अस्तित्व का बेशर्त नृत्य || आचार्य प्रशांत (2013)

Acharya Prashant

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अस्तित्व का बेशर्त नृत्य || आचार्य प्रशांत (2013)

वक्ता: महावीर का हम सबने सुना है कि जब चलते थे तो कहते हैं कि उनके आस-पास छ: कोस तक कोई हिंसक घटना नहीं हो सकती थी। (वाक्य पर ज़ोर देते हुए) उनके आस-पास छ: कोस तक कोई हिंसक घटना नहीं हो सकती थी, होती ही नहीं थी। उन्हीं की जीवनी से यह भी है कि एक बार जा रहे थे, सामने एक कांटा पड़ा हुआ था ऐसे करके (इशारा करके बताते हुए) , महावीर पास आने लगे तो कांटा यूँ हो गया (मुड़ गया) , कि चुभ न जाऊं। यह क्या चल रहा है? ऐसा हो कैसे सकता है?

बुद्ध और बोधिवृक्ष का जो रिश्ता है वो भी हम जानते ही हैं। बोद्ध आज तक उस बोधिवृक्ष को ज़िन्दा रखें हुए हैं। यह पेड़, कांटे, जानवर, इनमें समझ आ जाती है क्या? यह क्या चक्कर है? बात क्या है?

आपकी रामायण भरी हुई है: *‘हे खग- मृग, हे मधुकर श्रेणी, तुम देखी सीता मृगनैनी।*

अब खग! खग माने?

श्रोतागण: पक्षी।

वक्ता: और मृग

श्रोतागण: हिरण।

वक्ता: मधुकर श्रेणी?

श्रोतागण: मधुमक्खी।

वक्ता: ये बताएंगे कि ‘तुम देखी सीता मृगनैनी’? यह कैसे बता देंगे? पर राम भी बात कर रहें है प्रकृति से; कृष्ण प्रकृति के साथ नाच रहें हैं; बुद्ध की सारी बातों को बोधिवृक्ष भी पी गया है; महावीर चलते हैं तो साँप भी काटना भूल जातें हैं — यह चल क्या रहा है? बात क्या है? माज़रा क्या है?

संत फ्रांसिस हुए हैं, अभी बहुत पुराने नहीं हैं, कुछ ही शताब्दियों पुराने हैं, संत फ्रांसिस ऑफ़ एससीसी। एक भेड़िया, आदमखोर, जो इधर-उधर खा रहा था, लोगों को परेशान कर रहा था। संत फ्रांसिस जा रहे हैं, उससे गले मिल रहें हैं, और भेड़िया उनके बगल में बैठ गया है जैसे कोई पालतू कुत्ता बैठता है। आदमखोर भेड़िया, जिसको मारने के लिए लोग उतावले हैं, वो संत फ्रांसिस के बगल में यूँ बैठ गया है जैसे कोई पालतू पशु बैठता है।

वो उसे देख कर हँस रहे हैं, वो उन्हें चाट रहा है। यह क्या हो रहा है? यह बुद्धों के साथ, संतो के साथ यह क्या घटना घटती है?

श्रोता १: डर खत्म हो जाता है।

वक्ता: यह जानवर को भी बात समझ में आ जाती है क्या?

श्रोता २: इसकी जो शुरुवात है वो विद्यालय और महाविद्यालय में कई बार दिखाई देती है कि जो बहुत मस्त लोग होते हैं न, जो मस्त छात्र होते हैं, जो बड़े खुश, बड़े मस्त रहते हैं, उनके साथ आप कैसी भी मनोदशा में हो, आप उनके आस-पास बैठते हो तो आप भी मस्त हो जाते हो।

वक्ता: बिल्कुल बात ठीक है। और यह राज़ भारत ने लगता है काफ़ी पहले से समझ लिया था। आर्यों के आने से पहले भी सिंधु घाटी सभ्यता में जो मोहरें मिलती हैं, उनमें पशुपति की जो मोहर है, वो बड़ी प्रमुख है। और वो क्या है? उसको हमारे-आपके शब्दों में कहें तो एक बाबा बैठा हुआ है और उसके आस-पास जानवर हैं। कौन से जानवर हैं, यह मुझे याद नहीं। पर यह पक्का है कि जानवर मौजूद हैं।

आदमी के साथ जानवर तारतम्य में है, एक समरसता है।

श्रोता ३: सामंजस्य।

वक्ता: सामंजस्य से ज़्यादा। सामंजस्य तो समायोजन हो गया। सामरस्य, समरस्ता — एक ही रस में। यह मामला क्या है? क्या हो रहा है? क्या कृष्ण कोई विशेष ख़ुशी दे रहें हैं जानवरों को, प्रकृति को, नदी को, पेड़ को? क्या बुद्ध से वृक्ष को ज्ञान मिल रहा है? हो क्या रहा है, वास्तव में हो क्या रहा है?

बोलूँ क्या हो रहा है?

श्रोता ४: जो भी प्राकृतिक कानून हैं, वो उसके अनुसार कार्य कर रहा है।

वक्ता: बस, वो प्रक्रथिस्त ही है। कोई विशेष ख़ुशी दी नहीं जा रही, बस छीनी नहीं जा रही है। प्रकृति मग्न ही है। हम उसकी मग्नता को भग्न कर देते हैं। प्रकृति को हमें कुछ विशेष देना नहीं है अलग से, बस यह ख़याल रखना है कि उसका जो नाच है, जो लगातार चल ही रहा है, हम उसमें खलल न डालें, विघ्न न डालें।

एक बुद्धपुरुष इतना ही करता है कि जो नाच चल ही रहा है, वो उस नाच में खो जाता है। वो उसी नाच का हिस्सा बन जाता है। यह शाम नाच रही है, वो उसके साथ नाच लेता है। जानवर घूम रहें हैं, वो उनके साथ खेल लेता है, कूद लेता है, एक हो लेता है। वो अपनी इच्छा नहीं चलाता उनके ऊपर।

प्रकृति को नाचना पसंद है।

प्रकृति आपके साथ तब नहीं नाचती जब अहंकार बीच में आता है। नहीं तो नाचती है, ख़ूब नाचती है। हमारे खरगोश हैं दों नीचे, आप उन्हें पकड़ कर दिखाइये, बड़ा मुश्किल है आपके लिए, दावा करके कह रहा हूँ। और अभी तो शायद पकड़ भी लें क्योंकि छोटे कमरे में कैद हैं बेचारे, तो बहुत कहाँ भागेंगे। थोड़ा खुले में करदें फ़िर आप उन्हें छू कर दिखा दीजिये! आप छू नहीं पाएंगे। और उसके बाद आप बस इतना करिए कि लेट जाइये, शांत होकर के बैठ जाइये, या लेट जाइये, फ़िर देखिए प्रकृति का नाच! अभी आप कर सकते हैं प्रयोग। अभी कर के देखिए। आप उनके पीछे दौड़िए, कि “मैं तुझे पकड़ लूँगा”, और वो आपको छूने नहीं देंगे, और आप एक हो जाइए बस, वहीँ पर शांत हो जाइए, स्थिर, और लेट जाइए, फ़िर देखिए। फिर क्या होगा जानते हैं? क्या होता है? वो आपके ऊपर आकर बैठ जाते हैं। आप लेटें हो, और वो आपके सीने पर चढ़कर बैठ जाएंगे। और आप उन्हें भगाइए, भागेंगे नहीं। भाग जायेंगे, फ़िर थोड़ी देर में ऐसे देखते रहेंगे, फ़िर पास आ जायेंगे।

हाँ, आप हाथ बढ़ाओगे पकड़ने को, यह मत करना!

तुम भी मुक्त, हम भी मुक्त, और अपनी-अपनी मुक्ति में दोनों मस्त हैं, नाचेंगें।

मैं तुम्हारे पास सिर्फ़ तब आ सकता हूँ जब तुम मुझे मुक्त रहने दो। मुझे मुक्त रहने दो, मैं खुद आ जाऊंगा तुम्हारे पास। हाँ, कैद करना चाहोगे, तो मेरा-तुम्हारा रिश्ता बड़ा ख़राब हो जाएगा। इसी मुक्ति का नाम प्रेम है।

प्रेम क्या है? जो दूसरे को मुक्ति दे, वही प्रेम है।

हमारा और दूसरे का एक ही रिश्ता हो सकता है: मुक्ति का।

प्रकृति को अपने से मुक्त रखें, तो वो नाचती है, झूमती है, वो ख़ुद आपके पास आती है। आपके आनंद को और दस गुणा करती है। और आप प्रकृति पर चढ़ कर बैठ जायें, दावेदारी करें, अहंकार वाली बात बताएं कि इंसान ईश्वर की सबसे बहतरीन रचना है। इस तरह का हमारा बड़ा अहंकार है कि जो पूरा पारिस्थितिक पिरामिड है, उसमें आदमी सबसे ऊपर बैठा हुआ है। हमारा बड़ा अहंकार है कि आदमी सब जानवरों से श्रेष्ठ है, प्रकृति में सबसे ऊपर है, प्रकृति के शोषण का, दोहन का, उसे पूरा अधिकार है।

आप इस तरह की बातें करो, फ़िर प्रकृति आपको…। आप प्रकृति का बलात्कार करलोगे, ठीक है, करलो! पर उससे आपको प्रेम नहीं मिलेगा, फ़िर नाचेगी नहीं वो आपके साथ। वो आपके साथ नाचेगी नहीं। और मौका देख कर वार भी कर देगी — उत्तराखंड को भूलियेगा नहीं। आप कर लो उसका शोषण जितना करना है, वो पलट कर वार करदेगी, जब उसे करना होगा, क्योंकि आप प्रकृति से अलग हो नहीं। वो चढ़ बैठेगी। उसका उत्तर आयेगा। पलटवार आएगा।

समझ रहे हो बात को?

श्रोता २: सर, आप कह रहें हैं कि उसका पलटवार ‘आएगा’। तो आप कह रहें है कि एक बार होगा जब आपको प्रकृति सज़ा देगी। परन्तु सर, क्या वह हर पल ही नहीं हो रहा है?

वक्ता: आपको पता नहीं चलेगा कि वह हर क्षण ही घट रहा है।

श्रोता २: सर, पर जब आप परेशान होते हैं, किसी बात को दबा रहे होते हैं, तो उसके साथ आप भी कलप रहे होते हैं।

वक्ता: आपको पता नहीं है न कि आप इस वजह से कर रहे हो। एक उत्तराखंड होता है तो आपकी आँखें खुल जाती हैं। जिस दिन आप वो पॉलिथीन फेंक रहे होते हो, उस दिन आपको कहाँ पता है कि आप भुगत रहे हो इसी वजह से। जिस क्षण आपने पहाड़ को गन्दा करा, ज़बरदस्ती खुदाई करी, पेड़ काटे, प्लास्टिक फैलाया, उस क्षण आपको कहाँ कोई कष्ट हुआ? कष्ट तो तब है न जब उसका अनुभव हो चैतन्य रूप में। वो इकट्ठा हो गया, उसका विस्फोट होगा कभी। एक बहुत संवेदनशील आदमी होता है न, अभिषेक (श्रोता को संबोधित करते हुए) , उसको उसी समय कष्ट हो जाता है।

श्रोता २: नहीं सर, फ़िर तो यह बुरा सौदा नहीं है: एक बुरी ज़िन्दगी जियें और फ़िर एक कुत्ते की मौत मर जायें।

वक्ता: इसीलिए यह कहा गया है कि मौत कोई अंत नहीं है। अगर यह हो सकता कि मैं शोषण करता चलूँ, करता चलूँ, और कार्मिक परिणाम आने से ठीक पहले मैं मर जाऊं तो यह कहा जा सकता था।

श्रोता २: नहीं, नहीं वो परिणाम आएगा, वो पक्का मुझपर प्रभाव डालेगा, लेकिन मैं एक साल मालिक तो रहा न उस सब का।

वक्ता: जब आप मालिक भी थे, वह बस इतना था कि आप चैतन्य रूप से नहीं भुगत रहे थे, तब कोई आनंद नहीं था, पीड़ा का कोई अनुभव नहीं हुआ था। एक चैतन्य रूप में अनुभव नहीं हुआ था। लेकिन इसका मतलब यह थोड़ी है कि बड़े आनंद में थे।

कृष्ण कोई जादूगर नहीं हैं। वो प्रकृति के साथ जब रास में होते हैं तो कुछ ऐसा विशेष या विशिष्ट नहीं कर देते जो सिर्फ़ वही कर सकते हैं। उनके मन में सिर्फ़ प्रेम है। और वो प्रेम चारों तरफ़ बरसता है: छोटे से छोटे कीड़े पर भी बरसता है; नदी पर भी बरसता है; बादल पर भी बरसता है; मोर पर भी; और गाय पर भी; और निश्चित रूप से व्यक्तियों पर तो बरसता ही है। और जब यह होता है तो सब आपको अपने चारों ओर नाचते दिखाई देते हैं।

ध्यान रखिएगा: नाच रहा ही है! आप उस नाच को ख़राब मत करो बस। नाच आपको पैदा नहीं करना है, नाच चल रहा है!

वो है न (एक गाने को संबोधित करते हुए) : कृपया गीत बंद नहीं करिए।

आपको गीत बनाना नहीं है, क्योंकि निर्माण में तो अहंकार आ जायेगा – “किसने बनाया यह गीत?”

श्रोतागण: “मैनें बनाया”।

वक्ता: कौन है इसका संगीतकार? किसने बनाया है ये ऑर्केस्ट्रा?

श्रोतागण: “मैनें बनाया है”।

वक्ता: आपने कुछ नहीं करना है। एक अंतर्निहित संगीत है — है ही है। समारोह चालू है। फैसला आपने करना है: आप शामिल होंगे या नहीं।

श्रोता २: अभी कोक-स्टूडियो, ऍम-टी-वी पर आ रहा था थोड़े दिन पहले। तो उसमें इंटरव्यू में एक संगीतकार से उसके संगीत के बारे में पूछा गया, तो कहती है कि, “हमें संगीत बनाना नहीं होता है, हमें कोक-स्टूडियो की ज़रुरत नहीं है संगीत बनाने के लिए; हमें बस संगीत को सुनना होता है।”

वक्ता: बहुत बढ़िया!

मुझे संगीत का ज़्यादा पता नहीं, लोग बैठे हैं यहाँ जिन्हें पता होगा, पर भारत में यही कहा गया है कि जितने राग हैं वो सब?

श्रोतागण: प्रकृति से आये हैं।

वक्ता: आपने नहीं बनाये हैं। आपने ‘बनाये’ नहीं हैं, ‘आयें हैं’; प्रकृति से आयें हैं! आपने कुछ करना नहीं है, वो पहले ही चल रहा है।

मैं एक उद्धरण देख रहा था कि जब तक आप एक जानवर के प्रेम में नहीं पड़ते, आपके भीतर कुछ होता है जो सोया ही रह जाता है। आपके भीतर कुछ होता है जो सोया ही पड़ा रह जाता है। वो सोया पड़ा ही रह जायेगा क्योंकि आदमी होने का अहंकार बहुत घना रहेगा।

जानवर से दोस्ती; मालकियत का भाव नहीं कह रहा हूँ, कि “मेरा पालतू कुत्ता है”। जानवर से दोस्ती तभी हो पायेगी जब आपको जानवर में और अपने में कुछ साझा दिखाई देगा, नहीं तो दोस्ती का कोई सवाल नहीं है।

श्रोता २: नहीं तो आपको लगेगा कि वो बीच-बीच में वो आपकी बेइज़्ज़ति कर रहा है।

वक्ता: और वो करवानी पड़ेगी।

श्रोता २: मुझे याद है आप एक बार बता रहे थे कि आप नंदू (खरगोश) को घास दे रहे थे, और आपने बहुत प्यार से उसको घास दी थी, और आप कुछ बता भी रहे थे, और वो घास झटक के कोने में चला गया। अपने मज़ाक में कहा: “अच्छा, मेरी बेइज़्ज़ति कर रहा है।” अब कोई ऊँचा, और कोई नीचा नहीं हो गया।

वक्ता: वो मानेगा ही नहीं। चढ़ा लो आपने जितनी श्रेष्ठता चढ़ानी है। वो देगा नहीं भाव आपको। आप उसे डंडा मार कर बस में कर सकते हो, पर अपने मन से वो आपको कोई भाव देगा नहीं। हाँ, डंडा चलाना है तो चला लो, अब डंडे का तो क्या जवाब है; डंडे का कोई जवाब नहीं है।

प्रकृति के सानिध्य में आना, प्रकृति से एक रूप अनुभव करना, सिर्फ़ अहंकार के अभाव में ही हो सकता है। जब तक आपको यह लग रहा है कि मैं ऊँचा हूँ, तब तक संभव हो नहीं पाएगा जानवर से दोस्ती कर पाना; बिल्कुल नहीं हो पाएगा। आप उससे ऊँचा अनुभव करके दोस्ती नहीं कर सकते, बिल्कुल नहीं कर सकते।

श्रोता ५: और जानवरों में इतनी शुद्ध भावना होती है, मेरे पास एक कुत्ता है, मेरे घर में कुछ बुरा घटा था, तो वो उसको भी प्रभावित किया था। उसकी आँखों में भी आँसूं थे।

वक्ता: देखिए, अच्छा है अगर ऐसा हुआ हो, पर बात यह है कि अगर ऐसा न हुआ हो तो? बहुत अच्छा है अगर ऐसा हुआ हो, पर अगर मेरे पास एक जानवर है जिसको मेरे दुःख का कुछ नहीं पता चलता हो, जो मस्त है तब भी जब मैं गहरे तनाव में हूँ। (वाक्य पर ज़ोर देते हुए) जो मस्त है तब भी जब मैं गहरे तनाव में हूँ, तो क्या वो और ज़्यादा ख़ुशी की बात नहीं है?

दो स्थितियाँ हो सकती हैं, “मैं तनाव में हूँ तो जानवर भी तनाव में आ गया”, और दूसरी स्थिति यह हो सकती है कि प्रकृति मुझसे कह रही है: “पगले, क्यों तनाव में हैं? देख, मैं तो अभी भी नाच रहीं हूँ।”

श्रोता ३: परन्तु सर, इसमें क्या गलत है अगर वो जानवर भी हमारे दुःख में शामिल हो जाए तो?

वक्ता: यह भी ठीक है अगर ऐसा होता है तो। देखिए, ऐसा हो सकता है, मैं इसे मना नहीं कर रहा हूँ। ऐसा हो सकता है, परन्तु उसका उल्टा भी हो सकता है। देखिए, जानवर हमेशा ऐसा बर्ताव नहीं करते हैं।

श्रोता ५: हाँ, ऐसा नहीं है कि मैं तनाव में हूँ तो वो हमेशा मेरे साथ तनाव में रहती है।

वक्ता: तो अगर हमें यही बात अच्छी लगेगी कि मैं जब खुश तो जानवर खुश, और मैं दुखी तो जानवर दुखी, तो जानें कि हमारे सुख-दुःख हमारे अहंकार से निकलते हैं। मैं अगर दुखी हूँ, तो एक पेड़ को या फूल को देखना मेरे लिए उपयोगी ऐसे है कि वो फूल मुझे यह बता रहा है कि मैं अभी भी फूला हुआ हूँ। मेरे बगल में लाश पड़ी हुई है (एक मरे हुए फूल को इंगित करते हुए), पर मैं अभी भी फूला हुआ हूँ।

और शायद इस लाश की भस्म से एक पौधा और निकलेगा। और उसमें और सुन्दर फूल निकलेंगे। फूल आपको सन्देश दे रहा है: समारोह अभी भी चालू है, चाहे कुछ बुरा भी घट गया हो। प्रकृति आपसे कह रही है, बुरे से बुरा हो जाये, समारोह अभी भी चल रहा है; और अच्छे से अच्छा भी हो जाये तो भी समारोह में कोई विशेष बात नहीं हो गई। वो बड़ा निर्पेक्ष समारोह है; बड़ा अछूता। आपके दुःख से उसमें दुःख नहीं आता, और आपके सुख से उसमें सुख नहीं आता। जहाँ न दुःख हो, न सुख हो, उस जगह को हम एक नाम देते हैं, उस स्थिति को हम एक नाम देते हैं।

क्या नाम देते हैं?

एक मौन आनंद।

इसी कारण कृष्णमूर्ति आपसे पूछते हैं: “क्या आपने सच में कभी पेड़ देखा है? सच में?”

न वहाँ दुःख है, न वहाँ सुख है।

न दुःख है, न सुख है।

जब मैं कह रहा हूँ कि प्रकृति नाचती है, तो उसको हमारे जैसा नाच मत समझ लीजियेगा। हम तो नाचते भी कब हैं? लॉट्री लग गई तो नाच पड़े; पता चले कि नहीं लगी थी तो नाच ख़त्म। बड़ा सशर्त नाच है हमारा। और मैं बार-बार कह रहा हूँ कि प्रकृति का नाच बहुत बेशर्त है। बगल में लाश पड़ी होगी, तब भी प्रकृति नाच रही है। क्योंकि वो हमसे ज़्यादा जानती है। उसने बहुत कुछ देखा है। उसने कहा है कि अगर मरण नहीं होगा तो जीवन भी कहाँ से होगा? तुम किस बात का दुःख मना रहे हो? क्या मृत्यु के बिना जीवन हो सकता है?

समारोह अभी भी चल रहा है!

असल में, समारोह चलने के लिए यह बहुत ज़रूरी है कि मृत्यु हो; नहीं तो, समारोह ख़राब हो जाएगा। मृत्यु हिस्सा है समारोह का। मृत्यु उस समारोह में ज़रूरी है! वो बड़ा सर्व-समावेशी समारोह है। उसमें सब कुछ चलता है। जहाँ सब कुछ चलता है, उसी का नाम सहजता भी है। कृष्ण में भी सब कुछ चलता है। अभी कृष्ण के जीवन के हम कई रंग देखेंगे। और वहाँ आपके मन में ये सवाल उठेगा कि, “सब कुछ चल रहा है?”, ठीक वैसे ही जैसे प्रकृति में सब कुछ चलता है। आप जिसे बुरा से बुरा समझते हो, प्रकृति में वो भी है। एक जानवर दूसरे को बेदर्दी से मार रहा है, जो कमज़ोर हो गया है, उसका शिकार सबसे पहले हो रहा है। बिना बात की मौत है। बिना बात की मौत! दस बच्चे पैदा होते हैं किसी जानवर के, उसमें से दो बच रहें हैं जीवित। आठ को जाना ही है। प्रकृति ने ही ऐसा हिसाब बना रखा है कि दस में से दो बचें बस, आठ जायें। साँप की कुछ प्रजातियाँ हैं जो अपने बच्चों को खा भी लेती हैं; और कुछ प्रजातियाँ ऐसी भी हैं जो अपने बच्चों की बहुत रक्षा भी करती हैं — वहाँ सब कुछ है। यह मत समझिएगा कि हर साँप बच्चे को खाता है। कुछ साँप अपने बच्चे की ज़बरदस्त रूप से रक्षा करते हैं। और एक दो प्रजातियाँ हैं जहाँ ज़रुरत पड़े तो अपने बच्चों को खा भी जाते हैं। बड़ा विचित्र किस्म का समारोह है, इसमें सब कुछ हो रहा है। पर यह पक्का है कि कुछ भी होता रहे, यह समारोह हमेशा चलता रहेगा!

यह समारोह इंसान द्वारा ही ख़राब किया जाता है क्योंकि वह इंसान ही है जिसका अहंकार बहुत ठोस है।

परन्तु यह कहना कि समारोह इंसान द्वारा ख़राब किया गया है, यह भी पूरी तरीके से ठीक नही है। इंसान समारोह ख़राब करता है, परन्तु बस अपने लिए। जब आप समरोह में शामिल नहीं होते, तो आप बस ‘ख़ुद’ को उससे बाहर रखते हैं।

श्रोता ६ : वो जानवर बनना चाहता है।

वक्ता: वो बहुत कुछ बनना चाहता है। बहुत कुछ है जो वो बनना चाहता है।

वो ज्ञान इकट्ठा करना चाहता है और यह ज्ञान उसके अहंकार को और पोषण देता है। पर इतना पक्का है कि वो ख़ुश नहीं है उससे जो वो है। वो यही कहेगा कि मैं नहीं नाचूँगा इस तरह से। आप उसको बता भी दें न कि समारोह है, तो बोलेगा: “अच्छा ठीक है, कपड़े बदल कर आता हूँ”। आप उसको बोल भी दो कि समारोह है, तो वो क्या करेगा?

श्रोता ७: कहेगा कि, “तैयार होकर आता हूँ”।

वक्ता: साधारण ज्ञान सेशन थोड़े ही है आज!

हम हमेशा कुछ बन जाना चाहते हैं, तैयार हो जाना चाहते हैं, जबकि समारोह तो अभी है, और आप सोचते हैं कि आप उसमें शामिल तब होंगे जब आप कुछ बन जाएँगे।

श्रोता २: आपको हमेशा यही लगता है कि कुछ कमी है, आपको तैयार होना है।

वक्ता: जहाँ जाने का कोई शुल्क नहीं लगता, वहाँ भी आप कुछ बन कर जाना चाहते हो।

श्रोता २: कुंवारों की अनुमति है, और जोड़ा ढूँढ रहा है।

वक्ता: मतलब मज़ेदार बात है, मैं अकेला हूँ, मेरे लिए कैसा समारोह?

तुमने जा कर देखा? चेक करके तो देखो, जाने की अनुमति है! अकेले-दुकेले सबको अनुमति है; तिकेले को भी अनुमति है; चोकेले को भी! बड़ा सर्व-समावेशी समारोह है। लगातार चल रहा है, लगातार चल ही रहा है। कृष्ण उसको बना नहीं रहे। कृष्ण कुछ विशेष नहीं कर रहें हैं जंगल में जाकर। कृष्ण की बांसुरी में ऐसा कुछ नहीं है कि कुछ धुनें हैं जो साँप को सुनाई पड़ रही हैं और आपको नहीं सुनाई पड़ेंगी। साँप मग्न है ही, कृष्ण उस मग्नता को भंग नहीं करते बस। साँप मग्न है। हमने मग्नता को भंग करने के इलावा और कुछ सीखा नहीं है।

एक कविता है, ठीक-ठीक उसके अल्फाज़ याद नहीं आ रहे, पर कुछ ऐसी ही है, कि जब किसी एक कमरे में घुसो तो बड़े आहिस्ता से घुसो, बहुत आहिस्ता से। तुम्हें वहाँ जा कर कुछ विशेष करना नहीं है। बहुत-से-बहुत आप शामिल हो सकते हैं उस सब में जो की चल ही रहा है; आप उसके साथ एक हो सकते हैं।

पर हम जाते हैं इस उद्देश्य से कि मेरे पहुँचने से वहाँ कुछ हो। और अगर आपके पहुँचने से, जहाँ आप पहुँचे हो, वहाँ कोई अंतर ही न पड़े, तो आपको कैसा लगता है?

श्रोता ८ : उपेक्षित।

श्रोता ९: अपमानजनक।

वक्ता: मैं आया और कोई कदर ही नहीं मेरी? एक क्षण को यह भी नहीं कहा कि ‘स्वागत है’।

अरे! ‘स्वागत है’! डिफ़ॉल्ट रूप से स्वागत है। कोई रुक कर आपका स्वागत करेगा तो समारोह रुक जाएगा। किसी को आपको विशेष रूप से स्वागत करने की ज़रूरत नहीं है। “आप हो न!” — यही स्वागत है। यह डिफ़ॉल्ट है: स्वागत है। आपका हमेशा स्वागत है!

किसका इंतज़ार कर रहे हैं आप?

‘शब्द-योग सत्र’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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