श्रोता: आचार्य जी, अभी आपने कहा कि अगर प्रेम चाहिए तो परमात्मा हो जाओ। पर इतिहास देखा जाए, तो जितने भी संत हुए हैं, उनके चाहने वाले कम और विरोधी ज़्यादा रहे हैं। ऐसा क्यों?
आचार्य प्रशांत: उनकी हिस्ट्री छोड़ो, तुम्हें नहीं पता की जो विरोधी हो रहे हैं, वो क्या कर रहे हैं| वो सब रात में चुपके से आते थे और पाँव छू कर के चले जाते थे। संत का सबसे बड़ा फैन, सबसे बड़ा भक्त और सबसे बड़ा अनुयायी, जानते हो कौन होता है? जो उसके खिलाफ खड़ा होता है। संत के साथी चूक सकते हैं संत को पहचानने में, जो संत की खिलाफत कर रहे हैं, वो अच्छे से जानते हैं कि संत कौन है। इसलिए तो उसके खिलाफ खड़े हैं। जानते हैं कि यह खतरनाक है।
संत की इतनी खिलाफत होती ही इसीलिए है, क्योंकि वो पहचान में आएगा ही आएगा। वो छुप नहीं सकता। तो फिर खिलाफत हो गई ही उसकी| तो, सब रात में धीरे से आते हैं, पाँव छूते हैं, निकल लेते हैं। हिम्मत नहीं होती उन बेचारों की उसके गले लग जाने की, उसके साथ रुक जाने की।
कहानियाँ हैं। संत गुज़र गया, आगे बड़ गया। लोग पीछे से आये, जिस धूल पर उसने पाँव रखे थे, वो थोड़ी सी उठायी और माथे पर लगा ली। पर उसके साथ नहीं जा पाए। इतनी हिम्मत नहीं कर पाए की उसके साथ चले जाएँ|
श्रोता: तो रोकता कौन है उन्हें, संत के पास जाने में ?
वक्ता: तुम्हारे पास आएंगे, पर “हम” बचे रह कर के तुम्हारे पास आएंगे । “हम” आएंगे तुम्हारे पास । तुम्हारे जैसे नहीं हो जायेंगे । “मैं तुमसे प्रेम करता हूँ , मैं तुम्हें पाना चाहता हूँ| किन्तु, यद्यपि मैं तुम्हें पाना चाहता हूँ, मैं वही रहना चाहता हूँ, जो मैं हूँ|”
श्रोता: तो, मैं तुमसे ज्यादा अपने आप से प्रेम करता हूँ|
वक्ता:
वैलेंटाइन डे मनाने की एक ही जगह हो सकती है, “मंदिर”, “मस्जिद”। जाओ, खड़े हो जाओ जीसस के सामने, और बोलो, “आई लव यू”, और कहाँ बोलोगे? और कौन है प्यार के काबिल?
तुम्हारा “आई लव यू” सिर्फ एक रोमांटिक छवि को है, एक ऐसी छवि को, जो कहीं है नहीं। जिसको आई लव यू बोल रहे हो, उसके शरीर का ही सत्य अगर बिलकुल खुल जाए, तो तुम्हारा ‘आई लव यू’, अभी गिर जाएगा, खत्म हो जाएगा। ये तो भली बात है कि शरीर कपड़ों के नीचे छुपा रहता है। ये तो भली बात है, कि भीतर जो मांस-मज्जा है, वो त्वचा के भीतर ही छुपी रहती है। सब अगर अभी खुल जाए, तो बताना ‘आई लव यू’ बोल पाओगे? और तब अगर आई लव यू बोल पाओ, तो मान लेंगे।
यहाँ तो हालत ये रहती है कि तुम आई लव यू बोल पाओ, इसके लिए वो अपने शरीर को और ज़्यादा सुसज्जित कर के सामने आती है। छुपा के, झूठ बोल के। इधर से – उधर से, ये तैयारी कर के की आई लव यू अगर पाना है, तो पहले खुद को छुपाना है। सब खुल जाएँ राज़, परमात्मा के नहीं, शरीर के ही, जिस शरीर को ही आई लव यू बोल रहे हो| सब उस शरीर के राज़ जाहिर हो जाएँ, उसके बाद भी बोल दो आई लव यू, तो ठीक है।
बहुत अच्छा लगता है, आज ना वैलेंटाइन डे है तो आज छोटे कपड़े पहनते हैं। अब उसके लिए दस जगह से तो पहले बाल साफ़ करे। और बिना बाल साफ़ करे अगर पहन लें छोटे कपड़े तो तुम्हारा आई लव यू गायब हो जाएगा|
(श्रोतागण हँसते हैं|)
अब कहाँ गया आई लव यू? तुम्हीं ले कर के आये थे, कि ये ज़रा मिनी स्कर्ट पहनना, अब कहाँ गया आई लव यू?
हम शरीर तक का तथ्य तो बर्दाश्त नहीं कर पाते, हम परम सत्य क्या बर्दाश्त करेंगे?
ये जितनी तुम परी कथाएं लिखते हो, और शायरियाँ करते हो, उसमें किसी में भी लिखा है, कि मेरी प्रेमिका गंधाती है? सपनों में रोज़ आती है, ये लिखा है| तुम्हारी ये सारी शायरी, तुम्हारा ये सारा रूमानी साहित्य, झूठ है। जिन आँखों में तुम डूबे जा रहे हो, झील समझ के, अरे उसकी भौंहे तो नकली हैं।
वो एक कोई मुँह में डालने की चीज़ आयी थी, कुछ स्प्रे वगैरह, तो उसमें क्या लिखा हुआ था – ये करें, फिर ये करें, फिर इसे स्प्रे करें मुँह में, और आखिरी में – अब चुम्बन लें। ये है हमारा आई लव यू। कि चूमने के लिए भी, पहले मुँह में, कृत्रिम रसायन डालना पड़ता है। और जाओ तुम चूमने, और उसने अभी अभी अनियन डोसा खाया है, तो चूम के दिखा देना, और बोलना आई लव यू?
(श्रोतागण हँसते हैं |)
श्रोता: तो हमारे जीवन की जो जरूरतें हैं, उन्हें कैसे पूरा करेंगे?
जैसे कि सेक्सुअल ज़रूरतें ।
वक्ता: सेक्सुअल ज़रूरतें पूरी हो जाएंगी, पर ये देखो कि तुम उसे परमात्मा बना के बोलते हो, आई लव यू, तुम देख नहीं रहे कि ये परमात्मा कितना बड़ा झूठ है? ये नकली भौंहो वाला परमात्मा है, ये डिओडरंट वाला परमात्मा है। नहीं दिख रहा? और ये, ये सब न करे तो भुला गया परमात्मा|
तुम किसी स्त्री या पुरुष के साथ संभोगरत होने जा रहे हो। तुम जानना भी नहीं चाहते कि जिसके साथ तुम कुश्ती लड़ रहे हो, उलट पलट कर रहे हो, बिस्तर तोड़ रहे हो, वो चीज़ क्या है? शायद इसलिए लोग, बत्ती बंद कर देते हैं । की भला हो दिखे ना। अँधेरे में काम निपटाओ और आगे बड़ो।
पर जैसे हम ये ध्यान नहीं देते ना, कि हम खा क्या रहे हैं, वैसे ही ये ध्यान नहीं देते, कि हम किसके साथ जा कर के सो रहे हैं। कब तुमने, अपने साथी के नग्न शरीर पर ध्यान किया है? कल्पना करने को नहीं कह रहा हूँ, कल्पना तो तुम कुछ भी कर सकते हो| ध्यान कब किया है?
ध्यान करते वक़्त तुम संभोगरत हो जाओ, बढ़िया बात है, सुन्दर बात है। पर कब किया है? ठीक वैसे ही जैसे जब तुम मुर्गा खा रहे होते हो, कभी तुमने देखा थोड़े ही होता है उसकी आँखों में। बस उसकी हड्डियाँ चबा रहे होते हो, उसका मांस चीर रहे होते हो, ठीक वैसे ही जब किसी स्त्री के साथ सम्भोग कर रहे होते हो, उसका मांस चबा रहे होते हो, कभी तुमने उसकी आँखों में थोड़े ही देखा होता है। और हमारी जैसी हालत है, वैसे में तो मांस खाने के लिए ज़रूरी है, कि मुर्गे की आँखों में ना देखा जाए। वरना खाओगे कैसे? और अगर तुमने स्त्री से, आत्मिक रिश्ता बना लिया, तो सम्भोग ही ना कर पाओगे। तो इसलिए फिर लोग कहते हैं, “भईया आत्मा वात्मा हटाओ। वो पटाने के लिए ठीक है, आई लव योर सोल। बाद में बोलो, आई लव योर…”
कृष्ण तब हुए तुम, जब प्रकृति से एक होने के लिए, प्रकृति को तुम्हें आवृत ना करना पड़े, तब कृष्णत्व है। जब सामने वाले को पूरी तरह जानते हो, और फिर भी वो प्यारा लगे, तो तुम कृष्ण हुए। हमें तो कोई प्यारा लगता ही इसी शर्त पर है, कि उसका कुछ छिपा हुआ हो। नंगा शरीर तुम्हें उतनी उत्तेजना नहीं देता होगा, जितनी अधनंगा देता है। कभी गौर किया है? कृष्ण तुम तब हुए जब तुम्हें सब दिख जाए, पूर्ण नग्न, एक एक तथ्य जान गए जीवन का। सब खुला सा है। आँखें खुली हुई हैं, मन ध्यानरत है। और फिर कहते हो कि अब होगा रास। तब हुए तुम कृष्ण, ऐसे थोड़े ही कि प्रेम करने के लिए भी चीज़ें छुपा रहे हैं ।
हम यहाँ जितने लोग बैठे हैं, ईमानदारी से बताना, हमने सबसे ज़्यादा झूठ किस से बोले होंगे जीवन में? सबसे ज़्यादा झूठ इंसान किससे बोलता है? जिस से चाहने का दावा करता है, उससे ज्यादा किसी से नहीं। तुम अपनी सबसे ज़्यादा झूठी शक्ल किसको दिखाते हो?
ऐसा है हमारा प्रेम, वो झूठ पर ही चलता है, उसी पर पनपता है ।
श्रोता: ये जो अठाहरवीं सदी से जो रोमांटिसिज्म का दौर चला है, और आज जैसा बॉलीवुड का पूरा रंग रूप है, काफी हद तक ये हमारे प्रेम को एक रूप, एक आकार दे देता है । तो जैसे आपने पहले कहा कि सत्य से प्रेम होता है तो समर्पित होते हैं; तो आजकल जो हमारा बहुचर्चित प्रेम है, वो इस जैसा तो नहीं होता ना?
वक्ता: असल प्रेम ऐसा नहीं होता, ये कह सकते हो, कैसा होता है, ये मत कहना। सत्य की राह पर चलते हुए तुम्हारा एक स्त्री से कैसा संबंध बनेगा, इसके बारे में अनुमान मत लगाओ। वो बहुत भिन्न हो सकता है। उसकी तुलना करोगे किसी और चीज़ से तो बहुत परेशान हो जाओगे। क्योंकि फिर तुम्हें ये शक़ उठने लगेगा कि प्रेम है भी की नहीं। क्योंकि प्रेम तो तुम्हारे हिसाब से तभी हुआ, जब हाथ इत्यादि पकड़ा, खाया पीया, घूमें फिरे, फिर सम्भोग किया, तो कहते हो कि प्रेम हो गया, अच्छा ठीक है। सत्य की राह पर जो प्रेम हुआ, उसका रूप रंग बिलकुल अलग हो सकता है।
श्रोता: मैं स्त्री से नहीं पूछ रहा, सत्य से प्रेम कैसा होगा?
वक्ता: हाँ, सत्य से जो प्रेम होगा, वो भी बहुत विचित्र तरीके से अभिव्यक्त हो सकता है, उसके तरीकों का कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता। हाँ बहुचर्चित प्रेम जैसा नहीं होगा, ये पक्का है।
श्रोता: पर ये कहा जा सकता है कि ऐसा नहीं होगा|
वक्ता: हाँ ये कहा जा सकता है कि ऐसा नहीं होगा|
श्रोता: जो चर्चा का प्रारूप था, वो यह था कि जो आजकल हमें समाज में प्रेम दिखलाया जाता है, सारे ढाँचे बने हुए हैं, किस उम्र में क्या करना है। तो क्या हम यह कह सकते हैं, कि जो ढांचों में बंधा हुआ है, वैसा प्रेम वो नहीं होगा ।
वक्ता: बिलकुल भी नहीं होगा। ये जितनी प्रचलित अवधारणाएं हैं, इनमें फंस मत जाना ।
तुमने एक की बात की तो दूसरी बात याद आयी, कि ये भी बहुत कहा जाता है, कि दुसरे से प्रेम करो, उसके सारे अवगुणों के साथ – झूठी है, बिलकुल झूठी बात है। तुम हमेशा, अपने में, अपने प्रेमी में, और पूरी सृष्टि में, “द परफेक्ट” को तलाश रहे हो। अगर कोई ये कहता है कि आई लव हिम फॉर आल हिस फॉर्गेटफुलनेस, फॉर हिज स्टूपिडिटी, ये वही कहेगा, जो अभी खुद बेवक़ूफ़ बने रहना चाहता है। जो वास्तव में तुम्हारा प्रेमी होगा, वो तुममें परमात्मा ही तलाशेगा। और परमात्मा से नीचे अगर कुछ भी पाएगा, तो उसे स्वीकार नहीं कर पाएगा।
कोई तुमसे कहता है कि तुम में जितने व्यसन हैं, जितने दुर्गुण हैं, जितनी क्षुद्रताएं हैं, मुझे तो सब प्यारे हैं, क्योंकि तुम मेरे हो। तुम महाबेवकूफ हो, तुमसे ज्यादा कोई जलील नहीं, पर मुझे तुम बहुत प्यारे हो, क्योंकि तुम मेरे हो। बात सुनने में इतनी मीठी लगती है कि वाह, पूरा लाइसेंस मिल गया, बेवकूफ बने रहने का। मेरी चुनिया को तो मेरी बेवकूफियां ही अच्छी लगती हैं। “चुनिया”, और क्या नाम होगा? चित्रलेखा थोड़े ही ना होगा। और ये खूब चलता है ना, चुन्नू बेवक़ूफ़ है और चुनिया को उनकी बेवकूफियां ही अच्छी लगती हैं| चुन्नू घोर अहंकारी है, चुन्नू बेहद ही क़ब्ज़ावादी है, पज़ेसिव, और चुनिया तो मरी जा रही हैं इसी बात पर, “आई लव द वे ही पज़ेसेस मी।” तो जान लेना कि ये अब पूतना ही है।
वास्तव में जो तुम्हारी प्रेमिका होगी, वो तो नेति नेति की कटार होगी। तुम में जो कुछ भी क्षुद्र है, उसको काटती चले, कहे – “ना, ना, ना।” अब इससे तुम चिढोगे बहुत, तुम कहोगे, “जितनी बार सामने आता हूँ, काट देती है। कटार लिए बैठी है।” कट रहा है, कटे ही जा रहा है। असली प्रेमी हो तो तुम्हारा काम ही यही है, प्रेमिका का अहंकार अहंकार। असली प्रेमिका हो तो तुम्हारा काम ही यही है की प्रेमी को काटते चलो।
और जहाँ समन्वयवाद चल रहा हो, “अडजस्टेड टू आल हिज फोलिस” – प्रेम समन्वयवादी नहीं होता। वहाँ ये नहीं होता कि प्रेम में तो सारे दुर्गुण प्यारे हैं क्योंकी पति तो परमात्मा होता है| प्रेम अब जब होता है तो दुर्गुण और उभर कर दिखाई देते हैं| कहा जाता है, “न, स्वीकार नहीं कर सकते| किसी और का तो कर भी लेते, तुझमें नहीं कर पाएँगे| तुझे चाहते हैं, तुझमें नहीं कर पाएंगे।”
तो ये हरकतें मत कर देना कि इफ यू लव समवन, देन यू लव आल हिज़ रबिश टू| नहीं, बिलकुल नहीं ।
अब ये ज़रा मुश्किल मामला हो गया ना, की प्रेम न हुआ कोई वार्षिक परीक्षा हो गई । बेहतर बनो, आगे बड़ो। प्रेम न हुआ, अखाड़ा हो गया, दाव-पेंच सीखो, मेहनत करो, तगड़े हो जाओ। कृष्ण हो जाओ।
श्रोता: तो सर फिर प्रेमी और गुरु में क्या फर्क रह गया?
वक्ता: आप बताएं?
श्रोता: कुछ भी नहीं।
(हँसते हैं)
वक्ता:
प्रेमी वही कर रहा है, जो गुरु का काम है। काट रहा है| तुम्हारे सारे दुर्गुण हटा रहा है, तुम्हारे सारे संस्कारों से तुम्हें मुक्त कर रहा है। और जो ये ना करे, उसको प्रेमी बना मत लेना।
हमें प्रेमी वो लगता है, जो हमें? बचाये रखे। “बेटा कैसा भी हो माँ की, आँखों का तारा होता है”, जो माँ ये वक्तव्य दे, उस माँ से बचना। वो माँ नहीं है, वो भी? पूतना ही है। ऐसे नहीं चलता की बीटा कैसा भी हो माँ की आँख का तारा ही हो, ये प्रेम नहीं है।
श्रोता: ये बड़ा कहा जाता है कि मुझे स्वीकारो, मेरी कमियों को स्वीकारो।
वक्ता: हाँ, जो ये कहे कि मुझे स्वीकारो मेरी कमियों के साथ, उसको बोलो कि आप कमियों के पास ही जाईये। ये बिलकुल अधर्म की बातें हैं। झूठ है ये, महापाखंड की बातें हैं| किसी को ऐसा बोलते सुनिए कि मुझे मेरी सारी कमियों के साथ चाहो, तो तुरंत रवाना हो लीजिए| तुम्हें चाहते हैं, इसीलिए तुम्हारी हर कमी को और उजागर करेंगे।
श्रोता: तो दुश्मनी हो जाएगी|
वक्ता: गुरु तो दुश्मन जैसा लगता ही है। जो असली प्रेमी होगा वो भी दुश्मन जैसा ही लगेगा। हर वक्त वो कर ही यही रहा होगा, खोंट निकाल रहा होगा| क्योंकी, असली प्रेमी, कमियाँ निकालता ही मिलेगा।
श्रोता: सर एक प्रश्न है – कुछ अजीब सा लगता है सुनने में कि प्रेम तो परमात्मा जैसा है, पर शरीर का मिलान उसी परमात्मा की राह पर चलते हुए एक दूसरे मुसाफिर के साथ है। भले ही वह परमात्मा से प्रेम करता हो और सत्य के रास्ते पर हो| क्या उस हमराही में परमात्मा नज़र आता है, इसलिए ये सम्भोग सम्भव हो पाता है?
वक्ता: परमात्मा से प्रेम, शरीर थोड़े ही करता है? जब परमात्मा के रास्ते पर जा रहे हो, तो शरीर खाता पीता नहीं है? मल, मूत्र नहीं करता? तो सम्भोग भी कर लेता है। वो तो शरीर का काम है। ये जो आप सवाल पूछ रहे हो, ये ऐसा है कि, दिल में तो परमात्मा बैठा है और अगर शरीर किसी और को सौंप दिया तो ये तो बेवफाई हो गयी। सवाल ये है कि बेवफाई क्यों है| भाई बेवफाई कुछ नहीं है। परमात्मा से परमात्मा का ही मिलन होता है। वो अतिसूक्ष्म है, तो तुम्हारे भीतर भी जो अतिसूक्ष्म होता है, वो जाकर के मिल जाता है उस के अतिसूक्ष्म से। शरीर थोड़े ही जाकर के न्योछावर कर दोगे उसको कि गए और जाकर के शरीर चढ़ा आये मंदिर में । और बोल रहा है, अस्सी किलो का दान किया है ।
शरीर को जो करना है वो शरीर ही करेगा ना। तुम कहो कि जब हम परमात्मा को समर्पित हैं, तो शरीर सांस में हवा क्यों ले रहा है, सांस भी परमात्मा ही ले। अरे भाई, नाक है, तो हवा ही लेगी। मुँह है, तो अन्न ही खाएगा। परमात्मा थोड़े ही खाएगा? सहवास देवी देवताओं के साथ थोड़े ही करोगे? किसी व्यक्ति के साथ ही करोगे ना, या पत्थर उठा लाओगे? शरीर अपने धर्म का पालन करता है, तुम अपने धर्म का पालन करो । जब तुम अपने धर्म का पालन करते हो, तब शरीर तुम्हारा अनुयायी हो जाता है । वो तुम्हारा अनुपालन करने लगता है ।
श्रोता: शरीर के जो कृत्य हैं, सांस लेना, इत्यादि, इसमें हम सम्भोग को जब जोड़ते हैं तो कहीं ऐसा लगता है कि सम्भोग कहीं न कहीं कुछ बाकी शारीरिक कृत्यों से उच्चतम है। हम खाने से तुलना करते हैं तो, कई बार अव्यवाह्रिक लगता है कि सांस ले रहे है और संभोग, दोनों एक सी बातें कैसे हो सकती हैं| क्या ये भी सामाजिक है?
वक्ता: तुमने अपने शब्दों पर ध्यान नहीं दिया। ‘उच्चतम’, बिलकुल ठीक कहते हैं । हम सम्भोग को उच्चतम का पर्याय बनाते हैं। कौन है उच्चतम? परमात्मा। तो जब वो नहीं मिल रहा होता, जब राह गलत चुन ली होती है, तो उस उच्चतम की एक झलक हम शरीर के माध्यम से पाना चाहते हैं। इसीलिए गड़बड़ हो जाती है। इसीलिए सेक्स हमारी ज़िन्दगी में इतना बड़ा मुद्दा बन जाता है। क्योंकि जो वास्तविक परमात्मा है वो तो है नहीं, तो सम्भोग के क्षण में हम कहते हैं कि किसी तरीके से उस गहन शान्ति की एक झलक मिल जाए| वो जो अतीन्द्रिय मौज होती है, उसकी एक झांकी देखने को मिल जाए| जब वो मौज दिन भर उपलब्ध होती है तो तुम दो क्षण के लिए नहीं तड़पते। फिर तुम ये नहीं कहते कि इतना आयोजन करूँ ताकि एक सेकेंड या दो सेकेंड को वो मौज उपलब्द हो पाए, तुम कहते हो कि वो तो पूरे दिन मिली हुई है, “आई फील ओर्गाज्मिक द होल डे।”
स्त्री की तरफ भी आकर्षित इसलिए होते हो, बार बार दोहरा के बोल रहा हूँ, क्योंकि उसके माध्यम से कुछ ऐसा पा लेना चाहते हो जो कुछ आगे का है। वो, वो दे नहीं पाती, तो हताश हो जाते हो। जिस भी वस्तु की तरफ आकर्षित हो रहे हो, तुम्हें वो वस्तु नहीं चाहिए, उसके माध्यम से कुछ चाहिए। वो वस्तु, वो दे नहीं पाती, तुम्हें फिर निराशा मिलती है।
श्रोता: सर, इसलिए आपने एक दिन बताया था कि हर पत्नी, पति को परमेश्वर बनाना चाहती है, और बच्चे को गोपाल।
वक्ता: हाँ, बढ़िया बात है कि नहीं? अब बोलने से थोड़े ही न हो जाएगा पति परमेश्वर। तुम जो हो, तुम्हें उसी का प्रतिबिम्ब मिलने वाला है, पति और बच्चे के रूप में। लेकिन शब्दों में अपनी चाहत को पहचानना। चाहत तुम्हारी यही थी कि बच्चा कृष्ण जैसा निकले। चाहत तुम्हारी यही थी, कि पति परमेश्वर जैसा मिले।
श्रोता: सर, आपने कहा है, ‘लविंग योरसेल्फ मीन्स हैविंग नो प्रोब्लेम्स विथ द फैक्ट्स ऑफ़ योर लाइफ’। और अभी बात चल रही थी कि प्रेम का मतलब नहीं है अपूर्णताओं को स्वीकार करना।
वक्ता: फैक्ट, ये तो है ही कि तुम बेवकूफी में फंसे हो। और उससे बड़ा तथ्य क्या ये नहीं है कि बेवकूफी स्वभाव नहीं है तुम्हारा। अगर तुम ये कहते हो कि बेवकूफी फैक्ट है, तो ये बताओ कि बेवकूफी को बेवकूफी क्यों बोला? मैंने ये थोड़े ही ना बोला है कि खुद से प्रेम करने का मतलब है तुम अपनी मूर्खता को बढ़ावा दो।यह एक तथ्य है कि मैं मूर्ख हूँ, और जब तुम ये कहते हो, तो मूर्खता को बदलना पड़ता है, खत्म होना होता है| मैंने ये थोड़े ही बोला है कि खुद से प्रेम का मतलब है, अपनी अपूर्णता को एक चिरस्थायी घाव की तरह गलने दो|
‘अपने आप से प्रेम’ का अर्थ है, अपनी अपूर्णताओं तो अपूर्णता कहने का साहस रखना| और जब आप ऐसा कहते हो तो आपकी अपूर्नताएं विगलित होने लगती हैं| अधिकतर हम ये स्वीकार ही नहीं करते की हम में अपूर्नताएं हैं| हम या तो उन्हें छुपाते हैं या ये कहते हैं कि वे अपूर्नताएं हैं ही नहीं|