेकिन दोस्तों के लिए माँ-बाप से आपने ख़ूब झूठ बोले होंगे।

बोलिए, यही हुआ है न? दोस्तों की ख़ातिर माँ-बाप से सब झूठ बोलते हैं। बोलते हैं कि नहीं बोलते हैं। क्यों? काम तो आपके माँ-बाप आ रहे हैं, आपके खर्चे उठा रहे हैं, शिक्षा दे रहे हैं, पालन-पोषण सब वहाँ से मिल रहा है। दोस्त से क्या मिल रहा है? दोस्त से मज़े मिल रहे हैं। तो जो मज़े दे जाएगा वो बहुत पसंद आएगा। अध्यात्म में इसको ‘श्रेय’ और ‘प्रेय’ के बीच का भेद कहते हैं। कहते हैं जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य होता है, ये ‘श्रेयस’ की जगह ‘प्रेयस’ की ओर भागता है, ये, यह नहीं देखता कि श्री किधर है? श्री माने शुभता। ये, यह नहीं देख पाता कि ‘श्रेय’ किधर है? श्री किधर है? यह बस यही देखता रहता है कि प्रिय किधर है? वो प्रिय की ओर भागता रहता है;जो प्रिय लगा उसकी ओर जाकर चिपक जाता है।

और साइंस में ऐसा कुछ नहीं है जो आपको प्रिय लगे, साइंस हार्ड (विज्ञान कठिन) है। इन्ह्यूमन (अमानवीय)नहीं है, पर एह्यूमन(नि संबंध) है, ऑब्जेक्टिव (वस्तुनिष्ठ) है, सब्जेक्टिव (व्यक्तिनिष्ठ) नहीं है। उसमें भावनाओं इत्यादि के लिए कोई स्थान नहीं है। तो फिर वो हमें पसंद नहीं आती।

प्र२: नमस्कार आचार्य जी, आपने अभी कहा कि “अहम् के लिए विद्या और अविद्या दोनों ही महत्वपूर्ण हैं और उसमें भी अविद्या ज़्यादा महत्वपूर्ण है।“ आपने कहा कि “अविद्या की गहरी समझ चाहिए।“ अब ये गहरी समझ से क्या आशय है आपका? क्योंकि प्रकृति तो अनंत है, उसमें विषय भी अनंत हैं, तो मैं रेखा कहाँ खींचूँगा? कि कितनी समझ मुझे चाहिए उसकी? उससे क्या आशय है आपका?

आचार्य: यही समझ चाहिए कि वो जो सब अनंत विषय हैं, विविधताएँ हैं, उनको आप एक करके देखने लगें। एक न भी कर पाएँ तो कम-से-कम जो अनंत है उनकी संख्या एकदम घटा दें। विविधताएँ जितनी दिखेंगी मन उतना ज़्यादा आशान्वित होगा कि कहीं-न-कहीं तो मुझे इन्हीं में चैन और मुक्ति मिल जायेंगे। हम कैसे है भीतर से?

प्र२: बेचैन हैं।

आचार्य: बेचैन हैं।

प्र२: जी।

आचार्य: और चैन हम कहाँ खोजते हैं?

प्र२: बाहर।

आचार्य: बाहर। बाहर अगर मुझे, अब आप सब बैठे हुए हो, बाहर अब मुझे दिख रहे कि पाँच सौ विकल्प हैं तो मेरे लिए आशा की कितनी संभावनाएँ तैयार हो गईं?

प्र२: पाँच सौ।

आचार्य: पाँच सौ। मैं कहूँगा, चलो अब मुझे, जीवन है मेरा सीमित सत्तर-अस्सी साल। अब मुझे पाँच जगह ठोकर मिलेगी तो भी मेरी चार सौ पिचानवे आशाएँ, लाइफलाइन बरकरार रहेंगी न। मैं कहूँगा, ‘अभी तो और इधर ही प्रयास करते रहो, कुछ न कुछ मिल ही जाएगा’ और प्रयास करने में क्या होगा?

प्र२: जीवन निकल जाएगा।

आचार्य: जीवन नष्ट हो जायेगा। तो शुरुआत करी जाती है देखके कि भले ही विविधता है। यह संख्याएँ इतनी ज़्यादा हैं, पूरा सांख्य योग इसी पर है। सांख्य जानते हैं न? संख्या से आता है कि विविधताएँ बहुत हैं, लेकिन मूलतत्व तो गिनती के हैं, मूल बात गिनती की है। तो अगर दो जगह ठोकर लग गयी तो मान लो कि दो सौ जगह ठोकर लग गयी। जितने आपको भेद दिखाई देते हैं ऊपरी, यह भीतरी तत्व एक ही है और भीतरी तत्व आत्मा नहीं है, वो कुछ और है। तो जो व्यक्ति जगत को समझता है, उसकी पहचान यह होती है और उसको लाभ यह मिलता है कि वो दो-चार अनुभवों से ही बहुत गहरी सीख ले लेता है। वो फिर जीवन भर ठोकरे नहीं खाता रहता। और इसमें विज्ञान एक तरह से बहुत मददगार होता है।

आप समझिएगा, अगर आपको यह पता लगने लग जाए की मान लीजिए आपने, आपने यह आशा बाँध रखी है कि बाहरी किसी न किसी चीज़ में कोई भीतरी तत्व होता है और वो जो भीतरी तत्व है, उसको आपने नाम दे दिया है, मान लीजिये गॉड एलिमेंट (ईश्वरीय तत्व/कण) का। आपको बता दिया गया है कि बाहर जो है, दुनिया में इतनी चीज़ें हैं और उनमें से कुछ चीज़ें हैं जिनके भीतर एक विशिष्ट तत्व होता है गॉड एलिमेंट। तो मेरे भीतर जो गॉड (ईश्वर) की प्यास है, वो बुझ जाएगी जिस दिन में उस चीज़ को पा लूँगा। जिसके भीतर, मुझमें किस चीज़ की आकाँक्षा है? मोटे तौर पर मैं कह रहा हूँ, गॉड की। मैं अभी उसको चैन या पीस या सेल्फ या आत्मा नहीं कह रहा। ठीक है? आमतौर पर लोग उसको गॉड बोलते हैं तो मैं गॉड ही बोल रहा हूँ। तो मुझे गॉड की तलाश है और मुझे किसी ने आकर बता दिया कि दुनिया में इतनी सारी चीज़े हैं, एक दो तीन चार पाँच, छह, सात, आठ, पाँच सौ, छह सौ, आठ सौ। ऐसे करके इतनी चीज़ें हैं। इनमें से किसी न किसी चीज़ में गॉड एलिमेंट होता ज़रूर है। तो अब मैं जीवन भर क्या करने वाला हूँ? क्या करने वाला हूँ?

प्रतिभागी: खोज करेंगे।

आचार्य: फिर आता है एक वैज्ञानिक जो बोलता है, भाई तुझे कुछ भी दिख रहा है, उसमें सिर्फ़ इलेक्ट्रॉन, प्रोटोन, न्यूट्रॉन हैं, ख़त्म। तो उस साइंटिस्ट ने मुझे बचा लिया कि नहीं बचा लिया? उसने मेरी आशा बिलकुल तोड़ दी। और मेरी आशा तोड़कर उसने मुझे बचा दिया।

उसने मुझे बता दिया कि ऊपर-ऊपर से सारी चीज़ें अलग दिख रही हैं। अन्दर-अन्दर सिर्फ़ और सिर्फ़ इएनपी (इलेक्ट्रॉन, प्रोटोन, न्यूट्रॉन) चल रहा है। इलेक्ट्रॉन, न्यूट्रॉन, प्रोटॉन के अलावा कुछ नहीं है। जो चीज़ तुझे बहुत प्यारी लगती है, वो भी क्या है—इएनपी है। जो चीज़ तुझे बहुत अपवित्र लगती है, वो भी क्या है—इएनपी। मैं बच गया कि नहीं बच गया? तो शुरुआत होती है जब आप विविधता में एकता देखना शुरू कर देते हैं, जब आपको दिखने लगता है कि ऊपरी-ऊपरी हैं सारे भेद। इनके भीतर-भीतर तो एक ही तत्व चल रहा है। अध्यात्म उस तत्व को सीधे कह देगा—प्रकृति।

विज्ञान और ज़्यादा एक व्यवस्थित अप्रोच (दृष्टिकोण) लेता है, तो वो पहले कहेगा नहीं, सबमें भीतर ही भीतर मोलेक्यूल्स (अणु) हैं और स्पेस है। बहुत सारा एम्प्टी स्पेस (खाली स्थान) है। फिर कहेगा, मोलिक्यूल्स एटम्स (रासायनिक अणु) से बने होते हैं। फिर वो सब एटमिक पार्टिकल्स (अवपरमाणुक कण) में घुसेंगे। लेकिन विज्ञान जो भी करता जा रहा है, बताता आपको एक ही चीज़ जा रहा है कि भीतर ही भीतर एकत्व है। भीतर ही भीतर एकदम एकत्व है। एल्कमी (रासायन विद्या) चला करती थी एक समय पर और बड़ी खोज रहती थी कि सोना कैसे बनाया जाए, लोग प्रयोग करते थे सोना बनाने का और सोना बनाने के प्रयोग में बड़े-बड़े राज्यों ने बड़ा-बड़ा पैसा लगा दिया। और एक से एक धोखेबाज एल्कमिस्ट होते थे, जो कहते थे, ‘थोड़ा और आप मुझमें निवेश करिए,फण्ड्स (धन) दीजिए, मैं आपको बता दूँगा सोना कैसे बनाया जाता है।‘ राजा लोग कहते थे, ‘ज़रूर, ठीक है।‘

विज्ञान आपको आकर बता देगा कि गोल्ड किसी भी और एलिमेंट से तैयार नहीं हो सकता। रेडियो एक्टिव डिसिन्टग्रेशन (विकिरणशील विखंडन/विघटन) ही कर लो तो अलग बात है। उसके अलावा नहीं हो सकता। राजा बच गया कि नहीं बच गया, राज्य का पैसा बच गया कि नहीं बच गया, विज्ञान आपको बता देता है कि बाहरी दुनिया क्या है, इससे आप बाहरी दुनिया में भीतरी खोज के लिए भटकने से बच जाते हो। जब आप जान जाते हो बाहरी दुनिया क्या है;तो बाहरी दुनिया में आप भीतरी खोज के लिए भटकने से बच जाते हो। उदाहरण के लिए आपको बोल दिया गया कि ‘किसी कुँए में कोई विशिष्ट जल है जिसको पीने से आदमी अमर हो जाता है या फ़लानी बीमारी का इलाज हो जाता है।‘ आप जा रहे हो उस कुएँ के लिए, समय भी लगा रहे हो, संसाधन भी लगा रहे हो, विज्ञान सीधे उस पानी को जाँचकर आपको बता देगा, इसमें कुछ है, ख़ास है कि नहीं है। आप बच गए न। बचे कि नहीं? बाहर की सारी हमारी जो तलाश है वो भीतरी शांति की ही है। इतना तो हम समझते हैं न?

बाहर जो हम भटक रहे होते हैं वो भीतरी शांति के लिए ही भटक रहे होते हैं। तो बाहर का यथार्थ अगर पता चल जाए तो भीतरी जो भटकाव है वो कम से कम एक ग़लत दिशा नहीं पाता नहीं तो बाहर एक अनंत ब्रह्मांड है, उसमें जीवन भर भटकते रहो। दस हज़ार साल तक भटकते रहो, चैन नहीं मिलेगा और भटकोगे इसीलिए, क्योंकि एक जगह कोशिश करने के बाद लगेगा कि अभी और भी तो जगह हैं। वहाँ भी तो आजमा लें। विज्ञान बता देता है जितनी जगह हैं सब एक हैं। सब एक हैं। और विज्ञान न बताए तो न जाने कितने तरीक़े के भीतरी भ्रम पाले रहोगे।

जो पूरी जंग ही है द्वितीय विश्वयुद्ध, वो लड़ी इसलिए गयी;क्योंकि हिटलर को लगता था, यहूदियों का रक्त जो है वो बाक़ी जातियों के रक्तों से अलग होता है, सुपीरियर ब्लड (सर्वश्रेष्ठ रक्त)। विज्ञान तुरंत आगे क्या बता देगा? विज्ञान हिटलर से कहेगा, ‘तुझे गोली-वोली लग गई और ख़ून चाहिए होगा न, तो जिसका मिले ले लेना। ख़ून, ख़ून बराबर होते हैं, बस जो तेरा ब्लड ग्रुप है उसकी जाँच कर लेना, उसके अलावा कहीं कोई अंतर नहीं होता।‘ लेकिन चूँकि उसको बाहर की समझ नहीं थी तो उसने देखो भीतरी कितना बड़ा आडंबर पाल लिया। एक छोटी सी चीज़ नहीं पता थी कि रक्त क्या है? और रक्त के न पता होने के कारण उसने भीतरी एक स्वांग खड़ा कर लिया कि एक नस्ल, एक रेस, एक एथ्निसिटी (नृजातियता) दूसरों से बेहतर होती है। बताओ अगर वैज्ञानिक समझ पूरी हो तो क्या जातिप्रथा बच सकती है? बोलो। और आज के युग के जो बड़े-बड़े हमने ढकोसले पाल रखें हैं।

उदाहरण के लिए स्त्रियों के प्रति बहुत ज़बरदस्त लोगों के मन में एक द्वेष होता है, एक भेद का भाव होता है। क्या वो बात वैज्ञानिक दृष्टि से तर्कसंगत होती है;पर आप माने रहते हो न। जहाँ होता है ऐसा, होता है। और वो मानने के कारण आप भीतरी तौर पर तबाह हो जाते हो। कहने को आपका अज्ञान बाहरी है, पर वो तबाह आपको भीतर से करता है। तो भीतरी मुक्ति के लिए भी बाहरी ज्ञान होना बहुत ज़रूरी है। अब हर आदमी तो वैज्ञानिक बन नहीं सकता। आप पूछोगे, "कहाँ तक हो बाहरी ज्ञान?" जहाँ तक आपके पास बाहरी धारणा है वहाँ तक बाहरी ज्ञान ज़रूर रखें। जिन चीज़ों के बारे में आपके पास कोई बाहरी धारणा ही नहीं है, वहाँ फिर बाहरी ज्ञान की भी ज़रूरत नहीं है;क्योंकि ज्ञान का काम तो अज्ञान को काटना है।

अगर बाहरी अज्ञान ही नहीं है; तो फिर किसी, उदाहरण के लिए अगर आपको ऐसा लगता है कि ब्राह्मण का रक्त किसी अन्य दूसरे रक्त से श्रेष्ठ होता है तो आपके लिए ज़रूरी है कि आप जाकर के पढ़ाई करो और पता करो कि यह रक्त चीज़ क्या होती है? थोड़ा किताबें खोलो, फ्लूइड कनेक्टिव टिशू (द्रव संयोजी ऊतक), वो चैप्टर (अध्याय) खोलो और देखो कि यह रक्त क्या चीज़ होती है? लेकिन अगर आपके पास यह धारणा ही नहीं है रक्त वाली, तो फिर आपको कोई आवश्यकता भी नहीं है;रक्त के विषय में पढ़ने की फिर आपको अपने ज्ञानवर्धन के लिए पढ़ना है तो पढ़ लीजिए। लेकिन आवश्यकता नहीं है। यूँ ही पढ़ना है तो पढ़ लीजिए। अच्छी बात है।

समझ में आ रही बात?

बाहर की दुनिया को लेकर के आपके पास जो भी धारणाएँ हैं, उस विषय में ज़रूर पढ़ाई करिए। धारणाएँ नहीं हैं तो फिर कुछ ज़रुरत नहीं है। आप धारणामुक्त हो गए तो फिर आप विज्ञानमुक्त भी हो सकते हैं। पर जबतक आपके पास धारणाएँ हैं;तबतक आपको विज्ञान चाहिए ही चाहिए। भीतर हमें अपनेआप को लेकर धारणाएँ होती हैं। दो तरह के झूठ होते हैं।

यही तो शुरुआत करी थी न हमने बात की? एक भीतरी झूठ होता है, एक बाहरी झूठ होता है और दोनो झूठ एक-दूसरे को सहारा देकर चलते हैं। भीतरी झूठ है, उनको काटने के लिए क्या चाहिए—अध्यात्म। जो आपसे कहेगा, ‘देखो अपने कर्मो को, अपनी भावनाओं को, अपनी वृत्ति, अपने विचारों को।‘ है न? तो वो भीतर की अब्ज़र्वटॉरी (वैधशाला) होती है, भीतर की प्रयोगशाला। तो भीतरी झूठ ऐसे काटा जाता है। और बाहर को लेकर धारणाएँ होती हैं उसके लिए आपको एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला चाहिए।

आप प्रयोगशाला में मत जाइए ख़ुद लेकिन जिन्होंने प्रयोगशाला में करे हैं प्रयोग और निष्कर्ष निकाले हैं, उनकी बात पढ़ लीजिए। धारणा नहीं है तो फिर बहुत ज़रूरत भी नहीं है। बाहर की दुनिया को लेकर हमारे पास धारणाएँ हैं या नहीं हैं? कैसी धारणाएँ होती हैं? बोलिए।

सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण को लेकर के होती हैं, कोई कहता है कि खाना ख़राब हो जाता है ग्रहण वाले दिन। अगर आपके पास यह धारणा नहीं है;तो इसपर किसी शोध की आपको ज़रूरत भी नहीं है। लेकिन अगर आपकी धारणा है कि ग्रहण के दिन खाना ख़राब हो जाता है तो फिर पढ़ाई ज़रूर करिए। क्या सचमुच होता है? और क्या धारणाएँ होती हैं, लोगों की बाहर की दुनिया को लेकर? साधारण धारणाएँ ही बता दो न, मतलब अंधविश्वास वाली धारणाएँ बताने की ज़रूरत नहीं है। साधारण धारणाएँ भी जो होती हैं, ज़िंदगी को लेकर हमारी कि बाहर ये ऐसे; बिल्ली रास्ता काट गईं; प्रयोग कर, इसपर पढ़ लो कि बिल्ली अगर रास्ता काट जाए तो कुछ होता है क्या? और बिल्ली रास्ता काट गयी इस धारणा की शुरुआत कहाँ से हुई थी? यह भी पढ़ाई कर लो। और क्या धारणाएँ होती हैं?

(अब उस धारणा को विज्ञान नहीं बहुत आपके लिए जाँच पाएँगा। क्योंकि वहाँ तो यह कहते हैं कि ‘स्नान करके नहीं जाओगे तो देवता रुष्ट हो जाएँगे।‘ अब विज्ञान बेचारे की देवता तक पहुँच ही नहीं है, तो वो कैसे जाँचेगा कि रुष्ट हुए कि नहीं हुए? 1:18:26 किस धारणा की बात हुई यहाँ पर, यह पता नहीं चला, इसलिए ब्रैकिट में डाल गया है।) लेकिन हाँ, एक दूसरी चीज़ है, जो विज्ञान ज़रूर जाँच सकता है। उदाहरण के लिए मासिक धर्म चल रहा है तब वहाँ मत जाना; क्योंकि आपके शरीर से गंदे वाइब्रेशन निकलते हैं। यह विज्ञान जाँच देगा कि वाइब्रेशन तो भई हमारा क्षेत्र है, लो जाँचे देते हैं। इतना जाँच देगा।

देवी-देवता नहीं जाँच सकता, लेकिन शारीरिक वाइब्रेशन विज्ञान जाँच देगा और आपको बता देगा कि कुछ नहीं निकलता। जैसे अन्यथा थे वैसे आज भी हो, जाना है तो जाओ, नहीं जाना, मत जाओ। गंगा जल में कुछ विशेष, नाप लीजिए, पानी लीजिए, नाप लीजिए।

अब यही बात है न, देखो गाड़ी चलाने के लिए लाइसेंस लगता है और गाड़ी चलाना कितनी ऊँची और कितनी श्रेष्ठता की बात है? वो हम जानते ही हैं। है न? वो इतनी ऊँची बात है कि जिस आदमी के पास जैसे ही थोड़ा पैसा आता है, वो कहता है कि ‘ले भाई, दस-बीस हज़ार रूपए तू ले, तू चला दे गाड़ी। गाड़ी चलाना इतना ऊँचा काम है’ आपको बोला जाए, ‘मैं ज़िंदगी भर तुझे मौका देता हूँ गाड़ी चलाने का’, कोई विशेष ख़ुशी तो नहीं होगी आपको या होगी? लेकिन उसके लिए भी लगता है लाइसेंस।

लेकिन क्वान्टम मेकेनिक्स, क्वान्टम फिज़िक्स इन शब्दों का उपयोग करने के लिए कोई लाइसेंस नहीं लगता। तो ऐसे लोग जिनको फिज़िक्स भी नहीं पता, जो आठवीं की फिज़िक्स भी नहीं जानते, वो क्वान्टम फिज़िक्स की बात करते हैं। उनसे पूछो, ‘क्वांटा माने क्या होता है?’ तू इतना ही बता दे, अच्छा छोड़, उन्हें नहीं पता होगा, पर क्वान्टम फिज़िक्स, क्वान्टम एंटेंगलमेंट है।

एक आया, मैंने पूछा, ‘कैसे तू बोल रहा है कि नहीं-नहीं ऐसा ही है, फ़लानी से प्यार हो गया है और पक्का है छोड़ नहीं सकता। तो बोल रहा है नहीं वो प्यार नहीं है, वो क्वान्टम एंटेंगलमेंट है! और यह बात आपको रोचक नहीं लगती कि वैसे तो हमें विज्ञान से इतनी नफ़रत है। लेकिन अपनी तथाकथित धार्मिक बातों को भी जायज़ ठहराने के लिए सहारा हम विज्ञान का ही लेते हैं। कोई आप अनाप-शनाप, अंधविश्वास की ऊल-जलूल बात कह रहे होंगे, लेकिन आपको सिद्ध करना है कि वो बात जायज़ है तो आप कहोगे, ‘यह बात मैं नहीं कह रहा हूँ, यह बात तो थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी (सापेक्षता का सिद्धांत) से भी साबित होती है।

ये ऑरा (आभा) और ये वाइब्रेशन (कंपन), एनर्जी (शक्ति), फ्रीक्वेंसी (आवृति), इसको सही साबित करने के लिए उद्धरण निकोला टेस्ला का ही लेकर आते हो। क्यों यार! विज्ञान तो एकदम ओछी चीज़ है। तो वैज्ञानिकों को क्यों कोट (उद्धरण) कर रहे हो! और यह बात मुझे शुरू से ही बड़ी विचित्र लगती थी कि वैज्ञानिक अपनी बातों को सही ठहराने के लिए कभी धार्मिक कोट (उद्धरण) नहीं देते या देते हैं? ऐसा तो नहीं पढ़ा होगा आपने कि आपको कोई फिज़िक्स में प्रॉब्लम) दी गई है सॉल्व (हल) करने के लिए और आप उसमें कोई श्लोक लिख दें। ऐसा होता है क्या? ऐसा तो चलेगा नहीं।

लेकिन ये लोग जिन्हें उल्टी-पुल्टी बातें फैलानी है, यह ज़रूर कहेंगे कि ‘यह बात न, विज्ञान से भी ज़ाहिर होती है, यह विज्ञान से है।‘ थोड़ा अगर हम एक जागृत समाज होते तो जहाँ कहीं पाते कि वैज्ञानिक टर्मिनोलॉजी (परिभाषिक शब्दावली) का दुरुपयोग हो रहा है, वहाँ से तत्काल उठ खड़े होते। लेकिन हम हैं नहीं। मूल कारण आंतरिक ही है। हम धोखे में हैं और हमें धोखे में ही रहना है। उससे दुख हमें ही मिलता है। लेकिन फिर भी हम चेतते नहीं हैं।

प्र३: सर, मनोविज्ञान भी क्या विज्ञान का ही एक शाखा हुआ और जैसे आजकल डिप्रेशन (मानसिक तनाव) चल रहा है, डिप्रेशन के नाम पर बाइपोलर डिज़ीज़ (उन्मादी-अवसादी विकार) और बहुत सारी की डिज़ीज़ (बीमारी) के लिए अलग-अलग टाइप की मेडिसन (दवाई) दी जाती है। और इस टर्म (शब्दावली) का नेगटिव (नकारात्मक) उपयोग भी आज की सोशल मीडिया में भी किया जाता है। जिसमें छोटी-छोटी बात को लेकर बोल दिया जाता है कि मेरे को डिप्रेशन है। और वहाँ पर हमारे जो मन, जो हमारे साथ खेल रहा होता है, उस चीज़ को समझने की बजाय उसको हर चीज़ को साइंस का दुरुपयोग करके उसमें लिया जाता है।

आचार्य: हाँ वही है, बिलकुल वही है। देखो, जब तक आप साइअन्टिफिक मेथड से अभ्यस्त न हों। आपको नहीं पता चलेगा कि कितना ज़्यादा रिगर (सावधानी और बारीकी) होता है साइंस में। वहाँ आप एक छोटी-से-छोटी चीज़ बोलने से पहले हज़ार दफ़े प्रयोग करते हो। बहुत कठिन इक्वेशन्स (समीकरण) होती हैं, उनको हल करते हो, तब जाकर के आप किसी निष्कर्ष पर आते हो। और वो एक बुद्धि का बहुत-बहुत ऊँचा और सूक्ष्म उपयोग होता है। तब जाकर के विज्ञान किसी, किसी नतीजे पर पहुँचता है। लेकिन विज्ञान जिस नतीजे पर पहुँचा है, कोई दूसरा आदमी जिसने उस नतीजे तक पहुँचने की क़ीमत नहीं चुकाई है। वो उसको उठाकर के उसके बारे में कुछ आंय-बांय बोलना शुरू कर देता है। यह बड़ी गड़बड़ बात हो जाती है।

अब मुझे ये सदा से अजीब लगता था कि करोड़ो डॉलर का निवेश हो रहा है। इतनी बड़ी-बड़ी प्रयोगशालाएँ हैं, उसमें दुनिया के जो ऊँचे से ऊँचे वैज्ञानिक हैं वो जान लगाकर के मेहनत कर रहे हैं और तब भी कुछ बातें हैं जो अभी वो नहीं समझ पा रहे हैं। धीरे-धीरे करके, साल दर साल उन बातों पर से पर्दा हटता है। कई बार दशकों लग जाते हैं। लेकिन ये जो आम सड़क पर चलता हुआ आदमी होता है, ये उन बातों को लेकर के ऐसे बोल देता है जैसे, हाँ हमे तो पता ही है। कैसे बोल देते हो भाई? कैसे बोल देते हो? उदाहरण के लिए यूनिवर्स (ब्रह्माण्ड) का विस्तार कितना है? साइंस अभी ये बता पाने की स्थिति में नहीं है। कोई आपसे पूछे कि ‘यूनिवर्स की डायमेंशन (आयाम) बता दो’ तो उसको लेकर के अभी बहुत तरह की बातें हो रही हैं। कोई डाइमेंशन बता पाना संभव है कि नहीं वो भी नहीं है। एक्सपैंडिंग यूनिवर्स (प्रसरणशील ब्रह्माण्ड) है या कॉंट्रेक्टिंग यूनिवर्स (सिकुरणशील ब्रह्मांड) है या पलसेटिंग यूनिवर्स (स्पंदित ब्रह्मांड) उसको लेकर के भी अभी अलग-अलग थ्योरीज़ (सिद्धांत) हैं। वो आपस में कम्पीट (प्रतिस्पर्धा) कर रही हैं। रिसर्च (अनुसंधान) अभी चल रही है।

लेकिन आप यूँही किसी से मिलिए, सड़क के आदमी से, वो कहेगा ‘जो ब्रह्मांड है न, हमें तो पहले ही पता था कि यह इलिप्टिकल (अंडाकार) है; इसीलिए तो इसे ब्रह्माण्ड बोलते हैं, अंडा, अंडे के!’ भाई, बोल दिया गया था अच्छी बात है, लेकिन चीज़ इतनी सस्ती नहीं है न कि तूने बिलकुल फूँक में उड़ा दी। वो जो लोग वहाँ लैब्स (प्रयोगशालाएँ) में बैठकर के तमाम तरह के रिसर्च और एक्सपेरीमेंट (प्रयोग) कर रहे हैं, एनालिसिस (विश्लेषण) कर रहे हैं, उनमें तुझसे थोड़ी सी तो ज़्यादा बुद्धि होगी न। या कम से कम तेरे जितनी तो बुद्धि होगी उनमें। और वो सैकड़ों टॉप रिसर्चर्स (प्रमुख अंवेषक) हैं। तुमने उन सबको बिलकुल यूँही फूँक मारकर उड़ा दिया। तुम कितने बड़े ज्ञानी हो!

लेकिन चूँकि हम ख़ुद साइअन्टिफिक मेथड के रिगर से गुजरे नहीं हैं, इसीलिए हमारा दिल नहीं दहलता साइंस के बारे में कोई हल्की बात बोल देने में। जिस व्यक्ति ने उदाहरण के लिए, आईआईटी, जेई की, एक आध-दो साल गंभीरता से तैयारी करी हो, भले ही फिर वो सफ़ल न हुआ उसमें। पर अगर सिर्फ़ तैयारी भी कर ली है, उसके बाद वो हल्के में नहीं ले पाएगा साइंस को। वो अच्छी तरह जानता है कि फिज़िक्स का सवाल सामने आ जाता है। दो घंटे सर खुजाते रहते हो, एक अक्षर लिखते नहीं बनता तो ऐसे कैसे मैं फिज़िक्स की किसी बात में अपना मुँह खोल दूँ। फिज़िक्स के सामने इस छात्र का अहंकार अब थोड़ा नमित हो चुका है, थोड़ा टूट चुका है। चूँकि इसने एक रिगरस तैयारी करी थी, क्योंकि इसने तैयारी करी थी, इसीलिए ऊँट पहाड़ के नीचे आ चुका है। यह कभी विज्ञान के सामने बदतमीज़ी नहीं करेगा। इसको मालूम है कि विज्ञान की छोटी-छोटी समस्याएँ तो तुम सुलझा नहीं पाए तुम बड़े वैज्ञानिकों के सामने क्या मुँह खोल रहे हो।

यह लोग जो बात करते हैं, क्वान्टम शब्द का इस्तेमाल करने की, अभी बात हो रही थी। इनके सामने आप रख दीजिए न, मैक्सिमल सिक्वेंस रख दीजिए और कहिए, ‘थोड़ा सा कुछ बता दीजिए इसके बारे में।‘ और कहिए कि ‘दस साल दे रहे हैं और दस साल तुम्हें शोध करने के लिए नहीं दे रहे हैं।‘ हाँ, दस साल शोध करने के लिए नहीं दे रहे हैं। दस साल सिर्फ़ इनको सॉल्व करने के लिए दे रहे हैं और जिसका सॉल्यूशन बहुत पहले हो चुका है। सॉल्यूशन बहुत पहले, कई दशकों पहले हो चुका है। तुम्हें लेकिन दस साल दे रहे हैं। दस साल में जो किताब पढ़नीं हो, जो समझना हो, जो करना हो, उसके बाद इसको थोड़ा सा, चलो तुम सॉल्व पूरा मत करो। दो स्टेप्स आगे बढ़कर दिखा दो कि इनका क्या करना है? तब यह आदमी फिर थोड़ी तहज़ीब सीखेगा, तब यह आदमी फिर अपना मुँह बंद रखना सीखेगा।

अभी हिग्स बोसोन (एक मूल कण) की बात चल रही थी। उसी को तो गॉड पार्टिकल बोल दिया था न। तो जितने ये धर्म गुरु थे, इन्हें गॉड शब्द पकड़ में आ गया। बोले, अच्छा! यह तो हमारे एरिया की बात है। गॉड पार्टिकल, हाँ, गॉड पार्टिकल, गॉड पार्टिकल बोले क्या होता है, ‘गॉड पार्टिकल कुछ नही होता, एक पार्टिकल होता है जिसको गॉड जब छू देता है तो उससे पूरा यूनिवर्स तैयार हो जाता है!’ बोलते यह देखो, ‘इनको इतने लम्बे चौड़े एक्सपेरीमेंट करने पड़ रहे हैं, हम ऐसे ही बता देते हैं क्या होता है? क्या चल रहा है ये? कहाँ को जा रहे है हम? वो कह भी देते हैं, आप सुन भी लेते हैं।‘

चाहे वो विज्ञान हो कि मनोविज्ञान हो, टेक्निकल टर्म्ज़ (तकनीकी शब्दावली) के साथ मज़ाक करने की अनुमति किसी को नहीं होनी चाहिए। चाहे वो क्वान्टेमेंट एंटेंगलमेंट हो या डिप्रेशन (तनाव) हो। यह सब बहुत स्ट्रिक्ट्ली डिफाइंड टेक्निकल टर्म्स (दृढ़ता से परिभाषित तकनीकी शब्द) हैं। इनका हल्के में उपयोग नहीं कर सकते। ऐसे नहीं बोल सकते कुछ भी कि ऐसी सी बात हो गई, कोई बोले, ‘हाँ भाई, तुम्हारी हाईट (लम्बाई) कितनी है?’ आप बोलो, ‘साठ डिग्री सेंटिग्रेट (ताप से संबंधित माप)।‘ तुझे पता भी है क्या बात हो रही है, वो एक टेक्निकल टर्म है, उसको ऐसे नहीं बोला जाता, कुछ भी, ‘इतने डिग्री सेंटिग्रेट या कुछ भी।‘

पूछे, ‘हाँ भई, ‘कितनी स्पीड से आ रहे हो? तो वो आंसर (ज़वाब) दे रहा इतने जूल्स पर सेकेंड स्क्वायर (विद्युत माप की इकाई)।‘ ये क्या बोल रहे हो तुम? फिज़िक्स में यह लिख दोगे की ‘मेरी स्पीड (रफ़्तार) है जूल्स पर सेकेंड स्क्वायर, तो पीटे जाओगे!’ लेकिन आम वार्तालाप में इस तरह बोल देते हो तो चल जाता है कि मेरे मन का एक्सलेरेशन (त्वरण) हो गया। इसी को कहते हैं, सूडो साइंस। सूडो साइंस का अर्थ साइअन्टिफिक इलटरसी (वैज्ञानिक निरक्षरता) नहीं होता।

सूडो साइंस का अर्थ होता है, साइअन्टिफिक टर्म्ज़ का इस्तेमाल करना, जहाँ तुम्हें उसका मतलब भी नहीं पता है। उसको कहते हैं, सूडो साइंस।

जो साइअन्टिफिक्ली इलिटरेट (वैज्ञानिक रूप से निरक्षर) है, अगर उसमें इतनी विनम्रता है, इतनी ह्यूमिलिटी है कि वो साइअन्टिफिक टर्म्ज़ का इस्तेमाल ही न करे, तो ठीक है। कोई बड़ी ग़लती नहीं हो गई। ग़लती तब होती है जब आप साइअन्टिफिक्ली इलिटरेट होते हो। आप विज्ञान के बारे में कुछ नहीं जानते हो, लेकिन उसके बाद भी आपमें धृष्टता इतनी होती है, आपमें बदतमीज़ी इतनी होती है कि आप विज्ञान के शब्दों का, उसकी टर्म्ज़ का, यूँ ही अनाधिकार दुरुपयोग करना चाहते हो।उसको कहते हैं सूडो साइंस। टू यूज़ साइंस विदाउट नोइंग साइंस (विज्ञान को जाने बिना उसका प्रयोग करना)।

प्र४: नमस्ते सर, मुझे यह पूछना था कि स्पिरिचूऐलिटी में आगे बढ़ने के लिए साइकोलॉजिकल नॉलेज (मनोविज्ञान की जानकारी) की क्या वैल्यू (महत्व) है? मनोवैज्ञानिक ज्ञान का क्या महत्व है?

आचार्य: अच्छा महत्व है, बहुत अच्छा महत्व। जिन लोगों की अध्यात्म में रुचि हो, अगर वो मनोविज्ञान के छात्र है; तो उनको अतिरिक्त लाभ मिलता है।

प्र४ : सर, मैं अभी जैसे, अपनी पोस्ट ग्रेजुएशन परस्यू (जारी) करने का सोच रही हूँ साइकोलोजी (मनोविज्ञान) में। तो क्या चीज़ें हैं जो मुझे मन में रखनी चाहिए जैसे मैं स्पिरिचूऐलिटी (अध्यात्म) में भी बहुत मतलब इंट्रस्टेड (इच्छुक) हूँ तो?

आचार्य: नहीं, कुछ मन में नहीं रखो। आपको जो पाठ्यक्रम दिया गया है, बस उसी के साथ इंसाफ़ कर दो। अगर आप साइकोलॉजी को अच्छे से समझते हो, जिन लोगों ने साइकोलॉजी में काम करा है, रिसर्च (अनुसंधान) करी है, आपकी पकड़ उसपर मौजूद है तो जो बातें आपको आध्यात्मिक ग्रंथों में बताई जा रही हैं, वो समझने में आपको सुविधा हो जाएगी। और कुछ बातें आपको बहुत सहज रूप से समझ में आ जायेंगी, उन लोगों की अपेक्षा जिन्होंने साइकोलॉजी नहीं पढ़ी है।

प्र४: बट साइकोलॉजी में अगर शायद ईगो की, अहंकार की बात नहीं करते हैं।

आचार्य: हाँ, नहीं करते हैं लेकिन मन की बात करते हैं न, अहम् की नहीं करते, पर मन की तो पूरी बात करते है न? इसीलिए मनोविज्ञान पढ़ना अध्यात्म में निश्चित रूप से उपयोगी होता है। देखिए, दो क्षेत्र हैं जो कि अध्यात्म की दिशा में एकदम उपयोगी जाते हैं। मैं ह्यूमैनिटीज़ (मानविकी) की बात कर हूँ। अभी तक हमने साइंस की बात करी है न। तो साइंस के अतिरिक्त जब हम ह्यूमैनिटीज़ की ओर आते हैं, दो क्षेत्र हैं जो आध्यात्मिक रुचि रखने वाले छात्रों के लिए उपयोगी है। एक मनोविज्ञान और दूसरा दर्शनशास्त्र। और जो एक उभरता हुआ क्षेत्र आ रहा है एकदम अलग दिशा से, वो है न्यूरोसाइंस (तंत्रिका विज्ञान)। तो साइंस, साइकोलॉजी, फिलॉसफी और न्यूरोसाइंस। अगर इनमें आपकी रुचि है तो आध्यात्मिक मुक्ति आपके लिए ज़्यादा सरल हो जाएगी।

प्र४: समाजशास्त्र।

आचार्य: बिलकुल उससे भी मदद मिलती है। पर उनको मैं थोड़ा पीछे रख दूँगा फिर भी, क्योंकि समाज क्या है? व्यक्तियों से बना है और व्यक्ति उसका मन होता है। तो मनोविज्ञान पहले आता है, समाजशास्त्र बाद में आता है। इसके अलावा इतिहास में भी आपकी रुचि है तो भी होगा लाभ। आप देखेंगे कि कैसे, कैसे इंसान आज तक, इवोल्यूशनरी बायोलॉजी (अनुवांशिक लक्षणों के पीढ़ी दर पीढ़ी परिवर्तन का अध्ययन), इससे बहुत लाभ होता है। अगर आप आध्यात्मिक रुचि रखते हैं, तो यही मत करिएगा सिर्फ़ कि मैं रिलीजियस बुक्स पढ़ता रहता हूँ। यह सब भी पढ़िए। इससे बिलकुल समझ में आता है, हम कौन है? कहाँ से आएँ हैं? जीवन क्या है? और सफरिंग की जो समस्या है, मूल अध्यात्म के सामने। उसका समाधान किधर से निकालता है?

आप इन सब चीज़ों में अगर पढ़ाई नहीं करते हैं और यह बात सिर्फ़ छात्रों पर ही नहीं लागू होती है, सब पर लागू होती है। कोई भी आपकी उम्र हो, साठ के हों, अस्सी के हों; पर आपको साइकोलॉजी पढ़नी चाहिए। न्यूरोसाइंस में किस-किस तरह की नई खोज हो रहीं हैं, वो आपको पढ़नी चाहिए; यह सब बातें आपको पता होनी चाहिए। और फिलॉसफी तो, उसका तो कोई विकल्प ही नहीं है। पूरा आपको ज़रूरी नहीं है कि आप एक सिलेबस की तरह सब कुछ ही पढ़ जाएँ। पर फिर भी थोड़ी एक व्यवस्था के साथ कि अब यह पढ़ना है, अब यह पढ़ना है, अब यह पढ़ना है। जितना भी समय निकाल सकें, उसमें दर्शनशास्त्र का अध्ययन ज़रूर करना चाहिए। और सिर्फ़ भारतीय दर्शन ही नहीं, हम यहाँ पर अधिकांश बात वेदांत की करते हैं। तो आप जब भारतीय दर्शन कहेंगे तो उसमें आप सांख्य को जोड़ लेंगे, योग को जोड़ लेंगे, न्याय वैशेषिक को और मीमांसा इनको तो वैसे भी अब कोई देखता नहीं।

जब मैं दर्शन कह रहा हूँ, तो उससे मेरा ज़्यादा आशय वेस्टर्न फिलॉसफी से है। उनको भी देखना, पढ़ना, सुनना ज़रूरी है। क्या कहा है उन्होंने और उसमें भी यह नहीं कि आपको पचास नाम पता हैं तो आप कहें कि मुझे पचासों को पढ़ना है। और यह जो सब फिलोसोफर्स होते हैं, बड़ा लिखते हैं, इतनी मोटी-मोटी (हाथ से मोटाई का संकेत करते हैं), सबको पढ़ना है। ऐसे में आप फँस जायेंगे। पचास के पचास जानने ज़रूरी नहीं हैं। लेकिन जो सबसे महत्वपूर्ण नाम हैं, उन्होंने क्या बात कही है? वो जानिए। फिर उस बात में आपकी रूचि बढ़ने लगती है तो फिर उनकी जो मूल पुस्तके हैं, उनकी और जाइए। यह सब एक सुविकसित मन के लक्षण होते हैं कि उसकी ज्ञान में बहुत रुचि होती है। ज्ञान, चाहे वो ज्ञान किसी भी दिशा से आ रहा हो। वो हर जगह से जानना चाहता है।

एक बात और बोलता हूँ, अध्यात्म में अगर आपकी रुचि है तो ठीक है, मैं वेदांत तक पहुँचा और वेदांत को सर्वोपरि रखकर आपसे सारी बातें करता हूँ। लेकिन मैं आपसे कहूँगा कि जो अन्य धर्म हैं;उनकी भी जो किताबें हैं, उनको ज़रूर पढ़ें और भी लोग हुए हैं दुनिया में, जिन्होंने और भी बातें करी हैं। यह जानना चाहिए कि उन्होंने क्या बातें करी हैं और थोड़ा निष्पक्ष होकर के जानना चाहिए। अनभिज्ञ रहने में, अनपढ़ रहने में, कोई लाभ है क्या? जिस चीज़ से आपका वास्ता पड़ ही रहा है प्रतिदिन, भई!

दूसरे धर्म के लोगों से भी आपका प्रतिदिन वास्ता तो पड़ता ही है न। और आपका न पड़ता हो तो अखबारों में तो पड़ता ही रहता है। टीवी पर पड़ता रहता है और देश की राजनीति में यह सब बहुत बड़े मुद्दे होते हैं। और अब तो बहुत ही बड़ा मुद्दा धर्म ही धर्म मुद्दा है सिर्फ़।

तो यह पता होना चाहिए कि जिनके बारे में आप इतनी बात करते हो, जो लोग आपके मन पर इतना छाए रहते हैं, उनका दर्शन क्या है? उनका मनोविज्ञान क्या है? वहाँ पर जो पुस्तकें हैं वो क्या बात बोल रही हैं? यह बात पता होनी चाहिए। यह एक सुसंस्कृत व्यक्ति के लक्षण होते है। यही वास्तविक संस्कार है, जानना। ज्ञान ही संस्कार है। और बाक़ी सब जो सोलह संस्कार वगैरह हम बोलते हैं वो ऊपरी हैं।

असली संस्कार एक है और उसका नाम है, ज्ञान।

तो हर तरफ़ से पढ़िए, जितना गहराई से जाकर पढ़ सकते हैं, पढ़िए, जानिए और जैसे-जैसे आपका ज्ञान बढ़ेगा, वैसे-वैसे आप पाएँगे कि आपका समूचा व्यक्तित्व ही बदल रहा है। आप इंसान ही दूसरे होते जा रहे हो। हम जिसको अपना अस्तित्व या व्यक्तित्व बोलते हैं न। वो वास्तव में हमारे अज्ञान का ही स्थूल रूप होता है। हमारा जो अज्ञान है, वही हमारा व्यक्तित्व बन जाता है। तो जैसे-जैसे वो अज्ञान पिघलता है, वैसे-वैसे आपका व्यक्तित्व भी बदलता है। और कहने वालों ने कहा है, कि “जब पूर्ण मुक्ति के निकट पहुँचने लग जाते हो;तो व्यक्तित्व फिर बचता ही नहीं। व्यक्तित्व हवा जैसा हो जाता है और व्यक्ति आकाश जैसा हो जाता है, कोई ठोस व्यक्तित्व बचता नहीं।“

लेकिन वो बहुत आगे की बात है, उसको छोड़िए। अभी तो इतना ही करना है कि जो व्यक्तित्व को हमने एक जड़ता दे दी है, है न कि जैसे, सूखी लकड़ी, मरी हुई सूखी लकड़ी, वो जड़ हो जाती है, वो ठोस तो होती है, पर जीवित नहीं होती। उस जड़ता को हटाया जाए। व्यक्तित्व में एक लोच लाई जाए, एक और्गेनिक (जैविक) जीवंतता व्यक्तित्व में लायी जाए। उसके लिए पढ़ना बहुत ज़रुरी है। पढें और खुले हुए मन से पढें। कोई सीमाएँ रखकर के न पढ़ें।

प्र४: सर, इसमें रिसर्च (अनुसंधान) पेपर्स का क्या योगदान रहता है?

आचार्य: बहुत आगे की बात है रिसर्च पेपर्स। आप साइकोलॉजी की स्टूडेंट हैं, आपके लिए महत्त्वपूर्ण है कि आप सीधे-सीधे जाकर रिसर्च पेपर्स पढ़ें। ज़्यादातर लोग जो यहाँ बैठे हुए हैं, अगर मैं उनसे कह दूँ कि सीधे आप रिसर्च पेपर्स (शोध पत्र) पढ़ो या जो टॉप एंड जर्नल्स (शीर्ष पत्रिका) हैं वो पढ़ो, तो बहुत ऊपर की बात हो जाएगी। तो उनसे तो मैं यही कहूँगा की ‘आप अच्छी मैग्जीन्स पढ़ो। हर दिशा में आपको यह तो पता ही है न कि टॉप हाई क्वालिटी मैग्जीन्स (सर्वश्रेष्ठ पत्रिकायें), पब्लिकेशन्स (प्रकाशन) कौन से होते है? आप उसको पढ़ो। या आप बहुत अच्छे ऐसे पोर्टल्स होते हैं, जो अलग-अलग विषय, हाँ?

प्र४: यूट्यूब है।

आचार्य: होते हैं, यूट्यूब से मैं थोड़ा सा क्योंकि वहाँ पता नहीं क्या देखने जाओ, कहाँ भटक जाओ कुछ पता नहीं। ख़ैर आपको यूट्यूब पर भी अगर आप निश्चित हैं कि अच्छी सामग्री मिल रही है, तो आप वहाँ से भी लें, कोई दिक्क़त नहीं। लेकिन संभल के थोड़ा। जहाँ से भी मिलता हो उसको ग्रहण करो। ठीक है। और बस एक चीज़ है जिसपर समझौता नहीं कर सकते, वो है सच्चाई। बाक़ी हर चीज के लिए लगातार तैयार रहना चाहिए। आपके पास कोई धारणा है, आप किसी चीज़ को मानते हो, आपकी धारणा टूटती है तो टूटे। सबसे ऊपर कौन आता है सच्चाई या धारणा?

प्रतिभागी: सच्चाई।

आचार्य: सच्चाई न। तो सच्चाई पर समझौता नहीं करेंगे। मेरा अहंकार टूटता हो तो टूटे। किसी बात को मैं बड़ी आत्मीयता से मानता था और उस बात पर चोट लग गई, चोट सह लेंगे। बुरा लगेगा, पर सह लेंगे। सच ज़रूरी है। सच से ऊपर कुछ नहीं होता। यही, वेदांत की मूल बात है कि सर्वोपरी कौन? सत्य। उससे ऊपर किसी को नहीं रखना। तो वेदांत ही आपसे कहेगा कि जाओ और हर दिशा में जाओ। जाओ और ज्ञान जहाँ भी मिलता है बटोरकर लेकर आओ। मन को संकुचित मत बनाओ।

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