यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् | सुखिन: क्षत्रिया: पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् || २, ३२ ||
हे पार्थ! अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वाररूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान् क्षत्रिय लोग ही पाते हैं। —श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक ३२
आचार्य प्रशांत: श्रीकृष्ण जितने साधनों का उपयोग कर सकते हैं, कर रहे हैं। और साधन तो साधक की क्षमता के अनुसार ही प्रयुक्त होता है। साधक की जो स्थिति होती है, साधक की जो पात्रता होती है, उसी को देख करके साधन बताया जाता है। तो दूसरे अध्याय में जितने श्लोक अर्जुन को क्षत्रिय धर्म की याद दिलाते हुए कहे गए हैं, उनको साधन और उपाय की तरह ही जानना।
श्रीकृष्ण कह रहे हैं, “क्षत्रिय हो तुम, बड़ी नाक कटेगी तुम्हारी, बड़ी बदनामी होगी, और सम्माननीय लोगों के लिए बदनामी से अच्छा होता है मर जाना।” बिलकुल इन्हीं शब्दों में श्रीकृष्ण ने बात रखी है। ये बात अर्जुन के लिए रखी है, क्यों? क्योंकि दूसरे अध्याय में जो ज्ञान अर्जुन को दिया गया है, वो उच्चतम कोटि का है; ऊँची-से-ऊँची बात, सीधी-से-सीधी बात और सरल-से-सरल। और अर्जुन जब उस बात को नहीं समझ रहा है तो श्रीकृष्ण को दिख रहा है कि बहुत ऊँचे ज्ञान का अभी ये पात्र नहीं है, अधिकारी नहीं है; बात बन नहीं रही है।
तो फ़िर वो बात को बदलकर अर्जुन के तल पर ले आते हैं, कि इससे कोई ऐसी बात बोलूँ जो इस पर असर करे, जो इसको आकर्षक लगे। तो उसको कहते हैं, “देख, बदनामी होगी।” थोड़ी देर पहले बोल रहे थे, “तू आत्मा है, न जीवन है, न मरण है।” और अब बात को बदल कर इस तल पर ले आए कि “देख, तू क्षत्रिय है, लड़ेगा नहीं तो बड़ी बदनामी होगी।”
इससे समझना गुरुओं की और ऋषियों की विवशता को भी। सत्य नहीं कहते वो; वो कुछ ऐसा कहते हैं जो तुम्हारे लिए उपयोगी हो जाए। उनका कथन तुम्हारी पात्रता और तुम्हारी सामर्थ्य पर आश्रित होता है। श्रीकृष्ण की बात उतनी ही ऊँचाई ले पाएगी जितनी बात अर्जुन पकड़ पाए। ज़्यादा ऊँची बात कह दी, अर्जुन पकड़ ही नहीं पा रहा, तो श्रीकृष्ण को नीचे आना पड़ता है। वो कहते हैं कि ज़रा तेरे तल की बात करूँ, जो तुझे ज़रा सुहाए, जिसका तुझ पर असर हो, प्रभाव हो, जिसको तू समझ पाए। तो फ़िर इस तरह की बातें करते हैं कि "चल, अपने क्षत्रिय धर्म का पालन कर, नहीं तो लोग हँसेंगे।"
तो ये मत समझ लेना कि श्रीकृष्ण जाति इत्यादि दिखाकर अर्जुन को युद्ध की तरफ़ भेज रहे हैं या कि जन्मगत जाति में श्रीकृष्ण का बड़ा आग्रह है। ना, अर्जुन के ऐसे संस्कार हैं, अर्जुन की ऐसी धारणा है, इसलिए श्रीकृष्ण को उसी के अनुसार उपदेश देना पड़ रहा है।
प्रश्नकर्ता: जीवन में स्वर्ग के द्वाररुपी युद्ध को हम कैसे जानें? वास्तव में जीवन में भाग्यवान कौन है?
आचार्य: श्रीकृष्ण श्लोक में कह रहे हैं अर्जुन से कि "देख, तुझे ये जो युद्ध का अवसर उपलब्ध हुआ है, ये बहुत बड़ी बात है। जो बहुत भाग्यवान क्षत्रिय होते हैं, उन्हीं को ऐसा युद्ध उपलब्ध होता है जिसमें वो धर्म के पक्ष में और अधर्म के विरुद्ध जूझ जाएँ, लड़ मरें। तो ये तुझे उत्तम अवसर प्राप्त हुआ है, इससे चूकना मत, पूरा लाभ उठा। इस युद्ध में भाग ले।"
आप पूछ रही हैं कि "अर्जुन के लिए तो स्वर्गरुपी द्वार महाभारत का युद्ध था, हमारे जीवन में स्वर्ग का कौन सा युद्ध बनेगा, कैसे पता चले? और अर्जुन का भाग्य यह था कि उसे महाभारत में उपस्थित रहने का, भाग लेने का मौका मिला। हमारा भाग्य किस युद्ध में जूझ जाने से जागेगा?"
हम सब लगातार युद्ध में ही हैं। कारण स्पष्ट है। स्वभाव है हमारा मुक्ति और यथार्थ है हमारा बंधन, और हम दोनों को साथ-साथ लेकर चल रहे हैं। ये दोनों साथ-साथ हो नहीं सकते। तो लगातार एक अंतर्द्वंद मचा ही हुआ है। कोई व्यक्ति ऐसा नहीं है जो आतंरिक तौर पर युद्धरत ना हो। महाभारत का मैदान बाहर नहीं बिछा होता, सेनाएँ बाहर आमने-सामने नहीं खड़ी होतीं, सेनाएँ भीतर ही खड़ी हैं। एक तरफ़ कृष्ण हैं, एक तरफ़ कौरव हैं। हम सब के भी भीतर कृष्ण भी हैं, कौरव भी हैं।
मुक्ति की आकाँक्षा का नाम है कृष्ण, मुक्त स्वभाव का नाम है कृष्ण। और तमाम तरह की वृत्तियों, आग्रहों, विकारों, धारणाओं का नाम है कौरव, वो अधर्म है।
तो कौन सा युद्ध लड़ना है तुम्हें? अपने बँधनों के खिलाफ़ लड़ना है तुम्हें। उसी में अगर लड़ गईं तो भाग्यशाली कहलाओगी।
सबका जीवन अलग-अलग है, सबके बँधन अलग-अलग हैं। अपने बँधनों को पहचानो और उठा लो धनुष। तुम्हें भी धनुष उठाने में ठीक वही अड़चन आएगी जो अर्जुन को आई थी। मोह हाथ जकड़ लेगा, क्योंकि जिनसे संघर्ष करना है, उनको हमने 'अपनों' का नाम दे दिया है।
दूसरे अध्याय की शुरुआत में ही अर्जुन कहता है कि “कौन सा ये युद्ध है जिसमें भीष्म और द्रोण पर मुझे बाण चलने पड़ेंगे?” यही अड़चन अपने बंधनों के खिलाफ़ जाने में तुम्हें भी आएगी; सबको आती है।
कृष्ण का सानिध्य चाहिए, मिल गया तो लड़ जाओगी। लड़ गईं तो भाग्यशालिनी हो। नहीं लड़ीं, जो अर्जुन के मंसूबे थे, तुमने उस पर अमल ही कर दिया, हथियार रख दिए, भाग गईं, संधि, समझौता कर लिया, तो सौभाग्य से हाथ धो बैठोगी।
अर्जुन के लिए तो फ़िर भी आसान है। सेनाएँ स्थूल रूप से समक्ष खड़ी हैं। हमारे लिए थोड़ा मुश्किल होता है क्योंकि इतना साफ़-साफ़ दिखाई नहीं देता कि कौन सा मैदान है, कौन सी सेना है, कौन किसके पक्ष में है। युद्ध आंतरिक है न, भीतर है, सूक्ष्म है, तो पता नहीं चलता। पर पता करना ज़रूरी है। साफ़-साफ़ पता करो कि जीवन में कौन सी चीज़ है जो बाँध रही है, रोक रही है। जो कुछ भी बाँध रहा है, रोक रहा है, उसके खिलाफ़ जूझना तो पड़ेगा।
एक सूत्र दिए देता हूँ: जो कुछ भी तुम्हें बाँध रहा है, रोक रहा है, अगर तुमने उसकी सही पहचान करी है, तो वो तुम्हारे बहुत निकट का होगा—लड़ाई अपने ही विरुद्ध लड़नी होती है।
ऐसा नहीं होता है कि तुम लड़ भी जाओगी और बच भी जाओगी। मामला कुछ ऐसा है जैसे ख़ुद पर ही तीर चलाने पड़ते हों। अपना ही कुछ होता है जो हमारे खिलाफ़ होता है—हम ही होते हैं जो हमारे बँधन होते हैं। ख़ुद को ही काटना पड़ता है। अगर तुम्हारी लड़ाई में तुम स्वयं को नहीं काट रहीं, तुम नहीं मिट रहीं, तो लड़ाई नकली है। अभी दुश्मन की पहचान ही नहीं हुई—असली लड़ाई ख़ुद के खिलाफ़ ही लड़नी होगी।
सामने होंगे भीष्म और द्रोण, मोह तो अर्जुन का ही है न? तो अर्जुन को सर्वप्रथम किससे लड़ना है? अपने ही मोह से, अपने ही भ्रम और अज्ञान से।
प्र२: भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से क्षत्रिय धर्म और स्वर्ग की बात कर रहे हैं। ये कौन सा क्षत्रिय धर्म है? कहा जाता है कि जब जवान लड़ाई में शहीद होता है तो उसे स्वर्ग की प्राप्ति होगी। कुछ ऐसी ही बात भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से भी कह रहे हैं। कृपया स्पष्ट करें।
आचार्य: बिलकुल वही बात कह रहे हैं क्योंकि अर्जुन उसी तल की बात समझ पाने की योग्यता दिखा रहा है। ठीक पकड़ा। ये सारी बात सिर्फ़ अर्जुन को प्रोत्साहित करने के लिए कही जा रही है, क्षत्रिय धर्म से सम्बंधित जितनी भी बात कही गई है, क्षत्रिय धर्म का पालन करो, स्वर्ग की प्राप्ति होगी इत्यादि, इत्यादि। इस तरह की बहुत बातें तुम सुन चुके हो, सुनते रहते हो। ये योद्धाओं को प्रोत्साहित करने के लिए अक्सर बोली जाती हैं। जीत गए तो राज्य मिलेगा और प्रतिष्ठा मिलेगी और मर गए तो स्वर्ग मिलेगा—तो लड़ जाओ।
निश्चित ही ये बहुत ऊँचा या सच्चा तर्क नहीं है पर करें क्या कृष्ण? अर्जुन ना ऊँचाई दिखा रहा है, ना सच्चाई दिखा रहा है, तो ऊँचा और सच्चा तर्क उसे दें भी कैसे? तो ऐसी बात करनी पड़ रही है।