आचार्य प्रशांत: हाँ, बोलो।
प्रश्नकर्ता: सर, अहंकार की वजह से प्रतिस्पर्धा आती है।
आचार्य: प्रतियोगिता हाँ।
प्र: सर, तो अगर प्रतिस्पर्धा नहीं होगी तो श्रेष्ठ नहीं पता चलेगा। प्रतिस्पर्धा हमें श्रेष्ठ देने में मदद करती है।
आचार्य: मैं तुम्हें जो जवाब दे रहा हूँ वो मेरी तरफ़ से श्रेष्ठ जवाब है या नहीं है? या तुम्हें लग रहा है कि मैं कोई और इससे बेहतर जवाब छुपाए हुए हूँ।
प्र: नहीं, सर ऐसा नहीं है।
आचार्य: जो ऊँचे-से-ऊँचा, बेहतर-से-बेहतर कह सकता हूँ कह ही रहा हूँ। मैं किससे प्रतिस्पर्धा कर रहा हूँ भाई?
प्र: नहीं सर जब सेकंड पर्सन (दूसरा व्यक्ति) होगा।
आचार्य: पर तुमने कहा कि अपना श्रेष्ठ देने के लिए प्रतिस्पर्धा ज़रूरी है। मैं श्रेष्ठ दे रहा हूँ कि नहीं दे रहा हूँ? और तुम भी अभी अपना श्रेष्ठ दे रहे हो कि नहीं दे रहे हो? किसमें प्रतिस्पर्धा चल रही है? चल रही है क्या किसी से? किसी से दोस्ती है तुम्हारी? वो कभी मुसीबत में पड़ा है? उसकी मदद करने के लिए, उसको बचाने के लिए अपना श्रेष्ठ दिया है या नहीं दिया है? किससे प्रतिस्पर्धा कर रहे थे? किसी से प्रेम किया है? गले मिले हो? बहुत दबा कर गले मिलते हो कि "प्रतिस्पर्धा में हूँ"? और मर ही गया वो तो? तुम इतने प्रतिस्पर्धात्मक हो। "कोई और जितनी ज़ोर से गले मिलेगा उससे ज़्यादा से मैं गले मिलूँगा ये देख!" प्रतिस्पर्धा तो सिर्फ़ डराती है। और डरा हुआ आदमी क्या कर सकता है?
प्र: सर, एक व्यावहारिक उदाहरण लेते हैं। तीन लोगों को दौड़ना है। उनसे कहा गया है कि जितनी तेज़ दौड़ सकते हो दौड़ो। सर, एक चीज़ जो मैं देखा करता हूँ अगर मैं दौड़ रहा हूँ दस कि.मी की गति पर। और दस कि.मी की गति पर जो मेरे से दूसरा आदमी है वो आगे है। मैं ग्यारह कि.मी से दौड़ने की कोशिश करूँगा और तीसरा आदमी है वो बारह कि.मी से दौड़ेगा, तो सर ये चीज़ बड़ी रिलेटिव (सापेक्षिक) है। अब मैंने ये नहीं बोला कि प्रथम स्थान लाना है, मैंने ये बोला कि जितना तेज़ दौड़ सकते हो दौड़ो। फिर भी सर लोग अकारण प्रतिस्पर्धा बढ़ाते हैं। ऐसा क्यों होता है सर?
आचार्य: अब काम ही ऐसा हो गया है कि बचपन से तुम जो भी करते हो दूसरों को ध्यान में रख कर के ही करते हो। तो फिर एक स्थिति ऐसी आ जाती है जहाँ पर तुम्हारे लिए असंभव हो जाता है कुछ भी अपने लिए कर पाना। तुम्हारे पास वो आँख ही नहीं बचती जो अकेला कुछ कर सके। तुम पागल हो जाओगे अगर तुमसे कहा जाए कि तुम कोई काम करो जो सिर्फ़ तुम्हारे लिए है और तुम्हें दूसरों से कोई मतलब नहीं रखना। तुम पागल हो जाओगे। तुम खाली हो जाओगे बिलकुल, तुमसे कुछ निकलेगा ही नहीं। तुम्हारा जैसे स्रोत ही बंद हो गया हो।
बात समझ रहे हो न?
एक छोटे बच्चे को तुम एक चार्ट पेपर दे दो और उससे कहो, "कर कुछ भी", तो वो पेंसिल उलटी पकड़ लेगा या चार्ट पेपर फाड़ देगा। कुछ भी करेगा वो, उसकी मर्ज़ी है। उसको कोई उलझन नहीं रहेगी। कभी किसी छोटे बच्चे को उलझन में देखा है? कि "क्या करूँ?" वो जो भी कर रहा है। तुम उलझन में आ जाओगे। तुम्हें एक चार्ट पेपर दे दिया जाए और कहा जाए कि "बिलकुल दिल से कुछ लिखो", तुम उलझन में आ जाओगे। तुम कोई सुनी-सुनाई बात तो उतार सकते हो पर बिलकुल नया ताज़ा-तरीन कुछ लिख ही नहीं पाओगे क्योंकि दिल से रिश्ता टूट चुका है। हाँ, दिमाग से कह दिया जाए कुछ लिखने को तो तुम चार्ट पेपर क्या एक के बाद एक उपन्यास लिख डालोगे। तुमसे कहा जाए कि दिमाग में जो कुछ है वो लिखो तो तुम बहुत कुछ लिख डालोगे पर तुमसे कहा जाए कि कुछ ऐसा लिखो जो बिलकुल तुम्हारा है तुम्हारे पास कुछ मिलेगा ही नहीं।
यही कारण है कि जब मैं कहता हूँ संवाद शुरू होते समय कि अपने–अपने सवाल लिख दो, कैसी उलझन आ जाती है। कुछ होता ही नहीं लिखने के लिए। "अपने सवाल? (हँसते हुए) सर बताइए लिख दें आई.टी.एम में क्या चल रहा है वो सब लिख सकते हैं। बगल की गली में क्या चल रहा है वो भी लिख सकते है। मिडिल ईस्ट में क्या चल रहा है वो भी लिख सकते हैं। रूस और क्रीमिया में क्या चल रहा है वो भी लिख सकते हैं पर आप हमसे कह रहे हो कि दिल में क्या चल रहा है वो लिखो। वो कैसे लिखें? दिल से तो हमारा कोई अब रिश्ता ही नहीं बचा। जानते ही नहीं वहाँ चल क्या रहा है।"
प्र: सर, ये जो दिल के साथ रिश्ता होता है। मेरा प्रश्न ये है कि वो कब टूटता है? क्या वो एक ही बिंदु पर टूटता है या धीरे-धीरे करके टूटता है?
आचार्य: धीरे-धीरे टूटता है और लगातार टूटता है।
प्र: सर, तो फिर जो अनुभूति आती है वो भी लगातार आनी चाहिए? एक बिंदु पर तो कभी नहीं आ सकती?
आचार्य: अनुभूति तो लगातार ही आती है पर यू-टर्न तो एक बार ही होता है न। तुम दिल से दूर चले जा रहे हो, वापस लौटने की यात्रा एक बार ही होगी। यू-टर्न तो एक बार ही लेना है न? या यू-टर्न भी बार-बार लोगे? और यू-टर्न बार-बार ले लेंगे तो क्या होगा? तो एक बिंदु आता है जब तुम जो भटक करके और दूर और दूर चले जा रहे थे, दिल से समझ जाते हो कि अब यू-टर्न ले लेना चाहिए। हाँ, यू-टर्न लेने से यात्रा पूरी नहीं हो गई। यू-टर्न लेने के बाद भी बहुत चलना पड़ेगा क्योंकि बहुत दूर निकल आए हो। लेकिन अब कुछ बात बनेगी। तो इतना तो हो ही सकता है कि किसी एक क्षण में तुम्हें ये समझ में आ जाए कि यू-टर्न लेना है। किसी एक क्षण में हो सकता है।
प्र२: सर, वो जो उन्होंने सवाल पूछा था उसी से जुड़ा हुआ एक सवाल था कि क्या ज़रूरी है महसूस करना? और ये किसे महसूस होता है?
आचार्य: बेटा, ज़रूरी तो कुछ भी नहीं होता लेकिन हम महसूस तो उसे कर ही रहे हैं न। उसके लक्षण और प्रमाण तो लगातार हमारे सामने हैं ही न। ज़रूरी नहीं है कि महसूस किया जाए पर महसूस हम कर रहे हैं। यहाँ पर सवाल ये नहीं है कि ज़रूरी है या नहीं, यहाँ पर सवाल ये है कि तथ्य क्या है। वो खालीपन तो लगातार हमें अनुभव हो ही रहा है न। भाई, आपको लगातार जो चाहिए होता है हर समय, आज हमने काफ़ी चर्चा करी न उस पर। कभी कोई दोस्त चाहिए, कभी कोई यार चाहिए, कभी कुछ चाहिए, कभी कुछ चाहिए।
अकेलापन बर्दाश्त ना कर पाना ही खालीपन की निशानी है।
अकेलापन बर्दाश्त जो नहीं होता है वो उसी खालीपन का तो सबूत है कि उस खालीपन को भरने के लिए कुछ-न-कुछ चाहिए। ये खालीपन नर्क के बराबर है। अगर आप जगे नहीं, अगर आपने जीवन के खालीपन को सही चीज़ों से नहीं भरा, तो जीवन व्यर्थ चला जाएगा। और अक्सर इस खालीपन को भरने की कोशिश में जीवन व्यर्थ होता ही रहता है! तो किस-किस चीज़ से तुम इस खालीपन को भरते हो? बोलो? किस-किस चीज़ से उसको भरने की कोशिश करोगे?
प्र: हमें कैसे पता चलेगा कि हम उस खालीपन को सही तरीके से भर रहे हैं या नहीं?
आचार्य: कोई भी प्रयास जो ख़ुद को पूरा करने का हो वो उस खालीपन को भरने का प्रयास है।
प्र: सर, आपने कहा कि अगर इस खालीपन को सही तरीके से नहीं भरा गया तो ज़िंदगी नर्क हो जाएगी। तो ये कैसे पता चलेगा कि जिस चीज़ से इस खालीपन को भर रहे हैं, वो सही है या नहीं?
आचार्य: अगर आप उस खालीपन को सही से भरते हैं तो फिर कोई ज़रूरत नहीं होगी और भरने की। यही इस बात का प्रमाण है।