प्रश्न: सर, ईगो(अहंकार) और सेल्फ-रेस्पेक्ट(स्वाभिमान), ये दोनों अलग-अलग चीज़ें हैं, या ये सिर्फ हमारे सोचने के ऊपर है?
वक्ता: ‘सेल्फ-रेस्पेक्ट’ तो बाद में आता है। हम जिसको रेस्पेक्ट ही कहते हैं, वही क्या है? तुम किसी की इज्ज़त करती हो उस बात का अर्थ क्या होता है? ध्यान से बताना। तुम कब कहते हो कि मैं किसी की इज्ज़त करता हूँ ? अच्छा तुम्हें पता कैसे चलेगा कि कोई किसी की इज्जत करता है? बड़े बंधे हुए नियम हैं इज्ज़त के। सामने दिखे तो नमस्कार कर लो, पैर छू लो, अदब से बात करो, उसकी बात को काटो मत। एक प्रकार का डर ही है जिसको हम इज्ज़त बोलते हैं। वो डर के अलावा और कुछ नहीं है। आचरण के रूप में प्रकट होता हुआ डर। ‘आँखें नीची रखो। सर बहुत ऊँचा नहीं होना चाहिए’। इसी सब को तो सम्मान बोलते हैं। और किसको बोलते हैं सम्मान?
श्रोता १: सर, कोई भी इंसान हो उसके टैलेंट के अनुसार ही आता है सम्मान।
वक्ता: वो क्या है रेस्पेक्ट ?
श्रोता २: वो ये कि तुमसे कोई सुपीरियर हो, तो उसके लिए सम्मान आता है।
वक्ता: तो तुलना है। ये मेरी औकात और ये किसी और की औकात। मैंने नाप लिया। मैंने इंच टेप लेकर नापा है। और इसी नापने का नाम तुलना है। तो ये डर ही तो है। इसमें हिंसा है, देख नहीं रहे हो। और अगर इस बात की इज्ज़त है कि आज मैंने तुझे नापा और तू मुझसे बड़ा निकला, तो कल को मैं तुझसे बड़ा हो गया तो इज्जत कहाँ जाएगी? अगर इज्ज़त इसी बात पर आधारित है कि तू बड़ा है मुझसे, प्रतिभा में। आज वो तुम्हें अपने से अधिक प्रतिभाशाली दिख रहा है, ज़िंदगी में तो बदलाव आते रहते हैं, कल को तुम कहीं और पहुँच जाओगे वो वह अधिक प्रतिभाशाली नहीं रहेगा, तो इज्ज़त भी साथ में गायब हो जायेगी। इसलिए कह रहा हूँ कि ये इज्ज़त, ये हिंसात्मक चीज़ है। इसमें डर है, तुलना है, अहंकार है। प्रेम दूसरी चीज़ है। प्रेम बिल्कुल ही दूसरी बात है।
तुम जानते हो कि इन दोनों शब्दों को भी अगर लो; सम्मान को लो और रेस्पेक्ट को लो, तो सारा मामला अपने आप स्पष्ट हो जाता है। स्पेक्ट जहाँ से आ रहा है इसका अर्थ ही होता है, ठीक से देखना। इसी कारण तुम जो पहनते हो, इसका नाम होता है ‘स्पेक्टेकल’। और जो देखे उसका नाम होता है ‘स्पेक्टेटर’। ‘रेस्पेक्ट’ वहीं से आ रहा है। ‘स्पेक्युरे’ ये इसका मूल है। रिइंस्पेक्ट मतलब बार-बार देखना, ध्यान से देखना जब तक समझ में ना आ जाये। ‘रेस्पेक्ट’ का मतलब है बोध, जानना, करीब जाना। पर हमने ‘रेस्पेक्ट’ का अर्थ निकाल दिया है आदर। आदर नहीं है रेस्पेक्ट। इसी तरीके से अगर तुम सम्मान शब्द को लो, तो वहां आता है सम्यक मान। उससे बनता है सम्मान। सम्यक रूप से, उचित रूप से मानना। उचित रूप से मानना माने, जान कर मानना, जान कर समझना। तो चाहे रेस्पेक्ट को लो और चाहे सम्मान को लो दोनों का एक ही अर्थ है, जानना। आँखें खुली रखना। सर झुकाने का नाम रेस्पेक्ट नहीं है। करीब जाकर जानने का नाम रेस्पेक्ट है।
मैं अभी तुमसे कुछ बोल रहा हूँ, तुम मुझे कैसे सम्मान दे सकती हो? कि वहाँ सिर झुकाकर बैठी रहो और तुम्हें कुछ समझ में ही ना आ रहा हो। या मेरे प्रति वास्तिविक सम्मान ये होगा कि सुनो ताकि समझ सको। वास्तविक सम्मान क्या है? क्या ये मुझे अच्छा लगेगा कि दो घंटे तक तुम यहाँ बैठी रहीं और उठ कर जाने लगीं तो बोलीं, ‘आदरणीय गुरु जी, धन्यवाद! बड़ी आपने मुझे इज्ज़त दी’। लेकिन समझ में आपको कुछ नहीं आया। पर आप आदर बड़ा दिखा रही हैं । वो तो कोई बात नहीं हुई। दो घंटे अपने भी व्यर्थ किये और मेरे भी व्यर्थ किये और जाते हुए आदर दिखा रही हो। ये तो ढोंग हो गया। हुआ कि नहीं हुआ?
और एक दूसरी स्थिति ये हो सकती है कि तुम मुझसे एक शब्द ना कहो लेकिन दो घंटे में जो हुआ तुम उसके साथ रहीं। तुम जानती रहीं, तुम समझती रहीं। क्या ये वास्तिविक सम्मान नहीं है? तो सम्मान का अर्थ है जानना। हमारे साथ इसका विपरीत होता है। हम जिनका सम्मान करते है तथाकथित रूप से, हम उनको बिल्कुल नहीं जानते क्योंकि सम्मान में करीब जाने की ही वर्जना है। सम्मान का अर्थ ही है दूर, दूर रहना। ‘दूर, दूर रहो, ऐसे खड़े हो जाओ’। करीब प्रेम में जाया जाता है। हमारे सम्मान में प्रेम की कोई जगह ही नहीं है। वास्तविक सम्मान का अर्थ प्रेम है। प्रेम के अतिरिक्त और कुछ होता ही नहीं। सम्मान और प्रेम दो अलग-अलग बातें नहीं हैं। वास्तविक सम्मान प्रेम है’। इस बात को समझ लो अच्छे से। वास्तविक सम्मान विशुद्ध प्रेम है, उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। और अगर कोई बोले कि हम आपकी बड़ी इज्ज़त करते हैं, तो झूठा है, यदि उसकी इज्ज़त में प्रेम नहीं है। पर तुमने प्रेम को और सम्मान को दो अलग-अलग भागों में रख दिया है। ये लोग है मेरी जिंदगी में जिनसे हम प्रेम करते हैं, और ये लोग हैं जिनकी हम इज्ज़त करते हैं। तो ऐसी इज्ज़त झूठी है और प्रेम को भी तुम जानते नहीं।
तो ‘सेल्फ-रेस्पेक्ट’ का भी क्या मतलब हुआ फिर? आत्म-ज्ञान। खुद को जानना। वास्तविक ‘सेल्फ-रेस्पेक्ट’ यही है कि मैं खुद को जानता हूँ। अहंकार नहीं है। तुम सेल्फ-रेस्पेक्ट का बड़ा विपरीत अर्थ करते हो। तुम कहते हो ‘सेल्फ-रेस्पेक्ट’ मतलब ‘स्वाभिमान’। झूठी बात है यह। ‘सेल्फ-रेस्पेक्ट’ का अर्थ होता है ‘आत्मज्ञान’। ना कि स्वाभिमान। स्वाभिमान तो अहंकार है। कोई बोले कि मैं बड़ा स्वाभिमानी हूँ, दूर भागो उससे। बड़ा हिंसक और नकली आदमी होगा, स्वाभिमानी आदमी।
-‘संवाद’ पर आधारित स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं