असली आज़ादी है आत्मा || युवाओं के संग (2015)

Acharya Prashant

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असली आज़ादी है आत्मा || युवाओं के संग (2015)

प्रश्नकर्ता: सर बात जब ‘*फ्रीडम*’ (आज़ादी) की आती है तो काफ़ी लोग इसको ‘वेस्टर्न कल्चर * ’ (पाश्चात्य संस्कृति) से * लिंक (जोड़ना) करते हैं। जैसे वहाँ सब करते हैं वैसा करते हैं तो ठीक है एंड और भी बहुत कुछ है।

आचार्य प्रशांत: जैसे कि?

प्र: सर ‘*होमो सेक्शुआलिटी*’ (समलैंगिकता) जैसी चीज़ें।

आचार्य: देखो बिलकुल ज़मीन से बात शुरू करो तो कौन आता है कहने कि तुम्हारे हक़ की कोई सीमा है? जब तुम कहते हो कि 'यह मेरे अधिकार हैं, ह्यूमन राइट्स , मानवाधिकार', तो कौन आता है कहने कि तुम्हारे यह अधिकार हैं और यह नहीं? जब भी कहा जाए कि यह तुम्हारे अधिकार हैं तो निश्चित रूप से अधिकारों पर सीमा लगाई जा रही है कि इतना तुम्हारा अधिकार है और इतना नहीं।

कौन आता है वह सीमा लगाने? पेड़ आते हैं? आसमान आता है? धरती आती है? नदी आती है? सागर आते हैं? अस्तित्व में कौन है जो तुम्हारे अधिकारों में सीमा लगाने आता है? कौन आता है? दूसरे लोग आते हैं न, दूसरे लोग हैं जो आकर के कहते हैं कि 'तुम इस सीमा तक जाओगे और इसके आगे नहीं जाओगे।'

यह हुई पहली बात कि तुम्हारे अधिकारों पर अस्तित्व कभी सीमा नहीं लगाता है। इंसान-ही-इंसान को बाँधने की कोशिश करता है।

दूसरी बात इंसान भी इंसान को बाँधेगा तो इंसान को किस तल पर बाँधेगा?

तीन तलों पर हम होते हैं;

१. शरीर

२. मन

३. आत्मा

आत्मा परम स्वतंत्र है, बाँधी जा नहीं सकती। मन को बाँधने की कोशिश की जा सकती है लेकिन वह छूठ-छठ कर भागता है। शरीर को और शरीर-गत आचरण को पूरी तरह बाँधा जा सकता है। एक सीमा रेखा बनाई जा सकती है कि इस सीमा के आगे मत जाना, वहाँ से दूसरा देश शुरू होता है और तुम्हारा शरीर उस सीमा को पार कर के उस देश में प्रवेश नहीं करेगा।

शरीर भर है जिसे पूरी तरह बाँधा जा सकता है। मन पर सीमा लगाने की कोशिश की जा सकती है, पर वह बहुत सफल होगी नहीं और आत्मा पर तो वह कोशिश भी नहीं की जा सकती। तो इंसान है जो बाँधने की कोशिश करता है और वह भी उसी हद तक जिस हद तक तुम्हारा आचरण है। अब एक इंसान दूसरे इंसान के आचरण को बाँधने की कोशिश कर रहा है, कुल मिला कर बात यह निकली।

मैं तुम्हारे आचरण को बाँधने की कोशिश करूँ और मेरे जैसे कई लोग मिल कर तुम्हारे आचरण को बाँधने की कोशिश करें और तुम्हारे अपने ही आचरण को, तो इससे यह ही पता चलता है कि दुनिया के बारे में हमारी धारणा क्या है। दूसरे के लिए हम जो सीमाएँ बनाते हैं, ध्यान देना वह सीमा बहुदा हम अपने लिए भी बना लेते हैं। हम कहते हैं 'समाज में सबका ऐसा व्यवहार होना चाहिए, यह कर्तव्य होने चाहिए, यह अधिकार होने चाहिए, यह वर्जनाएँ होनी चाहिए, यह अपेक्षाएँ होनी चाहिए।'

अपने को जैसा जानोगे, उतनी ही तुम छूट दे लोगे। जैसा अपने को जान रहे हो वैसा तुम दूसरों को जान रहे हो। क्या अर्थ है इस बात का? हमने कहा हम तीन तलों पर होते हैं; शरीर, मन और आत्मा। जो अपने को शरीर जानेगा वह खूब सीमाएँ बाँधने की कोशिश करेगा क्योंकि शरीर तो होता ही सीमित है। तो जिन समाजों में तुम देखो कि खूब वर्जनाएँ हैं कि यह करो, यह ना करो; यह समझ लो कि वह घोर रूप से भौतिक वादी समाज है, ‘*मेटेरियालिस्ट*’।

उन्होंने शरीर से ज़्यादा कुछ जाना नहीं है अपने-आप को, इसलिए वह शरीर पर ही पाबंदी लगाए फिरते हैं। शरीर पर ही पाबंदी लगाते हैं और शरीर को ही हक़ देते हैं – यह खाना है, यह नहीं खाना है, यह पहनना है, यह नहीं पहनना है, यहाँ जाना है, यहाँ नहीं जाना है। तो उनके लिए ‘*फ्रीडम*’ का मतलब बस इतना ही होगा - ‘*फ्रीडम टू ईट, फ्रीडम टू ट्रैवल*’ (खाने की आज़ादी, घूमने की आज़ादी)।

फिर थोड़ा उनसे हट कर समाज होंगे जो अपने-आप को मन के तल पर ज़्यादा देखते हैं। वहाँ पर ‘*फ्रीडम*’ शब्द का अर्थ बदल जाएगा। ‘*फ्रीडम टू थिंक*’ (सोचने की आज़ादी) बड़ी ज़रूरी हो जाएगी, विचार की स्वतंत्रता, मुक्त उचरणा। तो कहेंगे, 'शरीर ही नहीं विचार भी मुक्त होना चाहिए', और तब वह कहेंगे कि, 'मुझे पूरी छूट होनी चाहिए कि मैं जो चाहूँ वह करूँ!'

और फिर तीसरा समाज भी हो सकता है जो आध्यात्मिक रूप से इतना उन्नत और परिपक्व हो कि वह जो पूरे जगत में जो सार्वभौम आत्मा है उसको देख पाता हो। उसके लिए आज़ादी का अर्थ एक तीसरा ही होगा। वह इस बात से बहुत साहूकार रखेगा ही नहीं कि तुम क्या खा रहे हो, क्या पहन रहे हो, कहाँ जाते हो, कहाँ नहीं जाते हो, क्या सोचते हो, क्या नहीं सोचते हो।

उस समाज के लिए आज़ादी का अर्थ होगा कि क्या तुमने अपने उस मुक्त केंद्र को पाया है सिर्फ जहाँ पर आज़ादी संभव है, क्योंकि उसके अलावा और कोई आज़ाद होता नहीं। असली आज़ादी तो यही है कि तुम अपने स्रोत को हासिल कर लो। वही मुक्त है अकेला।

समझ रहे हो?

अभी मैं तुमसे एक बात कहता हूँ। तुम जिस तल के हो, तुम उसी तल की आज़ादी की माँग करोगे। अगर तुमने अपने-आप को शरीर समझा है तो तुम्हारे लिए आज़ादी का सिर्फ यह अर्थ होगा कि 'मेरा मन कर रहा है आज मीठा खाने का तो मुझे मीठा खाने की अनुमति होनी चाहिए। यह मेरा शरीर है तो कोई इसे ग़ुलाम ना बनाए, मुझे स्वतंत्रता होनी चाहिए कि कब खाऊँगा, कब नहीं खाऊँगा, किस के साथ प्रेम सम्बन्ध बनाऊँगा, कहाँ बैठूँगा, कहाँ उठूँगा, कोई मेरे शारीरिक परिवेश में मेरी अनुमति के बिना प्रवेश ना करे'। तुम्हारी स्वतंत्रता की बस इतनी सी क़ीमत होंगी ‘*डोंट टच मी*’ (मुझे छूना नहीं) और कोई तुम्हें छू देगा तो तुम्हें लगेगा कि 'यह मेरी आज़ादी का खलन है'। खलन है भी पर कुछ लोगों के लिए आज़ादी का बस इतना ही मतलब होता है – शरीर, शारीरिक आज़ादी।

और अगर तुम मन के तल पर हो तो तुम्हारे लिए आज़ादी का थोड़ा व्यापक, लेकिन फिर भी सीमित अर्थ रहेगा। तुम कहोगे – मैं जो सोचता हूँ मुझे उसके अनुसार ज़िन्दगी जीने का हक़ होना चाहिए, फिर तुम कहोगे, 'ऐसे मेरे विचार हैं और मैं अपने विचारों पर चलूँगा' और फिर तुम बुद्धिजीवी कहलाओगे। सारे बुद्धिजीवी वही हैं जो विचार के तल पर जीते हैं और इनके लिए आज़ादी का अर्थ होता है कि 'जैसे हमारे विचार हैं हम उसके अनुरूप जीएँ। कोई हम पर कोई बंदिश ना लगाए', पर यह इस बात को समझते नहीं हैं कि विचार सदा बाहर से आता है, तुम्हारा अपना कोई विचार होता नहीं।

तो जब भी तुम कहते हो कि 'हम अपने विचारों के हिसाब से ज़िन्दगी जीना चाहते हैं', वास्तव में तुम अपने विचारों के साथ जी ही नहीं रहे हो क्योंकि तुम्हारा अपना कोई विचार है नहीं। यह बातें तुम्हें बड़ी अपमानजनक लगेंगी कि उनका अपना कोई विचार है नहीं क्योंकि इसी बात पर उनका अहम् ज़िन्दा है – “हम तो बड़े विचारवान लोग हैं, *वी थिंक वी आर इंटेलेक्चुअल*”। तो कहेंगे, "हम सोचते हैं", तुम्हारे ‘*राईट टू थिंक*’ और ‘*राईट टू एक्सप्रेस*’ बड़े ज़रूरी हैं। तुम वहाँ पर भी अटक मत जाना। तुम्हारी सोच का कोई महत्व नहीं है। कम-से-कम जो अति महत्वपूर्ण है उसके समकक्ष तो बिलकुल भी नहीं है।

तुम अपने केंद्र तक पहुँचना, जहाँ ध्यान है, वहाँ असली आज़ादी है। असली आज़ादी वहाँ है और वह आज़ादी ना विचार की आज़ादी है, ना शरीर की आज़ादी है। वह आज़ादी यह भी नहीं है कि 'मैं जैसा चाहूँगा, सोचूँगा' और वह आज़ादी यह भी नहीं है कि 'मैं जो चाहूँगा वह खाऊँगा'। वह आज़ादी कुछ और ही है।

वह आज़ादी है, वह सब कुछ जो क़ैद कर सकता था और क़ैद हो सकता है, उससे ज़रा अलग खड़े होने की आज़ादी। शरीर सदा सीमित है, तुम ऐसे बिंदु पर बैठे हो जहाँ तुम शरीर की सारी सीमाओं को देख रहे हो। हाँ शरीर सीमित है, शरीर को भूख लग रही है, शरीर को प्यास लग रही है, शरीर परेशान है या शरीर उत्तेजित हो रहा है और तुम ज़रा शरीर से हट कर के हो। यह आज़ादी है शरीर से, अब तुम शरीर से आज़ाद हो।

और तुम मन से भी आज़ाद हो कि मन में तरंगें उठ रही हैं, मन में विचार उठ रहे हैं, मन में चिन्ताएँ उठ रही हैं, दुनिया से सुरक्षा, कामनाएँ उठ रही हैं, तमाम तरह की योजनाएँ उठ रही हैं और तुम देख रहे हो कि मन में यह सब हो रहा है और यह सब देखते हुए भी तुम इस सब से ज़रा अछूते हो। यह हो गयी मन से आज़ादी, अब तुम मन से भी आज़ाद हो। यह वास्तविक आज़ादी है। इसको जानने वालों ने 'साक्षित्व' का नाम दिया है। साक्षित्व ‘*विटनेसिंग*’, यह असली आज़ादी होती है। समझ में आ रही है बात?

अपनी मर्ज़ी के कपड़े पहन लेने को आज़ादी मत समझ लेना। अपनी पसंद की नौकरी कर लेने को आज़ादी मत समझ लेना। देखता हूँ तुम लोगों के फेसबुक और व्हाट्सप्प स्टेटस जिसमें लिखा होगा ‘*माय लाइफ़, माय रूल्स*’, तुम इसको आज़ादी समझते हो, है न? ‘*माय लाइफ, माय रूल्स*’, हाँ यह अलग बात है जिन्होंने लिख रखा होता है ‘*माय लाइफ माय रूल्स*’ उनसे कह दो 'ज़रा आ जाओ बोध सत्र में' तो जवाब आता है ‘वह पापा मना कर रहे हैं’ (व्यंग के रूप में ) ‘*माय लाइफ, माय रूल्स*’। हाँ, आज़ाद तुम इतने हो कि ‘*रूल्स*’ में इ और एस नहीं ज़ेड, ज़ेड, ज़ेड, ज़ेड रहता है। ‘*माय रूल्ज़*’, ‘आर’ ‘यु’ ‘ज़ेड’ ‘ज़ेड’ ‘ज़ेड’। यह तुम्हारी आज़ादी है और यह आज़ादी की परिभाषा है तुम्हारे लिए।

'घरवाले बड़ा परेशान करते हैं', क्यों? 'छोटे कपड़े नहीं पहनने देते।' 'हम तो ‘नॉएडा’ के किसी ‘कॉलेज’ में पढेंगे', क्यों? 'वहाँ ज़रा आज़ादी रहती है, फ्रीडम रहती है'। मैं नहीं कह रहा कि घरवाले जो कर रहे हैं वह सही कर रहे हैं लेकिन तुमने भी जो आज़ादी का अर्थ लगाया है, बड़ा छिछोरा अर्थ लगाया है कि, "आज़ादी का अर्थ यह है कि हम उपद्रव करेंगे! आज़ादी का अर्थ यह है कि मैं अपनी पसंद का पिज़्ज़ा आर्डर कर सकता हूँ", कि, "आज़ादी का मतलब यह है कि मैं बारह बजे तक सो सकता हूँ", कि, "आज़ादी का मतलब यह है कि मेरा मन नहीं करेगे तो मैं क्लास बंक कर दूँगा।"

यह कौनसी आज़ादी है? अच्छे से जानते हो तुम कि यह सारे काम जो तुम करते हो दूसरों के प्रभाव में करते हो। करते हो कि नहीं? ज़बान और विज्ञापन के प्रभाव में तुम पिज़्ज़ा खरीदते हो। ज़बान का चटोरापन और विज्ञापन का न्योता यह दोनों मिल कर के तुमसे पिज़्ज़ा खरीदवाते हैं। तो यह तुम्हारी आज़ादी है या तुमने प्रभावित हो कर के पिज़्ज़ा ख़रीदा है? इसमें आज़ादी कहाँ है? पर तुम कहते हो, ‘नहीं नहीं, जो मेरा मन करे मुझे खाने की आज़ादी होनी चाहिए।’

असली आज़ादी है, मैं दोहरा रहा हूँ, शरीर की सारी प्रक्रियाओं को और मन के सारे प्रवाह को अनुभव करते हुए भी उससे अछूता रहना। हाँ, यह सब है, बिलकुल है। हमने इसे दबा नहीं दिया है, लेकिन यह हम पर असर नहीं डाल रहा है। यह सब कुछ चल रहा है लेकिन हम पर असर नहीं डाल रहा है, यह हम पर हावी नहीं हो गया है। यह होती है असली आज़ादी। इसी को हमने नाम दिया है 'आत्मा'। इस असली आज़ादी का नाम है 'आत्मा'।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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